मनसादेवी
ब्रह्मा जी ने अपने मन से उत्पन्न
करके इन देवी को इस मन्त्र की अधिष्ठात्री देवी बना दिया। तपस्या तथा मन से प्रकट
होने के कारण ये ‘देवी मनसा’ नाम से विख्यात हुईं।
मनसा देवी
भगवान नारायण कहते हैं– नारद! आगमों के अनुसार देवी षष्ठी और मंगलचण्डिका का उपाख्यान कह चुका। अब मनसादेवी का चरित्र, जो धर्म के मुख से मैं सुन चुका हूँ, तुमसे कहता हूँ, सुनो। ये भगवती कश्यप जी की मानसी कन्या हैं तथा मन से उद्दीप्त होती हैं, इसलिये ‘मनसा देवी’ के नाम से विख्यात हैं। आत्मा में रमण करने वाली इन सिद्धयोगिनी वैष्णव देवी ने तीन युगों तक परब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण की तपस्या की है। गोपीपति परम प्रभु उन परमेश्वर ने इनके वस्त्र और शरीर को जीर्ण देखकर इनका ‘जरत्कारु’ नाम रख दिया। साथ ही, उन कृपानिधि ने कृपापूर्वक इनकी सभी अभिलाषाएँ पूर्ण कर दीं, इनकी पूजा का प्रचार किया और स्वयं भी इनकी पूजा की। स्वर्ग में, ब्रह्मलोक में, भूमण्डल में और पाताल में– सर्वत्र इनकी पूजा प्रचलित हुई। सम्पूर्ण जगत में ये अत्यधिक गौरवर्णा, सुन्दरी और मनोहारिणी हैं; अतएव ये साध्वी देवी ‘जगद्गौरी’ के नाम से विख्यात होकर सम्मान प्राप्त करती हैं। भगवान शिव से शिक्षा प्राप्त करने के कारण ये देवी ‘शैवी’ कहलाती हैं। भगवान विष्णु की ये अनन्य उपासिका हैं। अतएव लोग इन्हें ‘वैष्णवी’ कहते हैं। राजा जनमेजय के यज्ञ में इन्हीं के सत्प्रयत्न से नागों के प्राणों की रक्षा हुई थी, अतः इनका नाम ‘नागेश्वरी’ और ‘नागभगिनी’ पड़ गया। विष का संहार करने में परम समर्थ होने से इनका एक नाम ‘विषहरी’ है। इन्हें भगवान शंकर से योगसिद्धि प्राप्त हुई थी। अतः ये ‘सिद्धयोगिनी’ कहलाने लगीं। इन्होंने शंकर से महान गोपनीय ज्ञान एवं मृत संजीवनी नामक उत्तम विद्या प्राप्त की है, इस कारण विद्वान पुरुष इन्हें ‘महाज्ञानयुता’ कहते हैं। ये परम तपस्विनी देवी मुनिवर आस्तीक की माता हैं। अतः ये देवी जगत में सुप्रतिष्ठित होकर ‘आस्तीकमाता’ नाम से विख्यात हुई हैं। जगत्पूज्य योगी महात्मा मुनिवर जरत्कारु की प्यारी पत्नी होने के कारण ये ‘जरत्कारुप्रिया’ नाम से विख्यात हुईं।
मनसा देवी द्वादशनामस्तोत्रम्
जरत्कारुर्जगद्नौरी मनसा
सिद्धयोगिनी।
वैष्णवी नागभगिनी शैवी नागेश्वरी
तथा ।।
जरत्कारुप्रियाऽऽस्तीकमाता विषहरीति
च।
महाज्ञानयुता चैव सा देवी
विश्वपूजिता ।।
द्वादशैतानि नामानि पूजाकाले तु यः
पठेत्।
तस्य नागभयं नास्ति तस्य
वंशोद्भवस्य च ।।
जरत्कारु,
जगद्गौरी, मनसा, सिद्धयोगिनी,
वैष्णवी, नागभगिनी, शैवी,
नागेश्वरी, जरत्कारुप्रिया, आस्तीकमाता, विषहरी और महाज्ञानयुता– इन बारह नामों से विश्व इनकी पूजा करता है। जो पुरुष पूजा के समय इन बारह
नामों का पाठ करता है, उसे तथा उसके वंशज को भी सर्प का भय
नहीं हो सकता। जिस शयनागार में नागों का भय हो, जिस भवन में
बहुतेरे नाग भरे हों, नागों से युक्त होने के कारण जो महान
दारुण स्थान बन गया हो तथा जो नागों से वेष्टित हो, वहाँ भी
पुरुष इस स्तोत्र का पाठ करके सर्पभय से मुक्त हो जाता है– इसमें
कोई संशय नहीं है। जो नित्य इसका पाठ करता है, उसे देखकर नाग
भाग जाते हैं। दस लाख पाठ करने से यह स्तोत्र मनुष्यों के लिये सिद्ध हो जाता है।
जिसे यह स्तोत्र सिद्ध हो गया, वह विष-भक्षण करने तथा नागों
को भूषण बनाकर नाग पर सवारी करने में भी समर्थ हो सकता है। वह नागासन, नागतल्प तथा महान सिद्ध हो जाता है।
मनसा देवी ध्यान
