श्रीकृष्णस्तोत्र अक्रूरकृत

श्रीकृष्णस्तोत्र अक्रूरकृत  

अक्रूरकृत श्रीकृष्णस्तोत्र का जो एकाग्रचित्त होकर पाठ करता है, तो भार्याहीन को प्रिय भार्या, निर्धन को धन, भूमिहीन को उर्वरा भूमि, संतानहीन को संतान और प्रतिष्ठारहित को प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है और जो यशस्वी नहीं है, वह भी अनायास ही महान यश प्राप्त कर लेता है।

अक्रूर ने बारी-बारी से श्रीकृष्ण और बलराम को गोद में उठा लिया तथा उनके गाल चूमे। उस समय उनका सारा अंग पुलकित था। नेत्रों से अश्रुधारा झर रही थी। हृदय में आह्लाद उमड़ आ रहा था। अक्रूर कृतार्थ हो गये। उनका मनोरथ सिद्ध हो गया। उन्होंने दो भुजाओं से सुशोभित श्यामसुंदर श्रीकृष्ण की ओर एक क्षण तक देखा, जो पीताम्बर धारण किये मालती की माला से विभूषित थे। उनके सारे अंग चंदन से चर्चित थे। उन्होंने हाथ में वंशी ले रखी थी। ब्रह्मा, शिव और शेष आदि देवता तथा सनकादि मुनीन्द्र जिनकी स्तुति करते हैं और गोप-कन्याएँ जिनकी ओर सदा निहारती हैं; उन परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्ण को अक्रूर ने एक क्षण तक अपनी गोद में देखा। वे मुस्करा रहे थे। तत्पश्चात उन्होंने चतुर्भुज विष्णु के रूप में उनको सामने खड़े देखा। लक्ष्मी और सरस्वती- ये दो देवियाँ उनके अगल-बगल में खड़ी थीं। वे वनमाला से विभूषित थे। सुनन्द, नन्द और कुमुद आदि पार्षद उनकी सेवा में उपस्थित थे। सिद्धों के समुदाय भक्तिभाव से नम्र हो उन परात्पर प्रभु की सेवा कर रहे थे। फिर, दूसरे ही क्षण अक्रूर ने श्रीकृष्ण को महादेव जी के रूप में देखा। उनके पाँच मुख और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र थे। अंगकांति शुद्ध स्फुटिक-मणि के समान उज्ज्वल थी। नागराज के आभूषण उनकी शोभा बढ़ाते थे। दिशाएं ही उनके लिए वस्त्र का काम देती थीं। योगियों में श्रेष्ठ वे परब्रह्म शिव अपने अंगों में भस्म रमाये, सिर पर जटा धारण किये और हाथ में जप-माला लिए ध्यान में स्थित थे।तदनन्तर एक ही क्षण में श्रीकृष्ण उन्हें ध्यानपरायण एवं मनीषियों में श्रेष्ठ चतुर्भुज ब्रह्मा के रूप में दृष्टिगोचर हुए। फिर कभी धर्म, कभी शेष, कभी सूर्य, कभी सनातन ज्योतिः स्वरूप और कभी कोटि-कोटि कन्दर्पनिन्दक, परम शोभासंपन्न एवं कामिनियों के लिए कमनीय प्रेमास्पद के रूप में दिखायी दिये। इस रूप में नन्दनन्दन का दर्शन करके अक्रूर ने उन्हें छाती से लगा लिया। नारद! नन्दजी के दिए हुए रमणीय रत्नसिंहासन पर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण को बिठाकर भक्तिभाव से उनकी परिक्रमा करके पुलकित-शरीर हो अक्रूर ने पृथ्वी पर माथा टेक उन्हें प्रणाम किया और स्तुति प्रारंभ की।

