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अग्निपुराण अध्याय १७१

अग्निपुराण अध्याय १७१             

अग्निपुराण अध्याय १७१ में गुप्त पापों के प्रायश्चित्त का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय १७१

अग्निपुराणम् एकसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 171                

अग्निपुराण एक सौ इकहत्तरवाँ अध्याय

अग्निपुराणम्/अध्यायः १७१          

अग्निपुराणम् अध्यायः १७१ – प्रायश्चित्तानि

अथ एकसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः

प्रायश्चित्तानि

पुष्कर उवाच

प्रायश्चित्तं रहस्यादि वक्ष्ये शुद्धिकरं पर ।

पौरुषेण तु सूक्तेन मासं जप्यादिनाघहा ॥१॥

मुच्यते पातकैः सर्वैर्जप्त्वा त्रिरघमर्षणं ।

वेदजप्याद्वायुयमाद्गायत्र्या व्रततोऽद्यहा ॥२॥

मुण्डनं सर्वकृच्छ्रेषु स्नानं होमो हरेर्यजिः ।

उत्थितस्तु दिवा तिष्ठेदुपविष्टस्तथा निशि ॥३॥

एतद्वीरासनं प्रोक्तं कृच्छ्रकृत्तेन पापहा ।

अष्टभिः प्रत्यहं ग्रासैर्यतिचान्द्रायणं स्मृतं ॥४॥

प्रातश्चतुर्भिः सायञ्च शिशुचान्द्रायणं स्मृतं ।

यथाकथञ्चित्पिण्डानां चत्वारिंशच्छतद्वयं ॥५॥

मासेन भक्षयेदेतत्सुरचान्द्रायणं चरेत् ।

त्र्यहमुष्णं पिवेदापस्त्यहमुष्णं पयः पिबेत् ॥६॥

त्र्याहमुष्णं घृतं पीत्वा वायुभक्षो भवेत्त्र्यहं ।

तप्तकृच्छ्रमिदं प्रोक्तं शीतैः शीतं प्रकीर्तितं ॥७॥

कृच्छ्रातिकृच्छ्रं पयसा दिवसानेकविंशतिं ।

गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकं ॥८॥

एकरात्रोपवासश्चकृच्छ्रं शान्तपनं स्मृतं ।

एतच्च प्रत्याभ्यस्तं महाशान्तपनं स्मृतं ॥९॥

त्र्यहाभ्यस्तमथैकैकमतिशान्तपनं स्मृतं ।

कृच्छ्रं पराकसञ्ज्ञं स्याद्द्वादशाहमभोजनं ॥१०॥

एकभक्तं त्र्यहाभ्यस्तं क्रमान्नक्तमयाचितं ।

प्राजापत्यमुपोष्यान्ते पादः स्यात्कृच्छ्रपादकः ॥११॥

फलैर्मासं फलं कृच्छ्रं बिल्वैः श्रीक्च्छ्र ईरितः ।

पद्माक्षैः स्यादामलकैः पुष्पकृच्छ्रं तु पुष्पकैः ॥१२॥

पत्रकृच्छ्रन्तथा पत्रैस्तोयकृच्छ्रं जलेन तु ।

मूलकृच्छ्रन्तथा मूलैर्दृध्न क्षीरेण तक्रतः ॥१३॥

मासं वायव्यकृच्छ्रं स्यात्पाणिपूरान्नभोजनात् ।

तिलैर्द्वादशरात्रेण कृच्छ्रमाग्नेयमार्तिनुत् ॥१४॥

पाक्षं प्रसृत्या लाजानां ब्रह्मकूर्चं तथा भवेत् ।

उपोषितश्चतुर्दृश्यां पञ्चदश्यामनन्तरं ॥१५॥

पञ्चगव्यं समश्नीयाद्धविष्याशीत्यनन्तरं ।

मासेन द्विर्नरः कृत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१६॥

श्रीकामः पुष्टिकामश्च स्वर्गकामोऽघनष्टये ।

देवताराधनपरः कृच्छ्रकारी स सर्वभाक् ॥१७॥ 

पुष्कर कहते हैं-अब मैं गुप्त पापों के प्रायश्चित्तों का वर्णन करता हूँ, जो परम शुद्धिप्रद है । एक मासतक पुरुषसूक्त का जप पाप का नाश करनेवाला है। अघमर्षण मन्त्र का तीन बार जप करने मे मनुष्य सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है। वेदमन्त्र, वायुसूक्त और यमसूक्त के जप एवं गायत्री का जप करने से मनुष्य अपने सब पाप को नष्ट कर डालता है । समस्त कृच्छ्रों में मुण्डन, स्नान, हवन और श्रीहरि का पूजन विहित है । 