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डी पी कर्मकांड भाग १० - आचार्यादि वरणम् Aacharyadi varanam
डी पी कर्मकांड भाग १० आचार्यादि वरणम् - इस भाग मे आप क्रमशः पढ़ेंगे कि- पुजा-पाठ,यज्ञ-हवन,विशेष कर्मानुष्ठान करने के लिए यजमान सर्वप्रथम आचार्य का वरण करे तत्पश्चात् ब्राह्मण वरण और फिर ऋत्विक ब्राह्मण का वरण करें । आचार्यवरण के लिए यजमान आचार्य को आसन पर पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख बैठाकर गन्धाक्षतपुष्प, जनेऊ, द्रव्य दक्षिणा आदि से पूजन व संकल्प कर आचार्य के हाथ देवें। इसी प्रकार ब्राह्मणवरण और ऋत्विक् वरण करें।
आचार्यवरणम्
सर्वप्रथम यजमान हाथ में जल लेकर
'ॐ बृहस्पते इत्यस्य मन्त्रस्य गृत्समद ऋषिः, त्रिष्टुप्छन्दः, बृहस्पतिर्देवता आचार्यादिवरणे विनियोगः।
ॐ बृहस्पतेऽअतियदर्योऽर्हाद्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु ।
यद्दीदयच्छवस ऋतप्रजाततदस्मासुद्रविणं देहि चित्रम् ।। जल धरती पर छोड़े।
'अस्मिन कर्मणि (अमुक) गोत्रवन्तं (अमुक) शर्माणं ब्राह्मणंएभिर्गन्धाक्षतपुष्प ताम्बूलमुद्रावासोभिः आचार्यत्वेन त्वामहं वृणे।' – यहाँ अमुक के स्थान पर आचार्य का गोत्र व नाम बोलें। इतना कह कर अक्षत आदि आचार्य के हाथ दे।
अब आचार्य कहें - 'ॐ वृतोऽस्मि ।
यजमान कहें -ॐ व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम् । दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते'।
पुनः हाथ जोड़कर आचार्य से प्रार्थना करें –
आचार्यस्तु यथा स्वर्गे शक्रादीनां बृहस्पतिः।
तथा त्वं मम यज्ञेऽस्मिन् आचार्यो भव सुव्रत ।। चन्दनाक्षतपुष्पादि से आचार्य की पूजा करें।
अब यज्ञ के लिये ब्रह्मा का वरण करें।
डी पी कर्मकांड भाग १० - आचार्यादिवरणम् Aacharyadi varanam
ब्रह्मवरणम्
यजमान हाथ में जल लेकर
'ॐ ब्रह्मणा ते इत्यस्य मन्त्रस्य विश्वामित्रो ऋषिः, त्रिष्टुप्छन्दः, ब्रह्मा देवता, ब्रह्मवरणे विनियोगः । जल धरती पर छोड़े।
पुनः यजमान हाथ में गन्धाक्षत,पुष्प,ताम्बूल, जनेऊ, वस्त्र, द्रव्यदक्षिणा लेकर संकल्प कर (कि मैं अमुक ब्राह्मण को अमुक कर्म के लिए अपना ब्रह्मा के रूप में वरण करता हूँ) निवेदन करें -
'अस्मिन कर्मणि (अमुक) गोत्रवन्तं (अमुक) शर्माणं ब्राह्मणं एभिर्गन्धाक्षतपुष्पताम्बूलमुद्रा वासोभिः ब्रह्मत्वेन त्वामहं वृणे।' इतना कह कर अक्षत आदि ब्राह्मण के हाथ दे।
ब्राह्मण कहें - 'ॐ वृतोऽस्मि ।
यजमान कहें -ॐ व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम। दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते'।
हाथ जोड़कर ब्राह्मण से प्रार्थना करें –
ॐ ब्रह्मणा ते ब्रह्मयुजा युनज्मि हरी सखिया सधमाद आशु ।
स्थिरं रथं सुखमिन्द्राधितिष्ठन् प्रजानन् विद्वानुपयाहि सोमम् ।।
यथा चतुर्मुखो ब्रह्मा स्वर्गलोके पितामहः ।
तथा त्वं मम यज्ञेऽस्मिन्ब्रह्मा भव द्विजपते ।।' चन्दनाक्षतपुष्पादि से ब्राह्मण की पूजा करें ।
अब यज्ञ के लिये ऋत्विजों का वरण करें।
डी पी कर्मकांड भाग १० - आचार्यादिवरणम् Aacharyadi varanam
ऋत्विग्वरणम्
अब सामर्थ्य व आवश्यकता के अनुसार ( ५,७ अथवा ११) जितने ब्राह्मणों को वरण करना है उन्हें उत्तराभिमुख बिठाकर उनके समक्ष यजमान हाथ में गन्धाक्षत,पुष्प,ताम्बूल, जनेऊ, वस्त्र, द्रव्यदक्षिणा लेकर संकल्प कर (कि मैं अमुक ब्राह्मण को अमुक कर्म के लिए अपना ऋत्विजों के रूप में वरण करता हूँ) निवेदन करें -
