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कर्मकाण्ड

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पृथ्वीस्तोत्र

पृथ्वीस्तोत्र

पृथ्वीस्तोत्रम् - यह स्तोत्र परम पवित्र है। जो पुरुष पृथ्वी का पूजन करके इसका पाठ करता है, उसे अनेक जन्मों तक भूपाल-सम्राट(धनवान) होने का सौभाग्य प्राप्त होता है। इसे पढ़ने से मनुष्य पृथ्वी के दान से उत्पन्न पुण्य के अधिकारी बन जाते हैं। पृथ्वी-दान के अपहरण से, दूसरे के कुएँ को बिना उसकी आज्ञा लिये खोदने से, अम्बुवाची योग(सौरमान से आर्द्रा नक्षत्र के प्रथम चरण में पृथ्वी ऋतुमति रहती है इतने समय का नाम अम्बुवाची है) में पृथ्वी को खोदने से और दूसरे की भूमि का अपहरण करने से जो पाप होते हैं, उन पापों से इस स्तोत्र का पाठ करने पर मनुष्य छुटकारा पा जाता है, पृथ्वी पर वीर्य त्यागने तथा दीपक रखने से जो पाप होता है, उससे भी पुरुष इस स्तोत्र का पाठ करने से मुक्त हो जाता है।

गृहारम्भ(भूमि पूजन), गृहप्रवेश,वापी, कुआँ, प्रसाद, कृषि कर्म आदि निर्माण के अवसर पर ऊँ ह्रीं श्रीं वसुधायै स्वाहामन्त्र से पृथ्वी की पूजन कर पृथ्वी देवी का इस प्रकार ध्यान करें

श्वेतचम्पकवर्णाभां शतचन्द्रसमप्रभाम् ।

चन्दनोक्षितसर्वाङ्गीं सर्वभूषणभूषिताम् ।।

रत्नाधारां रत्नगर्भां रत्नाकरसमन्विताम् ।

वह्निशुद्धांशुकाधानां सस्मितां वन्दितां भजे ।।

पृथ्वी देवी के श्रीविग्रह का वर्ण स्वच्छ कमल से समान उज्ज्वल है। मुख ऐसा जान पड़ता है, मानो शरत्पूर्णिमा का चन्द्रमा हो। सम्पूर्ण अंगों में ये चन्दन लगाये रहती हैं। रत्नमय अलंकारों से इनकी अनुपम शोभा होती है। ये समस्त रत्नों की आधारभूता और रत्नगर्भा हैं। रत्नों की खानें इनको गौरवान्वित किये हुए हैं। ये विशुद्ध चिन्मय वस्त्र धारण किये रहती हैं। इनके मुख पर मुस्कान छायी रहती है। सभी लोग इनकी वन्दना करते हैं। ऐसी भगवती पृथ्वी की मैं आराधना करता हूँ।

इस प्रकार ध्यान कर कण्वशाखा में प्रतिपादित पृथ्वीस्तोत्रम् का पाठ करें। 

पृथ्वीस्तोत्रम्

पृथ्वी स्तोत्रम्

विष्णुरुवाच -

यज्ञसूकरजाया त्वं जयं देहि जयावहे ।

जयेऽजये जयाधारे जयशीले जयप्रदे ॥ १॥

सर्वाधारे सर्वबीजे सर्वशक्तिसमन्विते ।

सर्वकामप्रदे देवि सर्वेष्टं देहि मे भवे ॥ २॥

सर्वशस्यालये सर्वशस्याढ्ये सर्वशस्यदे ।

सर्वशस्यहरे काले सर्वशस्यात्मिके भवे ॥ ३॥

मङ्गले मङ्गलाधारे मङ्गल्ये मङ्गलप्रदे ।

मङ्गलार्थे मङ्गलेशे मङ्गलं देहि मे भवे ॥ ४॥

भूमे भूमिपसर्वस्वे भूमिपालपरायणे ।

भूमिपाहङ्काररूपे भूमिं देहि च भूमिदे ॥ ५॥

इदं स्तोत्रं महापुण्यं तां सम्पूज्य च यः पठेत् ।

कोटिकोटि जन्मजन्म स भवेद् भूमिपेश्वरः ॥ ६॥

भूमिदानकृतं पुण्यं लभते पठनाज्जनः ।

भूमिदानहरात्पापान्मुच्यते नात्र संशयः ॥ ७॥

भूमौ वीर्यत्यागपापाद् भूमौ दीपादिस्थापनात् ।

पापेन मुच्यते प्राज्ञः स्तोत्रस्य पाठनान्मुने ।

अश्वमेधशतं पुण्यं लभते नात्र संशयः ॥ ८॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे विष्णुकृतं पृथ्वीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

