संग्राम विजय विद्या

संग्राम विजय विद्या

संग्राम केवल युद्ध नहीं होता अपितु जीवन में होने वाली रोग, ऋण, बाधा, शोक आदि अन्य जो कुछ भी कष्ट या अड़चन जिसे की मानव जीवन में प्रायः भोगते हैं, यह किसी बड़े संग्राम से कम नहीं है। इससे बिना किसी दैवीय शक्ति के पार पाना संभव नहीं है। मानव के इसी संग्राम से पार पाने के लिए हमारे धर्म-ग्रंथों में अनेकों विद्या, मन्त्र-तंत्र, स्तोत्र आदि दिया गया है। जिसे की यदि विधिवत् पाठ, जप, अनुष्ठान या हवन कर यदि सिद्ध कर लिया जाय तो जीवन के हर संग्राम से अवश्य ही विजय पाया जा सकता है। इन्ही आवश्यकताओं को देखते हुए ही यहाँ संग्राम विजय विद्या (मन्त्र) दिया जा रहा है। इसका वर्णन अग्निपुराण के अध्याय १३५ में दिया गया है।

संग्राम विजय विद्या

संग्रामविजय विद्या मन्त्र

Sangram Vijay Vidya

अग्निपुराण अध्याय १३५

सङ्ग्रामविजयविद्या भावार्थ सहित

अग्निपुराणम्/अध्यायः १३५

संग्राम विजय विद्या

ईश्वर उवाच

सङ्ग्रामविजयां विद्यां पदमालां वदाम्यहं ॥१ ॥

महेश्वर कहते हैंदेवि! अब मैं संग्राम में विजय दिलानेवाली विद्या (मन्त्र) का वर्णन करता हूँ, जो पदमाला के रूप में है ॥ १ ॥

अथ संग्राम विजय विद्या (मन्त्र)

ॐ ह्रीं चामुण्डे श्मशानवासिनि खट्वाङ्गकपालहस्ते महाप्रेतसमारूढे महाविमानसमाकुले कालरात्रि महागणपरिवृते महामुखे बहुभुजे घण्टाडमरुकिङ्किणि (हस्ते ), अट्टाट्टहासे किलि किलि, ॐ हूं फट्, दंष्ट्राघोरान्धकारिणि नादशब्दबहुले गजचर्मप्रावृतशरीरे मांसदिग्धे लेलिहानोग्रजिह्वे महाराक्षसि रौद्रदंष्ट्राकराले भीमाट्टाट्टहासे स्फुरद्विद्युतप्रभे चल चल, ॐ चकोरनेत्रे चिलि चिलि, ॐ ललज्जिह्वे, ॐ भीं भ्रुकुटीमुखि हुंकारभयत्रासनि कपालमालावेष्टितजटा- मुकुटशशाङ्कधारिणि, अट्टाट्टहासे किलि किलि, ॐ ह्रूं दंष्ट्राघोरान्धकारिणि, सर्वविघ्नविनाशिनि, इदं कर्म साधय साधय, ॐ शीघ्रं कुरु कुरु, ॐ फट्, ओमङ्कुशेन शमय, प्रवेशय, ॐ रङ्ग रङ्ग, कम्पय कम्पय, ॐ चालय, ॐ रुधिरमांसमद्यप्रिये हन हन, ॐ कुट्ट कुट्ट, ॐ छिन्द, ॐ मारय, ओमनुक्रमय, ॐ वज्रशरीरं पातय, ॐ त्रैलोक्यगतं दुष्टमदुष्टं वा गृहीतमगृहीतं वाऽऽवेशय, ॐ नृत्य, ॐ वन्द, ॐ कोटराक्ष्यूर्ध्वकेश्युलूकवदने करङ्किणि, ॐ करङ्कमालाधारिणि दह, ॐ पच पच, ॐ गृह्ण, ॐ मण्डलमध्ये प्रवेशय, ॐ किं विलम्बसि ब्रह्मसत्येन विष्णुसत्येन रुद्रसत्येनर्षिसत्येनावेशय, ॐ किलि किलि, ॐ खिलि खिलि, विलि विलि, ॐ विकृतरूपधारिणि कृष्णभुजंगवेष्टितशरीर सर्वग्रहावेशिनि प्रलम्बौष्ठिनि भ्रूभङ्गलग्ननासिके विकटमुखि कपिलजटे ब्राह्यि भञ्ज, ॐ ज्वालामुखि स्वन, ॐ पातय, ॐ रक्ताक्षि घूर्णय, भूमिं पातय, ॐ शिरो गृह्ण, चक्षुर्मीलय, ॐ हस्तपादौ गृह्ण, मुद्रां स्फोटय, ॐ फट्, ॐ विदारय, ॐ त्रिशूलेन च्छेदय, ॐ वज्रेण हन, ॐ दण्डेन ताडय ताडय, ॐ चक्रेण च्छेदय च्छेदय, ॐ शक्त्या भेदय, दंष्ट्राया कीलय, ॐ कर्णिकया पाटय, ओमङ्कुशेन गृह्ण, ॐ शिरोऽक्षिज्वर- मेकाहिकं द्वयाहिकं त्र्याहिकं चातुर्थिकं डाकिनिस्कन्दग्रहान् मुञ्च मुञ्च, ॐ पच, ओमुत्सादय, ॐ भूमिं पातय, ॐ गृह्ण, ॐ ब्रह्माण्येहि, ॐ माहेश्वर्येहि, (ॐ) कौमार्येहि, ॐ वैष्णव्येहि, ॐ वाराह्येहि, ओमैन्द्रयेहि, ॐ चामुण्ड एहि, ॐ रेवत्येहि, ओमाकाशरेवत्येहि, ॐ हिमवच्चारिण्येहि, ॐ रुरुमर्दिन्यसुरक्षयंकर्याकाशगामिनि पाशेन बन्ध बन्ध, अङ्कुशेन कट कट, समये तिष्ठ, ॐ मण्डलं प्रवेशय, ॐ गृह्ण, मुखं बन्ध, ॐ चक्षुर्बन्ध हस्तपादौ च बन्ध, दुष्टग्रहान् सर्वान् बन्ध, ॐ दिशो बन्ध, ॐ विदिशो बन्ध, अधस्ताद्वन्ध, ॐ सर्व बन्ध, ॐ भस्मना पानीयेन वा मृत्तिकया सर्षपैर्वा सर्वानावेशय, ॐ पातय ॐ चामुण्डे किलि किलि, ॐ विच्चे हुं फट् स्वाहा ॥२॥

