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कर्मकाण्ड

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श्रीगोविन्द दामोदर स्तोत्र

श्रीगोविन्द दामोदर स्तोत्र

श्रीगोविन्द दामोदर स्तोत्रम् की रचना श्रीबिल्वमंगल ठाकुर द्वारा की गयी है जिन्हें 'श्रीलीलाशुक' कहा जाता है। यह स्तोत्र ७१ श्लोकों का है ।

विपत्ति के समय श्रद्धाभक्तिपूर्वक इस श्रीगोविन्द दामोदर स्तोत्रम् का पाठ किया जाए तो मनुष्य के सारे दु:ख स्वयं भगवान हर लेते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के इस स्तोत्र का नित्य पाठ करने से भगवान साधक के चित्त में प्रवेश कर विराजने लगते हैं जिससे उसके समस्त कल्मष धुल जाते हैं, चित्त व अन्त:करण रूपी दर्पण स्वच्छ हो जाता है और जो आनन्दामृत प्रदान करने के साथ मनुष्य को मोक्ष भी प्रदान करता है।

श्रीगोविन्द दामोदर स्तोत्र

श्रीबिल्वमंगल का संक्षिप्त परिचय

सदियों पहले बिल्वमंगल नामक ब्राह्मण के मन को चिन्तामणि वेश्यारूपी ठगिनी माया ने ऐसा आसक्त किया कि वह अपने पिता की मृत्यु पर भी नहीं आया। गांव वालों ने उसे धर-पकड़कर पिता का श्राद्ध कराया। शाम होते ही बिल्वमंगल लोगों की कैद से छूटकर घनघोर बारिश में कोई नौका न मिलने से मुर्दे को पकड़कर नदी पार कर और काले नाग को रस्सी समझकर दीवार फांदकर चिन्तामणि वेश्या के घर पहुंचा। चिन्तामणि जिस प्रकार रूप की रानी थी उसी प्रकार संगीत की भी ज्ञानी थी। संगीत ने उसे भगवान के सौन्दर्य आदि गुणों व लीलाओं से परिचित करा दिया था। आज ब्राह्मण युवक के इस अध:पतन से अत्यधिक व्यथित होकर वह रोने लगी और उसके पैरों पर गिरकर बोली-'तुम ब्राह्मण हो किन्तु मुझसे भी ज्यादा गिर गए हो। भगवान से प्रेम करके तुम मुझे और अपने को बचाओ। भगवान तो सौन्दर्य-माधुर्य आदि के सिन्धु हैं, उन सिन्धु के एक बिन्दु के किसी एक कतरे में सारी दुनिया की सुन्दरता, मृदुता और मधुरता है। तुम उधर बढ़ो और मेरा तथा अपना भी कल्याण करो। याद रखना, अब वेश्या समझकर मेरे घर में कभी कदम मत रखना।' बिल्वमंगल ने अपने पतित पूर्व संस्कारों को मिटाने के लिए बेल के पेड़ के कांटे से अपनी आंखें फोड़ लीं।

चिन्तामणि के वचन सुनकर बिल्वमंगल के हृदय में भगवत्प्रेम का बीज प्रस्फुटित हुआ और वह चल दिया उस श्रीकृष्णप्रेमरूपी अमृतसिन्धु में डुबकी लगाने। उसने ऐसा सरस गीत गाया कि लाखों को तार दिया। बिल्वमंगल के वे रस आज भी हमें रसासिक्त कर रहे हैं। बिल्वमंगल ने चिन्तामणि को अपना गुरु माना और अपने ग्रन्थ 'कृष्णकर्णामृत' का मंगलाचरण 'चिन्तामणिर्जयति' से किया।

                        श्रीगोविन्द दामोदर स्तोत्र

श्रीगोविन्ददामोदरस्तोत्रम्

अग्रे कुरूणामथ पाण्डवानां दुःशासनेनाहृतवस्त्रकेशा ।

कृष्णा तदाक्रोशदनन्यनाथा गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ १॥

[जिस समय] कौरव और पाण्डवों के सामने भरी सभा में दुःशासन ने द्रौपदी के वस्त्र और बालों को पकड़कर खींचा, उस समय जिसका कोई दूसरा नाथ नहीं है ऐसी द्रौपदी ने रोकर पुकारा-'हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !' ॥१॥

श्रीकृष्ण विष्णो मधुकैटभारे भक्तानुकम्पिन् भगवन् मुरारे ।

त्रायस्व मां केशव लोकनाथ गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ २॥

'हे श्रीकृष्ण ! हे विष्णो ! हे मधुकैटभ को मारनेवाले ! हे भक्तों के ऊपर अनुकम्पा करनेवाले ! हे भगवन् ! हे मुरारे ! हे केशव ! हे लोकेश्वर ! हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो' ॥ २ ॥

विक्रेतुकामा किल गोपकन्या मुरारिपादार्पितचित्तवृत्तिः ।

दध्यादिकं मोहवशादवोचद् गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ३॥

जिनकी चित्तवृत्ति मुरारि के चरणकमलों में लगी हुई है, वे सभी गोपकन्याएँ दूध-दही बेचने की इच्छा से घर से चलीं । उनका मन तो मुरारि के पास था; अतः प्रेमवश सुध-बुध भूल जाने के कारण 'दही लो दही' इसके स्थान पर जोर-जोर से 'गोविन्द ! दामोदर ! माधव !' आदि पुकारने लगीं ।। ३ ॥