मुनिवर! अब मैं देवी मनसा की पूजा
का विधान तथा सामवेदोक्त ध्यान बतलाता हूँ, सुनो।
श्वेतचम्पकवर्णाभां
रत्नभूषणभूषिताम् ।
वह्निशुद्धांशुकाधानां
नागयज्ञोपवीतिनीम् ।।
महाज्ञानयुतां चैव प्रवरां
ज्ञानिनां सताम् ।
सिद्धाधिष्ठातृदेवीं च सिद्धां
सिद्धिप्रदां भजे ।।
‘भगवती मनसा श्वेतचम्पक-पुष्प के
समान वर्णवाली हैं। इनका विग्रह रत्नमय भूषणों से विभूषित है। अग्नि शुद्ध वस्त्र
इनके शरीर की शोभा बढ़ा रहे हैं। इन्होंने सर्पों का यज्ञोपवीत धारण कर रखा है।
महान ज्ञान से सम्पन्न होने के कारण प्रसिद्ध ज्ञानियों में भी ये प्रमुख मानी
जाती हैं। ये सिद्धपुरुषों की अधिष्ठात्री देवी हैं। सिद्धि प्रदान करने वाली तथा
सिद्धा हैं; मैं इन भगवती मनसा की उपासना करता हूँ।’
इस प्रकार ध्यान करके मूलमन्त्र से
भगवती की पूजा करनी चाहिये। अनेक प्रकार के नैवेद्य तथा गन्ध,
पुष्प और अनुलेपन से देवी की पूजा होती है। सभी उपचार मूलमन्त्र को
पढ़कर अर्पण करने चाहिये।
मनसा देवी मन्त्र
मुने! इनके मूलमन्त्र का नाम है- ‘मूल कल्पतरु’– यह सुसिद्ध मन्त्र है। इसमें बारह
अक्षर हैं। इसका वर्णन वेद में है। यह भक्तों के मनोरथ को पूर्ण करने वाला है।
मन्त्र इस प्रकार है-
ॐ ह्रीं क्लीं ऐं मनसादेव्यै
स्वाहा।
पाँच लाख मन्त्र जप करने पर यह
मन्त्र सिद्ध हो जाता है। जिसे इस मन्त्र की सिद्धि प्राप्त हो गयी,
वह धरातल पर सिद्ध है। उसके लिये विष भी अमृत के समान हो जाता है।
उस पुरुष की धन्वन्तरि से तुलना की जा सकती है।
ब्रह्मन! जो पुरुष आषाढ़ की
संक्रान्ति के दिन ‘गुडा’ (कपास या सेंहुड़) नामक वृक्ष की शाखा पर यत्नपूर्वक इन भगवती मनसा
का आवाहन करके भक्तिभाव के साथ पूजा करता है तथा मनसा पंचमी को उन देवी के लिये
बलि अर्पण करता है, वह अवश्य ही धनवान, पुत्रवान और कीर्तिमान होता है। महाभाग! पूजा का विधान कह चुका। अब
धर्मदेव के मुख से जैसा कुछ सुना है, वह उपाख्यान कहता हूँ,
सुनो।
मनसा देवी उपाख्यान
प्राचीन समय की बात है। भूमण्डल के
सभी मानव नागों के भय से आक्रान्त हो गये थे। नाग जिन्हें काट खाते,
वे जीवित नहीं बचते थे। यह देख-सुनकर कश्यप जी भी भयभीत हो गये;
अतः ब्रह्मा जी के अनुरोध से उन्होंने सर्प भयनिवारक
मन्त्रों की रचना की। ब्रह्मा जी के उपदेश से वेद बीज के अनुसार मन्त्रों की रचना
हुई। साथ ही ब्रह्मा जी ने अपने मन से उत्पन्न करके इन देवी को इस मन्त्र
की अधिष्ठात्री देवी बना दिया। तपस्या तथा मन से प्रकट होने के कारण ये ‘देवी मनसा’ नाम से विख्यात हुईं। कुमारी अवस्था में
ही ये भगवान शंकर के धाम में चली गयीं। कैलास में पहुँचकर इन्होंने भक्तिपूर्वक
भगवान चन्द्रशेखर की पूजा करके उनकी स्तुति की। मुनिकुमारी मनसा ने देवताओं के
वर्ष से हजार वर्षों तक भगवान शंकर की उपासना की। तदनन्तर भगवान आशुतोष इन पर
प्रसन्न हो गये। मुने! भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर इन्हें महान ज्ञान प्रदान किया।
सामवेद का अध्ययन कराया और भगवान श्रीकृष्ण के कल्पवृक्षरूप
अष्टाक्षर-मन्त्र का उपदेश दिया।
श्रीकृष्ण अष्टाक्षर-मन्त्र
श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णाय नमः।
मन्त्र का रूप ऐसा है–
लक्ष्मीबीज, मायाबीज और कामबीज का पूर्व में
प्रयोग करके कृष्ण शब्द के अन्त में ‘ङे’ विभक्ति लगाकर 'नमः' पद जोड़
दिया जाता है। श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णाय नमः। भगवान शंकर की कृपा से जब
