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कर्मकाण्ड

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समस्त पापनाशक स्तोत्र

समस्त पापनाशक स्तोत्र

भगवान वेदव्यास द्वारा रचित अठारह पुराणों में से एक 'अग्नि पुराण' में अग्निदेव द्वारा महर्षि वशिष्ठ को दिए गए विभिन्न उपदेश हैं। इसी के अंतर्गत इस समस्त पापनाशक स्तोत्र के बारे में महात्मा पुष्कर कहते हैं कि मनुष्य चित्त की मलिनता वश चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन आदि विभिन्न पाप करता है, पर जब चित्त कुछ शुद्ध होता है तब उसे इन पापों से मुक्ति की इच्छा होती है। उस समय भगवान नारायण की दिव्य स्तुति करने से समस्त पापों का प्रायश्चित पूर्ण होता है। इसीलिए इस दिव्य स्तोत्र का नाम 'समस्त पापनाशक स्तोत्र' है। 

समस्त पापनाशक स्तोत्र

अग्निपुराणम् अध्यायः १७२ समस्त पापनाशक स्तोत्र

अग्निपुराणम् द्विसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः सर्वपापप्रायश्चित्तानि

समस्त पाप नाशक स्तोत्र

पुष्कर उवाच

परदारपरद्रव्यजीवहिंसादिके यदा ।

प्रवर्तते नृणां चित्तं प्रायश्चित्तं स्तुतिस्तदा ॥१॥

पुष्कर कहते हैं-जब मनुष्यों का चित्त परस्त्रीगमन, परस्वापहरण एवं जीवहिंसा आदि पापों में प्रवृत्त होता है, तो स्तुति करने से उसका प्रायश्चित्त होता है। (उस समय निम्नलिखित प्रकार से भगवान् श्रीविष्णु की स्तुति करे)" - 

सर्वपापनाशनस्तोत्रम्

विष्णवे विष्णवे नित्यं विष्णवे विष्णवे नमः ।

नमामि विष्णुं चित्तस्थमहङ्कारगतिं हरिं ॥२॥

सर्वव्यापी विष्णु को सदा नमस्कार है। श्रीहरि विष्णु को नमस्कार है। मैं अपने चित्त में स्थित सर्वव्यापी, अहंकारशून्य श्रीहरि को नमस्कार करता हूँ।

चित्तस्थमीशमव्यक्तमनन्तमपराजितं ।

विष्णुमीड्यमशेषेण अनादिनिधनं विभुं ॥३॥

मैं अपने मानस में विराजमान अव्यक्त, अनन्त और अपराजित परमेश्वर को नमस्कार करता हूँ। सबके पूजनीय, जन्म और मरण से रहित, प्रभावशाली श्रीविष्णु को नमस्कार है।

विष्णुश्चित्तगतो यन्मे विष्णुर्बुद्धिगतश्च यत् ।

यच्चाहङ्कारगो विष्णुर्यद्विष्णुर्मयि संस्थितः ॥४॥

विष्णु मेरे चित्त में निवास करते हैं, विष्णु मेरी बुद्धि में विराजमान हैं, विष्णु मेरे अहंकार में प्रतिष्ठित हैं और विष्णु मुझमें भी स्थित हैं।

करोति कर्मभूतोऽसौ स्थवरस्य चरस्य च ।

तत्पापन्नाशमायातु तस्मिन्नेव हि चिन्तिते ॥५॥

वे श्रीविष्णु ही चराचर प्राणियों के कर्मों के रूप में स्थित हैं, उनके चिन्तन से मेरे पाप का विनाश हो।

ध्यातो हरति यत्पापं स्वप्ने दृष्टस्तु भावनात् ।

तमुपेन्द्रमहं विष्णुं प्रणतार्तिहरं हरिं ॥६॥

जो ध्यान करने पर पापों का हरण करते हैं और भावना करने से स्वप्न में दर्शन देते हैं, इन्द्र के अनुज, शरणागतजनों का दुःख दूर करनेवाले उन पापापहारी श्रीविष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ।

जगत्यस्मिन्निराधारे मज्जमाने तमस्यधः ।

हस्तावलम्बनं विष्णुं प्रणमामि परात्परं ॥७॥

मैं इस निराधार जगत्में अज्ञानान्धकार में डूबते हुए को हाथ का सहारा देनेवाले परात्परस्वरूप श्रीविष्णु के सम्मुख प्रणत होता हूँ।

सर्वेश्वरेश्वर विभो परमात्मन्नधोक्षज ।

हृषीकेश हृषीकेश हृषीकेश नमोऽस्तु ते ॥८॥

सर्वेश्वरेश्वर प्रभो! कमलनयन परमात्मन्! हृषीकेश! आपको नमस्कार है। इन्द्रियों के स्वामी श्रीविष्णो! आपको नमस्कार है।

नृसिंहानन्त गोविन्द भूतभवन केशव ।

दुरुक्तं दुष्कृतं ध्यातं शमयाघन्नमोऽस्तु ते ॥९॥

नृसिंह! अनन्तस्वरूप गोविन्द ! समस्त भूत प्राणियों की सृष्टि करनेवाले केशव ! मेरे द्वारा जो दुर्वचन कहा गया हो अथवा पापपूर्ण चिन्तन किया गया हो, मेरे उस पाप का प्रशमन कीजिये आपको नमस्कार है।