उलूखले सम्भृततण्डुलांश्च सङ्घट्टयन्त्यो मुसलैः प्रमुग्धाः ।

गायन्ति गोप्यो जनितानुरागा गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ४॥

ओखली में धान भरे हुए हैं, उन्हें मुग्धा गोप रमणियाँ मूसलों से कूट रही हैं और कूटते-कूटते कृष्ण प्रेम में विभोर होकर 'गोविन्द ! दामोदर ! माधव !' इस प्रकार गायन करती जाती हैं ॥४॥

काचित्कराम्भोजपुटे निषण्णं क्रीडाशुकं किंशुकरक्ततुण्डम् ।

अध्यापयामास सरोरुहाक्षी गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ५॥

कोई कमलनयनी बाला मनोविनोद के लिये पाले हुए अपने कर कमल पर बैठे किंशुककुसुम के समान रक्तवर्ण चोंचवाले सुग्गे को पढ़ा रही थी-पढ़ो तो तोता ! 'गोविन्द ! दामोदर ! माधव !' ॥ ५॥

गृहे गृहे गोपवधूसमूहः प्रतिक्षणं पिञ्जरसारिकाणाम् ।

स्खलद्गिरां वाचयितुं प्रवृत्तो गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ६॥

प्रत्येक घर में समूह-की-समूह गोपाङ्गनाएँ पिंजरों में पाली हुई अपनी मैनाओं से उनकी लड़खड़ाती हुई वाणी को क्षण-क्षण में 'हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !' इत्यादि रूप से कहलाने में लगी रहती थीं॥६॥

पर्य्यङ्किकाभाजमलं कुमारं प्रस्वापयन्त्योऽखिलगोपकन्याः ।

जगुः प्रबन्धं स्वरतालबन्धं गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ७॥

पालने में पौढ़े हुए अपने नन्हें बच्चे को सुलाती हुई सभी गोपकन्याएँ ताल-स्वर के साथ 'गोविन्द ! दामोदर ! माधव !' इस पद को ही गाती जाती थीं ॥ ७ ॥

रामानुजं वीक्षणकेलिलोलं गोपी गृहीत्वा नवनीतगोलम् ।

आबालकं बालकमाजुहाव गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ८॥

हाथ में माखन का गोला लेकर मैया यशोदा ने आँख मिचौनी की क्रीडा में व्यस्त बलराम के छोटे भाई कृष्ण को बालकों के बीच से पकड़कर पुकारा-'अरे गोविन्द ! अरे दामोदर ! अरे माधव!' ॥८॥

विचित्रवर्णाभरणाभिरामेऽभिधेहि वक्त्राम्बुजराजहंसि ।

सदा मदीये रसनेऽग्ररङ्गे गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ९॥

विचित्र वर्णमय आभरणों से अत्यन्त सुन्दर प्रतीत होनेवाली हे मुखकमल का राजहंसीरूपिणी मेरी रसने ! तू सर्वप्रथम 'गोविन्द ! दामोदर ! माधव !' इस ध्वनि का ही विस्तार कर ॥९॥

अङ्काधिरूढं शिशुगोपगूढं स्तनं धयन्तं कमलैककान्तम् ।

सम्बोधयामास मुदा यशोदा गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ १०॥

अपनी गोद में बैठकर दूध पीते हुए बालगोपाल रूपधारी भगवान् लक्ष्मीकान्त को लक्ष्य करके प्रेमानन्द में मग्न हुई यशोदा मैया इस प्रकार बुलाया करती थीं-'ऐ मेरे गोविन्द ! ऐ मेरे दामोदर ! ऐ मेरे माधव ! जरा बोलो तो सही !' ॥ १० ॥

क्रीडन्तमन्तर्व्रजमात्मजं स्वं समं वयस्यैः पशुपालबालैः ।

प्रेम्णा यशोदा प्रजुहाव कृष्णं गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ११॥

अपने समवयस्क गोपबालकों के साथ गोष्ठ में खेलते हुए अपने प्यारे पुत्र कृष्ण को यशोदामैया ने अत्यन्त स्नेह के साथ पुकारा-'अरे ओ गोविन्द ! ओ दामोदर ! अरे माधव ! [कहाँ चला गया ?]' ॥ ११ ॥

यशोदया गाढमुलूखलेन गोकण्ठपाशेन निबध्यमानः ।

रुरोद मन्दं नवनीतभोजी गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ १२॥

अधिक चपलता करने के कारण यशोदा मैया ने गौ बाँधने की रस्सी से खूब कसकर ओखली में उन घनश्याम को बाँध दिया तब तो वे माखनभोगी कृष्ण धीरे-धीरे [आँखें मलते हुए] सिसक-सिसककर 'गोविन्द ! दामोदर ! माधव !' कहते हुए रोने लगे॥ १२ ॥

निजाङ्गणे कङ्कणकेलिलोलं गोपी गृहीत्वा नवनीतगोलम् ।

आमर्दयत्पाणितलेन नेत्रे गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ १३॥