मुनिकुमारी मनसा को उक्त मन्त्र के साथ त्रैलोक्यमंगल नामक कवच, पूजन का क्रम, सर्वमान्य स्तवन, भुवनपावन ध्यान, सर्वसम्मत वेदोक्त पुरश्चरण का नियम
तथा मृत्युंजय-ज्ञान प्राप्त हो गया, तब वह साध्वी उनसे
आज्ञा ले पुष्कर क्षेत्र में तपस्या करने के लिये चली गयी। वहाँ जाकर उसने
परब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण की तीन युगों तक उपासना की। इसके बाद उसे तपस्या में
सिद्धि प्राप्त हुई। भगवान श्रीकृष्ण ने सामने प्रकट होकर उसे दर्शन दिये। उस समय
कृपानिधि श्रीकृष्ण ने उस कृशांगी बाला पर अपनी कृपा की दृष्टि डाली। उन्होंने
उसका दूसरों से पूजन कराया और स्वयं भी उसकी पूजा की; साथ ही
वर दिया कि ‘देवि! तुम जगत में पूजा प्राप्त करो।’ इस प्रकार कल्याणी मनसा को वर प्रदान करके भगवान अन्तर्धान हो गये।
इस तरह इस मनसा देवी की सर्वप्रथम
भगवान श्रीकृष्ण ने पूजा की। तत्पश्चात् शंकर, कश्यप,
देवता, मुनि, मनु,
नाग एवं मानव आदि से त्रिलोकी में श्रेष्ठ व्रत का पालन करने वाली
यह देवी सुपूजित हुई। फिर कश्यप जी ने जरत्कारु मुनि के साथ उसका विवाह कर
दिया। वे मुनि महान योगी थे। विवाह करने के पश्चात् तपस्या करने में संलग्न
हो गये। वे एक दिन पुष्कर क्षेत्र में उस वटवृक्ष के नीचे देवी जरत्कारु की जाँघ
पर लेट गये और उन्हें नींद आ गयी। इतने में सायंकाल होने को आया। सूर्यनारायण
अस्ताचल को जाने लगे। देवी मनसा परम साध्वी एवं पतिव्रता थी। उसने मन में विचार
किया- ‘द्विजों के लिये नित्य सायंकाल संध्या करने का
विधान है। यदि मेरे पति सोये ही रह जाते हैं तो इन्हें पाप लग जायेगा; क्योंकि ऐसा नियम है कि जो प्रातः और सायंकाल की संध्या ठीक समय पर
नहीं करता, वह अपवित्र होकर पाप का भागी होता है।’ यों विचार करके उस परम सुन्दरी मनसा ने पतिदेव को जगा दिया। मुने! मुनिवर
जरत्कारु जगने पर क्रोध से भर गये।
मुनि ने कहा–
साध्वि! मैं सुखपूर्वक सो रहा था; तुमने मेरी
निद्रा क्यों भंग कर दी? जो स्त्री अपने स्वामी का अपकार
करती है, उसके व्रत, तपस्या, उपवास और दान आदि सभी सत्कर्म व्यर्थ हो जाते हैं। स्वामी का अप्रिय करने
वाली स्त्री किसी भी सत्कर्म का फल नहीं प्राप्त कर सकती। जिसने अपने पति की पूजा
की, उससे मानो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण सुपूजित हो गये।
पतिव्रताओं के व्रत के लिये स्वयं भगवान श्रीहरि पति के रूप में विराजमान रहते
हैं। सम्पूर्ण दान, यज्ञ, तीर्थ सेवन,
व्रत, तप, उपवास,
धर्म, सत्य और देवपूजन– ये
सब-के-सब स्वामी की सेवा की सोलहवीं कला की भी तुलना नहीं कर सकते। जो स्त्री
भारतवर्ष-जैसे पुण्य क्षेत्र में पति की सेवा करती है, वह
अपने स्वामी के साथ वैकुण्ठ में जाकर श्रीहरि के चरणों में शरण पाती है। साध्वि!
जो असत्कुल में उत्पन्न स्त्री अपने स्वामी के प्रतिकूल आचरण करती तथा अपने स्वामी
के प्रति कटु वचन बोलती है, वह कुम्भीपाक नरक में सूर्य
और चन्द्रमा की आयुपर्यन्त वास करती है और पति एवं पुत्र के सुख से वंचित
रहती है। यों कहकर वे चुप हो गये। तब साध्वी मनसा भय से काँपने लगी। उसने पतिदेव
से कहा।
साध्वी मनसा ने कहा–
उत्तम व्रत का पालन करने वाले महाभाग! आपकी संध्योपासना का लोप न हो
जाये, इसी भय से मैंने आपको जगा दिया है– यह मेरा दोष अवश्य है।
इस प्रकार कहकर देवी मनसा
भक्तिपूर्वक अपने स्वामी जरत्कारु मुनि के चरण-कमलों में पड़ गयी। उस समय रोष के
आवेश में आकर मुनि सूर्य को भी शाप देने के लिये उद्यत हो गये। नारद!
