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श्रीकृष्णशरणाष्टकम्
श्रीकृष्णशरणाष्टकम् - अर्जुन
श्रीकृष्ण से कहते हैं कि मेरा मन बहुत चंचल है। उसे वश मे कैसे करूं?
भगवान कहते हैं, अभ्यास और वैराग्य के जरिए मन
वश में किया जाता है।
मन में राग है,
इसलिए मन चंचल है। गोपियां अपने मन को श्रीकृष्ण से बचाने की कोशिश
करती हैं। श्रीकृष्ण सखाओं के साथ जाकर गोपियों के घर से मक्खन की चोरी करते हैं।
फरियाद लेकर आई हुई गोपियों से मां
यशोदा कहती हैं, तुम समझती क्यों नहीं हो। तुम
अंधेरे में मक्खन रखो जिससे मेरे लाला को पता ही न चले।
गोपियों ने कहा,
तुहारा लाला जहां जाता है वहां उजियारा ही हो जाता है। उनसे कुछ
छिपा हुआ नहीं है। इनसे किस तरह से बचाके रखें?
अपने मन को वश में कर भगवान श्रीकृष्ण
के शरणापन्न होकर श्रीकृष्णशरणाष्टकम् का पाठ करें। श्रीकृष्ण से प्रीति बढ़ेगी व
मन की सारी इच्छाएँ भगवान् पूरी करेंगे ।
श्रीकृष्ण शरणाष्टकम् १
द्विदलीकृतदृक्स्वास्यः
पन्नगीकृतपन्नगः ।
कृशीकृतकृशानुश्च श्रीकृष्णः शरणं
मम ॥ १॥
फलीकृतफलार्थी च कुस्सितीकृतकौरवः ।
निर्वातीकृतवातारिः श्रीकृष्णः शरणं
मम ॥ २॥
कृतार्थीकृतकुन्तीजः
प्रपूतीकृतपूतनः ।
कलङ्कीकृतकंसादिः श्रीकृष्णः शरणं
मम ॥ ३॥
सुखीकृतसुदामा च शङ्करीकृतशङ्करः ।
सितीकृतसरिन्नाथः श्रीकृष्णः शरणं
मम ॥ ४॥
छलीकृतबलिद्यौर्यो निधनीकृतधेनुकः ।
कन्दर्पीकृतकुब्जादिः श्रीकृष्ण
शरणं मम ॥ ५॥
महेन्द्रीकृतमाहेयः शिथिलीकृतमैथिलः
।
आनन्दीकृतनन्दाद्यः श्रीकृष्णः शरणं
मम ॥ ६॥
वराकीकृतराकेशो विपक्षीकृतराक्षसः ।
सन्तोषीकृतसद्भक्तः श्रीकृष्णः शरणं
मम ॥ ७॥
जरीकृतजरासन्धः कमलीकृतकार्मुकः ।
प्रभ्रष्टीकृतभीष्मादिः श्रीकृष्णः
शरणं मम ॥ ८॥
श्रीकृष्णः शरणं ममाष्टकमिदं
प्रोत्थाय यः सम्पठेत्
स श्रीगोकुलनायकस्य पदवी संयाति
भूमीतले ।
पश्यत्येव निरन्तरं
तरणिजातीरस्थकेली प्रभोः
सम्प्राप्नोति तदीयतां प्रतिदिनं
गोपीशतैरावृताम् ॥ ९॥
॥ इति श्रीदेवकीनन्दनात्मज
श्रीरघुनाथप्रभुकृतं श्रीकृष्णशरणाष्टकं सम्पूर्णम् ॥
श्रीकृष्णशरणाष्टकम् २
सर्वसाधनहीनस्य पराधीनस्य सर्वतः ।
पापपीनस्य दीनस्य श्रीकृष्णः शरणं
मम ॥ १॥
संसारसुखसम्प्राप्तिसन्मुखस्य
विशेषतः ।
वहिर्मुखस्य सततं श्रीकृष्णः शरणं
मम ॥ २॥
सदा विषयकामस्य देहारामस्य सर्वथा ।
दुष्टस्वभाववामस्य श्रीकृष्णः शरणं
मम ॥ ३॥
संसारसर्वदुष्टस्य धर्मभ्रष्टस्य
दुर्मतेः ।
लौकिकप्राप्तिकामस्य श्रीकृष्णः
शरणं मम ॥ ४॥
विस्मृतस्वीयधर्मस्य कर्ममोहितचेतसः
।
स्वरूपज्ञानशून्यस्य श्रीकृष्णः
शरणं मम ॥ ५॥
संसारसिन्धुमग्नस्य भग्नभावस्य
दुष्कृतेः ।
दुर्भावलग्नमनसः श्रीकृष्णः शरणं मम
॥ ६॥
विवेकधैर्यभक्त्यादिरहितस्य
निरन्तरम् ।
विरुद्धकरणासक्तेः श्रीकृष्णः शरणं
मम ॥ ७॥
विषयाक्रान्तदेहस्य
वैमुख्यहृतसन्मतेः ।
इन्द्रियाश्वगृहितस्य श्रीकृष्णः
शरणं मम ॥ ८॥
एतदष्टकपाठेन ह्येतदुक्तार्थभावनात्
।
निजाचार्यपदाम्भोजसेवको
दैन्यमाप्नुयात् ॥ ९॥
॥ इति हरिदासवर्यविरचितं श्रीकृष्णशरणाष्टकं सम्पूर्णम् ॥
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