श्रीनन्दनन्दन अपने ही घर के आँगन में अपने हाथ के कङ्कण से खेलने में लगे हुए हैं, उसी समय मैया ने धीर से जाकर उनके दोनों कमलनयनों को अपनी हथेली से मूंद लिया तथा दूसरे हाथ में नवनीत का गोला लेकर प्रेमपूर्वक कहने लगी-'गोविन्द ! दामोदर ! माधव [लो देखो, यह माखन खा लो]' ॥ १३ ॥

गृहे गृहे गोपवधूकदम्बाः सर्वे मिलित्वा समवाययोगे ।

पुण्यानि नामानि पठन्ति नित्यं गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ १४॥

व्रज के प्रत्येक घर में गोपाङ्गनाएँ एकत्र होने का अवसर पाने पर झुंड-की-झुंड आपस में मिलकर उन मनमोहन माधव के 'गोविन्द, दामोदर, माधव' इन पवित्र नामों को पढ़ा करती हैं ॥ १४ ॥

मन्दारमूले वदनाभिरामं बिम्बाधरे पूरितवेणुनादम् ।

गोगोपगोपीजनमध्यसंस्थं गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ १५॥

जिनका मुखारविन्द बड़ा ही मनोहर है, जो अपने बिम्ब के समान अरुण अधरों पर रखकर वंशी की मधुर ध्वनि कर रहे हैं तथा जो कदम्बके तले गौ, गोप और गोपियों के मध्य में विराजमान हैं, उन भगवान्का 'हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !' इस प्रकार कहते हुए सदा स्मरण करना चाहिये ॥ १५ ॥

उत्थाय गोप्योऽपररात्रभागे स्मृत्वा यशोदासुतबालकेलिम् ।

गायन्ति प्रोच्चैर्दधि मन्थयन्त्यो गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ १६॥

व्रजाङ्गनाएँ ब्राह्ममुहूर्त में उठकर और उन यशुमतिनन्दन की बालक्रीडाओं की बातों को याद करके दही मथते-मथते 'गोविन्द ! दामोदर ! माधव !' इन पदों को उच्च स्वर से गाया करती हैं ॥ १६॥

जग्धोऽथ दत्तो नवनीतपिण्डो गृहे यशोदा विचिकित्सयन्ती ।

उवाच सत्यं वद हे मुरारे गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ १७॥

[दधि मथकर माखन का लौंदा रख दिया था। माखनभोगी कृष्ण की दृष्टि पड़ गयी, झट उसे धीरे से उठा लाये] कुछ खाया, कुछ बाँट दिया । जब ढूँढ़ते-ढूँढ़ते न मिला तो यशोदा मैया ने आप पर सन्देह करते हुए पूछा-'हे मुरारे ! हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! ठीक-ठीक बता माखन का लौंदा क्या हुआ?' ॥ १७ ॥

अभ्यर्च्य गेहं युवतिः प्रवृद्धप्रेमप्रवाहा दधि निर्ममन्थ ।

गायन्ति गोप्योऽथ सखीसमेता गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ १८॥

जिसके हृदय में प्रेम की बाढ़ आ रही है ऐसी माता यशोदा घर को लीपकर दही मथने लगी। तब और सब गोपाङ्गनाएँ तथा सखियाँ मिलकर 'गोविन्द ! दामोदर ! माधव !' इस पद का गान करने लगीं ॥ १८॥

क्वचित् प्रभाते दधिपूर्णपात्रे निक्षिप्य मन्थं युवती मुकुन्दम् ।

आलोक्य गानं विविधं करोति गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ १९॥

किसी दिन प्रातःकाल ज्यों ही माता यशोदा दही भरे भाण्ड में मथानी को छोड़कर उठी त्यों ही उसकी दृष्टि शय्या पर बैठे हुए मनमोहन मुकुन्द पर पड़ी। सरकार को देखते ही वह प्रेम से पगली हो गयी और 'मेरा गोविन्द ! मेरा दामोदर ! मेरा माधव !' ऐसा कहकर तरह-तरह से गाने लगी ॥ १९॥

क्रीडापरं भोजनमज्जनार्थं हितैषिणी स्त्री तनुजं यशोदा ।

आजूहवत् प्रेमपरिप्लुताक्षी गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ २०॥

क्रीडाविहारी मुरारि बालकों के साथ खेल रहे हैं [अभी तक न स्नान किया है न भोजन] अतः प्रेम में विह्वल हुई माता उन्हें स्नान और भोजन के लिये पुकारने लगी-'अरे ओ गोविन्द ! ओ दामोदर ! ओ माधव ! [आ बेटा ! आ ! पानी ठंडा हो रहा है जल्दी से नहा ले और कुछ खा ले]' ॥ २० ॥

सुखं शयानं निलये च विष्णुं देवर्षिमुख्या मुनयः प्रपन्नाः ।

तेनाच्युते तन्मयतां व्रजन्ति गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ २१॥

नारद आदि ऋषि 'हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !' इस प्रकार प्रार्थना करते हुए घर में सुखपूर्वक सोये हुए उन पुराणपुरुष बालकृष्ण की शरण में आये; अतः उन्होंने श्रीअच्युत में तन्मयता प्राप्त कर ली ॥ २१ ॥