उन्हें देखकर स्वयं भगवान सूर्य संध्यादेवी को साथ लेकर वहाँ आये और भयभीत
होकर विनयपूर्वक मुनिवर जरत्कारु से सम्यक प्रकार से यथार्थ बात कहने लगे।
भगवान सूर्य ने कहा–
भगवन! आप परम शक्तिशाली ब्राह्मण हैं। संध्या का समय देखकर धर्मलोप
हो जाने के भय से इस साध्वी ने आपको जगा दिया। मुने! विप्रवर! मैं आपकी शरण में
उपस्थित हूँ। मुझे शाप देना आपके लिये उचित नहीं है। ब्राह्मणों का हृदय सदा नवनीत
के समान कोमल होता है। ब्राह्मण चाहें तो पुनः सृष्टि कर सकते हैं; इनसे बढ़कर तेजस्वी दूसरा कोई है ही नहीं। ब्रह्मज्योति ब्राह्मण के
द्वारा निरन्तर सनातन भगवान श्रीकृष्ण की आराधना होती है।
सूर्य
के उपर्युक्त वचन सुनकर विप्रवर जरत्कारु प्रसन्न हो गये। उनसे आशीर्वाद लेकर सूर्य
अपने स्थान को चले गये। प्रतिज्ञा की रक्षा के लिये उन ब्राह्मण देवता ने
देवी मनसा का त्याग कर दिया। उस समय देवी के शोक की सीमा नहीं रही। दुःख के कारण
उनका हृदय क्षुब्ध हो उठा था। वे रो रही थीं। उस विपत्ति के अवसर पर भय से व्याकुल
होकर उस देवी ने अपने गुरुदेव शंकर, इष्टदेवता
ब्रह्मा और श्रीहरि तथा जन्मदाता कश्यप जी का स्मरण किया।
देवी मनसा के चिन्तन करने पर तुरंत
गोपीश भगवान श्रीकृष्ण, शंकर, ब्रह्मा और कश्यप मुनि वहाँ आ गये। प्रकृति से परे निर्गुण परब्रह्म भगवान
श्रीकृष्ण मुनिवर जरत्कारु के अभीष्ट देवता थे। उनके दर्शन पाकर परम भक्ति के साथ
मुनि बार-बार प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे। फिर भगवान शंकर, ब्रह्मा और कश्यप को भी नमस्कार किया। यों पूछा– ‘महाभाग
देवताओ! आप लोगों का यहाँ कैसे पधारना हुआ है?
मुनिवर जरत्कारु की बात सुनकर
ब्रह्मा जी ने समयोचित बातें कहीं। भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमल को प्रणाम करके
उन्होंने मुनि को उत्तर दिया- ‘मुने! तुम्हारी
यह धर्मपत्नी मनसा परम साध्वी एवं धर्म में आस्था रखने वाली है। यदि तुम इसे
त्यागना चाहते हो तो पहले इसको किसी संतान की जननी बना दो, जिससे
यह अपने धर्म का पालन कर सके। संतान हो जाने के पश्चात् स्त्री को त्यागा जा सकता
है। जो पुरुष पुत्रोत्पत्ति कराये बिना ही प्रिय पत्नी का त्याग कर देता है,
उसका पुण्य चलनी से बह जाने वाले जल की भाँति साथ छोड़ देता है।’
नारद! ब्रह्मा जी की बात सुनकर
मुनिवर जरत्कारु ने मन्त्र पढ़कर योगबल का सहारा ले देवी मनसा की नाभि का स्पर्श
कर दिया और उससे कहा।
मुनिवर जरत्कारु ने कहा–
मनसे! इस गर्भ से तुम्हें पुत्र होगा। वह पुत्र जितेन्द्रिय पुरुषों
में श्रेष्ठ, धार्मिक, ब्रह्मज्ञानी,
तेजस्वी, तपस्वी, यशस्वी,
गुणी, वेदवेत्ताओं, ज्ञानियों
और योगियों में प्रमुख, विष्णु भक्त तथा अपने कुल का उद्धारक
होगा। ऐसे सुयोग्य पुत्र के उत्पन्न होने मात्र से पितर आनन्द में भरकर
नाचने लगते हैं। जो पातिव्रत धर्म का पालन करती है, प्रिय
बोलती है और सुशीला है, वह ‘प्रिया’
है। जो धर्म में श्रद्धा रखती है, पुत्र
उत्पन्न करती है तथा कुल की रक्षा करती है, उसी को ‘कुलीन स्त्री’ कहते हैं। जो भगवान श्रीहरि के प्रति
भक्ति उत्पन्न करता एवं अभीष्ट सुख देने में तत्पर रहता है, वही