'कृच्छ्रवत' करनेवाला दिन में खड़ा रहे और रात में बैठा रहे, इसे वीरासन' कहा गया है। इससे मनुष्य निष्पाप हो जाता है। एक महीने- तक प्रतिदिन आठ ग्राम भोजन करे, इसे 'यतिचान्द्रायण' कहते हैं। एक मासतक नित्य प्रातःकाल चार ग्रास और शायंकाल चार ग्रास भोजन करने से 'शिशुचान्द्रायण' होता है। एक मास मे किसी भी प्रकार दो सौ चालीस पिण्ड भोजन करे, यह 'सुरचान्द्रायण' की विधि है। तीन दिन गरम जल, तीन दिन गरम दूध तीन दिन गरम घी और तीन दिन बायु पीकर रहे इसे 'तप्तकृच्छ्र' कहा गया है। और इसी क्रम से तीन दिन ठंढा जळ, तीन दिन ठंढा दूध, तीन दिन ठंडा घी और तीन दिन वायु पीने पर 'शीतकृच्छ्र' होता है। इक्कीस दिन तक केवल दूध पीकर रहने से 'कृच्छ्रातिकृच्छ्र' होता है। एक दिन गोमूत्र, गोबर, दूध, दही, घी और कुश-जल का भक्षण करके रहे तथा एक दिन उपवास करे इसे कृच्छ्रांतपन व्रत' माना गया है। 'सांतपनकृच्छ्र' की वस्तुओं को एक-एक दिन के क्रम से लेने पर महासांतपन' व्रत माना जाता है। इन्हीं वस्तुओं को तीन-तीन दिन के क्रम से ग्रहण करने पर 'अतिसांतपन' माना जाता है। बारह दिन निराहार रहने से 'पराककृच्छ्र' होता है । तीन दिन प्रातःकाल, तीन दिन सायंकाल और तीन दिन बिना मांगे मिली हुई वस्तु का भोजन करे और अन्त में तीन दिन उपवास रक्खे, इसे 'प्राजापत्य- व्रत' कहा गया है। इसीके एक चरण का अनुष्ठान कृच्छ्रपाद' कहलाता है । एक मास तक फल खाकर रहने से 'फलकृच्छ्र' और बेल खाकर रहने 'श्रीकृच्छ्र' होता है। इसी प्रकार पद्माक्ष (कमलगट्टा ) खाकर रहनेसे 'पद्माक्षकृच्छ्र', ऑबले खाकर रहने से 'आमलककृच्छ्र' और पुष्प खाकर रहने से 'पुष्पकृच्छ्र' होता है। पूर्वोक्त क्रम से केवल पत्ते खाकर रहने 'पत्रकृच्छ्र', जल पीकर रहने से 'जलकृच्छ्र, केवल मूल का भोजन करने से 'मूलकृच्छ्र' और दधि, दुग्ध अथवा तक्र पर निर्भर रहने से क्रमशः 'दधिकृच्छ्र', 'दुग्धकृच्छ्र' और 'तक्रकृच्छ्र' होते हैं। एक मासतक अञ्जलि भर अन्न के भोजन से 'वायव्यकृच्छ्र' होता है। बारह दिन केवल तिल का भोजन करके रहने से 'आग्नेयकृच्छ्र' माना जाता है, जो दुःख का विनाश करनेवाला है। एक पक्षतक एक पसर लाज (खील) का भोजन करे । चतुर्दशी एवं पञ्चदशी (अमावास्या एवं पूर्णिमा) को उपवास रखे। फिर पञ्चगव्यपान करके हविष्यान्न का भोजन करे। यह 'ब्रह्मकूर्च व्रत' होता है। इस व्रत को एक मास में दो बार करने से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य धन, पुष्टि, स्वर्ग एवं पापनाश की कामना से देवताओं का आराधन और कृच्छ्रव्रत करता है, वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है॥ १-१७॥

इत्याग्नेये महापुराणे रहस्यादिप्रायश्वित्तं नाम एकसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'गुप्त पापों के प्रायश्चित्त का वर्णन' नामक एक सौ इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७१ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 172  

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