विहाय निद्रामरुणोदये च विधाय कृत्यानि च विप्रमुख्याः ।

वेदावसाने प्रपठन्ति नित्यं गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ २२॥

वेदज्ञ ब्राह्मण प्रातःकाल उठकर और अपने नित्य-नैमित्तिक कर्मो को पूर्णकर वेदपाठ के अन्त में नित्य ही 'गोविन्द ! दामोदर ! माधव !' इन मञ्जुल नामों का कीर्तन करते हैं ॥ २२ ॥

वृन्दावने गोपगणाश्च गोप्यो विलोक्य गोविन्दवियोगखिन्नाम् ।

राधां जगुः साश्रुविलोचनाभ्यां गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ २३॥

वृन्दावन में श्रीवृषभानुकुमारी को वनवारी के वियोग से विह्वल देख गोपगण और गोपियाँ अपने कमलनयनों से नीर बहाती हुई 'हा गोविन्द ! हा दामोदर ! हा माधव !' आदि कहकर पुकारने लगीं ॥ २३ ॥

प्रभातसञ्चारगता नु गावस्तद्रक्षणार्थं  तनयं यशोदा ।

प्राबोधयत् पाणितलेन मन्दं गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ २४॥

प्रातःकाल होने पर जब गौएँ वन में चरने चली गयीं तब उनकी रक्षा के लिये यशोदा मैया शय्या पर शयन करते हुए बालकृष्ण को मीठी-मीठी थपकियों से जगाती हुई बोलीं-'बेटा गोविन्द ! मुन्ना माधव ! लल्लू दामोदर ! [उठ, जा गौओं को चरा ला]' ॥ २४ ।।

प्रवालशोभा इव दीर्घकेशा वाताम्बुपर्णाशनपूतदेहाः ।

मूले तरूणां मुनयः पठन्ति गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ २५॥

केवल वायु, जल और पत्तों के खाने से जिनके शरीर पवित्र हो गये हैं, ऐसे प्रवाल के समान शोभायमान लंबी-लंबी एवं कुछ अरुण रंग की जटाओंवाले मुनिगण पवित्र वृक्षों की छाया में विराजमान होकर निरन्तर 'गोविन्द ! दामोदर ! माधव !' इन नामों का पाठ करते हैं ।। २५ ॥

एवं ब्रुवाणा विरहातुरा भृशं व्रजस्त्रियः कृष्णविषक्तमानसाः ।

विसृज्य लज्जां रुरुदुः स्म सुस्वरं गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ २६॥

श्रीवनमाली के विरह में विह्वल हुई व्रजाङ्गनाएँ उनके विषय में विविध प्रकार की बातें कहती हई लोक-लज्जा को तिलाञ्जलि दे बड़े आर्तस्वर से 'गोविन्द ! दामोदर ! माधव !' कहकर जोर-जोर से रोने लगीं ।। २६ ॥

गोपी कदाचिन्मणिपञ्जरस्थं शुकं वचो वाचयितुं प्रवृत्ता ।

आनन्दकन्द व्रजचन्द्र कृष्ण गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ २७॥

गोपी श्रीराधिकाजी किसी दिन मणियों के पिंजड़े में पले हुए तोते से बार-बार 'आनन्दकन्द ! व्रजचन्द्र! कृष्ण ! गोविन्द ! दामोदर ! माधव!' इन नामों को बलवाने लगीं ॥ २७ ॥

गोवत्सबालैः शिशुकाकपक्षं बध्नन्तमम्भोजदलायताक्षम् ।

उवाच माता चिबुकं गृहीत्वा गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ २८॥

कमलनयन श्रीकृष्णचन्द्र को किसी गोपबालक की चोटी बछड़े के पूँछ के बालों से बाँधते देख मैया प्यार से उनकी ठोढ़ी को पकड़कर कहने लगी-'मेरा गोविन्द ! मेरा दामोदर! मेरा माधव !' ॥२८॥

प्रभातकाले वरवल्लवौघा गोरक्षणार्थं धृतवेत्रदण्डाः ।

आकारयामासुरनन्तमाद्यं गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ २९॥

प्रातःकाल हुआ, ग्वाल-बालों की मित्रमण्डली हाथोंमें  बेतकी छडी और लाठी ले गौओं को चराने के लिये निकली। तब वे अपने प्यारे सखा अनन्त आदिपुरुष श्रीकृष्ण को गोविन्द ! दामोदर ! माधव !' कह-कहकर बुलाने लगे ॥ २९ ॥

जलाशये कालियमर्दनाय यदा कदम्बादपतन्मुरारिः ।

गोपाङ्गनाश्चुक्रुशुरेत्य गोपा गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ३०॥

जिस समय कालियनाग का मर्दन करने के लिये कन्हैया कदम्ब के वृक्ष से कूदे, उस समय गोपाङ्गनाएँ और गोपगण वहाँ आकर 'हा गोविन्द ! हा दामोदर ! हा माधव !' कहकर बड़े जोर से रोने लगे॥ ३० ॥

अक्रूरमासाद्य यदा मुकुन्दश्चापोत्सवार्थं मथुरां प्रविष्टः ।

तदा स पौरैर्जयसीत्यभाषि गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ३१॥