‘बन्धु’ है। यदि भगवान श्रीहरि के
मार्ग का प्रदर्शक हो तो उस बन्धु को पिता भी कह सकते हैं। वही ‘गर्भधारिणी स्त्री’ कहलाती है, जो ज्ञानोपदेश द्वारा संतान को गर्भवास से मुक्त कर दे। ‘दयारूपा भगिनी’ उसको कहते हैं, जिसकी कृपा से प्राणी यमराज के भय से मुक्त हो जाए। भगवान विष्णु
के मन्त्र को प्रदान करने वाला गुरु वही है, जो भगवान
श्रीहरि में भक्ति उत्पन्न करा दे। ज्ञानदाता गुरु उसी को कहते हैं, जिसकी कृपा से भगवान श्रीकृष्ण के चिन्तन की योग्यता प्राप्त हो जाए;
क्योंकि ब्रह्मपर्यन्त चराचर सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न होता और नष्ट
हो जाता है।
वेद अथवा यज्ञ से जो कुछ सारतत्त्व
निकलता है, वह यही है कि भगवान श्रीहरि का
सेवन किया जाए। यही तत्त्वों का भी तत्त्व है। भगवान श्रीहरि की उपासना के
अतिरिक्त सब कुछ केवल विडम्बना मात्र है। मैंने तुम्हें यथार्थ ज्ञानोपदेश कर दिया;
क्योंकि स्वामी भी वही कहलाता है, जो ज्ञान
प्रदान कर दे। ज्ञान के द्वारा बन्धन से मुक्त करने वाला ‘स्वामी’
माना जाता है और वही यदि बन्धन में डालता है तो ‘शत्रु’ है।
जो गुरु भगवान श्रीहरि में भक्ति
उत्पन्न करने वाला ज्ञान नहीं देता, उसे
‘शिष्यघाती’ कहते हैं; क्योंकि वह शिष्य को बन्धनमुक्त नहीं कर सका। जो जननी के गर्भ में
रहने के क्लेश से तथा यम यातना से मुक्त नहीं कर सकता, उसे
गुरु, तात और बान्धव कैसे कहा जाए? भगवान
श्रीकृष्ण का सनातन मार्ग परमानन्द-स्वरूप है। जो निरन्तर ऐसे मार्ग का प्रदर्शन
नहीं कराता, वह मनुष्यों के लिये कैसा बान्धव है? अतः साध्वि! तुम निर्गुण एवं अच्युत ब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण की उपासना करो;
इनकी उपासना से पुरुषों के सारे कर्ममूल कट जाते हैं। प्रिये! मैंने
जो तुम्हारा त्याग कर दिया है, इस अपराध को क्षमा करो।
साध्वी स्त्रियाँ क्षमापरायण होती हैं। सत्त्वगुण के प्रभाव से उनमें क्रोध नहीं
रहता। देवि! मैं तपस्या करने के लिये पुष्कर क्षेत्र में जा रहा हूँ। तुम भी
सुखपूर्वक यहाँ से जा सकती हो; क्योंकि निःस्पृह पुरुषों के
लिए एकमात्र मनोरथ यही है कि वे भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमल की उपासना में लग जाएँ।
मुनिवर! जरत्कारु का यह वचन सुनकर
देवी मनसा शोक से आतुर हो गयी। उसकी आँखों में आँसू भर आये। उसने विनयभाव
प्रदर्शित करते हुए अपने प्राणप्रिय पतिदेव से कहा।
देवी मनसा बोली–
प्रभो! मैंने आपकी निद्रा भंग कर दी, यह मेरा
दोष नहीं कहा जा सकता, जिससे आप मेरा त्याग कर रहे हैं। अतएव
मेरी प्रार्थना है कि जहाँ मैं आपका स्मरण करूँ, वहीं आप
मुझे दर्शन देने की कृपा कीजियेगा। पतिव्रता स्त्रियों के लिये सौ पुत्रों से भी
अधिक प्रेम का भाजन पति है। पति स्त्रियों के लिये सम्यक प्रकार से प्रिय है;
अतएव विद्वान पुरुषों के पति को ‘प्रिय’
की संज्ञा दी है। जिस प्रकार एक पुत्र वालों का पुत्र में, वैष्णव-पुरुषों का भगवान श्रीहरि में, एक नेत्र
वालों का नेत्र में, प्यासे जनों का जल में, क्षुधातुरों का अन्न में, विद्वानों का शास्त्र में
तथा वैश्यों का वाणिज्य में निरन्तर मन लगा रहता है, प्रभो!
