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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
नागपत्नीकृत कृष्णस्तुतिः
साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण कालिय नाग के ऊपर चढ़कर नृत्य कर रहे हैं। इस दृश्य को देख नागपत्नी जान जाती है कि ऐसा करने का सामर्थ्य तो केवल एकमात्र साक्षात् ब्रह्म ही कर सकते हैं। अतः नागपत्नियाँ पुरे तन्मय के साथ श्रीहरि भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करने लग जाती हैं। यहाँ श्रीमद्भागवतपुराण, दशमस्कन्ध , अध्याय 16, श्लोक 33-53, ब्रह्म वैवर्त पुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 19, श्लोक 17-34 तथा गर्ग संहिता, वृन्दावन॰ 12। 18-20 पुराण अंतर्गत दिया हुआ नागपत्नीकृत कृष्णस्तुति मूल पाठ तथा नीचे श्लोक हिन्दी भावार्थ सहित दिया जा रहा है।
अथ श्रीमद्भागवतान्तर्गतं नागपत्नीकृत कृष्णस्तुतिः
॥मूलपाठ ॥
॥ नागपत्न्य ऊचुः ॥
न्याय्यो हि दण्डः
कृतकिल्बिषेऽस्मिंस्तवावतारः खलनिग्रहाय ।
रिपोः सुतानामपि तुल्यदृष्टेर्धत्से
दमं फलमेवानुशंसन् ॥ ३३ ॥
अनुग्रहोऽयं भवतः कृतो हि नो
दण्डोऽसतां ते खलु कल्मषापहः ।
यद्दन्दशूकत्वममुष्य देहिनः
क्रोधोऽपि तेऽनुग्रह एव सम्मतः ॥ ३४॥
तपः सुतप्तं किमनेन पूर्वं
निरस्तमानेन च मानदेन ।
धर्मोऽथ वा सर्वजनानुकम्पया यतो
भवांस्तुष्यति सर्वजीवः ॥ ३५॥
कस्यानुभावोऽस्य न देव विद्महे
तवाङ्घ्रिरेणुस्पर्शाधिकारः ।
यद्वाञ्छया श्रीर्ललनाचरत्तपो विहाय
कामान् सुचिरं धृतव्रता ॥ ३६॥
न नाकपृष्ठं न च सार्वभौमं न
पारमेष्ठ्यं न रसाधिपत्यम् ।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा वाञ्छन्ति
यत्पादरजःप्रपन्नाः ॥ ३७॥
तदेष नाथाप दुरापमन्यैस्तमोजनिः
क्रोधवशोऽप्यहीशः ।
संसारचक्रे भ्रमतः शरीरिणो यदिच्छतः
स्याद्विभवः समक्षः ॥ ३८॥
नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महात्मने
। भूतावासाय भूताय पराय परमात्मने ॥ ३९॥
ज्ञानविज्ञाननिधये
ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये । अगुणायाविकाराय नमस्ते प्राकृताय च ॥ ४०॥
कालाय कालनाभाय कालावयवसाक्षिणे ।
विश्वाय तदुपद्रष्ट्रे तत्कर्त्रे विश्वहेतवे ॥ ४१॥
भूतमात्रेन्द्रियप्राणमनोबुद्ध्याशयात्मने
। त्रिगुणेनाभिमानेन गूढस्वात्मानुभूतये ॥ ४२॥
नमोऽनन्ताय सूक्ष्माय कूटस्थाय
विपश्चिते । नानावादानुरोधाय वाच्यवाचकशक्तये ॥ ४३॥
नमः प्रमाणमूलाय कवये शास्त्रयोनये
। प्रवृत्ताय निवृत्ताय निगमाय नमो नमः ॥ ४४॥
नमः कृष्णाय रामाय वसुदेवसुताय च ।
प्रद्युम्नायानिरुद्धाय सात्वतां पतये नमः ॥ ४५॥
नमो गुणप्रदीपाय गुणात्मच्छादनाय च
। गुणवृत्त्युपलक्ष्याय गुणद्रष्ट्रे स्वसंविदे ॥ ४६॥
अव्याकृतविहाराय सर्वव्याकृतसिद्धये
। हृषीकेश नमस्तेऽस्तु मुनये मौनशीलिने ॥ ४७॥
परावरगतिज्ञाय सर्वाध्यक्षाय ते नमः
। अविश्वाय च विश्वाय तद्द्रष्ट्रेऽस्य च हेतवे ॥ ४८॥