पृथ्वी स्तोत्रम् अर्थ सहित

विष्णुरुवाच -

यज्ञसूकरजाया त्वं जयं देहि जयावहे ।

जयेऽजये जयाधारे जयशीले जयप्रदे ॥ १॥

भगवान् विष्णु बोले – विजय की प्राप्ति करानेवाली वसुधे ! मुझे विजय दो । तुम भगवान् यज्ञवराह की पत्नी हो । जये! तुम्हारी कभी पराजय नहीं होती है । तुम विजय का आधार, विजयशील और विजयदायिनी हो।

सर्वाधारे सर्वबीजे सर्वशक्तिसमन्विते ।

सर्वकामप्रदे देवि सर्वेष्टं देहि मे भवे ॥ २॥

देवि! तुम्हीं सबकी आधारभूमि हो । सर्वबीजस्वरूपिणी तथा सम्पूर्ण शक्तियों से सम्पन्न हो । समस्त कामनाओं को देनेवाली देवि!  तुम इस संसार मे मुझे सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तु प्रदान करो ।

सर्वशस्यालये सर्वशस्याढ्ये सर्वशस्यदे ।

सर्वशस्यहरे काले सर्वशस्यात्मिके भवे ॥ ३॥

तुम सब प्रकार के शस्यों का घर हो । सब तरह के शस्यों से सम्पन्न हो । सभी शस्यों को देनेवाली हो तथा समयविशेष में समस्त शस्यों का अपहरण भी कर लेती हो । इस संसार में तुम सर्वशस्यस्वरूपिणी हो ।

मङ्गले मङ्गलाधारे मङ्गल्ये मङ्गलप्रदे ।

मङ्गलार्थे मङ्गलेशे मङ्गलं देहि मे भवे ॥ ४॥

मङ्गलमयी देवि! तुम मंगल का आधार हो । मङ्गल के योग्य हो । मङ्गलदायिनी हो । मङ्गलमय पदार्थ तुम्हारे स्वरूप हैं । मंगलेश्वरि !  तुम जगत में मुझे मङ्गल प्रदान करो ।

भूमे भूमिपसर्वस्वे भूमिपालपरायणे ।

भूमिपाहङ्काररूपे भूमिं देहि च भूमिदे ॥ ५॥

भूमे !  तुम भूमिपालों का सर्वस्व हो, भूमिपालपरायण हो तथा भूमिपालों के अहंकार का मूर्तरूप हो । भूमिदायिनी देवि ! मुझे भूमि दो ।

इदं स्तोत्रं महापुण्यं तां सम्पूज्य च यः पठेत् ।

कोटिकोटि जन्मजन्म स भवेद् भूमिपेश्वरः ॥ ६॥

नारद! यह स्तोत्र परम पवित्र है । जो पुरुष पृथ्वी का पूजन करके इसका पाठ करता है, उसे अनेक जन्मों तक भूपाल –सम्राट् होने का  सौभाग्य प्राप्त होता है ।

भूमिदानकृतं पुण्यं लभते पठनाज्जनः ।

भूमिदानहरात्पापान्मुच्यते नात्र संशयः ॥ ७॥

इसे पढने से मनुष्य पृथ्वी के  दान से उत्पन्न पुण्य का अधिकारी बन जाता है । पृथ्वी –दान के अपहरण से जो पाप होता है, इस स्तोत्र का पाठ करने पर मनुष्य उससे छुटकारा पा जाता है,  इसमें संशय नहीं है ।

भूमौ वीर्यत्यागपापाद् भूमौ दीपादिस्थापनात् ।

पापेन मुच्यते प्राज्ञः स्तोत्रस्य पाठनान्मुने ।

अश्वमेधशतं पुण्यं लभते नात्र संशयः ॥ ८॥

मुने ! पृथ्वी पर वीर्य त्यागने तथा दीपक रखने से जो पाप होता है,उससे भी, बुद्धिमान् पुरुष इस स्तोत्र का पाठ करने से मुक्त हो जाता है और सौ अश्वमेधयज्ञों के करने का पुण्यफल प्राप्त करता है, इसमें संशय नहीं है ।

इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे विष्णुकृतं पृथ्वीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के प्रकृतिखण्ड में विष्णुकृत पृथ्वी स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ।

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