वैसे ही पतिव्रता स्त्रियों का मन सदा अपने स्वामी का किंकर बना रहता है। इस प्रकार
कहकर मनसा देवी अपने स्वामी के चरणों में पड़ गयी।
मुनिवर जरत्कारु कृपा के समुद्र थे।
उन्होंने कृपा के वशीभूत होकर क्षण भर के लिये उसे अपनी गोद में ले लिया। मुनि के
नेत्रों से जल की ऐसी धारा गिरी कि वह साध्वी मनसा नहा उठी तथा वियोग-भय से कातर
हुई मनसा ने भी अपने आँसुओं से मुनि के वक्षःस्थल को भिगो दिया। तत्पश्चात् वे
दोनों पति-पत्नी ज्ञान द्वारा शोक से मुक्त हुए।
तदनन्तर मुनिवर जरत्कारु परमात्मा
भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमल का बार-बार स्मरण करते हुए अपनी प्रिया मनसा को समझाकर
तपस्या करने के लिये चले गये। उधर देवी मनसा भी कैलास पर पहुँचकर अपने गुरु भगवान
शंकर के निवास-गृह में चली गयी। वह शोक से व्याकुल थी। भगवती पार्वती ने उसे
भली-भाँति समझाया। भगवान शंकर ने भी उसे मंगलमय ज्ञान देकर ढाढ़स बँधाया। वह शिव
धाम में रहने लगी। वहाँ उत्तम दिन की मंगलमयी बेला में साध्वी मनसा ने पुत्र
उत्पन्न किया, जो भगवान नारायण का अंश
और योगियों एवं ज्ञानियों का भी गुरु था।
वह गर्भ में था तभी भगवान शंकर के
मुख से उसे महाज्ञान की उपलब्धि हो चुकी थी। अतएव वह बालक योगीन्द्र तथा योगियों
और ज्ञानियों का गुरु होने का अधिकारी बना। भगवान शंकर ने उसका जातकर्म और नामकरण
आदि मांगलिक संस्कार कराया। भगवान शिव ने उस शिशु के कल्याणार्थ उसे वेद पढ़ाये।
बहुत-से मणि, रत्न और किरीट ब्राह्मणों को
दान किये। देवी पार्वती द्वारा लाखों गौएँ तथा भाँति-भाँति के रत्न ब्राह्मणों को
वितरण किये गये। भगवान शिव स्वयं उस बालक की चारों वेद और वेदांग निरन्तर पढ़ाते
रहे। साथ ही मृत्युंजय ने श्रेष्ठ ज्ञान का भी उपदेश दिया। मनसा की अपने
प्राणवल्लभ पति में, इष्टदेव श्रीहरि में तथा गुरुदेव भगवान
शिव में पूर्ण भक्ति थी; अतः ‘यस्या
भक्तिरास्ते तस्याः पुत्रः’– इस व्युत्पत्ति के अनुसार उस
पुत्र का नाम ‘आस्तीक’ हुआ।
मुनिवर जरत्कारु उसी क्षण भगवान
शंकर से आज्ञा लेकर भगवान विष्णु की तपस्या करने के लिये पुष्कर क्षेत्र में चले
गये थे। उन तपोधन मुनि ने परमात्मा श्रीकृष्ण का महामन्त्र प्राप्त करके दीर्घकाल
तक तप किया। फिर वे महान योगी मुनि भगवान शंकर को प्रणाम करने के विचार से कैलास
पर आये। शंकर को नमस्कार करके कुछ समय के लिये वहीं रुक गये। तब तक वह बालक भी
वहीं था। उदार देवी मनसा उस बालक को लेकर अपने पिता कश्यप मुनि के आश्रम में चली
आयी। उस समय पुत्रवती कन्या को देखकर प्रजापति कश्यप के मन में अपार हर्ष हुआ।
मुने! उस अवसर पर प्रजापति ने ब्राह्मणों को प्रचुर रत्न दान किये। शिशु के
कल्याणार्थ असंख्य ब्राह्मणों को भोजन कराया। परंतप! कश्यप जी की दिति-अदिति तथा
अन्य भी जितनी पत्नियाँ थीं, उनके मन में
भी बड़ी प्रसन्नता हुई। उनकी वह कन्या मनसा पुत्र के साथ सुदीर्घ काल तक उस आश्रम
पर ठहरी रही। इसी के आगे का उपाख्यान कहता हूँ, सुनो।
अभिमन्यु कुमार राजा परीक्षित को
ब्राह्मण का शाप लग गया। ब्रह्मन! दुर्दैव की प्रेरणा से ऐसा कर्म बन गया कि सहसा
परीक्षित शाप से ग्रस्त हो गये। श्रृंगी ऋषि ने कौशिकी का जल हाथ में लेकर शाप दे
दिया कि ‘एक सप्ताह के बीतते ही तक्षक सर्प तुम्हें काट खाएगा।’ तक्षक ने सातवें दिन उन्हें डँस लिया। राजा सहसा शरीर त्यागकर परलोक चले
गये। जनमेजय ने उन अपने पिता का दाह-संस्कार कराया। मुने! इसके बाद उन
महाराज जनमेजय ने सर्पसत्र आरम्भ किया। ब्रह्मतेज के कारण समूह-के-समूह सर्प
प्राणों से हाथ धोने लगे। तक्षक भय से घबराकर इन्द्र की शरण में चला गया। तब
ब्राह्मण मण्डली इन्द्र सहित तक्षक को होम देने के लिये उद्यत हो गयी। ऐसी स्थिति
में इन्द्र के साथ देवता भगवती मनसा के पास गये। उस समय इन्द्र भय से अधीर हो उठे
थे। उन्होंने भगवती मनसा की स्तुति की।
फलस्वरूप मुनिवर आस्तीक माता की
आज्ञा से राजा जनमेजय के यज्ञ में आये। उन्होंने जनमेजय से इन्द्र और तक्षक के
प्राणों की याचना की। ब्राह्मणों की आज्ञा अथवा कृपावश राजा ने वर दे दिया। यज्ञ
की पूर्णाहुति कर दी गयी। सुप्रसन्न राजा द्वारा ब्राह्मण यज्ञान्त-दक्षिणा पा
गये। तत्पश्चात् ब्राह्मण, देवता और मुनि सभी
देवी मनसा के पास गये तथा सबने पृथक-पृथक उस देवी की पूजा और स्तुति की। इन्द्र ने
पवित्र हो श्रेष्ठ सामग्रियों को लेकर उनके द्वारा देवी मनसा का पूजन किया। फिर वे
भक्तिपूर्वक नित्य पूजा करने लगे। षोडशोपचार से अतिशय आदर प्रकट करते हुए उन्होंने
पूजा और स्तुति की। यों देवी मनसा की अर्चना करने के पश्चात् ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव के आज्ञानुसार संतुष्ट होकर सभी देवता अपने स्थानों पर चले
गये।
मुने! इस प्रकार की ये सम्पूर्ण
कथाएँ कह चुका। अब आगे और क्या सुनना चाहते हो?