त्वं ह्यस्य जन्मस्थितिसंयमान्
प्रभो गुणैरनीहोऽकृतकालशक्तिधृक् ।
तत्तत्स्वभावान् प्रतिबोधयन् सतः
समीक्षयामोघविहार ईहसे ॥ ४९॥
तस्यैव तेऽमूस्तनवस्त्रिलोक्यां
शान्ता अशान्ता उत मूढयोनयः ।
शान्ताः प्रियास्ते ह्यधुनावितुं
सतां स्थातुश्च ते धर्मपरीप्सयेहतः ॥ ५०॥
अपराधः सकृद्भर्त्रा सोढव्यः
स्वप्रजाकृतः । क्षन्तुमर्हसि शान्तात्मन् मूढस्य त्वामजानतः ॥ ५१॥
अनुगृह्णीष्व भगवन् प्राणांस्त्यजति
पन्नगः । स्त्रीणां नः साधुशोच्यानां पतिः प्राणः प्रदीयताम् ॥ ५२॥
विधेहि ते किङ्करीणामनुष्ठेयं
तवाज्ञया । यच्छ्रद्धयानुतिष्ठन् वै मुच्यते सर्वतोभयात् ॥ ५३॥
नागपत्नीकृतकृष्णस्तुतिः हिन्दी भावार्थ
सहित
॥ नागपत्न्य ऊचुः ॥
न्याय्यो हि दण्डः
कृतकिल्बिषेऽस्मिंस्तवावतारः खलनिग्रहाय ।
रिपोः सुतानामपि तुल्यदृष्टेर्धत्से
दमं फलमेवानुशंसन् ॥ ३३ ॥
नाग पत्नियों ने कहा –
प्रभो! आपका यह अवतार ही दुष्टों को दण्ड देने के लिये हुआ है।
इसलिये इस अपराधी को दण्ड देना सर्वथा उचित है। आपकी दृष्टि में शत्रु और पुत्र का
कोई भेदभाव नहीं है। इसलिये आप जो किसी को दण्ड देते हैं, वह
उसके पापों का प्रायश्चित कराने और उसका परम कल्याण करने के लिये ही।
अनुग्रहोऽयं भवतः कृतो हि नो
दण्डोऽसतां ते खलु कल्मषापहः ।
यद्दन्दशूकत्वममुष्य देहिनः
क्रोधोऽपि तेऽनुग्रह एव सम्मतः ॥ ३४॥
आपने हम लोगों पर यह बड़ा ही
अनुग्रह किया। यह तो आपका कृपा-प्रसाद ही है, क्योंकि
आप जो दुष्टों को दण्ड देते हैं, उससे उनके सारे पाप नष्ट हो
जाते हैं। इस सर्प के अपराधी होने में तो कोई संदेह ही नहीं है। यदि यह अपराधी न
होता तो इसे सर्प की योनि ही क्यों मिलती? इसलिये हम सच्चे
हृदय से आपके इस क्रोध को भी आपका अनुग्रह ही समझती हैं।
तपः सुतप्तं किमनेन पूर्वं
निरस्तमानेन च मानदेन ।
धर्मोऽथ वा सर्वजनानुकम्पया यतो
भवांस्तुष्यति सर्वजीवः ॥ ३५॥
अवश्य ही पूर्वजन्म में इसने स्वयं
मान रहित होकर और दूसरों का सम्मान करते हुए कोई बहुत बड़ी तपस्या की है। अथवा सब
जीवों पर दया करते हुए इसने कोई बहुत बड़ा धर्म किया है तभी तो आप इसके ऊपर
संतुष्ट हुए हैं। क्योंकि सर्व-जीवनस्वरूप आपकी प्रसन्नता का यही उपाय है।
कस्यानुभावोऽस्य न देव विद्महे
तवाङ्घ्रिरेणुस्पर्शाधिकारः ।
यद्वाञ्छया श्रीर्ललनाचरत्तपो विहाय
कामान् सुचिरं धृतव्रता ॥ ३६॥
भगवन! हम नहीं समझ पातीं कि यह इसकी
किस साधना का फल है, जो यह आपके चरण
कमलों की धूल का स्पर्श पाने का अधिकारी हुआ है। आपके चरणों की रज इतनी दुर्लभ है
कि उसके लिये आपकी अर्धांगिनी लक्ष्मी जी को भी बहुत दिनों तक समस्त भोगों का
त्याग करके नियमों का पालन करते हुए तपस्या करनी पड़ी थी।
न नाकपृष्ठं न च सार्वभौमं न
पारमेष्ठ्यं न रसाधिपत्यम् ।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा वाञ्छन्ति
यत्पादरजःप्रपन्नाः ॥ ३७॥