संग्राम विजय विद्या (मन्त्र)भावार्थ

ॐ ह्रीं चामुण्डे देवि ! आप श्मशान में वास करनेवाली हैं। आपके हाथ में खट्वाङ्ग और कपाल शोभा पाते हैं। आप महान् प्रेत पर आरूढ़ हैं। आप बड़े-बड़े विमानों से घिरी हुई हैं। आप ही कालरात्रि हैं। बड़े-बड़े पार्षदगण आपको घेरकर खड़े हैं। आपका मुख विशाल है। भुजाएँ बहुत हैं। घण्टा, डमरू और घुघुरू बजाकर विकट अट्टहास करनेवाली देवि ! क्रीड़ा कीजिये, क्रीड़ा कीजिये। ॐ हूं फट्। आप अपनी दाढ़ों से घोर अन्धकार प्रकट करनेवाली हैं। आपका गम्भीर घोष और शब्द अधिक मात्रा में अभिव्यक्त होता है। आपका विग्रह हाथी के चमड़े से ढका हुआ है। शत्रुओं के मांस से परिपुष्ट हुई देवि ! आपकी भयानक जिह्वा लपलपा रही है। महाराक्षसि ! भयंकर दाढ़ों के कारण आपकी आकृति बड़ी विकराल दिखायी देती है। आपका अट्टहास बड़ा भयानक है। आपकी कान्ति चमकती हुई बिजली के समान है। आप संग्राम में विजय दिलाने के लिये चलिये, चलिये। ॐ चकोरनेत्रे (चकोर के समान नेत्रोंवाली ) ! चिलि, चिलि । ॐ ललजिह्वे(लपलपाती हुई जीभवाली)! ॐ भीं टेढ़ी भौंहों से युक्त मुखवाली! आप हुंकारमात्र से ही भय और त्रास उत्पन्न करनेवाली हैं। आप नरमुण्डों की माला से वेष्टित जटा मुकुट में चन्द्रमा को धारण करती हैं। विकट अट्टहासवाली देवि ! किलि, किलि ( रणभूमि में क्रीड़ा करो, क्रीड़ा करो)। ॐ ह्रूं दाढ़ों से घोर अन्धकार प्रकट करनेवाली और सम्पूर्ण विघ्नों का नाश करनेवाली देवि! आप मेरे इस कार्य को सिद्ध करें, सिद्ध करें। ॐ शीघ्र कीजिये कीजिये। ॐ फट् । ॐ अङ्कुश से शान्त कीजिये, प्रवेश कराइये। ॐ रक्त से रंगिये, रंगिये; कँपाइये, कँपाइये। ॐ विचलित कीजिये। ॐ रुधिर मांस-मद्यप्रिये ! शत्रुओं का हनन कीजिये, हनन कीजिये । ॐ विपक्षी योद्धाओं को कूटिये, कूटिये । ॐ काटिये । ॐ मारिये ॐ उनका पीछा कीजिये। ॐ वज्रतुल्य शरीरवाले को भी मार गिराइये। ॐ त्रिलोकी में विद्यमान जो शत्रु है, वह दुष्ट हो या अदुष्ट, पकड़ा गया हो या नहीं, आप उसे आविष्ट कीजिये। ॐ नृत्य कीजिये। ॐ वन्द। ॐ कोटराक्ष (खोखले के समान नेत्रवाली) ! ऊर्ध्वकेशि (ऊपर उठे हुए केशोंवाली) ! उलूकवदने (उल्लू के समान मुँहवाली) ! हड्डियों की ठटरी या खोपड़ी धारण करनेवाली! खोपड़ी की माला धारण करनेवाली चामुण्डे ! आप शत्रुओं को जलाइये। ॐ पकाइये, पकाइये। ॐ पकड़िये । ॐ मण्डल के भीतर