इन्द्र सूक्त
यह इन्द्र सूक्त ऋग्वेद के द्वितीय
मण्डल का पन्द्रहवाँ सूक्त है, इसके देवता
इन्द्र तथा ऋषि गृत्समद हैं। छन्द 1, 7 को छोड़कर शेष समस्त
छन्दों में त्रिष्टुप् का प्रयोग किया गया है। एक तथा सात में पंक्ति छन्द है।
प्रस्तुत सूक्त में ऋषि ने कुल दस छन्दों के माध्यम से इन्द्र की स्तुति की है,
जिसमें वैदिक देवता इन्द्र की विभिन्न स्थितियों और कार्यात्मक
विशेषताओं का वर्णन है।
इन्द्र सूक्त- ऋग्वेद, सूक्त-15, मण्डल 2, देवता-इन्द्र, ऋषि-
गृत्समद, छन्द- 1 तथा 7, में पंक्ति, शेष त्रिष्टुप्।
इन्द्र सूक्तम्
प्रधान्वस्य महतो महानि सत्य
सत्यस्य करणानि वोचम् ।
त्रिकट केस्वपिवत् सतस्यास्य मदे
अहिमिन्द्रो जघान ॥1॥
अन्वयः-
सत्यस्य महतः अस्य महानि करणानि न प्रवोचम्। इन्द्र त्रिकद्रुकेषु अस्य अपिवत्,
इन्द्रः अस्य सुतस्य मदे अहिं जघान।
शब्दार्थ:-सत्यस्य-सत्यस्वरूप,
महतः- महान् अस्य-इस इन्द्र के सत्या-सर्वथा स्थिर महानि-महान्
करणानि-कर्मों को नु प्रवोचम्- प्रकृष्ट रूप से कहता हूँ, इन्द्र-इन्द्र
ने, त्रिकद्रुकेषु-तीन पात्रों में,अधिबत्-सोमपान
किया, अस्य-इस, सुतस्य-सोम के, मदे - मद में (अहं में), अहिं-वृत्रासुर को, जघान- मार डाला।
व्याख्या:-
ऋषि गृत्समद इन्द्र की विशेषता प्रकट करते हुए कहते हैं- सत्यस्वरूप इस महान शक्तिशाली
इन्द्र के सर्वथा स्थिर कर्मों को प्रकृष्ट रूप से कहता हूँ। इन्द्र ने तीन
पात्रों में सोम-रस का पान किया। इस सोम-रस के मद में वृत्रासुर का वध किया।
अवंशे धामस्तभायद्ब्रहन्तमा रोदसी
अपृणदन्तरिक्षम् स ।
धारयत्पृथिवीं पप्रथच्च सोमस्य ता
मद इन्द्रश्चकार।।2।।
अन्वय-
धाम् अवंशे अस्तभायत्, बृहन्तं अंतरिक्षं
रोदसी अपृणत् सः पृथिवीम् धरयत् च इन्द्रः सोमस्य मदे ताः चकार।
शब्दार्थ-द्याम-द्युलोक
को,
अवंशे- (बिना कारण) अन्तरिक्ष में, अस्तभायत्-स्थित
किया, बृहनतंबढ़े हुए, अन्तरिक्षं-आकाश
रोदसी-द्यावा पृथिवी को, धारयत् -धारण किया, पप्रथत् च-और उसे विस्तृत किया। इन्द्रः-इन्द्र नें, सोमस्य-सोम के मदे-मद में, ताः-वे सब कर्म, चकार-किया।
व्याख्या-
इन्द्र ने द्युलोक को बिना कारण अन्तरिक्ष में स्थित किया। बढ़े हुए आकाश और
द्यावापृथिवी को धारण किया और उसे विस्तृत किया। इन्द्र ने वे सब कर्म सोम के मद
में किये।
सद्येव प्राचो वि मियाय
मानैर्वज्रेण खान्यतृणन्नदीनाम् ।
वथासृजत्पथिभिदीर्धमाथैः सोमस्य ता
मद इन्द्रश्चकार।।3।।
अन्वय-
मानैः सद् मेव प्राचः विमियाय। वज्रेण नदीनां खानि अतृणत् दीर्धमाथैः पथिभिः वथा
असृजत्। इन्द्र मदेताः चकार।
शब्दार्थ-
मानैः- माप-तौल के अनुसार (नदियों को), सद्देव-
यज्ञ गृह की भाँति, प्राचः पूर्व की ओर, विमियाय- गतिशील बनाया, बज्रेण-बज्र से नदीनां-नदियों
