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तुलसी महिमा- ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड के अध्याय 21 में वर्णित कथा के
अनुसार नारद जी के पूछने पर कि - प्रभो! भगवान नारायण ने कौन-सा रूप धारण करके
तुलसी से हास-विलास किया था? यह प्रसंग मुझे बताने की कृपा
करें। तब भगवान श्रीहरि ने नारद को यह तुलसी महिमा बतलाया। कि- पति के निधन शोक से
संतप्त हुई तुलसी आँखों से आँसू गिराती हुई बार-बार जब विलाप करने लगी। तदनन्तर
करुण-रस के समुद्र कमलापति भगवान श्रीहरि करुणायुक्त तुलसी देवी को देखकर नीति
पूर्वक वचनों से उसे समझाने लगे।
तुलसी महिमा
श्रीभगवानुवाच ।।
इदं शरीरं त्यक्त्वा च दिव्यं देहं
विधाय च ।।
रासे मे रमया सार्द्धं त्वं
रमासदृशी भव।।
भगवान श्रीहरि बोले- तुम इस शरीर का
त्याग करके दिव्य देह धारण कर मेरे साथ आनन्द करो। लक्ष्मी के समान तुम्हें सदा
मेरे साथ रहना चाहिये।
इयं तनुर्नदीरूपा गण्डकीति च
विश्रुता ।।
पूता सुपुण्यदा नृणां पुण्या भवतु
भारते ।।
तुम्हारा यह शरीर नदी रूप में परिणत
हो ‘गण्डकी’ नाम से प्रसिद्ध होगा। यह पवित्र नदी
पुण्यमय भारतवर्ष में मनुष्यों को उत्तम पुण्य देने वाली बनेगी।
तव केशसमूहाश्च पुण्यवृक्षा
भवन्त्विति ।।
तुलसीकेशसम्भूता तुलसीति च विश्रुता
।।
तुम्हारे केशकलाप पवित्र वृक्ष
होंगे। तुम्हारे केश से उत्पन्न होने के कारण तुलसी के नाम से ही उनकी प्रसिद्धि
होगी।
त्रिलोकेषु च पुष्पाणां पत्राणां
देवपूजने ।।
प्रधानरूपा तुलसी भविष्यति वरानने
।।
वरानने! तीनों लोकों में देवताओं की
पूजा के काम में आने वाले जितने भी पत्र और पुष्प हैं,
उन सब में तुलसी प्रधान मानी जायेगी।
स्वर्गे मर्त्ये च पाताले वैकुण्ठे
मम सन्निधौ।।
भवन्तु तुलसीवृक्षा वराः पुष्पेषु
सुन्दरि ।।
स्वर्गलोक,
मर्त्यलोक, पाताल तथा वैकुण्ठ-लोक में-
सर्वत्र तुम मेरे संनिकट रहोगी। सुन्दरि! तुलसी के वृक्ष सब पुष्पों में श्रेष्ठ
हों।
गोलोके विरजातीरे रासे वृन्दावने
भुवि ।।
भाण्डीरे चम्पकवने रम्ये चन्दनकानने
।।
माधवीकेतकीकुन्दमल्लिकामालतीवने ।।
भवन्तु तरवस्तत्र पुष्पस्थानेषु
पुण्यदा ।।
गोलोक,
विरजा नदी के तट, रासमण्डल, वृन्दावन, भूलोक, भाण्डीरवन,
चम्पकवन, मनोहर चन्दनवन एवं माधवी, केतकी, कुन्द और मल्लिका के वन में तथा सभी पुण्य
स्थानों में तुम्हारे पुण्यप्रद वृक्ष उत्पन्न हों और रहें।
तुलसीतरुमूले च पुण्यदेशे सुपुण्यदे
।।
अधिष्ठानं तु तीर्थानां सर्वेषां च
भविष्यति ।।
तुलसी-वृक्ष के नीचे के स्थान परम