जिस समय श्रीकृष्णचन्द्र ने कंस के धनुर्यज्ञोत्सव में सम्मिलित होने के लिये अक्रूरजी के साथ मथुरा में प्रवेश किया, उस समय पुरवासीजन 'हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! तुम्हारी जय हो, जय हो' ऐसा कहने लगे ॥३१॥

कंसस्य दूतेन यदैव नीतौ वृन्दावनान्ताद् वसुदेवसूनू ।

रुरोद गोपी भवनस्य मध्ये गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ३२॥

जब कंस के दूत अक्रूरजी वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण और बलराम को वृन्दावन से दूर ले गये तब अपने घर में बैठी हुई यशोदाजी 'हा गोविन्द ! हा दामोदर ! हा माधव !' कह-कहकर रुदन करने लगीं ॥ ३२॥

सरोवरे कालियनागबद्धं शिशुं यशोदातनयं निशम्य ।

चक्रुर्लुठन्त्यः पथि गोपबाला गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ३३॥

यशोदानन्दन बालक श्रीकृष्ण को कालियहृद में कालियनाग से जकड़ा हुआ सुनकर गोपबालाएँ रास्ते में लोटती हुई 'हा गोविन्द ! हा दामोदर ! हा माधव !' कहकर जोरों से रुदन करने लगीं ।। ३३ ।।

अक्रूरयाने यदुवंशनाथं सङ्गच्छमानं मथुरां निरीक्ष्य ।

ऊचुर्वियोगत् किल गोपबाला गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ३४॥

अक्रूर के रथ पर चढ़कर मथुरा जाते हए श्रीकृष्ण को देख समस्त गोपबालाएँ वियोग के कारण अधीर होकर कहने लगीं-'हा गोविन्द ! हा दामोदर ! हा माधव ! [हमें छोड़कर तुम कहाँ जाते हो] ?' ॥ ३४॥

चक्रन्द गोपी नलिनीवनान्ते कृष्णेन हीना कुसुमे शयाना ।

प्रफुल्लनीलोत्पललोचनाभ्यां गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ३५॥

श्रीराधिकाजी श्रीकृष्ण के अलग हो जाने पर कमलवन में कुसुम-शय्या पर सोकर अपने विकसित कमलसदृश लोचनों से आँसू बहाती हुई 'हा गोविन्द ! हा दामोदर ! हा माधव !' कहकर क्रन्दन करने लगीं ॥ ३५ ॥

मातापितृभ्यां परिवार्यमाणा गेहं प्रविष्टा विललाप गोपी ।

आगत्य मां पालय विश्वनाथ गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ३६॥

माता-पिता आदि से घिरी हुई श्रीराधिकाजी घर के भीतर प्रवेश कर विलाप करने लगीं कि 'हे विश्वनाथ ! हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! तुम आकर मेरी रक्षा करो ! रक्षा करो !!' ॥ ३६॥

वृन्दावनस्थं हरिमाशु बुद्ध्वा गोपी गता कापि वनं निशायाम् ।

तत्राप्यदृष्ट्वाऽतिभयादवोचद् गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ३७॥

रात्रि का समय था, किसी गोपी को भ्रम हो गया कि वृन्दावन-विहारी इस समय वन में विराजमान हैं। बस, फिर क्या था, झट उसी ओर चल दी, किन्तु जब उसने निर्जन वन में वनमाली को न देखा तो डर से काँपती हुई 'हा गोविन्द ! हा दामोदर ! हा माधव !' कहने लगी ।। ३७॥

सुखं शयाना निलये निजेऽपि नामानि विष्णोः प्रवदन्ति मर्त्याः ।

ते निश्चितं तन्मयतां व्रजन्ति गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ३८॥

[वन में न भी जायँ] अपने घर में ही सुख से शय्या पर शयन करते हुए भी जो लोग 'हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !' इन विष्णु भगवान के पवित्र नामों को निरन्तर कहते रहते हैं, वे निश्चय ही भगवान्की तन्मयता प्राप्त कर लेते हैं ॥३८ ॥

सा नीरजाक्षीमवलोक्य राधां रुरोद गोविन्दवियोगखिन्नाम् ।

सखी प्रफुल्लोत्पललोचनाभ्यां गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ३९॥

कमललोचना राधा को श्रीगोविन्द की विरह व्यथा से पीड़ित देख कोई सखी अपने प्रफुल्ल कमलसदृश नयनों से नीर बहाती हुई 'हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !' कहकर रुदन करने लगी ॥ ३९ ॥

जिह्वे रसज्ञे मधुरप्रिया त्वं सत्यं हितं त्वां परमं वदामि ।

आवर्णयेथा मधुराक्षराणि गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ४०॥

हे रसों को चखनेवाली जिह्वे ! तुझे मीठी चीज बहुत अधिक प्यारी लगती है, इसलिये मैं तेरे हित की एक बहुत ही सुन्दर और सच्ची बात बताता हूँ । तू निरन्तर 'हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !' इन मधुर मञ्जुल नामों की आवृत्ति किया कर ॥ ४० ॥