प्रभो! जो आपके चरणों की धूल की शरण
ले लेते हैं, वे भक्तजन स्वर्ग का राज्य या
पृथ्वी की बादशाही नहीं चाहते। न वे रसातल का ही राज्य चाहते और न तो ब्रह्मा का
पद ही लेना चाहते हैं। उन्हें अणिमादि योग-सिद्धियों की भी चाह नहीं होती। यहाँ तक
कि वे जन्म-मृत्यु से छुडाने वाले कैवल्य-मोक्ष की भी इच्छा नहीं करते।
तदेष नाथाप दुरापमन्यैस्तमोजनिः
क्रोधवशोऽप्यहीशः ।
संसारचक्रे
भ्रमतः शरीरिणो यदिच्छतः स्याद्विभवः समक्षः ॥ ३८॥
स्वामी! यह नागराज तमोगुणी योनि में
उत्पन्न हुआ है और अत्यन्त क्रोधी है। फिर भी इसे आपकी वह परम पवित्र चरण रज
प्राप्त हुई, जो दूसरों के लिये सर्वथा
दुर्लभ है; तथा जिसको प्राप्त करने की इच्छा-मात्र से ही
संसार चक्र में पड़े हुए जीव को संसार के वैभव-सम्पत्ति की तो बात ही क्या –
मोक्ष की भी प्राप्ति हो जाती है।
नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महात्मने
। भूतावासाय भूताय पराय परमात्मने ॥ ३९॥
प्रभो! हम आपको प्रणाम करती हैं। आप
अनन्त एवं अचिन्त्य ऐश्वर्य के नित्य निधि हैं। आप सबके अन्तःकरणों में विराजमान
होने पर भी अनन्त हैं। आप समस्त प्राणियों और पदार्थों के आश्रय तथा सब पदार्थों
के रूप में भी विद्यमान हैं। आप प्रकृति से परे स्वयं परमात्मा हैं।
ज्ञानविज्ञाननिधये
ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये । अगुणायाविकाराय नमस्ते प्राकृताय च ॥ ४०॥
आप सब प्रकार के ज्ञान और अनुभवों
के खजाने हैं। आपकी महिमा और शक्ति अनन्त है। आपका स्वरूप अप्राकृत –
दिव्य चिन्मय है, प्राकृतिक गुणों एवं विकारों
का आप कभी स्पर्श ही नहीं करते। आप ही ब्रह्मा हैं, हम आपको
नमस्कार कर रही हैं।
कालाय कालनाभाय कालावयवसाक्षिणे ।
विश्वाय तदुपद्रष्ट्रे तत्कर्त्रे विश्वहेतवे ॥ ४१॥
आप प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न करने
वाले काल हैं, कालशक्ति के आश्रय हैं और काल
के क्षण-कल्प आदि समस्त अवयवों के साक्षी हैं। आप विश्वरूप होते हुए भी उससे अलग
रहकर उसके दृष्टा हैं। आप उसके बनाने वाले निमित्तकारण तो हैं ही, उसके रूप में बनने वाले उपादान कारण भी हैं।
भूतमात्रेन्द्रियप्राणमनोबुद्ध्याशयात्मने
। त्रिगुणेनाभिमानेन गूढस्वात्मानुभूतये ॥ ४२॥
प्रभो! पंचभूत,
उसकी मात्राएँ, इन्द्रियाँ, प्राण, मन, बुद्धि और इन सबका
खजाना चित्त – ये सब आप ही हैं। तीनों गुण और उनके कार्यों
में होने वाले अभिमान के द्वारा आपने अपने साक्षात्कार को छिपा रखा है।
नमोऽनन्ताय सूक्ष्माय कूटस्थाय
विपश्चिते । नानावादानुरोधाय वाच्यवाचकशक्तये ॥ ४३॥
आप देश,
काल और वस्तुओं की सीमा से बाहर – अनन्त हैं।
सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और कार्य-कारणों के समस्त विकारों में भी एकरस, विकाररहित और सर्वज्ञ हैं। ईश्वर हैं कि नहीं हैं, सर्वज्ञ
हैं कि अल्पज्ञ इत्यादि अनेक मतभेदों के अनुसार आप उन-उन मतवादियों को