श्रीकृष्णस्तोत्र अक्रूरकृत

श्रीकृष्णस्तोत्रम् अक्रूरकृतं

अक्रूर उवाच

नमः कारणरूपाय परमात्मस्वरूपिणे ।

सर्वेषामपि विश्वानामीश्वराय नमो नमः ।।१ ।।

पराय प्रकृतेरीश परात्परतराय च ।

निर्गुणाय निरीहाय नीरूपाय स्वरूपिणे ।। २ ।।

सर्वदेवस्वरूपाय सर्वदेवेश्वराय च ।

सर्वदेवाधिदेवाय विश्वादिभूतरूपिणे ।

असंश्येषु च विश्वेषु ब्रह्मविष्णुशिवात्मक ।। ३ ।।

स्वरूपायाऽऽदिबीजाय तदीशविश्वरूपिणे ।

नमो गोपाङ्गनेशाय गणेशेश्वररूपिणे ।। ४ ।।

नमः सुरगणेशाय राधेशाय नमो नमः ।

राधारमणरूपाय राधारूपधराय च ।। ५ ।।

राधाराध्याय राधायाः प्राणाधिकतराय च ।

राधासाध्याय राधाधिदेवप्रियतमाय च ।। ६ ।।

राधाप्राणाधिदेवाय विश्वरूपाय ते नमः ।

वेदस्तुतात्मवेदज्ञरूपिणे सर्ववेदिने ।। ७ ।।

वैदाधिष्ठातृदेवाय वेदबीजाय ते नमः ।

यस्य लोमसु विश्वानि चासंख्यानि च नित्यशः ।। ८ ।।

महद्विष्णोरीश्वराय विश्वेशाय नमो नमः ।

स्वयं प्रकृतिरूपाय प्राकृताय नमो नमः ।

प्रकृतीश्वररूपाय प्रधानपुरूषाय च ।। ९  ।।

श्रीकृष्णस्तोत्रम् अक्रूरकृतं फलश्रुति   

इत्यक्रूरकृतं स्तोत्रं यः पठेत्सुसमाहितः ।

अपुत्रो लभते पुत्रमभार्यों लभते प्रियम् ।। १० ।।

अधनो धनमाप्नोति निर्भूमिरुर्वरां महीम् ।

हतप्रजः प्रजालाभं प्रतिष्ठां चाप्रतिष्ठितः ।

यशः प्राप्नोति विपुलमयशस्वी च लीलया ।। ११ ।।

इति ब्रह्मo श्रिकृष्णजन्मखo उत्तo श्रीकृष्णस्तोत्रम् अक्रूरकृतं सम्पूर्ण: ।। ७० ।।

अक्रूरकृत श्रीकृष्णस्तोत्र भावार्थ सहित  

अक्रूर उवाच

नमः कारणरूपाय परमात्मस्वरूपिणे ।

सर्वेषामपि विश्वानामीश्वराय नमो नमः ।।१ ।।

अक्रूर बोले- जो सबके कारण, परमात्मस्वरूप तथा संपूर्ण विश्व के ईश्वर हैं, उन श्रीकृष्ण को बारंबार नमस्कार है।

पराय प्रकृतेरीश परात्परतराय च ।

निर्गुणाय निरीहाय नीरूपाय स्वरूपिणे ।। २ ।।

सर्वदेवस्वरूपाय सर्वदेवेश्वराय च ।

सर्वदेवाधिदेवाय विश्वादिभूतरूपिणे ।

असंश्येषु च विश्वेषु ब्रह्मविष्णुशिवात्मक ।। ३ ।।

सर्वेश्वर! आप प्रकृति से परे, परात्पर, निर्गुण, निरीह, निराकार, साकार, सर्वदेवस्वरूप, सर्वदेवेश्वर, संपूर्ण देवताओं के भी अधिदेवता तथा विश्व के आदि कारण हैं; आपको नमस्कार है। असंख्य ब्रह्माण्डों में आप ही ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप में निवास करते हैं।

