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अग्निपुराणम् अध्यायः १६६ – वर्णधर्मादिकथनं
अथ षट्षष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः
पुष्कर उवाच
वेदस्मार्तं प्रवक्ष्यामि धर्मं वै
पञ्चधा स्मृतं ।
वर्णत्वमेकमाश्रित्य योऽधिकारः
प्रवर्तते ॥०१॥
वर्णधर्मः स विज्ञेयो
यथोपनयनन्त्रिषु ।
यस्त्वाश्रमं समाश्रित्य पदार्थः
संविधीयते ॥०२॥
उक्त आश्रमधर्मस्तु भिन्नपिण्डादिको
यथा ।
उभयेन निमित्तेन यो विधिः
सम्प्रवर्तते ॥०३॥
नैमित्तिकः स विज्ञेयः
प्रायश्चित्तविधिर्यथा ।
पुष्कर कहते हैं- अब मैं श्रौत और
स्मार्त- धर्म का वर्णन करता हूँ। वह पाँच प्रकार का माना गया है। वर्णमात्र का
आश्रय लेकर जो अधिकार प्रवृत्त होता है, उसे
'वर्ण धर्म' जानना चाहिये। जैसे कि
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों के लिये उपनयन
संस्कार आवश्यक है। यह 'वर्ण-धर्म' कहलाता
है। आश्रम का अवलम्बन लेकर जिस पदार्थ का संविधान होता है, वह
'आश्रम- धर्म' कहा गया है। जैसे भिन्न-
पिण्डादिक का विधान होता है। जो विधि दोनों के निमित्त से प्रवर्तित होती है,
उसको 'नैमित्तिक' मानना
चाहिये। जैसे प्रायश्चित्त का विधान होता है ॥ १-३अ॥
ब्रह्मचारी गृही चापि वानप्रस्थो
यतिर्नृप ॥०४॥
उक्त आश्रमधर्मस्तु धर्मः
स्यात्पञ्चधा परः ।
षाड्गुण्यस्याभिधाने यो दृष्टार्थः
स उदाहृतः ॥०५॥
स त्रेधा मन्त्रयागाद्यदृष्टार्थ
इति मानवाः ।
उभयार्थो व्यवहारस्तु दण्डधारणमेव च
॥०६॥
तुल्यार्थानां विकल्पः
स्याद्यागमूलः प्रकीर्तितः ।
वेदे तु विहितो धर्मः स्मृतौ तादृश
एव च ॥०७॥
अनुवादं स्मृतिः सूते कार्यार्थमिति
मानवाः ।
गुणार्थः परिसङ्ख्यार्थो वानुवादो
विशेषतः ॥०८॥
विशेषदृष्ट एवासौ फलार्थ इति मानवाः
।
राजन् ! ब्रह्मचारी,
गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी – इनसे सम्बन्धित धर्म आश्रम- धर्म' माना गया है।
दूसरे प्रकार से भी धर्म के पाँच भेद होते हैं। षाड्गुण्य (संधि - विग्रह आदि ) -
के अभिधान में जिसकी प्रवृत्ति होती है, वह 'दृष्टार्थ' बतलाया गया है। उसके तीन भेद होते हैं।
मन्त्र-यश-प्रभृति 'अदृष्टार्थ' हैं,
ऐसा मनु आदि कहते हैं। इसके सिवा 'उभयार्थक
व्यवहार', 'दण्डधारण' और 'तुल्यार्थ - विकल्प' - ये भी यज्ञमूलक धर्म के अङ्ग
कहे गये हैं। वेद में धर्म का जिस प्रकार प्रतिपादन किया गया है, स्मृति में भी वैसे ही है। कार्य के लिये स्मृति वेदोक्त धर्म का अनुवाद
करती है - ऐसा मनु आदि का मत है। इसलिये स्मृतियों में उक्त धर्म वेदोक्त धर्म का
गुणार्थ, परिसंख्या, विशेषतः अनुवाद,
विशेष दृष्टार्थ अथवा फलार्थ है, यह राजर्षि
मनु का सिद्धान्त है ॥ ४-८अ ॥
स्यादष्टचत्वारिंशद्भिः
संस्कारैर्ब्रह्मलोकगः ॥०९॥
गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तोन्नयनः
ततः ।
जातकर्म नामकृतिरन्नप्राशनचूडकं
॥१०॥
संस्कारश्चोपनयनं वेदव्रतचतुष्टयं ।
स्नानं स्वधर्मचारिण्या योगः
स्याद्यज्ञपञ्चकं ॥११॥
देवयज्ञः पितृयज्ञो मनुष्यभूतयज्ञकौ
।
ब्रह्मयज्ञः सप्तपाकयज्ञसंस्थाः
पुरोऽष्टकाः ॥१२॥
पार्वणश्राद्धं श्रावण्याग्रहायणी च
चैत्र्यपि ।
आश्वयुजी सप्तहविर्यज्ञसंस्थास्ततः