उन्हीं-उन्हीं रूपों में दर्शन देते हैं। समस्त शब्दों के अर्थ के रूप में तो आप
हैं ही, शब्दों के रूप में भी हैं तथा उन दोनों का सम्बन्ध
जोड़ने वाली शक्ति भी आप ही हैं। हम आपको नमस्कार करती हैं।
नमः प्रमाणमूलाय कवये शास्त्रयोनये
। प्रवृत्ताय निवृत्ताय निगमाय नमो नमः ॥ ४४॥
प्रयक्ष-अनुमान आदि जितने भी प्रमाण
हैं,
उनको प्रमाणित करने वाले मूल आप ही हैं। समस्त शास्त्र आपसे ही
निकले हैं और आपका ज्ञान स्वतःसिद्ध है। आप ही मन को लगाने की विधि के रूप में और
उसको सब कहीं से हटा लेने की आज्ञा के रूप में प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग
हैं। इन दोनों के मूल वेद भी स्वयं आप ही हैं। हम आपको बार-बार नमस्कार करती हैं।
नमः कृष्णाय रामाय वसुदेवसुताय च ।
प्रद्युम्नायानिरुद्धाय सात्वतां पतये नमः ॥ ४५॥
आप शुद्धस्त्वमय वसुदेव के पुत्र
वासुदेव,
संकर्षण एवं प्रद्युम्न और अनिरुद्ध भी हैं। इस प्रकार चतुर्व्यूह
के रूप में आप भक्तों तथा यादवों के स्वामी हैं। श्रीकृष्ण! हम आपको नमस्कार करती
हैं।
नमो गुणप्रदीपाय गुणात्मच्छादनाय च
। गुणवृत्त्युपलक्ष्याय गुणद्रष्ट्रे स्वसंविदे ॥ ४६॥
आप अंतःकरण और उसकी वृत्तियों के
प्रकाशक हैं और उन्हीं के द्वारा अपने-आपको ढक रखते हैं। उन अंतःकरण और वृत्तियों
के द्वारा ही आपके स्वरूप का कुछ-कुछ संकेत भी मिलता है। आप उन गुणों और उनकी
वृत्तियों के साक्षी तथा स्वयंप्रकाश हैं। हम आपको नमस्कार करती हैं।
अव्याकृतविहाराय सर्वव्याकृतसिद्धये
। हृषीकेश नमस्तेऽस्तु मुनये मौनशीलिने ॥ ४७॥
आप मूलप्रकृति में नित्य विहार करते
रहते हैं। समस्त स्थूल और सूक्ष्म जगत की सिद्धि आपसे ही होती है। हृषिकेश! आप
मननशील आत्माराम हैं। मौन ही आपका स्वभाव है। आपको नमस्कार है।
परावरगतिज्ञाय सर्वाध्यक्षाय ते नमः
। अविश्वाय च विश्वाय तद्द्रष्ट्रेऽस्य च हेतवे ॥ ४८॥
आप स्थूल,
सूक्ष्म समस्त गतियों के जानने वाले तथा सबके साक्षी हैं। आप नाम
रूपात्मक विश्वप्रपंच के निषेध की अवधि तथा उसके अधिष्ठान होने के कारण विश्वरूप
भी हैं। आप विश्व के अध्यास तथा अपवाद साक्षी हैं एवं अज्ञान के द्वारा उसकी
सत्यत्त्वभ्रान्ति एवं स्वरूप ज्ञान के द्वारा उसकी आत्यन्तिक निवृत्ति के भी कारण
हैं। आपको हमारा नमस्कार है।
त्वं ह्यस्य जन्मस्थितिसंयमान्
प्रभो गुणैरनीहोऽकृतकालशक्तिधृक् ।
तत्तत्स्वभावान् प्रतिबोधयन् सतः
समीक्षयामोघविहार ईहसे ॥ ४९॥
प्रभो! यद्यपि कर्तापन न होने के
कारण आप कोई भी कर्म नहीं करते, निष्क्रिय हैं
– तथापि अनादि कालशक्ति को स्वीकार करके प्रकृति के गुणों के
द्वारा आप इस विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की लीला
करते हैं। क्योंकि आपकी लीलाएँ अमोघ हैं। आप सत्यसंकल्प हैं। इसलिये जीवों के
संस्कार रूप से छिपे हुए स्वभावों को अपनी दृष्टि से जाग्रत कर देते हैं।