'अस्मिन कर्मणि (अमुक) गोत्रवन्तं (अमुक) शर्माणं ब्राह्मणं एभिर्गन्धाक्षत पुष्पताम्बूलमुद्रावासोभिः ऋत्विक्त्वेन त्वामहं वृणे।' इतना कह कर अक्षत आदि ऋत्विज ब्राह्मणो के हाथ दे।
ऋत्विज कहें - 'ॐ वृताः स्म ।
यजमान कहें - ॐ व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्। दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते'।
यजमान हाथ जोड़कर ऋत्विज ब्राह्मणो से प्रार्थना करें –
'ॐ ऋत्विज्यथापूर्व शक्रादीनां मखे भवेत् ।
यूयं तथा मे भवत ऋत्विजोऽर्हथ सत्तमाः।।
अस्य यागस्य निष्पत्तौ भवन्तोऽभ्यर्थिता मया ।
सुप्रसन्नैश्च कर्तव्यं कर्म मे विधिपूर्वकम् ।।' चन्दनाक्षतपुष्पादि से ऋत्विजों की पूजा करें।
मधुपर्क पूजा प्रयोगः -
यदि समयाभाव न हो तो यजुर्वेदीय गृह्यसूत्र के अनुसार मधुपर्क से वरण किये गये समस्त ऋत्विजों व ब्राह्मण की पूजा करें । (यदि वरण किये गये ब्राह्मण अलग-अलग वेदी हो तो उनकी मधुपर्क पूजा उस-उस वेद के गृह्यसूत्र के अनुसार ही करें)। समस्त ब्राह्मणों को एक पंक्ति में पूर्वाभिमुख बिठायें और स्वयं यजमान उत्तराभिमुख बैठे।
यजमान आचमन कर हाथ जोड़कर प्रत्येक ब्राह्मण से प्रार्थना करें -
'ॐ साधु भवानास्तामर्चयिष्यामो भवन्तम्'।
ब्राह्मण कहे - 'ॐ अर्चय'।
अब आगे विष्टर से लेकर गोदान तक की विधि के लिए मेरी पुस्तक ‘‘छत्तीसगढ़ विवाह पद्धति” का अवलोकन करें। या मेरी आने वाली ब्लॉग पोस्ट ‘‘विवाह पद्धति” के वर पूजन से करें।
प्रार्थना
यजमान सभी ब्राह्मणों के समक्ष हाथ जोड़कर प्रार्थना करे –
'ब्राह्मणाः सन्तु मे शस्ताः पापात्पान्तु समाहिताः। वेदानां चैव दातारस्त्रातारः सर्वदेहिनाम् ।।
जपयज्ञैस्तथा होमैर्दानैश्च विविधैः पुनः । देवानांच पितॄणांच तृप्त्यर्थ याजकाः स्मृताः॥
येषां देहे स्थिता वेदाः पावयन्ति जगत्त्रयम् । रक्षन्तु सततं तेषां जपयज्ञं व्यवस्थिताः॥
ब्राह्मणा जंगमं तीर्थ त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् । येषां वाक्योदकेनैव शुद्धयन्ति मलिना जनाः॥
पावनाः सर्ववर्णानां ब्राह्मणा ब्रह्मरूपिणः। सर्वकर्मरता नित्यं वेदशास्त्रार्थकोविदाः॥
श्रोत्रियाः सत्यवाचश्च देवध्यानरताः सदा । यद्वाक्यामृतसंसिक्ता ऋद्धिं यान्ति नरदुमाः॥
अंगीकुर्वन्तु कमैतत्कल्पद्रुमसमाशिषः। यथोक्तनियमैर्युक्ता मन्त्रार्थे स्थिरबुद्धयः॥
यत्कपालोचनात्सर्वा ऋद्धयो वृद्धिमाप्नुयुः। अक्रोधनाः शौचपराः सततं ब्रह्मचारिणः ॥
देवध्यानरता नित्यं प्रसन्नमनसः सदा । अदुष्टभाषणा नित्यं मा सन्तु परनिन्दकाः॥
ममापि नियमा ह्येते भवन्तु भवतामपि ॥
मन्त्रमूर्तिर्भवान्नाथ संसारोच्छेदकारक । सांगं कर्म यथा मे स्यात्तथा कुरु हि भूसुर ॥
संसारभयभीतेन अयं यज्ञः सुभक्तितः। प्रारब्धस्त्वत्प्रसादेन निर्विघ्नं मे भवत्विति ॥
अस्य यागस्य निष्पत्तौ भवन्तोऽभ्यर्थिता मया । सुप्रसादेन कर्तव्यं शान्तिकं विधिपूर्वकम् ॥
ब्राह्मण कहे- यथाज्ञानम् करवाणि॥
इति: डी पी कर्मकांड भाग १० - आचार्यादि वरणम् Aacharyadi varanam
शेष जारी .......पढ़े डी पी कर्मकांड भाग-११
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