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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
मंगलचण्डी
‘चण्डी’ शब्द का प्रयोग ‘दक्षा’[चतुरा] के अर्थ में होता है और ‘मंगल’ शब्द कल्याण का वाचक है। जो मंगल-कल्याण करने
में दक्ष हो, वह ‘मंगलचण्डिका’ कही जाती है। ‘दुर्गा’ के अर्थ
में चण्डी शब्द का प्रयोग होता है और मंगल शब्द भूमिपुत्र मंगल के अर्थ में भी आता
है। अतः जो मंगल की अभीष्ट देवी हैं, उन देवी को ‘मंगलचण्डिका’ कहा गया है। मनुवंश में मंगल नामक एक
राजा थे। सप्तद्वीपवती पृथ्वी उनके शासन में थी। उन्होंने इन देवी को अभीष्ट देवता
मानकर पूजा की थी। इसलिये भी ये ‘मंगलचण्डी’ नाम से विख्यात हुईं। जो मूलप्रकृति भगवती जगदीश्वरी ‘दुर्गा’ कहलाती हैं, उन्हीं का
यह रूपान्तर है। ये देवी कृपा की मूर्ति धारण करके सबके सामने प्रत्यक्ष हुई हैं।
स्त्रियों की ये इष्टदेवी हैं।
भगवती मंगलचण्डी का उपाख्यान
भगवान नारायण कहते हैं–
ब्रह्मपुत्र नारद! आगम शास्त्र के अनुसार षष्ठी देवी का चरित्र कह
दिया। अब भगवती मंगलचण्डी का उपाख्यान सुनो, साथ ही उनकी
पूजा का विधान भी। इसे मैंने धर्मदेव के मुख से सुना था, वही
बता रहा हूँ। यह श्रुतिसम्मत उपाख्यान सम्पूर्ण विद्वानों को भी अभीष्ट है।
सर्वप्रथम भगवान शंकर ने इन
सर्वश्रेष्ठरूपा मंगलचण्डी देवी की आराधना की। ब्रह्मन! त्रिपुर नामक दैत्य के
भयंकर वध के समय का यह प्रसंग है। भगवान शंकर बड़े संकट में पड़ गये थे। दैत्य ने
रोष में आकर उनके वाहन विमान को आकाश से नीचे गिरा दिया था। तब ब्रह्मा और विष्णु
ने उन्हें प्रेरणा की। उन महानुभावों का उपदेश मानकर शंकर भगवती दुर्गा की स्तुति
करने लगे। वे भी देवी मंगलचण्डी ही थीं। केवल रूप बदल लिया था। स्तुति करने पर वे
ही देवी भगवान शंकर के सामने प्रकट हुईं और उनसे बोलीं- ‘प्रभो! तुम्हें भय नहीं करना चाहिये। स्वयं सर्वेश भगवान श्रीहरि ही वृषभ
का रूप धारण करके तुम्हारे सामने उपस्थित होंगे। वृषध्वज! मैं युद्ध-शक्तिस्वरूपा
बनकर तुम्हारा साथ दूँगी। फिर स्वयं मेरी तथा श्रीहरि की सहायता से तुम देवताओं को
पदच्युत करने वाले उस दानव को, जिसने घोर शत्रुता ठान रखी है,
मार डालोगे।’
मुनिवर! इस प्रकार कहकर भगवती
अन्तर्धान हो गयीं। उसी क्षण उन शक्तिरूपी देवी से शंकर सम्पन्न हो गये। भगवान
श्रीहरि ने एक अस्त्र दे दिया था। अब उसी अस्त्र से त्रिपुर-वध में उन्हें सफलता
प्राप्त हो गयी। दैत्य के मारे जाने पर सम्पूर्ण देवताओं तथा महर्षियों ने भगवान शंकर
का स्तवन किया। उस समय सभी भक्ति में सराबोर होकर अत्यन्त नम्र हो गये थे। उसी
