बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १

महर्षि पाराशर द्वारा रचित बृहत् होरा शास्त्र ज्योतिष, विशेष रूप से होरा शाखा (कुंडली) पर सबसे व्यापक विद्यमान शास्त्र है। इसमें ९७ (97) अध्याय है। इसके पूर्वार्ध अध्याय १ में सृष्टि आदिक्रम और अवतारवाद का वर्णन हुआ है।   

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १

बृहत्पाराशर होराशास्त्र अध्याय १

Vrihat Parashar hora shastra chapter 1

बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् प्रथमोऽध्यायः

श्रीगणेशाय नमः

अथ बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् भाषा-टीकासहितं

पूर्वार्धम्

श्रीगणेशं गुरुं नत्वा नत्वाम्बां सुमतिप्रदाम् ।

पाराशरीयहोरायाः कुर्वे टीकां सुबोधिनीम् ।। १ ।।

मैत्रेय उवाच-

नमस्तस्मै भगवते बोधरूपाय सर्वदा ।

परमानन्दकन्दाय गुरवेऽज्ञानध्वंसिने ।। १ ॥

इति स्तुत्या सुसंहृष्टो मुनिस्तत्त्वविदाम्बरः ।

अथादिदेश सच्छास्त्रं सारं यज्ज्योतिषां शुभम् ।।२।।

मैत्रेय जी ज्योतिषशास्त्र के सार पदार्थ को जानने के लिए पाराशरजी की स्तुति करते हैं।

अज्ञान को नाश करने वाले परम आनन्द को देनेवाले सर्वदा ज्ञान को देनेवाले भगवन् परमपूज्य आपको नमस्कार है । इस स्तुति से तत्त्व के जानने वालों में श्रेष्ठ मुनि प्रसन्न होकर ज्यौतिष (ग्रहों) के शुभ तत्त्व शास्त्र का आदेश करने लगे । । १-२ ।।

पराशर उवाच

शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शुक्लाम्बरधरां गिरम् ।

प्रणम्य पाञ्चजन्यं च वीणां याभ्यां धृतं द्वयम् ।।३।।

पराशर जी बोले- सफेद वस्त्र को धारण किये हुये, पांचजन्य को लिये विष्णु को एवं सफेद वस्त्र को धारण किये हुये, वीणा को लिये हुये सरस्वती को प्रणाम कर । । ३ । ।

सूर्यं नत्वा ग्रहपतिं जगदुत्पत्तिकारणम् ।

वक्ष्यामि वेदनयनं यथा ब्रह्ममुखाच्छ्रुतम् ।।४।।

संसार के उत्पत्ति के कारण ग्रहों के स्वामी सूर्य को नमस्कार करके जैसा मैंने ब्रह्मा के मुख से सुना है वैसा ही वेद के नेत्र को ( ज्यौतिष शास्त्र) कहूँगा । । ४ । ।

शान्ताय गुरुभक्ताय ऋजवेऽर्चितस्वामिने ।

आस्तिकाय प्रदातव्यं ततः श्रेयो ह्यवाप्यति ॥ ५ ॥

इस शास्त्र को शान्तस्वभाव गुरुभक्त, सीधे, स्वामीभक्त और आस्तिक को देना चाहिए। इससे कल्याण की प्राप्ति होती है । ५ ॥

न देयं परशिष्याय नास्तिकाय शठाय च ।

दत्ते प्रतिदिनं दुःखं जायते नात्र संशयः । । ६ ।।

दूसरे के शिष्य को, नास्तिक और मूर्ख को नहीं देना चाहिए। ऐसा करने से प्रतिदिन दुःख होता है, इसमें संशय नहीं है ।।६।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १-सृष्ट्यादिक्रमः

अथ सृष्ट्यारम्भमाह –

एकोऽव्यक्तात्मको विष्णुरनादिः प्रभुरीश्वरः ।

शुद्धसत्वो जगत्स्वामी निर्गुणस्त्रिगुणान्वितः ।।७।।

एक अव्यक्त आत्मावाले विष्णु हैं जो कि अनादि, समर्थ, ईश्वर, शुद्ध सतोगुणी, जगत के स्वामी, निर्गुण होते हुए भी तीनों गुणों से युक्त हैं ।।७।।