आत्यन्तिकव्याधिहरं जनानां चिकित्सकं वेदविदो वदन्ति ।

संसारतापत्रयनाशबीजं गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ४१॥

वेदवेत्ता विद्वान् गोविन्द ! दामोदर ! माधव !' इन नामों को ही लोगों की बड़ी-से-बड़ी विकट व्याधि को विच्छेद करनेवाला वैद्य और संसार के आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों तापों के नाश का बढ़िया बीज बतलाते हैं ॥ ४१ ।।

ताताज्ञया गच्छति रामचन्द्रे सलक्ष्मणेऽरण्यचये ससीते ।

चक्रन्द रामस्य निजा जनित्री गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ४२॥

अपने पिता दशरथ की आज्ञा से भाई लक्ष्मण और जनकनन्दिनी सीता के साथ श्रीरामचन्द्रजी बीहड़ वनों के लिये चलने लगे, तब उनकी माता श्रीकौसल्याजी 'हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! [ हे राम ! हे रघुनन्दन ! हे राघव !]' ऐसा कहकर जोरों से विलाप करने लगीं ॥ ४२ ॥

एकाकिनी दण्डककाननान्तात् सा नीयमाना दशकन्धरेण ।

सीता तदाक्रन्ददनन्यनाथा गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ४३॥

जब राक्षसराज रावण पञ्चवटी में जानकीजी को अकेली देख उन्हें हरकर ले जाने लगा, तब रामचन्द्रजी के सिवा जिनका दूसरा कोई स्वामी नहीं है ऐसी सीताजी 'हा गोविन्द ! हा दामोदर ! हा माधव ! [हे राम ! हे रघुनन्दन ! हे राघव !]' कहकर जोरों से रुदन करने लगीं ।। ४३ ।।

रामाद्वियुक्ता जनकात्मजा सा विचिन्तयन्ती हृदि रामरूपम् ।

रुरोद सीता रघुनाथ पाहि गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ४४॥

रथ में बिठाकर ले जाते हुए रावण के साथ, रामवियोगिनी सीता हृदय में अपने स्वामी श्रीरामचन्द्रजी का ध्यान करती हुई 'हा रघुनाथ ! हा गोविन्द ! हा दामोदर ! हा माधव! [हे राम ! हे रघुनन्दन ! हे राघव ! मेरी रक्षा करो]' इस प्रकार रोती हुई जाने लगीं ॥ ४४ ॥

प्रसीद विष्णो रघुवंशनाथ सुरासुराणां सुखदुःखहेतो ।

रुरोद सीता तु समुद्रमध्ये गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ४५॥

जब रावण के साथ सीताजी समुद्र के मध्य पहुँची, तब यह कहकर जोर-जोर से रुदन करने लगीं-'हे विष्णो ! हे रघुकुलपते ! हे देवताओं को सुख और असुरों को दुःख देनेवाले ! हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! [हे राम! हे रघुनन्दन ! हे राघव !] प्रसन्न होइये, प्रसन्न होइये। ॥४५॥

अन्तर्जले ग्राहगृहीतपादो विसृष्टविक्लिष्टसमस्तबन्धुः ।

तदा गजेन्द्रो नितरां जगाद गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ४६॥

पानी पीते समय जल के भीतर से जब ग्राह ने गज का पैर पकड़ लिया और उसका समस्त दुःखी बन्धओं से साथ छूट गया, तब वह गजराज अधीर होकर अनन्यभाव से निरन्तर 'हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !' ऐसा कहने लगा ॥ ४६॥

हंसध्वजः शङ्खयुतो ददर्श पुत्रं कटाहे प्रतपन्तमेनम् ।

पुण्यानि नामानि हरेर्जपन्तं गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ४७॥

अपने पुरोहित शङ्कमुनि के साथ राजा हंसध्वज ने अपने पुत्र सुधन्वा को तप्त तैल की कड़ाही में कूदते और 'हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !' इन भगवान के परम पावन नामों का जप करते हुए देखा ॥४७॥

दुर्वाससो वाक्यमुपेत्य कृष्णा सा चाब्रवीत् काननवासिनीशम् ।

अन्तः प्रविष्टं मनसा जुहाव गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ४८॥

[एक दिन द्रौपदी के भोजन कर लेने पर असमय में दुर्वासा ऋषि ने शिष्यों सहित आकर भोजन माँगा तब] वनवासिनी द्रौपदी ने भोजन देना स्वीकार कर अपने अन्तःकरण में स्थित श्रीश्यामसुन्दर को 'हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !' कहकर बुलाया ।। ४८ ॥

ध्येयः सदा योगिभिरप्रमेयः चिन्ताहरश्चिन्तितपारिजातः ।

कस्तूरिकाकल्पितनीलवर्णो गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ४९॥

योगी भी जिन्हें ठीक-ठीक नहीं जान पाते, जो सभी प्रकार की चिन्ताओं को हरनेवाले और मनोवाञ्छित वस्तुओं को देने के लिये कल्पवृक्ष के समान हैं तथा जिनके शरीर का वर्ण कस्तूरी के समान नीला है, उन्हें सदा ही 'गोविन्द ! दामोदर ! माधव !' इन नामों से स्मरण करना चाहिये ॥४९॥

संसारकूपे पतितोऽत्यगाधे मोहान्धपूर्णे विषयाभितप्ते ।

करावलम्बं मम देहि विष्णो गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ५०॥