पवित्र एवं पुण्यदायक होंगे; अतएव वहाँ
सम्पूर्ण तीर्थों और समस्त देवताओं का भी अधिष्ठान होगा।
तत्रैव सर्वदेवानां समधिष्ठानमेव च
।।
तुलसीपत्रपतनं प्रायो यत्र वरानने।।
वरानने! ऊपर तुलसी के पत्ते पड़ें,
इसी उद्देश्य से वे सब लोग वहाँ रहेंगे।
स स्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु
दीक्षितः ।।
तुलसीपत्रतोयेन योऽभिषेकं समाचरेत्
।।
तुलसी पत्र के जल से जिसका अभिषेक
हो गया,
उसे समपूर्ण तीर्थों में स्नान करने तथा समस्त यज्ञों में दीक्षित
होने का फल मिल गया।
सुधाघटसहस्रेण सा तुष्टिर्न
भवेद्धरेः ।।
या च तुष्टिर्भवेन्नॄणां
तुलसीपत्रदानतः ।।
साध्वी! हजारों घड़े अमृत से नहलाने
पर भी भगवान श्रीहरि को उतनी तृप्ति नहीं होती है, जितनी वे मनुष्यों के तुलसी का एक पत्ता चढ़ाने से प्राप्त करते हैं।
गवामयुतदानेन यत्फलं लभते नरः ।।
तुलसीपत्रदानेन तत्फलं लभते सति ।।
पतिव्रते! दस हजार गोदान से मानव जो
फल प्राप्त करता है, वही फल तुलसी-पत्र
के दान से पा लेता है।
तुलसीपत्रतोयं च मृत्युकाले च यो
लभेत् ।।
स मुच्यते सर्वपापाद्विष्णुलोकं स
गच्छति ।।
जो मृत्यु के समय मुख में
तुलसी-पत्र का जल पा जाता है, वह सम्पूर्ण
पापों से मुक्त होकर भगवान विष्णु के लोक में चला जाता है।
नित्यं यस्तुलसी तोयं भुङ्क्ते
भक्त्या च यो नरः ।।
स एव जीवन्मुक्तश्च गंगास्नानफलं
लभेत्।।
जो मनुष्य नित्य प्रति भक्ति पूर्वक
तुलसी का जल ग्रहण करता है, वही जीवन्मुक्त है
और उसे गंगा-स्नान का फल मिलता है।
नित्यं यस्तुलसीं दत्त्वा
पूजयेन्मां च मानवः।।
लक्षाश्वमेधजं पुण्यं लभते नात्र
संशयः ।।
जो मानव प्रतिदिन तुलसी का पत्ता
चढ़ाकर मेरी पूजा करता है, वह लाख
अश्वमेध-यज्ञों का फल पा लेता है।
तुलसीं स्वकरे धृत्वा देहे धृत्वा च
मानवः ।।
प्राणांस्त्यजति तीर्थेषु विष्णु
लोकं स गच्छति ।।
जो मानव तुलसी को अपने हाथ में लेकर
और शरीर पर रखकर तीर्थों में प्राण त्यागता है, वह
विष्णुलोक में चला जाता है।
तुलसीकाष्ठनिर्माणमालां गृह्णाति यो
नरः ।।
पदे पदेऽश्वमेधस्य लभते निश्चितं
फलम् ।।
तुलसी-काष्ठ की माला को गले में
धारण करने वाला पुरुष पद-पद पर अश्वमेध-यज्ञ के फल का भागी होता है,
इसमें संदेह नहीं।
तुलसीं स्वकरे धृत्वा स्वीकारं यो न
रक्षति ।।
स याति कालसूत्रं च
यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।।
जो मनुष्य तुलसी को अपने हाथ में
रखकर प्रतिज्ञा करता है, और फिर उस
प्रतिज्ञा का पालन नहीं करता, उसे सूर्य और चन्द्रमा की
अवधिपर्यन्त ‘कालसूत्र’ नामक नरक में