यन्मया चिन्तितं दुष्टं स्वचित्तवशवर्तिना ।

अकार्यमहदत्युग्रन्तच्छमन्नय केशव ॥१०॥

केशव अपने मन के वश में होकर मैंने जो न करनेयोग्य अत्यन्त उग्र पापपूर्ण चिन्तन किया है, उसे शान्त कीजिये।

ब्रह्मण्यदेव गोविन्द परमार्थपरायण ।

जगन्नाथ जगद्धातः पापं प्रशमयाच्युत ॥११॥

परमार्थपरायण ब्राह्मणप्रिय गोविन्द ! अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होनेवाले जगन्नाथ! जगत्का भरण- पोषण करनेवाले देवेश्वर ! मेरे पाप का विनाश कीजिये।

यथापराह्णे सायाह्णे मध्याह्णे च तथा निशि ।

कायेन मनसा वाचा कृतं पापमजानता ॥१२॥

जानता च हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव ।

नामत्रयोच्चारणतः स्वप्ने यातु मम क्षयं ॥१३॥

मैंने मध्याह्न, अपराह्न, सायंकाल एवं रात्रि के समय, जानते हुए अथवा अनजाने, शरीर, मन एवं वाणी के द्वारा जो पाप किया हो; 'पुण्डरीकाक्ष', 'हृषीकेश', 'माधव'- आपके इन तीन नामों के उच्चारण से मेरे वे सब पाप क्षीण हो जायें।

शारीरं मे हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव ।

पापं प्रशमयाद्य त्वं बाक्कृतं मम माधव ॥१४॥

कमलनयन लक्ष्मीपते। इन्द्रियों के स्वामी माधव ! आज आप मेरे शरीर एवं वाणी द्वारा किये हुए पापों का हनन कीजिये।

यद्भुञ्जन्यत्स्वपंस्तिष्ठन् गच्छन् जाग्रद्यदास्थितः ।

कृतवान् पापमद्याहं कायेन मनसा गिरा ॥१५॥

यत्स्वल्पमपि यत्स्थूलं कुयोनिनरकाबहं ।

तद्यातु प्रशमं सर्वं वासुदेवानुकीर्तनात् ॥१६॥

आज मैंने खाते, सोते, खड़े, चलते अथवा जागते हुए मन, वाणी और शरीर से जो भी नीच योनि एवं नरक की प्राप्ति करानेवाला सूक्ष्म अथवा स्थूल पाप किया हो, भगवान् वासुदेव के नामोच्चारण से वे सब विनष्ट हो जायें।

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमञ्च यत् ।

तस्मिन् प्रकीर्तिते विष्णौ यत्पापं तत्प्रणश्यतु ॥१७॥

जो परब्रह्म, परमधाम और परम पवित्र हैं, उन श्रीविष्णु के संकीर्तन से मेरे पाप लुप्त हो जायें।

यत्प्राप्य न निवर्तन्ते गन्धस्पर्शदिवर्जितं ।

सूरयस्तत्पदं विष्णोस्तत्सर्वं शमयत्वघं ॥१८॥

जिसको प्राप्त होकर ज्ञानीजन पुनः लौटकर नहीं आते, जो गन्ध, स्पर्श आदि तन्मात्राओं से रहित है; श्रीविष्णु का वह परमपद मेरे पापों का शमन करे।"

समस्त पापनाशक स्तोत्र फलश्रुति

पापप्रणाशनं स्तोत्रं यः पठेच्छृणुयादपि ।

शारीरैर्मानसैर्वाग्जैः कृतैः पापैः प्रमुच्यते ॥१९॥

सर्वपापग्रहादिभ्यो याति विष्णोः परं पदं ।

तस्मात्पापे कृते जप्यं स्तोत्रं सर्वाघमर्दनं ॥२०॥

जो मनुष्य पापों का विनाश करनेवाले इस स्तोत्र का पठन अथवा श्रवण करता है, वह शरीर, मन और वाणीजनित समस्त पापों से छूट जाता है एवं समस्त पापग्रहों से मुक्त होकर श्रीविष्णु के परमपद को प्राप्त होता है। इसलिये किसी भी पाप के हो जाने पर इस स्तोत्र का जप करे।

प्रायश्चित्तमघौघानां स्तोत्रं व्रतकृते वरं ।

प्रायश्चित्तैः स्तोत्रजपैर्व्रतैर्नश्यति पातकं ॥२१॥

ततः कार्याणि संसिद्ध्यै तानि वै भुक्तिमुक्तये ॥२२॥

यह स्तोत्र पापसमूहों के प्रायश्चित्त के समान है। कृच्छ्र आदि व्रत करनेवाले के लिये भी यह श्रेष्ठ है। स्तोत्र - जप और व्रतरूप प्रायश्चित्त से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिये भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिये इनका अनुष्ठान करना चाहिये।

इत्याग्नेये महापुराणे सर्वपापप्रायश्चित्ते पापनाशनस्तोत्रं नाम द्विसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'समस्तपापनाशक स्तोत्र का वर्णन' नामक एक सौ बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७२॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 173  

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