संसारकारकः श्रीमान्निमित्तात्मा प्रतापवान् ।

एकांशेन जगत्सर्वं सृजत्यवति लीलया । । ८ । ।

संसार को बनाने वाले सर्व सम्पत्ति से युक्त, नियतात्मावाले, प्रतापी हैं। वे अपने एक अंश से सम्पूर्ण जगत् की लीला से ही रचना करते और पालन करते हैं ।। ८ ।।

त्रिपादं तस्य देवस्य ह्यमृतं तत्त्वदर्शिभिः ।

विदन्ति तत्प्रमाणं च सप्रधानं तथैकपात् । । ९ । ।

इनके तीन चरण अमृतमय हैं जिसे तत्त्वदर्शी लोग जानते हैं। प्रधान के सहित प्रमाणस्वरूप एक चरण से ।। ९ ।।

व्यक्ताव्यक्तात्मको विष्णुर्वासुदेवस्तु गीयते ।

यदव्यक्तात्मको विष्णुः शक्तिद्वयसमन्वितः । । १० ।।

व्यक्त और अव्यक्त आत्मावाले विष्णु को वासुदेव कहते हैं । जो अव्यक्त विष्णु हैं वे दो शक्तियों से युक्त हैं ।।१० ।।

व्यक्तात्मकस्त्रिशक्तीभिः संयुतोऽनन्तशक्तिमान् ।

सत्त्वप्रधाना श्रीशक्तिर्भूशक्तिश्च रजोगुणः । । ११ ।।

व्यक्त आत्मावाले विष्णु तीन शक्तियों से युक्त होने से अनन्त शक्तिवाले कहे जाते हैं। तीनों शक्तियों में श्री शक्ति सत्त्वगुण प्रधान, भू शक्ति रजोगुण प्रधान है । । ११ । ।

शक्तिस्तृतीया प्रोक्ता नीलाख्या ध्वान्तरूपिणी ।

वासुदेवश्चतुर्थोऽभूच्छ्रीशक्त्या प्रेरितो यदा ।। १२ । ।

तीसरी नील शक्ति तमोगुण प्रधान है। इनसे भिन्न श्रीशक्ति से प्रेरित चौथे वासुदेव हैं ।। १२ ।।

सङ्कर्षणश्च प्रद्युम्नोऽनिरुद्ध इति मूर्त्तिधृक् ।

तमः शक्त्यान्वितो विष्णुर्देवः सङ्कर्षणाभिधः । । १३ ।।

वे संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध नामक मूर्ति को धारण करते हैं, तमःशक्ति से युक्त विष्णु संकर्षण नाम से।।१३।।

प्रद्युम्नो रजसा शक्त्याऽनिरुद्धः सत्त्वया युतः ।

महान्सङ्कर्षणाज्जातः प्रद्युम्नादहंकृतिः । । १४ ।।

शक्ति से प्रद्युम्न, सत्त्व शक्ति से युक्त अनिरुद्ध होते हैं। संकर्षण से महत्तत्त्व की उत्पत्ति और प्रद्युम्न से अहंकार की उत्पत्ति हुई । । १४ । ।

अहङ्कारात्स्वयं जातो ब्रह्माहङ्कारमूर्त्तिधृक् ।

सर्वेषु सर्वशक्तिश्च स्वशक्त्याधिकया युतः । । १५ ।।

अहंकार से अहंकार की मूर्ति को धारण किये हुए ब्रह्मा हुए। सभी लोगों में सभी शक्तियाँ हैं किन्तु जिस शक्ति से जो उत्पन्न हुए हैं वह शक्तिं उनमें अधिक है ।। १५ ।।

अहङ्कारस्त्रिधा भूत्वा सर्वमेतदविस्तराद् ।

सात्त्विको राजसश्चैव तामसश्चेदहंकृतिः ।। १६ ।।

अहंकार भी सात्त्विक, राजस, तामस क्रम से वैकारिक, तैजस और तामस नाम से तीन प्रकार के हैं ।। १६ ।।