प्रवेश कराइये। ॐ आप क्यों विलम्ब करती हैं? ब्रह्मा के सत्य से, विष्णु के सत्य से, रुद्र के सत्य से तथा ऋषियों के सत्य से आविष्ट कीजिये। ॐ किलि किलि । ॐ खिलि खिलि । विलि विलि। ॐ विकृत रूप धारण करनेवाली देवि! आपके शरीर में काले सर्प लिपटे हुए हैं। आप सम्पूर्ण ग्रहों को आविष्ट करनेवाली हैं। आपके लंबे-लंबे ओठ लटक रहे हैं। आपकी टेढ़ी भाँहें नासिका से लगी हैं। आपका मुख विकट है। आपकी जटा कपिलवर्ण की है। आप ब्रह्मा की शक्ति हैं। आप शत्रुओं को भङ्ग कीजिये । ॐ ज्वालामुखि ! गर्जना कीजिये। ॐ शत्रुओं को मार गिराइये। ॐ लाल-लाल आँखोंवाली देवि ! शत्रुओं को चक्कर कटाइये, उन्हें धराशायी कीजिये । ॐ शत्रुओं के सिर उतार लीजिये। उनकी आँखें बंद कर दीजिये। ॐ उनके हाथ-पैर ले लीजिये, अङ्ग - मुद्रा फोड़िये। ॐ फट् । ॐ विदीर्ण कीजिये। ॐ त्रिशूल से छेदिये। ॐ वज्र से हनन कीजिये। ॐ डंडे से पीटिये, पीटिये ॐ चक्र से छिन्न-भिन्न कीजिये, छिन्न-भिन्न कीजिये। ॐ शक्ति से भेदन कीजिये। दाढ़ से कीलन कीजिये । ॐ कतरनी से चीरिये । ॐ अङ्कुश से ग्रहण कीजिये। ॐ सिर के रोग और नेत्र की पीड़ा को, प्रतिदिन होनेवाले ज्वर को, दो दिन पर होनेवाले ज्वर को तीन दिन पर होनेवाले ज्वर को, चौथे दिन होनेवाले ज्वर को, डाकिनियों को तथा कुमारग्रहों को शत्रुसेना पर छोड़िये, छोड़िये । ॐ उन्हें पकाइये। ॐ शत्रुओं का उन्मूलन कीजिये। ॐ उन्हें भूमि पर गिराइये। ॐ उन्हें पकड़िये । ॐ ब्रह्माणि! आइये। ॐ माहेश्वरि ! आइये । ॐ कौमारि! आइये । ॐ वैष्णवि! आइये। ॐ वाराहि! आइये। ॐ ऐन्द्रि! आइये । ॐ चामुण्डे! आइये। ॐ रेवति ! आइये। ॐ आकाशरेवति! आइये। ॐ हिमालय पर विचरनेवाली देवि ! आइये । ॐ रुरुमर्दिनि! असुरक्षयंकरि (असुरविनाशिनि)! आकाशगामिनि देवि ! विरोधियों को पाश से बाँधिये, बाँधिये। अङ्कुश से आच्छादित कीजिये, आच्छादित कीजिये। अपनी प्रतिज्ञा पर स्थिर रहिये। ॐ मण्डल में प्रवेश कराइये। ॐ शत्रु को पकड़िये और उसका मुँह बाँध दीजिये। ॐ नेत्र बाँध दीजिये। हाथ- पैर भी बाँध दीजिये। हमें सतानेवाले समस्त दुष्ट ग्रहों को बाँध दीजिये। ॐ दिशाओं को बाँधिये । ॐ विदिशाओं को बाँधिये। नीचे बाँधिये । ॐ सब ओर से बाँधिये। ॐ भस्म से, जल से, मिट्टी से अथवा सरसों से सबको आविष्ट कीजिये । ॐ नीचे गिराइये। ॐ चामुण्डे ! किलि किलि । ॐ विच्चे हुं फट् स्वाहा ॥ २ ॥