जो मोहरूपी अन्धकार से व्याप्त और विषयों की ज्वाला से सन्तप्त है, ऐसे अथाह संसाररूपी कूप में मैं पड़ा हुआ हूँ। 'हे मेरे मधुसूदन ! हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !' मुझे अपने हाथ का सहारा दीजिये ॥ ५० ॥

भजस्व मन्त्रं भवबन्धमुक्त्यै जिह्वे रसज्ञे सुलभं मनोज्ञम् ।

द्वैपायनाद्यैर्मुनिभिः प्रजप्तं गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ५१॥

हे जिह्वे ! मैं तुझी से एक भिक्षा माँगता हूँ, तू ही मुझे दे। वह यह कि जब दण्डपाणि यमराज इस शरीर का अन्त करने आवें तो बड़े ही प्रेम से गद्गद स्वर में 'हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !' इन मञ्जुल नामों का उच्चारण करती रहना ।। ५१ ।।

त्वामेव याचे मम देहि जिह्वे समागते दण्डधरे कृतान्ते ।

वक्तव्यमेवं मधुरं सुभक्त्या गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ५२॥

हे जिह्वे ! हे रसज्ञे ! संसाररूपी बन्धन को काटने के लिये तू सर्वदा 'हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !' इस नामरूपी मन्त्र का जप किया कर, जो सुलभ एवं सुन्दर है और जिसे व्यास, वसिष्ठादि ऋषियों ने भी जपा है ॥ ५२ ॥

गोपाल वंशीधर रूपसिन्धो लोकेश नारायण दीनबन्धो ।

उच्चस्वरैस्त्वं वद सर्वदैव गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ५३॥

रे जिह्वे ! तू निरन्तर 'गोपाल ! वंशीधर ! रूपसिन्धो ! लोकेश ! नारायण ! दीनबन्धो ! गोविन्द ! दामोदर ! माधव !' इन नामों का उच्च स्वर से कीर्तन किया कर ॥ ५३॥

जिह्वे सदैवं भज सुन्दराणि नामानि कृष्णस्य मनोहराणि ।

समस्तभक्तार्तिविनाशनानि गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ५४॥

हे जिह्वे ! तू सदा ही श्रीकृष्णचन्द्र के 'गोविन्द ! दामोदर ! माधव !' इन मनोहर मञ्जुल नामों को, जो भक्तों के समस्त संकटों की निवृत्ति करनेवाले हैं, भजती रह ॥ ५४॥

गोविन्द गोविन्द हरे मुरारे गोविन्द गोविन्द मुकुन्द कृष्ण ।

गोविन्द गोविन्द रथाङ्गपाणे गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ५५॥

हे जिह्वे ! 'गोविन्द ! गोविन्द ! हरे ! मुरारे! गोविन्द ! गोविन्द ! मुकुन्द ! कष्ण! गोविन्द ! गोविन्द ! रथाङ्गपाणे ! गोविन्द ! दामोदर ! माधव !' इन नामों को तू सदा जपती रह ॥ ५५ ॥

सुखावसाने त्विदमेव सारं दुःखावसाने त्विदमेव गेयम् ।

देहावसाने त्विदमेव जाप्यं गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ५६॥

सुख के अन्त में यही सार है दुःख के अन्त में यही गाने योग्य है और शरीर का अन्त होने के समय भी यही मन्त्र जपने योग्य है, कौन-सा मन्त्र? यही कि 'हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !' ॥५६॥

दुर्वारवाक्यं परिगृह्य कृष्णा मृगीव भीता तु कथं कथञ्चित् ।

सभां प्रविष्टा मनसा जुहाव गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ५७॥

दुःशासन के दुर्निवार्य वचनों को स्वीकार कर मृगी के समान भयभीत हुई द्रौपदी किसी किसी तरह सभा में प्रवेश कर मन-ही-मन 'गोविन्द ! दामोदर ! माधव !' इस प्रकार भगवान्का स्मरण करने लगी ।। ५७॥

श्रीकृष्ण राधावर गोकुलेश गोपाल गोवर्धन नाथ विष्णो ।

जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ५८॥

हे जिह्वे ! तू 'श्रीकृष्ण ! राधारमण! व्रजराज! गोपाल! गोवर्धन ! नाथ! विष्णो! गोविन्द ! दामोदर ! माधव !'-इस नामामृत का निरन्तर पान करती रह ।। ५८॥

श्रीनाथ विश्वेश्वर विश्वमूर्ते श्रीदेवकीनन्दन दैत्यशत्रो ।

जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ५९॥

हे जिह्वे ! तू 'श्रीनाथ ! सर्वेश्वर ! श्रीविष्णुस्वरूप ! श्रीदेवकीनन्दन ! असुरनिकन्दन ! गोविन्द ! दामोदर ! माधव !'-इस नामामृत का निरन्तर पान करती रह ।। ५९ ।।

गोपीपते कंसरिपो मुकुन्द लक्ष्मीपते केशव वासुदेव ।

जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ६०॥

हे जिह्वे ! तू 'गोपीपते ! कंसरिपो ! मुकुन्द ! लक्ष्मीपते ! केशव ! वासुदेव ! गोविन्द ! दामोदर ! माधव !'-इस नामामृत का निरन्तर पान करती रह ।। ६० ।।