तस्यैव तेऽमूस्तनवस्त्रिलोक्यां
शान्ता अशान्ता उत मूढयोनयः ।
शान्ताः प्रियास्ते ह्यधुनावितुं
सतां स्थातुश्च ते धर्मपरीप्सयेहतः ॥ ५०॥
त्रिलोकी में तीन प्रकार की योनियाँ
हैं –
सत्त्वगुण प्रधान शान्त, रजोगुण प्रधान अशान्त
और तमोगुण प्रधान मूढ। वे सब-की-सब आपकी लीला-मूर्तियाँ हैं। फिर भी इस समय आपको
सत्त्वगुण प्रधान शान्तजन ही विशेष प्रिय हैं। क्योंकि आपका यह अवतार और ये लीलाएँ
साधुजनों की रक्षा तथा धर्म की रक्षा एवं विस्तार के लिये ही हैं।
अपराधः सकृद्भर्त्रा सोढव्यः
स्वप्रजाकृतः । क्षन्तुमर्हसि शान्तात्मन् मूढस्य त्वामजानतः ॥ ५१॥
शान्तात्मन्! स्वामी को एक बार अपनी
प्रजा का अपराध सह लेना चाहिये। यह मूढ़ है, आपको
पहचानता नहीं हैं, इसलिये इसे क्षमा कर दीजिये।
अनुगृह्णीष्व भगवन् प्राणांस्त्यजति
पन्नगः । स्त्रीणां नः साधुशोच्यानां पतिः प्राणः प्रदीयताम् ॥ ५२॥
भगवन! कृपा कीजिये;
अब यह सर्प मरने ही वाला है। साधु पुरुष सदा से ही हम अबलाओं पर दया
करते आये हैं। अतः आप हमें हमारे प्राण स्वरूप पतिदेव को दे दीजिये।
विधेहि ते किङ्करीणामनुष्ठेयं
तवाज्ञया । यच्छ्रद्धयानुतिष्ठन् वै मुच्यते सर्वतोभयात् ॥ ५३॥
हम आपकी दासी हैं। हमें आप आज्ञा दीजिये,
आपकी क्या सेवा करें? क्योंकि जो श्रद्धा के
साथ आपकी आज्ञाओं का पालन – आपकी सेवा करता है, वह सब प्रकार के भयों से छुटकारा पा जाता है।
ब्रह्मवैवर्तपुराणान्तर्गत नागपत्नीकृतकृष्णस्तुतिः
॥मूलपाठ ॥
॥ सुरसोवाच ॥
हे जगत्कान्त मे कान्तं देहि मानं च
मानद । पतिः प्राणाधिकः स्त्रीणां नास्ति बन्धुश्च तत्परः ॥ १७ ॥
सकलभुवननाथ प्राणनाथं मदीयं न कुरु
वधमनन्त प्रेमसिन्धो सुबन्धो ।
अखिलभुवनबन्धो राधिकाप्रेमसिन्धो
पतिमिह कुरु दानं मे विधातुर्विधातः ॥ १८ ॥
त्रिनयनविधिशेषाः षण्मुखश्चास्यसंघैः
स्तवनविषयजाड्यात्स्तोतुमीशा न वाणी ।
खलु निखिलवेदाःस्तोतुमन्येऽपि देवाः
स्तवनविषयशक्ताः सन्ति सन्तस्तवैव ॥ १९ ॥
कुमतिरहमधिज्ञा योषितां क्वाधमा वा
क्व भुवनगतिरीशश्चक्षुषोऽगोचराऽपि ।
विधिहरिहरशेषैः स्तूयमानश्च
यस्त्वमतनुमनुजमीशं स्तोतुमिच्छामि तं त्वाम् ॥ २० ॥
स्तवनविषयभीता पार्वती कस्य पद्मा
श्रुतिगणजनयित्री स्तोतुमीशा न यं त्वाम् ।
कलिकलुषनिमग्ना वेदवेदाङ्गशास्त्र
श्रवणविषयमूढा स्तोतुमिच्छामि किं त्वाम् ॥ २१ ॥
शयानो रत्नपर्यङ्के रत्नभूषणभूषितः
। रत्नभूषणभूषाङ्गो राधावक्षसि संस्थितः॥ ॥ २२ ॥
चन्दनोक्षितसर्वाङ्गः
स्मेराननसरोरुहः । प्रोद्यत्प्रेमरसाम्भोधौ निमग्नः सततं सुखात् ॥ २३ ॥
मल्लिकामालतीमालाजालैः शोभितशेखरः ।
पारिजातप्रसूनानां गन्धामोदितमानसः ॥ २४ ॥
पुंस्कोकिलकलध्वानैर्भ्रमरध्वनिसंयुतैः
। कुसुमेषु विकारेण पुलकाङ्कितविग्रहः ॥ २५ ॥
प्रियाप्रदत्तताम्बूलं भुक्तवान्यः
सदा मुदा । वेदा अशक्ता यं स्तोतुं जडीभूता विचक्षणाः ॥ २६ ॥
तमनिर्वचनीयं च किं स्तौमि