के, खानि- मार्ग को अतृणत् खोदा, दीर्धयाथैः-
दूर तक जाने योग्य, पथिभिः- मार्गो से बृथा- सहज ही ,
असृजत्-बहाया।
व्याख्या-
इन्द्र ने माप-तौल के अनुसार नदियों को यज्ञ-गृह की भाँति पूर्व की ओर गतिशील
बनाया। बज्र से नदियों को मार्ग को खोदा। नदियों को दूर तक जाने योग्य मार्गो से
सहज ही बहाया। इन्द्र ने यह सब कर्म मद में किया।
स प्रवोळहुन् परिगत्या
दभीतेर्विश्वमधागायघमिद्धे अग्नौ।
सं गोभिरश्वैरसृजद्रथेभिः सोमसय ता
मद इन्द्रश्चकार।।4।।
अन्वय-
सः दभीतेः प्रवोळहून् परिगतय विष्वम् आयुधम् इद्धे अग्नौ अधाक्। गोभिः अष्वैः रथैः
समसृजत्,
इन्द्रः सोमस्य मदे ता: चकार।
शब्दार्थ-सः-उस
(इन्द्र) ने, दभीतेः- दभीति के, प्रवोळहून् अपहर्ता असुरों को, परिगत्य-चारो ओर से
घेर कर, विश्वं-समस्त, आयुधम् - अस्त्र-शस्त्रों
को, इद्धे-प्रदीप्त, अग्नौ-अग्नि में,
अधाक्-जलादिया, गोभिः गायों अश्वैः-घोडो,
रथैः-रथों से समसृजत्-संयुक्त किया।
व्याख्या-
इस इन्द्र ने दभीति के अपहर्ता असुरों को चारो ओर से घेर लिया। उनके समस्त
अस्त्रशस्त्रों को प्रदीप्त (प्रज्वलित) अग्नि में जला दिया। उन दभीति नामक
राजर्षि को गायों, घोड़ों और रथों आदि
से संयुक्त किया। यह सब कर्म अर्थात् यह सारा कार्य इन्द्र ने सोम-रस के मद (अहं)
में किया।
स ई महीं धुनिमेतोररम्णात्सौ अस्नात
नृपारयत्स्वस्ति।
त उत्सनाय रयिमभि प्रतस्थुः सोमस्य
ता मद इन्द्रश्चकार ।।5।।
अन्वय-
सः एतोः ईम् महीम् धुनिम् अरम्णात्। सः अस्नातृ न स्वस्ति अपारयत्। ते उत्स्नाय
रयिम् अभि प्रतस्थुः। इन्द्रः सोमस्य मदे ताः चकारः।
शब्दार्थः
इन्द्र ने एतोः ईम् इन (ऋषि) को पार जाने के लिए इस, महीं-महती, धुनि-नदी को, अरम्णात्-स्थिर
किया सः-उन्होने, अस्नातून-पारं जाने में असमर्थ लोगों को
स्वस्ति-सकुशल, अपारयत्-पार कियाते-उन लोगों ने उत्स्नाय-
(उस नदी को) पार कर, रयिं -धन को, अभि-ओर,
प्रतस्थुः- प्रस्थान किया।
व्याख्या-
इन्द्र ने इन ऋषि को पार जाने हेतु महती नही को स्थिर किया पार जाने में असमर्थ
लोगों को सकुशल नदी के पार कर दिया। उन लोगों ने नदी को तैरकर धन की ओर प्रस्थान
किया। यह सब कार्य इन्द्र ने सोम के मद में किया।
सोदञ्चं सिन्धुमरिणान्महित्वा
वज्रेणान उषसः सं पिपेष।
अजवसो जविनीभिर्विवृश्चन्त्सोमस्य
ता मद इन्द्रश्चकार।।6।
अन्वय-
सः महित्वा सिन्धुम् उदञ्चम् अदिणात्। उषस: अनः वज्रेण संपिपेष। जविनीभिः अजवासः
विवृश्चन् इन्द्रः सोमस्य मदे ताः चकार।
शब्दार्थ-सः-
उस इन्द्र ने, महित्वा-(अपने) महान् बल से
सिन्धुं -नदी को, उदञ्चम्- उत्तर की ओर, अरिणात्-बढ़ाया उषसः उषा देवी की, अनः-शकट (गाड़ी)
को, वज्रेण-वज्र के द्वारा, संपिपेष-चूर्ण