गोपीजनाह्लादकर व्रजेश गोचारणारण्यकृतप्रवेश ।

जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ६१॥

जो व्रजराज व्रजाङ्गनाओं को आनन्दित करनेवाले हैं, जिन्होंने गौओं को चराने के लिये वन में प्रवेश किया है; हे जिह्वे ! तुम उन्हीं मुरारि के 'गोविन्द ! दामोदर ! माधव !'-इस नामामृत का निरन्तर पान करती रह ।। ६१ ॥

प्राणेश विश्वम्भर कैटभारे वैकुण्ठ नारायण चक्रपाणे ।

जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ६२॥

हे जिह्वे ! तू 'प्राणेश ! विश्वम्भर ! कैटभारे ! वैकुण्ठ ! नारायण ! चक्रपाणे ! गोविन्द ! दामोदर ! माधव !'--इस नामामृत का निरन्तर पान करती रह ।। ६२ ॥

हरे मुरारे मधुसूदनाद्य श्रीराम सीतावर रावणारे ।

जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ६३॥

'हे हरे ! हे मुरारे ! हे मधुसूदन ! हे पुराणपुरुषोत्तम ! हे रावणारे ! हे सीतापते श्रीराम ! हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !'-इस नामामृतका हे जिह्वे ! तू निरन्तर पान करती रह ।। ६३ ॥

श्रीयादवेन्द्राद्रिधराम्बुजाक्ष गोगोपगोपीसुखदानदक्ष ।

जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ६४॥

हे जिह्वे ! 'श्रीयदुकुलनाथ ! गिरिधर ! कमलनयन ! गौ, गोप और गोपियों को सुख देने में कुशल श्रीगोविन्द ! दामोदर ! माधव!'-इस नामामृत का निरन्तर पान करती रह ।। ६४ ॥

धराभरोत्तारणगोपवेष विहारलीलाकृतबन्धुशेष ।

जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ६५॥

जिन्होंने पृथ्वी का भार उतारने के लिये सुन्दर ग्वाल का रूप धारण किया है और आनन्दमयी लीला करने के निमित्त ही शेषजी को अपना भाई बनाया है, ऐसे उन नटनागर के 'गोविन्द ! दामोदर ! माधव !'-इस नामामृत का हे जिह्वे ! तू निरन्तर पान करती रह ॥६५॥

बकीबकाघासुरधेनुकारे केशीतृणावर्तविघातदक्ष ।

जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ६६॥

जो पूतना, बकासुर, अघासुर और धेनुकासुर आदि राक्षसों के शत्रु हैं और केशी तथा तृणावर्त को पछाड़नेवाले हैं, हे जिह्वे ! उन असुरारि मुरारि के 'गोविन्द ! दामोदर ! माधव !' -इस नामामृत का तू निरन्तर पान करती रह ॥ ६६ ॥

श्रीजानकीजीवन रामचन्द्र निशाचरारे भरताग्रजेश ।

जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ६७॥

'हे जानकीजीवन भगवान राम ! हे दैत्यदलन भरताग्रज ! हे ईश ! हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !'-इस नामामृत का हे जिह्वे ! तू निरन्तर पान करती रह ॥ ६७ ॥

नारायणानन्त हरे नृसिंह प्रह्लादबाधाहर हे कृपालो ।

जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ६८॥

हे प्रह्लाद की बाधा हरनेवाले दयामय नृसिंह ! नारायण ! अनन्त ! हरे ! गोविन्द ! दामोदर ! माधव !'-इस नामामृत का हे जिह्वे ! तू निरन्तर पान करती रह ॥ ६८॥

लीलामनुष्याकृतिरामरूप प्रतापदासीकृतसर्वभूप ।

जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ६९॥

हे जिह्वे ! जिन्होंने लीला ही से मनुष्यों की-सी आकृति बनाकर रामरूप प्रकट किया है और अपने प्रबल पराक्रम से सभी भूपों को दास बना लिया है, तू उन नीलाम्बुज श्यामसुन्दर श्रीराम के 'गोविन्द ! दामोदर ! माधव !'-इस नामामृत का ही निरन्तर पान करती रह ।। ६९ ॥

श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ।

जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ७०॥

हे जिह्वे ! तू 'श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारे ! हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव! तथा गोविन्द ! दामोदर ! माधव !'-इस नामामृत का ही निरन्तर प्रेमपूर्वक पान करती रह ।। ७० ॥

वक्तुं समर्थोऽपि न वक्ति कश्चिदहो जनानां व्यसनाभिमुख्यम् ।

जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ७१॥

अहो ! मनुष्यों की विषयलोलुपता कैसी आश्चर्यजनक है ! कोई-कोई तो बोलने में समर्थ होने पर भी भगवन्नाम का उच्चारण नहीं करते; किन्तु हे जिह्वे ! मैं तुमसे कहता हूँ, तू 'गोविन्द ! दामोदर ! माधव !'-इस नामामृत का ही निरन्तर प्रेमपूर्वक पान करती रह ।। ७१ ।।

इति श्रीबिल्वमङ्गलाचार्यविरचितं श्रीगोविन्ददामोदरस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

इस प्रकार यह श्रीबिल्वमङ्गलाचार्यका बनाया हुआ गोविन्द-दामोदर-स्तोत्र समाप्त हुआ।

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