नागवल्लभा । वन्देऽहं त्वत्पदाम्भोजं ब्रह्मेशशेषसेवितम् ॥ २७ ॥
लक्ष्मीसरस्वतीदुर्गा जाह्नवी
वेदमातृभिः । सेवितं सिद्धसंघैश्च मुनीन्द्रैर्मनुभिः सदा ॥ २८ ॥
निष्कारणायाखिलकारणाय
सर्वेश्वरायापि परात्पराय ।
स्वयंप्रकाशाय परावराय
परावराणामधिपाय ते नमः ॥ २९ ॥
हे कृष्ण हे कृष्ण सुरासुरेश
ब्रह्मेश शेषेश प्रजापतीश ।
मुनीश मन्वीश चराचरेश सिद्धीश
सिद्धेश गणेश पाहि ॥ ३० ॥
धर्मेश धर्मीश शुभाशुभेश वेदेश
वेदेष्वनिरूपितश्च ।
सर्वेश सर्वात्मक सर्वबन्धो जीवीश
जीवेश्वर पाहि मत्प्रभुम् ॥ ३१ ॥
इत्येवं स्तवनं कृत्वा
भक्तिनम्रात्मकन्धरा । विधृत्य चरणाम्भोजं तस्थौ नागेशवल्लभा ॥ ३२ ॥
नागपत्नीकृतं स्तोत्रं त्रिसन्ध्यं
यः पठेन्नरः । सर्वपापात्प्रमुक्तस्तु यात्यन्ते श्रीहरेः पदम् ॥ ३३ ॥
इह लोके हरेर्भक्तिमन्ते दास्यं
लभेद्ध्रुवम् । लभते पार्षदो भूत्वा सालोक्यादिचतुष्टयम् ॥ ३४ ॥
नागपत्नीकृतकृष्णस्तुतिः हिन्दी भावार्थ
सहित
॥ सुरसोवाच ॥
हे जगत्कान्त मे कान्तं देहि मानं च
मानद । पतिः प्राणाधिकः स्त्रीणां नास्ति बन्धुश्च तत्परः ॥ १७ ॥
सुरसा बोली–
हे जगदीश्वर! आप मुझे मेरे स्वामी को लौटा दीजिये। दूसरों को मान
देने वाले प्रभो! मुझे भी दान दीजिये। स्त्रियों को पति प्राणों से भी बढ़कर प्रिय
होता है। उनके लिये पति से बढ़कर दूसरा कोई बन्धु नहीं है।
सकलभुवननाथ प्राणनाथं मदीयं न कुरु
वधमनन्त प्रेमसिन्धो सुबन्धो ।
अखिलभुवनबन्धो राधिकाप्रेमसिन्धो
पतिमिह कुरु दानं मे विधातुर्विधातः ॥ १८ ॥
नाथ! आप देवेश्वरों के भी स्वामी,
अनन्त प्रेम के सागर, उत्तम बन्धु, सम्पूर्ण भुवनों के बान्धव तथा श्री राधिका जी के लिये प्रेम के समुद्र
हैं। अतः मेरे प्राणनाथ को वध न कीजिये। आप विधाता के भी विधाता हैं। इसलिये यहाँ
मुझे पतिदान दीजिये।
त्रिनयनविधिशेषाः
षण्मुखश्चास्यसंघैः स्तवनविषयजाड्यात्स्तोतुमीशा न वाणी ।
खलु निखिलवेदाःस्तोतुमन्येऽपि देवाः
स्तवनविषयशक्ताः सन्ति सन्तस्तवैव ॥ १९ ॥
त्रिनेत्रधारी महादेव के पाँच मुख
हैं;
ब्रह्मा जी के चार और शेषनाग के सहस्र मुख हैं; कार्तिकेय के भी छः मुख हैं; परंतु ये लोग भी अपने
मुख-समूहों द्वारा आपकी स्तुति करने में जड़वत हो जाते हैं। साक्षात सरस्वती भी
आपका स्तवन करने में समर्थ नहीं हैं।
कुमतिरहमधिज्ञा योषितां क्वाधमा वा
क्व भुवनगतिरीशश्चक्षुषोऽगोचराऽपि ।
विधिहरिहरशेषैः
स्तूयमानश्च यस्त्वमतनुमनुजमीशं स्तोतुमिच्छामि तं त्वाम् ॥ २० ॥
सम्पूर्ण वेद,
अन्यान्य देवता तथा संत-महात्मा भी आपकी स्तुति के विषय में
शक्तिहीनता का ही परिचय देते हैं। कहाँ तो मैं कुबुद्धि, अज्ञ
एवं नारियों में अधम सर्पिणी और कहाँ सम्पूर्ण भुवनों के परम आश्रय तथा किसी के भी
दृष्टिपथ में न आने वाले आप परमेश्वर! जिनकी स्तुति ब्रह्मा, विष्णु और शेषनाग करते हैं, उन मानव-वेषधारी आप
नराकार परमेश्वर की स्तुति मैं करना चाहती हूँ, यह कैसी
विडम्बना है?