कर दिया, अविनीभिः- वेगवती सेनाओं के द्वारा, अजवसः-निर्बल सेनाओं को विवृश्चन्-विशेष प्रकार से नष्ट कर दिया।
व्याख्या-उस
इन्द्र ने अपने महान् बल से नदी को उत्तर की ओर बढ़ाया। उषा देवी के शकट अर्थात्
गाड़ी को अपने वज्र से नष्ट किया । बलयुक्त वेगवती सेनाओं के द्वारा निर्बल सेनाओं
को विशेष प्रकार से नष्ट किया। इन्द्र ने यह सब कर्म सोम-रस के मद में किया।
स विद्धां अपगोहं कनीनामा
विर्भवन्नुदतिष्ठत्परावृक।
प्रति श्रोणः सथाद् व्यनगचष्ट
सोमस्य ता मद इन्द्रष्चकार।।7।।
अन्वय-
सः विद्वान् परावृक, कनीनाम् अपगोहम्
अविर्भवन् उदतिष्ठत् श्रोणः प्रतिस्थात् अनक् व्यचष्ट। इन्द्र सोमस्य मदे ताः
चकार।
शब्दार्थ-
पुरावृक्- पुरावृक् कनीन- सुन्दर कन्याओं के अपगोहम् तिरोहित होने के कारणों के,
अविर्भवन् -प्रत्यक्ष होता हुआ, उदतिष्ठत्
सम्मुख उपस्थित हुआ। श्रोणः पड़गु प्रतिस्थात्-समीप गये, अनक्
नेत्रहीन, व्यचष्ट-स्पष्ट देखने लगे।
व्याख्या-वह
विद्वान् परावृक् ऋषि सुन्दर कन्याओं के तिरोहित होने के कारणों को जानकर पुनः इन्द्र
को कृपा से प्रत्यक्ष होता हुआ उनके सम्मुख उपस्थित हुआ। पड़गु पुरावृक् ऋषि पाँच
प्राप्त करके उनके पास गये, नेत्रहीन ऋषि पूर्ण
तथा स्पष्ट देखने लगा। यह सब कर्म इन्द्र ने सोमरस के मद में किया।
भिनद्वमगिरोभिर्गुणानो विपर्वतस्य
द्वंहितान्यैरत्।
रिणग्रोधासि कृत्रिमाण्येषां सोमस्य
ता मद इन्द्रश्चकार ॥8॥
अन्वय-
अङ्गिरोभिः गृणानः बलं भिन्त्। पर्वतस्य द्वंहितानि विऐरत्। एषाम् कृत्रि माणि
रोधांसि रिणक्। इन्द्रः सोमस्य मदे ताः चकार।
शब्दार्थ-
अगिरोभिः-अगिरा ऋषियों से, गृणानः प्रशंसित
(बलनामक दैत्य को) भिक्त-तोड़ दिया, पर्वतस्य पर्वत के
इंहितानि-सुदृरों को, वि ऐरत्-खोल दिया, एषाम् इन पर्वतों के द्वारा कृत्रिमाणिकृत्रिम रूप से निर्मित, रोधांसि-अवरोधक द्वारा को, रिणक् दूर किया।
व्याख्या-
अंगिरा आदि ऋषियों से प्रशंसित होकर इन्द्र ने बल नामक दैत्य को तोड़ दिया तथा
गायों के अवरोधक पर्वत के सुदृढ़ द्वारों को खोल दिया। इन पर्वतों के द्वारा
कृत्रिम रूप से निर्मित अवरोधक द्वारों को दूर किया। इन्द्र ने यह सब कार्य सोम के
मद में किया।
स्वन्पेनाभ्युप्या चुमुरि धुनिञ्च
जघन्थ दस्युं प्रदभीतिभावः।
रम्भी चिदत्र विविदे हिरण्यं सोमस्य
ता मद इन्द्रश्चकार॥9॥
अन्वय-
(सच्वं) दस्युम् चुमुरिम् धुनिम् च सवन्पेन अभ्युप्य आ जघन्य दभीति प्रभावः।
रम्भीचित् अत्र हिरण्यम् विवेदे। इन्द्र सोमस्य मदे ताः चकार।
शब्दार्थ-
दस्युम-दुष्ट, चुमुरि-चुमुरि, धुनि च और धुनि को स्वन्पेन-दीर्ध निद्रा से, अभ्युप्य-युक्त
करने,आ जघन्थ- मारा डाला, दभीति- दभीति
की, प्रआव-रक्षा की रम्भीचित् दण्डधारी ने, अत्र इस युद्ध में, हिरण्यं-धन को विवेदे-प्राप्त
किया।
व्याख्या-