नारद जी ने पूछा–
प्रभो! देवराज इन्द्र ने किस स्तोत्र से देवी मनसा की स्तुति की थी
तथा किस विधि के क्रम से पूजन किया था? इस प्रसंग को मैं
सुनना चाहता हूँ।
भगवान नारायण कहते है –
नारद! देवराज इन्द्र ने स्नान किया। पवित्र हो आचमन करके दो नूतन
वस्त्र धारण किये। देवी मनसा को रत्नमय सिंहासन पर पधराया और भक्तिपूर्वक स्वर्ग
गंगा का जल रत्नमय कलश में लेकर वेद मन्त्रों का उच्चारण करते हुए उससे देवी को
स्नान कराया। विशुद्ध दो मनोहर अग्नि शुद्ध वस्त्र पहनने के लिये अर्पण किये। देवी
के सम्पूर्ण अंगों में चन्दन लगाया। भक्तिपूर्वक पाद्य और अर्घ्य को उनके सामने
निवेदन किया। उस समय देवराज इन्द्र ने गणेश, सूर्य,
अग्नि, विष्णु, शिव और गौरी – इन
छः देवताओं का पूजन करने के पश्चात् साध्वी मनसा की पूजा की थी। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं मनसादेव्यै स्वाहा।’ इस दशाक्षर
मूलमन्त्र का उच्चारण करके यथोचित रूप से पूजन की सभी सामग्री देवी को अर्पण की।
इस तरह सोलह प्रकार की दुर्लभ वस्तुएँ देवराज इन्द्र के द्वारा साध्वी मनसा की
सेवा में अर्पित हुईं। भगवान विष्णु की प्रेरणा से इन्द्र प्रसन्नतापूर्वक भक्ति
सहित पूजा में लगे रहे। उस समय उन्होंने नाना प्रकार के बाजे बजवाये। देवी मनसा के
ऊपर पुष्पों की वर्षा होने लगी। तदनन्तर ब्रह्मा, विष्णु और
शिव की आज्ञा से पुलकित-शरीर होकर नेत्रों में अश्रु भरे हुए इन्द्र ने देवी मनसा
की स्तुति की।
मनसादेवी स्तोत्रम्
पुरन्दर उवाच
देवि त्वां स्तोतुमिच्छामि
साध्वीनां प्रवरां वराम् ।।
परात्परां च परमां न हि स्तोतुं
क्षमोऽधुना।
स्तोत्राणां लक्षणं वेदे
स्वभावाख्यानतत्परम् ।।
इन्द्र बोले–
देवि! तुम साध्वी पतिव्रताओं में परम श्रेष्ठ तथा परात्पर देवी हो।
इस समय मैं तुम्हारी स्तुति करना चाहता हूँ; किंतु यह
महत्त्वपूर्ण कार्य मेरी शक्ति के बाहर है। देवी प्रकृते! वेदों में स्तोत्रों का
लक्षण यह बताया गया है कि स्तुत्य के स्वभाव का प्रतिपादन किया जाए; परंतु सुव्रते! मैं तुम्हारे स्वभाव का वर्णन करने में असमर्थ हूँ।
न क्षमः प्रकृते वक्तुं गुणानां तव
सुव्रते।
शुद्धसत्त्वस्वरूपा त्वं
कोपहिंसाविवर्जिता ।।
न च शप्तो मुनिस्तेन त्यक्तया च
त्वया यतः ।
त्वं मया पूजिता साध्वि जननी मे
यथादितिः ।।
तुम शुद्ध-सत्त्वस्वरूपा हो,
तुममें कोप और हिंसा का नितान्त अभाव है। यही कारण है कि जरत्कारु
मुनि के द्वारा परित्यक्त होने पर भी तुमने उन मुनि को शाप नहीं दिया। साध्वि!