स्तवनविषयभीता पार्वती कस्य पद्मा
श्रुतिगणजनयित्री स्तोतुमीशा न यं त्वाम् ।
कलिकलुषनिमग्ना वेदवेदाङ्गशास्त्र
श्रवणविषयमूढा स्तोतुमिच्छामि किं त्वाम् ॥ २१ ॥
पार्वती,
लक्ष्मी तथा वेदजननी सावित्री जिनके स्तवन से डरती हैं और स्तुति
करने में समर्थ नहीं हो पातीं; उन्हीं आप परमेश्वर का स्तवन
कलिकलुष में निमग्न तथा वेद-वेदांग एवं शास्त्रों के श्रवण में मूढ़ स्त्री मैं
क्यों करना चाहती हूँ, यह समझ में नहीं आता।
शयानो रत्नपर्यङ्के रत्नभूषणभूषितः
। रत्नभूषणभूषाङ्गो राधावक्षसि संस्थितः॥ ॥ २२ ॥
आप रत्नमय पर्यंक पर रत्ननिर्मित
भूषणों से भूषित हो शनय करते हैं। रत्नालंकारों से अलंकृत अंगवाली राधिका के
वक्षःस्थल पर विराजमान होते हैं।
चन्दनोक्षितसर्वाङ्गः
स्मेराननसरोरुहः । प्रोद्यत्प्रेमरसाम्भोधौ निमग्नः सततं सुखात् ॥ २३ ॥
आपके सम्पूर्ण अंग चन्दन से चर्चित
रहते हैं,
मुखारविन्द पर मन्द मुस्कान की प्रभा फैली होती है। आप उमड़ते हुए
प्रेमरस के महासागर में सदा सुख से निमग्न रहते हैं।
मल्लिकामालतीमालाजालैः शोभितशेखरः ।
पारिजातप्रसूनानां गन्धामोदितमानसः ॥ २४ ॥
आपका मस्तक मल्लिका और मालती की
मालाओं से सुशोभित होता है। आपका मानस नित्य निरन्तर पारिजात पुष्पों की सुगन्ध से
आमोदित रहा करता है।
पुंस्कोकिलकलध्वानैर्भ्रमरध्वनिसंयुतैः
। कुसुमेषु विकारेण पुलकाङ्कितविग्रहः ॥ २५ ॥
कोकिल के कलरव तथा भ्रमरों के
गुंजारव से उद्दीपित प्रेम के कारण आपके अंग उठी हुई पुलकावलियों से अलंकृत रहते
हैं।
प्रियाप्रदत्तताम्बूलं भुक्तवान्यः
सदा मुदा । वेदा अशक्ता यं स्तोतुं जडीभूता विचक्षणाः ॥ २६ ॥
जो सदा प्रियतमा के दिये हुए
ताम्बूल का सानन्द चर्वण करते हैं; वेद
भी जिनकी स्तुति करने में असमर्थ हैं तथा बड़े-बड़े विद्वान भी जिनके स्तवन में
जड़वत हो जाते हैं;
तमनिर्वचनीयं च किं स्तौमि
नागवल्लभा । वन्देऽहं त्वत्पदाम्भोजं ब्रह्मेशशेषसेवितम् ॥ २७ ॥
उन्हीं अनिर्वचनीय परमेश्वर का
स्तवन मुझ-जैसी नागिन क्या कर सकती है? मैं
तो आपके उन चरणकमलों की वन्दना करती हूँ, जिनका सेवन ब्रह्मा,
शिव और शेष करते हैं ।
लक्ष्मीसरस्वतीदुर्गा जाह्नवी
वेदमातृभिः । सेवितं सिद्धसंघैश्च मुनीन्द्रैर्मनुभिः सदा ॥ २८ ॥
जिनकी सेवा सदा लक्ष्मी,
सरस्वती, पार्वती, गंगा,
वेदमाता सावित्री, सिद्धों के समुदाय, मुनीन्द्र और मनु करते हैं।
निष्कारणायाखिलकारणाय
सर्वेश्वरायापि परात्पराय ।
स्वयंप्रकाशाय परावराय
परावराणामधिपाय ते नमः ॥ २९ ॥
आप स्वयं कारणरहित हैं,
किंतु सबके कारण आप ही हैं। सर्वेश्वर होते हुए भी परात्पर हैं
स्वयंप्रकाश, कार्य-कारणस्वरूप तथा उन कार्य-कारणों के भी
अधिपति हैं। आपको मेरा नमस्कार है।
हे कृष्ण हे कृष्ण सुरासुरेश
ब्रह्मेश शेषेश प्रजापतीश ।
मुनीश मन्वीश चराचरेश सिद्धीश
सिद्धेश गणेश पाहि ॥ ३० ॥
हे श्रीकृष्ण! हे सच्चिदानन्दघन! हे
सुरासुरेश्वर! आप ब्रह्मा, शिव, शेषनाग, प्रजापति, मुनि,