स्मृताः ॥१३॥
अग्न्याधेयमग्निहोत्रं दर्शः स्यात्पशुबन्धकः
।
चातुर्मास्याग्रहायेष्टिर्निरूढः
पशुबन्धकः ॥१४॥
सौत्रामणिसप्तसोमसंस्थाग्निष्टोम
आदितः ।
अत्यग्निष्टोम उक्थश्च षोडशी
वाजपेयकः ॥१५॥
अतिरात्रास्तथा स्तोम अष्टौ
चात्मगुणास्ततः ।
दया क्षमानसूया च अनायासोऽथ मङ्गलं
॥१६॥
निम्नलिखित अड़तालीस संस्कारों से
सम्पन्न मनुष्य ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है - (१) गर्भाधान,(२) पुंसवन, (३) सीमन्तोन्नयन, (४) जातकर्म, (५) नामकरण, (६)
अन्नप्राशन, (७) चूडाकर्म, (८) उपनयन
संस्कार, (९-१२) चार वेदव्रत (वेदाध्ययन), (१३) स्नान (समावर्तन), (१४) सहधर्मिणी- संयोग
(विवाह), (१५-१९ ) पञ्चयज्ञ - देवयज्ञ, पितृयज्ञ मनुष्ययज्ञ, भूतयज्ञ तथा ब्रह्मयज्ञ,
(२०-२६) सात पाक-यज्ञ- संस्था, (२७-३४) अष्टका
अष्टकासहित तीन पार्वण श्राद्ध, श्रावणी, आग्रहायणी, चैत्री और आश्वयुजी (३५ -४१) सात
हविर्यज्ञ-संस्था - अग्न्याधेय, अग्निहोत्र, दर्श- पौर्णमास, चातुर्मास्य, आग्रहायणेष्टि,
निरूढपशुबन्ध एवं सौत्रामणि, (४२ - ४८) सात
सोम संस्था अग्निष्टोम अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और
आप्तोर्याम आठ आत्मगुण हैं- दया, क्षमा, अनसूया, अनायास, माङ्गल्य,
अकार्पण्य, अस्पृहा तथा शौच जो इन गुणों से
युक्त होता है, वह परमधाम (स्वर्ग) को प्राप्त करता है ॥ ९ –
१६ ॥
अकार्पण्यास्पृहाशौचं यस्यैते स परं
व्रजेत् ।
प्रचारे मैथुने चैव प्रस्रावे
दन्तधावने ॥१७॥
स्नानभोजनकाले च षट्सु मौनं
समाचरेत् ।
पुनर्दानं पृथक्पानमाज्येन पयसा
निशि ॥१८॥
दन्तच्छेदनमुष्णं च सप्त सक्तुषु
वर्जयेत् ।
स्नात्वा पुष्पं न
गृह्णीयाद्देवायोग्यन्तदीरितं ॥१९॥
अन्यगोत्रोप्यसम्बद्धः
प्रेतस्याग्निन्ददाति यः ।
पिण्डञ्चोदकदानञ्च स दशाहं समापयेत्
॥२०॥
उदकञ्च तृणं भस्म द्वारं
पन्थास्तथैव च ।
एभिरन्तरितं कृत्वा पङ्क्तिदोषो न
विद्यते ॥२१॥
पञ्च प्राणाहुतीर्दद्यादनामाङ्गुष्ठयोगतः
॥२२॥
मार्गगमन,
मैथुन, मल-मूत्रोत्सर्ग, दन्तधावन, स्नान और भोजन - इन छः कार्यों को करते
समय मौन धारण करना चाहिये। दान की हुई वस्तु का पुनः दान, पृथक्पाक,
घृत के साथ जल पीना, दूध के साथ जल पीना,
रात्रि में जल पीना, दाँत से नख आदि काटना एवं
बहुत गरम जल पीना- इन सात बातों का परित्याग कर देना चाहिये । स्नान के पश्चात्
पुष्प चयन न करे; क्योंकि वे पुष्प देवता के चढ़ानेयोग्य
नहीं माने गये हैं। यदि कोई अन्यगोत्रीय असम्बन्धी पुरुष किसी मृतक का अग्नि
संस्कार करता है तो उसे दस दिनतक पिण्ड तथा उदकदान का कार्य भी पूर्ण करना चाहिये।
जल, तृण, भस्म, द्वार
एवं मार्ग - इनको बीच में रखकर जाने से पङ्किदोष नहीं माना जाता। भोजन के पूर्व
अनामिका और अङ्गुष्ठ के संयोग से पञ्चप्राणों को आहुतियाँ देनी चाहिये॥१७-२२॥
इत्याग्नेये महापुराणे
वर्णधर्मादिर्नाम षट्षष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'वर्णाश्रमधर्म आदि का वर्णन' नामक एक सौ छाछठवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥१६६॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 167
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