मैंने माता अदिति के समान मानकर तुम्हारा पूजन किया है।
दयारूपा च भगिनी क्षमारूपा यथा
प्रसूः।
त्वया मे रक्षिताः प्राणाः
पुत्रदाराः सुरेश्वरि ।।
अहं करोमि त्वां पूज्यां प्रीतिश्च
वर्धते मम।
नित्यं यद्यपि त्वं पूज्या भवेऽत्र
जगदम्बिके ।।
तुम मेरी दयारूपिणी भगिनी और माता
के समान क्षमाशील हो। सुरेश्वरि! तुमने पुत्र और स्त्री सहित मेरे प्राणों की
रक्षा की है, मैं तुम्हें पूजनीया बनाता हूँ।
तुम्हारे प्रति मेरी प्रीति निरन्तर बढ़ रही है।
तथापि तव पूजां च वर्धयामि च
सर्वतः।
ये त्वामाषाढसंक्रान्त्यां
पूजयिष्यन्ति भक्तितः ।।
पञ्चम्यां मनसाख्यायामिषान्तं वा
दिने दिने।
पुत्रपौत्रादयस्तेषां वर्धन्ते च
धनानि वै ।।
जगदम्बिके! यद्यपि इस जगत में
तुम्हारी नित्य पूजा होती है, फिर भी मैं तुम्हारी
पूजा का प्रचार और प्रसार कर रहा हूँ। सुरेश्वरि! जो पुरुष आषाढ़ मास की
संक्रान्ति के समय, मनसासंज्ञक पंचमी[नागपंचमी]
को अथवा आषाढ़ से आश्विन तक प्रतिदिन भक्ति के साथ तुम्हारी पूजा
करेंगे, उनके यहाँ पुत्र-पौत्र आदि की और धन की वृद्धि होगी–
यह निश्चित है।
यशस्विनः कीर्तिमन्तो विद्यावन्तो
गुणान्विताः।
ये त्वां न पूजयिष्यन्ति
निन्दन्त्यज्ञानतो जनाः ।।
लक्ष्मीहीना भविष्यन्ति तेषां
नागभयं सदा।
त्वं स्वर्गलक्ष्मीः स्वर्गे च
वैकुण्ठे कमलाकला ।।
साथ ही वे यशस्वी,
कीर्तिमान, विद्वान और गुणी होंगे। जो व्यक्ति
अज्ञान के कारण तुम्हारी पूजा से विमुख होकर निन्दा करेंगे, उनके
यहाँ लक्ष्मी नहीं ठहरेगी और उन्हें सर्पों से सदा भय बना रहेगा। तुम स्वयं स्वर्ग
में स्वर्गलक्ष्मी हो। वैकुण्ठ में कमला की कला हो।
नारायणांशो भगवान्
जरत्कारुर्मुनीश्वरः।
तपसा तेजसा त्वां च मनसा ससृजे पिता
।।
ये मुनिवर जरत्कारु भगवान नारायण के
साक्षात अंश हैं। पिता जी ने हम सबकी रक्षा के लिये ही तपस्या और तेज के प्रभाव से
मन के द्वारा तुम्हारी सृष्टि की है।
अस्माकं रक्षणायैव तेन त्वं
मनसाभिधा।
मनसा देवितुं शक्ता स्वात्मना
सिद्धयोगिनी ।।
तेन त्वं मनसादेवी पूजिता वन्दिता
भवे।
ये भक्त्या मनसां देवाः
पूजयन्त्यनिशं भृशम् ।।
तेन त्वां मनसादेवीं प्रवदन्ति
मनीषिणः।
सत्यस्वरूपा देवी त्वं
शश्वत्सत्त्वनिषेवया ।।
यो हि यद् भावयेन्नित्यं शतं
प्राप्रोन्ति तत्समम्।
अतएव तुम मनसादेवी कहलाती हो। देवि!
तुम सिद्धयोगिनी हो, अतः स्वतः मन से
देवन[सर्वत्र गमन] करने की शक्ति रखती हो; इसलिये जगत में मनसा देवी के नाम से पूजित और वन्दित होती हो। देवता
भक्तिपूर्वक निरन्तर मन से तुम्हारी पूजा करते हैं, इसी से
विद्वान पुरुष तुम्हें मनसा देवी कहते हैं। देवि! तुम सदा सत्त्व का सेवन करने से
करने से सत्त्वस्वरूपा हो। जो पुरुष जिस वस्तु का निरन्तर चिन्तन करने है, वे वैसी वस्तु को सौगुनी संख्या में पा जाते हैं।
मुने! इस प्रकार इन्द्र देवी मनसा
की स्तुति करके वस्त्र और आभूषणों से विभूषित उस बहिन को साथ ले अपने निवास-स्थान
को चले गये।
देवी मनसा ने अपने पुत्र के साथ
पिता कश्यप जी के आश्रम में दीर्घकाल तक वास किया। भ्रातृवर्ग सदा उनका पूजन,
अभिवादन और सम्मान करता था। ब्रह्मन! तदनन्तर एक बार गोलोक से सुरभी
गौ आयी और उसने अपने दूध से आदरणीया मनसा को स्नान कराकर सादर उनका पूजन किया।
साथ ही, उसने सर्वदुर्लभ गोप्य ज्ञान का भी उपदेश दिया। उस
समय सुरभी देवताओं से पूजित हो स्वर्गलोक में चली गयी।
यह स्तोत्र पुण्यबीज कहलाता है। जो
पुरुष मनसा देवी की पूजा करके इस स्तोत्र का पाठ करता है,
उसे तथा वंश के लिये भी नाग से भय नहीं हो सकता। यदि यह स्तोत्र
सिद्ध हो जाए तो पुरुष के लिये विष भी अमृत-तुल्य हो जाता है। इस स्तोत्र का पाँच
लाख जप करने पर यह सिद्ध हो जाता है। फिर मन्त्रसिद्ध पुरुष सर्पशायी तथा सर्पवाहन
हो सकता है अर्थात उस पर सर्प का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता।
इति श्री भगवती मनसादेवी उपाख्यान सम्पूर्ण।।
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