मनु, चराचर प्राणी, अणिमा
आदि सिद्धि, सिद्ध तथा गुणों के भी स्वामी हैं।
धर्मेश धर्मीश शुभाशुभेश वेदेश
वेदेष्वनिरूपितश्च ।
सर्वेश सर्वात्मक सर्वबन्धो जीवीश
जीवेश्वर पाहि मत्प्रभुम् ॥ ३१ ॥
मेरे पति की रक्षा कीजिये,
आप धर्म और धर्मी के तथा शुभ और अशुभ के भी स्वामी हैं। सम्पूर्ण
वेदों के स्वामी होते हुए भी उन वेदों का आपका अच्छी तरह निरूपण नहीं हो सका है।
सर्वेश्वर! आप सर्वस्वरूप तथा सबके बन्धु हैं। जीवधारियों तथा जीवों के भी स्वामी
हैं। अतः मेरे पति की रक्षा कीजिये।
इत्येवं स्तवनं कृत्वा
भक्तिनम्रात्मकन्धरा । विधृत्य चरणाम्भोजं तस्थौ नागेशवल्लभा ॥ ३२ ॥
इस प्रकार स्तुति करके नागराजवल्लभा
सुरसा भक्तिभाव से मस्तक झुका श्रीकृष्ण के चरणकमलों को पकड़कर बैठ गयी।
नागपत्नीकृतं स्तोत्रं त्रिसन्ध्यं
यः पठेन्नरः । सर्वपापात्प्रमुक्तस्तु यात्यन्ते श्रीहरेः पदम् ॥ ३३ ॥
नागपत्नी द्वारा किये गये इस
स्तोत्र का जो त्रिकाल संध्या के समय पाठ करता है, वह सब पापों से मुक्त हो अन्ततोगत्वा श्रीहरि के धाम में चला जाता है।
इह लोके हरेर्भक्तिमन्ते दास्यं
लभेद्ध्रुवम् । लभते पार्षदो भूत्वा सालोक्यादिचतुष्टयम् ॥ ३४ ॥
उसे इहलोक में श्रीहरि की भक्ति
प्राप्त होती है और अन्त में वह निश्चय ही श्रीकृष्ण का दास्य-सुख पा जाता है। वह
श्रीहरि का पार्षद हो सालोक्य आदि चतुर्विध मुक्तियों को करतलगत कर लेता है।
गर्ग संहितान्तर्गत नाग-पत्न्य कृत कृष्ण स्तुति
॥मूलपाठ ॥
॥ नागपत्न्यक ऊचुः ॥
नमः श्रीकृष्णचंद्रय गोलोकपतये नमः
। असंख्यांडाधिपते परिपूर्णतमाय ते ॥ १८ ॥
श्रीराधापतये तुभ्यं व्रजाधीशाय ते
नमः । नमः श्रीनंदपुत्राय यशोदानंदनाय ते ॥ १९ ॥
पाहि पाहि परदेव पन्नगं त्वत्परं न
शरणं जगत्त्रये ।
त्वम् पदात्परतरो हरिः स्वयं लीलया
किल तनोषि विग्रहम् ॥ २० ॥
नागपत्नीकृतकृष्णस्तुतिः हिन्दी भावार्थ
सहित
॥ नागपत्न्यक ऊचुः ॥
नमः श्रीकृष्णचंद्रय गोलोकपतये नमः
। असंख्यांडाधिपते परिपूर्णतमाय ते ॥ १८ ॥
नाग पत्नियाँ बोलीं –
भगवन! आप परिपूर्णतम परमात्मा तथा संख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति
हैं। आप गोलोकनाथ श्रीकृष्णचन्द्र को हमारा बारंबार नमस्कार है।
श्रीराधापतये तुभ्यं व्रजाधीशाय ते
नमः । नमः श्रीनंदपुत्राय यशोदानंदनाय ते ॥ १९ ॥
व्रज के अधीश्वर आप श्रीराधावल्लभ
को नमस्कार है। नन्द के लाला एवं यशोदा नन्दन को नमस्कार है।
पाहि पाहि परदेव पन्नगं त्वत्परं न
शरणं जगत्त्रये ।
त्वम् पदात्परतरो हरिः स्वयं लीलया
किल तनोषि विग्रहम् ॥ २० ॥
परमदेव ! आप इस नाग की रक्षा कीजिये,
रक्षा कीजिये। तीनों लोकों में आपके सिवा दूसरा कोई इसे शरण देने वाला
नहीं है। आप स्वयं साक्षात परात्पर श्री हरि हैं और लीला से ही स्वच्छन्दतापूर्वक
नाना प्रकार के श्रीविग्रहों का विस्तार करते हैं।
इति नागपत्नीकृतकृष्णस्तुतिः हिन्दी भावार्थ सहित समाप्त ।
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