क्षण भगवान शंकर के मस्तक पर पुष्पों की वर्षा होने लगी। ब्रह्मा और विष्णु ने परम
संतुष्ट होकर उन्हें शुभ आशीर्वाद और सदुपदेश भी दिया। तब भगवान शंकर सम्यक प्रकार
से स्नान करके भक्ति के साथ भगवती मंगलचण्डी की आराधना करने लगे। पाद्य,
अर्घ्य, आचमन, विविध
वस्त्र, पुष्प, चन्दन, भाँति-भाँति के नैवेद्य, बलि, वस्त्र,
अलंकार, माला, तीर,
पिष्टक, मधु, सुधा तथा
नाना प्रकार के फलों द्वारा भक्तिपूर्वक उन्होंने देवी की पूजा की। नाच, गान, वाद्य और नाम-कीर्तन भी कराया। तत्पश्चात्
माध्यन्दिन शाखा में कहे हुए ध्यान-मन्त्र के द्वारा भगवती मंगलचण्डी का
भक्तिपूर्वक ध्यान किया। नारद! उन्होंने मूलमन्त्र का उच्चारण करके ही भगवती को
सभी द्रव्य समर्पण किये थे। वह मन्त्र इस प्रकार है–
श्री मंगलचंडिका मन्त्र
‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं सर्वपूज्ये
देवि मङ्गलचण्डिके ऐं क्रूं फट् स्वाहा।’
अथवा
‘ऊँ ह्रीं श्रीं
क्लीं सर्वपूज्ये देवि मङ्गलचण्डिके हूँ हूँ फट् स्वाहा।’
इक्कीस अक्षर का यह मन्त्र सुपूजित
होने पर भक्तों को सम्पूर्ण कामना प्रदान करने के लिये कल्पवृक्षस्वरूप है। दस लाख
जप करने पर इस मन्त्र की सिद्धि होती है।
ब्रह्मन! अब ध्यान सुनो। सर्वसम्मत
ध्यान वेद प्रणीत है।
मंगल चंडिका ध्यान
देवीं षोडशवर्षीयां रम्यां
सुस्थिरयौवनाम् ।
सर्वरूपगुणाढ्यां च कोमलांगीं
मनोहराम् ।।
श्वेतचम्पकवर्णाभां
चन्द्रकोटिसमप्रभाम् ।
वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम्
।।
बिभ्रतीं कबरीभारं
मल्लिकामाल्यभूषितम्।
बिम्बोष्ठीं सुदतीं शुद्धां
शरत्पद्मनिभाननाम् ।।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां
सुनीलोत्पललोचनाम् ।
जगद्धात्रीं च दात्रीं च सर्वेभ्यः
सर्वसम्पदाम् ।।
संसारसागरे घोरे पोतरूपां वरां भजे
।।
‘सुस्थिरयौवना भगवती मंगलचण्डिका
सदा सोलह वर्ष की ही जान पड़ती हैं। ये सम्पूर्ण रूप-गुण से सम्पन्न, कोमलांगी एवं मनोहारिणी हैं। श्वेत चम्पा के समान इनका गौरवर्ण तथा
करोड़ों चन्द्रमाओं के तुल्य इनकी मनोहर कान्ति है। ये अग्निशुद्ध दिव्य वस्त्र
धारण किये रत्नमय आभूषणों से विभूषित हैं। मल्लिका-पुष्पों से समलंकृत केशपाश धारण
करती हैं। बिम्बसदृश लाल ओंठ, सुन्दर दन्त-पंक्ति तथा
शरत्काल के प्रफुल्ल कमल की भाँति शोभायमान मुखवाली मंगलचण्डिका के
प्रसन्नवदनारविन्द पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही है। इनके दोनों नेत्र सुन्दर
खिले हुए नीलकमल के समान मनोहर जान पड़ते हैं। सबको सम्पूर्ण सम्पदा प्रदान करने
वाली ये जगदम्बा घोर संसार-सागर से उबारने में जहाज का काम करती हैं। मैं सदा इनका
भजन करता हूँ।’