इन्द्र ने दुष्ट, आततायी चुमुरि और
धुनि नामक असुरों को दीर्ध निद्रा से युक्त करके मार डाला और दभीति की रक्षा की।
दण्डधारी ने युद्ध में धन प्राप्त किया। इन्द्र ने यह सब कर्म सोम रस के मद में
किया।
नूनं सा ते प्रति वरं जरिगे
दहीयदिन्द्र दक्षिणा मधोनी।
शिक्षा स्तोतृभ्यो माति घग्भगो नो
बृहद्वदेम विदथे सुवीराः॥10॥
अन्वय-
हे इन्द्र ते सा मधोनी दक्षिणा नूनं जरिगे वरम् प्रति दुहीयत्। स्तोतृभ्यः शिक्ष
भगः नः मा अति घक, सुवीराः विदथे
बृहत् वदेम।
शब्दार्थ-
ते- तुम्हारी सा-वह मधोनी- अत्यधिक ऐश्वर्यशालिनी, दक्षिणा नूनं-निश्चय ही, जरित्रे- स्तुति करने को,
वरं- श्रेष्ठ धन, प्रति दुहीयत- प्रदान करती
है, सतोतृभ्यः- स्तुति करने वालों को शिक्ष- (वह दक्षिणा)
प्रदान कीजिए, भग: भजनीय (आप) न:- हम लोगों का, मा अति धक्-अतिक्रमण कर, अन्य लोगों को दक्षिणा न
प्रदान करें। सुवीराः सुन्दर पुत्र पौत्रों से युक्त हम स्तोता लोग, विदथे- इस यज्ञ में, वृहत् महान् या प्रभूत, वदेम-स्तोत्र को बोले।।
व्याख्या-
हे इन्द्र! तुम्हारी वह अत्यधिक ऐश्वर्यशालिनी दक्षिणा निश्चय ही स्तुति करने वाले
को श्रेष्ठ धन प्रदान करती है। स्तुति करने वालों को श्रेष्ठ ज्ञान प्रदान कीजिए। धन,
ऐश्वर्य आदि के प्रदान करने के समय हमें न छोड़े और हम हम लोगों को
ऐश्वर्य प्रदान करें। यज्ञ के समय स्तोता लोग महान् स्तोत्र को बोलें।
इन्द्र सूक्त सारांश
इन्द्र में तीन पात्रों में सोम रस
का पान किया इसी रस के मद में आकर उसने वृत्रासुर का वध किया। वह सत्य स्वरूप वाला
है ।अकारण ही इन्द्र ने धुलोक को अन्तरिक्ष में स्थित कर दिया था ।इन्द्र ने
नदियों को गृह तथा यज्ञ की भाँति पूर्व की ओर गतिशील बनाया,नदियों को सहज मार्ग प्रदान प्रदान किया। सारे कर्मों को इन्द्र ने मद में
किया,वह जल का नेता है ।इन्द्र ने दभीति के अपहर्ताओं को
घेरकर उनके अस्त्र-शस्त्रों को प्रज्वलित अग्नि में जला दिया।दभीति नामक राजर्षि
को गो, अश्व और रथों से सुसज्जित कर दिया ।नदी पार करने में
असमर्थ लोगो को सकुशल पार कर दिया ।इन्द्र ने महान बल के द्वारा नदी को उत्तर की
ओर बढाया तथा उषा के शकट को अपने वज्र द्वारा नष्ट कर दिया ।अंगिरा आदि ऋषियों से
प्रशंसित होकर इन्द्र ने बल नामक दैत्य को तोड़ दिया तथा गायों के अवरोधक पर्वत के
सुदृढ़ द्वारों को खोल दिया। इन पर्वतों के द्वारा कृत्रिम रूप से निर्मित अवरोधक
द्वारों को दूर किया। स्तुति करने वालों को श्रेष्ठ ज्ञान प्रदान कीजिए। धन,
ऐश्वर्य आदि के प्रदान करनेके समय हमें न छोड़े और हम लोगों को
ऐश्वर्य प्रदान करें। यज्ञ के समय स्तोता गण लोग महान् का पाठ करें।
इन्द्र सूक्तम् ॥
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