देवा वैकारिकाज्जातास्तैजसादिन्द्रियाणि च ।

तामसाश्चैव भूतानि खादीनि स्वशक्तिभिः ।। १७ ।।

वैकारिक से देवता, तैजस से इन्द्रिय और तामस से पंचमहाभूतों की उत्पत्ति हुई है। ये सभी अपनी-अपनी शक्ति से उत्पन्न हैं । । १७ ।।

श्रीशक्त्या सहितो विष्णुः सदापाति जंगत्त्रयम् ।

शक्त्या सृजते विष्णुर्नीलशक्त्या युतोऽत्ति हि । । १८ ।।

श्री शक्ति से युक्त होकर विष्णु (वासुदेव) तीनों लोकों का पालन करते हैं, भू शक्ति से (विष्णु) ब्रह्मा जगत् की सृष्टि करते हैं और नील शक्तिसम्पन्न शिव तीनों लोकों का लय करते हैं । । १८ ।।

सर्वेषु चैव जीवेषु परमात्मा विराजते ।

सर्वं हि तदिदं ब्रह्मन् स्थितं हि परमात्मनि । । १९ ।।

हे ब्रह्मन् ! सभी जीवों में परमात्मा स्थित हैं और यह समस्त जगत् परमात्मा में स्थित है । । १९ ।

सर्वेषु चैव जीवेषु स्थितंह्यंशद्वयं क्वचित् ।

जीवांशो ह्यधिकस्तद्वत् परमात्मांशकः किल ॥ २० ॥

सभी जीवों में दो अंश अधिक होते हैं, किसी में जीवांश अधिक होता हैं और किसी में परमात्मांश अधिक होता हैं।।२०।।

सूर्यादयो ग्रहाः सर्वे ब्रह्मकामद्विषादयः ।

एते चान्ये च बहवः परमात्मांशकाधिकाः ॥ २१ ॥

सूर्यादि ग्रहों में, ब्रह्मा, शिव आदि देवता तथा अन्य अवतारों में परमात्मांश अधिक होता है । । २१ । ।

शक्तयश्च तथैतेषामधिकांशाः श्रियादयः ।

अन्यासु स्वस्वशक्तीषु ज्ञेया जीवांशकाधिकाः ।। २२ ।।

इनकी जो शक्तियाँ (लक्ष्मी आदि ) हैं इनमें भी परमात्मांश अधिक होता है। अन्य देवता और उनकी शक्तियों में जीवांश अधिक होता है ।। २२ ।।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय १- अवतारवादः

पराशर जी के उत्तर से शंकित हो मैत्रेय जी ने पुनः प्रश्न किया ।

मैत्रेय उवाच-

रामकृष्णादयो ये च ह्यवतारा रमापतेः ।

तेऽपि जीवांशसंयुक्ताः किं वा ब्रूहि मुनीश्वर ।। २३ ।।

मैजी बोले- हे मुनीश्वर ! राम, कृष्ण आदि जो विष्णु के अवतार हैं क्या वे भी जीवांश से युक्त हैं ।। २३ ।।

पराशर उवाच -

रामः कृष्णश्च भो विप्र नृसिंहः सूकरस्तथा ।

इति पूर्णावताराश्च ह्यन्ये जीवांशकान्विताः ॥ २४ ।।

पराशर जी बोले- हे विप्र ! राम, कृष्ण, नृसिंह और शूकर ये पूर्ण अवतार हैं। अन्य अवतार जीवांश से युक्त हैं ।। २४ ।।

अवताराण्यनेकानि ह्यजस्य परमात्मनः ।

जीवानां कर्मफलदो ग्रहरूपी जनार्दनः । । २५ । ।

अजन्मा परमात्मा के अनेक अवतार हैं। जीवों के कर्मानुसार फल देने के लिए ग्रहरूप जनार्दन भगवान् का अवतार है ।। २५ ।।

दैत्यानां बलनाशाय देवानां बलवृद्धये ।

धर्मसंस्थापनार्थाय ग्रहाज्जाताः शुभाः क्रमात् । ।२६ ।।

दैत्यों के बल को नाश करने के लिए और देवताओं का बल बढ़ाने के लिये तथा धर्म को स्थापित करने के लिये ग्रहों से शुभद अवतार हुए हैं।।२६।।