संग्रामविजयविद्या फलश्रुति

पदमाला जयाख्येयं सर्वकर्मप्रसाधिका ।

सर्वदा होमजप्याद्यैः पाठाद्यैश्च रणे जयः ॥३॥  

यह 'जया' नामक पदमाला है, जो समस्त कर्मो को सिद्ध करनेवाली है। इसके द्वारा होम करने से तथा इसका जप एवं पाठ आदि करने से सदा ही युद्ध में विजय प्राप्त होती है।

चामुण्डा देवी का ध्यान

अष्टाविंशभुजा ध्येया असिखेटकवत्करौ ।

अट्ठाईस भुजाओं से युक्त चामुण्डा देवी का ध्यान करना चाहिये।

गदादण्दयुतौ चान्यौ शरचापधरौ परौ ।

मुष्टिमुद्गरयुक्तौ च शङ्कखड्गयुतौ परौ ॥ ४ ॥

ध्वजवज्रधरौ चान्यौ सचक्रपरशू परौ ।

डमरुदर्पणाढ्यौ च शक्तिकुन्तधरौ परौ ॥ ५ ॥

हलेन मुषलेनाढ्यौ पाशतोमरसंयुतौ ।

ढक्कापणसंयुक्तौ अभयमुष्टिकान्वितौ ॥ ६ ॥

उनके दो हाथों में तलवार और खेटक हैं। दूसरे दो हाथों में गदा और दण्ड हैं। अन्य दो हाथ धनुष और बाण धारण करते हैं। अन्य दो हाथ मुष्टि और मुद्गर से युक्त हैं। दूसरे दो हाथों में शङ्ख और खड्ग हैं। अन्य दो हाथों में ध्वज और वज्र हैं। दूसरे दो हाथ चक्र और परशु धारण करते हैं। अन्य दो हाथ डमरू और दर्पण से सम्पन्न हैं। दूसरे दो हाथ शक्ति और कुन्द धारण करते हैं। अन्य दो हाथों में हल और मूसल हैं। दूसरे दो हाथ पाश और तोमर से युक्त हैं। अन्य दो हाथों में ढक्का और पणव हैं। दूसरे दो हाथ अभय की मुद्रा धारण करते हैं तथा शेष दो हाथों में मुष्टिक शोभा पाते हैं। वे महिषासुर को डाँटती और उसका वध करती हैं।

संग्रामविजय विद्या (मन्त्र) महात्म्य

तर्जयन्ती च महिषं घातनी होमतोऽरिजित् ।

त्रिमध्वाक्ततिलैर्होमो न देया यस्य कस्य चित् ॥ ७ ॥

इस प्रकार ध्यान करके हवन करने से साधक शत्रुओं पर विजय पाता है। घी, शहद और चीनीमिश्रित तिल से हवन करना चाहिये। इस संग्रामविजय – विद्या का उपदेश जिस किसी को नहीं देना चाहिये (अधिकारी पुरुषको ही देना चाहिये) ॥३-७॥

इत्याग्नेये महापुराणे युद्धार्णवे सङ्ग्रामविजयविद्या नाम पञ्चत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण के अन्तर्गत युद्धजयार्णव में 'संग्रामविजय- विद्या का वर्णन' नामक एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३५ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 136        

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