यातना भोगनी पड़ती है।
करोति मिथ्याशपथं तुलस्या यो हि
मानवः ।।
स याति कुम्भीपाकं च
यावदिन्द्राश्चतुर्दश ।।
जो मनुष्य तुलसी को हाथ में लेकर या
उसके निकट झूठी प्रतिज्ञा करता है, वह
‘कुम्भीपाक’ नामक नरक में जाता है और
वहाँ दीर्घकाल तक वास करता है।
तुलसीतोयकणिकां मृत्युकाले च यो
लभेत् ।।
रत्नयानं समारुह्य वैकुण्ठं स
प्रयाति च।।
मृत्यु के समय जिसके मुख में तुलसी
के जल का एक कण भी चला जाता है वह अवश्य ही विष्णुलोक को जाता है।
पूर्णिमायाममायां च द्वादश्यां
रविसंक्रमे ।।
तैलाभ्यंगे चास्नाते च मध्याह्ने
निशि सन्ध्ययोः ।।
आशौचेऽशुचिकाले वा रात्रिवासान्विते
नराः ।।
तुलसीं ये च छिन्दन्ति ते छिन्दन्ति
हरेः शिरः ।।
पूर्णिमा,
अमावस्या, द्वादशी और सूर्य-संक्रान्ति के दिन,
मध्याह्नकाल, रात्रि, दोनों
संध्याओं और अशौच के समय, तेल लगाकर, बिना
नहाये-धोये अथवा रात के कपड़े पहने हुए जो मनुष्य तुलसी के पत्रों को तोड़ते हैं,
वे मानो भगवान श्रीहरि का मस्तक छेदन करते हैं।
त्रिरात्रं तुलसीपत्रं शुद्धं
पर्युषितं सति ।।
श्राद्धे व्रते वा दाने वा
प्रतिष्ठायां सुरार्चने ।।
साध्वि! श्राद्ध,
व्रत, दान, प्रतिष्ठा
तथा देवार्चन के लिये तुलसी पत्र बासी होने पर भी तीन रात तक पवित्र ही रहता है।
भूगतं तोयपतितं यद्दत्तं विष्णवे
सति ।।
शुद्धं तुलसीपत्रं
क्षालनादन्यकर्मणि ।।
पृथ्वी पर अथवा जल में गिरा हुआ तथा
श्रीविष्णु को अर्पित तुलसी-पत्र धो देने पर दूसरे कार्य के लिये शुद्ध माना जाता
है।
वृक्षाधिष्ठात्री देवी या गोलोके च
निरामये ।।
कृष्णेन सार्द्धं रहसि नित्यं
क्रीडां करिष्यति।।
तुम निरामय गोलोक-धाम में तुलसी की
अधिष्ठात्री देवी बनकर मेरे स्वरूप भूत श्रीकृष्ण के साथ निरन्तर क्रीड़ा करोगी।
नद्यधिष्ठातृदेवी या भारते च
सुपुण्यदा ।।
लवणोदस्य पत्नी च मदंशस्य भविष्यति
।।
तुम्हारी देह से उत्पन्न नदी की जो
अधिष्ठात्री देवी है, वह भारतवर्ष में
परम पुण्यदा नदी बनकर मेरे अंशभूत क्षार-समुद्र की पत्नी होगी।
त्वं च स्वयं महासाध्वी वैकुण्ठे मम
सन्निधौ ।।
रमासमा च रासे च भविष्यसि न संशयः
।।
स्वयं तुम महासाध्वी तुलसी रूप से
वैकुण्ठ में मेरे संनिकट निवास करोगी। वहाँ तुम लक्ष्मी के समान सम्मानित होओगी।
गोलोक के रास में भी तुम्हारी उपस्थिति होगी, इसमें
संशय नहीं है।
इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारायणनारदसंवादे तुलस्युपाख्यानं एकविंशो ऽध्यायः ।। २१ ।।
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