मुने! यह तो भगवती मंगलचण्डिका का
ध्यान हुआ। से ही स्तवन भी है, सुनो।
मंगलचंडिकास्तोत्रम्
शङ्कर उवाच ।।
रक्ष रक्ष जगन्मातर्देवि
मंगलचण्डिके ।
संहर्त्रि विपदां
राशेर्हर्षमंगलकारिके ।।
महादेव जी ने कहा –
‘जगन्माता भगवती मंगलचण्डिके! तुम सम्पूर्ण विपत्तियों का विध्वंस
करने वाली हो एवं हर्ष तथा मंगल प्रदान करने को सदा प्रस्तुत रहती हो। मेरी रक्षा
करो, मेरी रक्षा करो।
हर्षमंगलदक्षे च हर्षमंगलचण्डिके ।
शुभे मंगलदक्षे च शुभमंगल चण्डिके
।।
मंगले मङ्गलार्हे च सर्वमंगलमंगले ।
सतां मंगलदे देवि सर्वेषां मंगलालये
।।
खुले हाथ हर्ष और मंगल देने वाली
हर्षमंगलचण्डिके! तुम शुभा, मंगलदक्षा, शुभमंगलचण्डिका, मंगला, मंगलार्हा
तथा सर्वमंगलमंगला कहलाती हो।
पूज्या मंगलवारे च मंगलाभीष्टदैवते ।
पूज्ये मंगलभूपस्य मनुवंशस्य सन्ततम् ।।
मंगलाधिष्ठातृदेवि मंगलानां च मंगले ।
संसारे मंगलाधारे मोक्षमंगलदायिनि ।।
सारे च मंगलाधारे पारे त्वं सर्वकर्मणाम् ।
प्रतिमंगलवारं च पूज्ये त्वं मंगलप्रदे ।।
देवि! साधु पुरुषों को मंगल प्रदान
करना तुम्हारा स्वाभाविक गुण है। तुमने सबके लिये मंगल का आश्रय हो। देवि! तुम
मंगलग्रह की इष्टदेवी हो। मंगल के दिन तुम्हारी पूजा होनी चाहिये। मनुवंश में
उत्पन्न राजा मंगल की पूजनीया देवी हो। मंगलाधिष्ठात्री देवि! तुम मंगलों के लिये
भी मंगल हो। जगत के समस्त मंगल तुम पर आश्रित हैं। तुम सबको मोक्षमय मंगल प्रदान
करती हो। मंगल को सुपूजित होने पर मंगलमय सुख प्रदान करने वाली देवि! तुम संसार की
सारभूता मंगलधारा तथा समस्त कर्मों से परे हो।’
इस स्तोत्र से स्तुति करके भगवान
शंकर ने देवी मंगलचण्डिका की उपासना की। वे प्रति मंगलवार को उनका पूजन करके चले
जाते हैं। यों ये भगवती सर्वमंगला सर्वप्रथम भगवान शंकर से पूजित हुईं। उनके दूसरे
उपासक मंगल ग्रह हैं। तीसरी बार राजा मंगल ने तथा चौथी बार मंगल के दिन कुछ
सुन्दरी स्त्रियों ने इन देवी की पूजा की। पाँचवी बार मंगल की कामना रखने वाले
बहुसंख्यक मनुष्यों ने मंगलचण्डिका का पूजन किया। फिर तो विश्वेश शंकर से सुपूजित
ये देवी प्रत्येक विश्व में सदा पूजित होने लगीं। मुने! इसके बाद देवता,
मुनि, मनु और मानव– सभी
सर्वत्र इन परमेश्वरी की पूजा करने लगे।
जो पुरुष मन को एकाग्र करके भगवती
मंगलचण्डिका के इस मंगलमय स्तोत्र का श्रवण करता है, उसे सदा मंगल प्राप्त होता है। अमंगल उसके पास नहीं आ सकता। उसके पुत्र और
पौत्रों में वृद्धि होती है तथा उसे प्रतिदिन मंगल ही दृष्टिगोचर होता है।
इति श्री भगवती मंगलचण्डी उपाख्यान सम्पूर्ण।।
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