स्वरूपायाऽऽदिबीजाय तदीशविश्वरूपिणे ।

नमो गोपाङ्गनेशाय गणेशेश्वररूपिणे ।। ४ ।।

आप ही सबके आदिकारण हैं। विश्वेश्वर और विश्व दोनों आपके ही स्वरूप हैं; आपको नमस्कार है। गोपांगनाओं के प्राणवल्लभ! आपको नमस्कार है।

नमः सुरगणेशाय राधेशाय नमो नमः ।

राधारमणरूपाय राधारूपधराय च ।। ५ ।।

गणेश और ईश्वर आपके ही रूप हैं। आपको नमस्कार है। आप देवगणों के स्वामी तथा श्रीराधा के प्राणवल्लभ हैं; आपको बारंबार नमस्कार है। आप ही राधारमण तथा राधा का रूप धारण करते हैं।

राधाराध्याय राधायाः प्राणाधिकतराय च ।

राधासाध्याय राधाधिदेवप्रियतमाय च ।। ६ ।।

राधा के आराध्य देवता तथा राधिका के प्राणाधिक प्रियतम भी आप ही हैं; आपको नमस्कार हैं। राधा के वश में रहने वाले, राधा के अधिदेवता और राधा के प्रियतम! आपको नमस्कार है।

राधाप्राणाधिदेवाय विश्वरूपाय ते नमः ।

वेदस्तुतात्मवेदज्ञरूपिणे सर्ववेदिने ।। ७ ।।

आप राधा के प्राणों के अधिष्ठाता देवता हैं तथा संपूर्ण विश्व आपका ही रूप है; आपको नमस्कार है। वेदों ने जिनकी स्तुति की है, वे परमात्मा तथा वेदज्ञ विद्वान भी आप ही हैं। वेदों के ज्ञान से संपन्न होने के कारण आप वेदी कहे गये हैं; आपको नमस्कार है।

वैदाधिष्ठातृदेवाय वेदबीजाय ते नमः ।

यस्य लोमसु विश्वानि चासंख्यानि च नित्यशः ।। ८ ।।

वेदों के अधिष्ठाता देवता और बीज भी आप ही हैं; आपको नमस्कार है। जिनके रोमकूपों में असंख्य ब्रह्माण्ड नित्य निवास करते हैं।

महद्विष्णोरीश्वराय विश्वेशाय नमो नमः ।

स्वयं प्रकृतिरूपाय प्राकृताय नमो नमः ।

प्रकृतीश्वररूपाय प्रधानपुरूषाय च ।। ९  ।।

उन महाविष्णु के ईश्वर आप विश्वेश्वर को बारंबार नमस्कार है। आप स्वयं ही प्रकृतिरूप और प्राकृत पदार्थ हैं। प्रकृति के ईश्वर तथा प्रधान पुरुष भी आप ही हैं। आपको बारंबार नमस्कार है।

इत्यक्रूरकृतं स्तोत्रं यः पठेत्सुसमाहितः ।

अपुत्रो लभते पुत्रमभार्यों लभते प्रियम् ।। १० ।।

अधनो धनमाप्नोति निर्भूमिरुर्वरां महीम् ।

हतप्रजः प्रजालाभं प्रतिष्ठां चाप्रतिष्ठितः ।

यशः प्राप्नोति विपुलमयशस्वी च लीलया ।। ११ ।।

जो अक्रूर द्वारा किये गए इस स्तोत्र का एकाग्रचित्त होकर पाठ करता है, वह पुत्रहीन हो तो पुत्र पाता है और भार्याहीन हो तो उसे प्रिय भार्या की उपलब्धि होती है। निर्धन को धन, भूमिहीन को उर्वरा भूमि, संतानहीन को संतान और प्रतिष्ठारहित को प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है और जो यशस्वी नहीं है, वह भी अनायास ही महान यश प्राप्त कर लेता है।

इस प्रकार ब्रह्मo श्रिकृष्णजन्मखo उत्तo अक्रूरकृत श्रीकृष्णस्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ।। ७० ।।

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