रामोऽवतारः सूर्यस्य चन्द्रस्य यदुनायकः।

नृसिंहो भूमिपुत्रस्य बुद्धः सोमसुतस्य च ।। २७ ।।

जैसे सूर्य का रामावतार, चन्द्रमा का कृष्णावतार, भौम का नृसिंहावतार और बुध का बौद्धावतार है । । २७ ।।

वामनो विबुधेयस्य भार्गवो भार्गवस्य च ।

कूर्मो भास्करपुत्रस्य सैंहिकेयस्य सूकरः ।। २८ ।।

बृहस्पति का वामन अवतार, शुक्र का भार्गव (परशुराम) अवतार, शनि का कूर्म अवतार, राहु का सूकर अवतार है ।। २८ ।।

केतोर्मीनावतारश्च ये चान्ये तेऽपि खेटजाः ।

परमात्मांशमधिकं येषु ते च वै खेचराभिधाः ।। २९ ।।

केतू का मत्स्यावतार हुआ है, अन्य अवतार भी ग्रहों से ही हुए हैं। जिनमें परमात्मांश अधिक है वे खेचर यानि देव कहे जाते हैं ।। २९ ।।

जीवांशमधिकं येषु जीवास्ते वै प्रकीर्त्तिताः ।

सूर्यादिभ्यो ग्रहेभ्यश्च परमात्मांशनिःसृताः ।। ३० ।।

रामकृष्णादयः सर्वे ह्यवतारा भवन्ति वै ।

तत्रैव ते विलीयन्ते पुनः कार्यान्तरे सदा ।। ३१ ।।

जिनमें जीवांश अधिक हैं वे जीव कहे जाते हैं। सूर्य आदि ग्रहों से परमात्मांश निकल कर ही राम, कृष्ण आदि अवतार हुए हैं। वे अपने-अपने कार्यों को करके पुनः उन्हीं में लीन हो जाते हैं । । ३०-३१ ।।

जीवांशनिः सृतास्तेषां तेभ्यो जाता नरादयः ।

तेऽपि तथैव लीयन्ते तेऽव्यक्ते समयान्ति हि । । ३२ ॥

उन्हीं (सूर्यादिग्रहों) में से जीवांश के निकलने से मनुष्य आदि जीवों की सृष्टि होती हैं वे भी इहलोक में अपने-अपने कार्यों को करके अन्त में उन्हीं में लीन हो जाते हैं। ये ग्रह भी प्रलय के समय अव्यक्त परमात्मा में लीन हो जाते हैं । । ३२ ।।

इदं ते कथितं विप्र स यस्मिन् वै भवेदिति ।

भूतान्यपि भविष्यन्ति तत्तत्सर्वज्ञतामियात् ।। ३३ ।।

हे विप्र ! इस प्रकार से मैंने सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय जैसे होती है, हुई है और होगी उन सभी को तुम से कहा। इन सबको वही सर्वज्ञ (परमात्मांश पुरुष) ही जानता है ।। ३३ ।।

विना तज्ज्योतिषं नान्यो ज्ञातुं शक्नोति कर्हिचित् ।

तस्मादवश्यमध्येयं ब्राह्मणैश्च विशेषतः । । ३४ । ।

इन सभी बातों को बिना ज्योतिषशास्त्र के कोई कभी भी नहीं जान सकता है। इसलिये इस शास्त्र का अध्ययन अवश्य करना चाहिए, विशेषकर ब्राह्मण को अवश्य करना चाहिए ।। ३४ ।।

यो नरः शास्त्रमज्ञात्वा ज्यौतिषं खलु निन्दति ।

रौरवं नरकं भुक्त्वा चान्धत्वं चान्यजन्मनि । । ३५ ।।

जो मनुष्य इस शास्त्र को न जानते हुए ज्योतिषशास्त्र की निन्दा करता है, वह रौरवं नरक को भोगकर दूसरे जन्म में अन्धा होता है ।। ३५ ।।

इति बृहत्पाराशरहोराय़ां पूर्वखंडे सृष्ट्यादिक्रमशास्त्रावतरणं नाम प्रथमोऽध्यायः।।१।।

इति पाराशरहोरायां सुबोधिन्यां प्रथमोऽध्यायः ।। १ ।।

आगे जारी............. बृहत्पाराशरहोराशास्त्र अध्याय 2

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