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कर्मकाण्ड

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अच्युताष्टकम्

अच्युताष्टकम् 

'अच्युताष्टकम्' भगवान श्रीहरि को प्रसन्न करने वाला स्तोत्र है । यद्यपि इसमें वर्णन भगवान विष्णु का है परन्तु  प्रधानता श्रीकृष्ण के ही वर्णन को दी है ।

यहाँ श्रीमद् आदिशंकराचार्यजी के अतिरिक्त श्रीश्रीधरवेंकटेशार्य द्वारा रचित अच्युताष्टकम् भी अर्थात् ३ अच्युताष्टकम् स्तोत्र दिया जा रहा है।

श्रीमद् आदिशंकराचार्य को लोग वेदान्ती समझते हैं; लेकिन वे एक सच्चे वैष्णव थे । उन्होंने 'श्रीमद्भगवद्गीता' और 'विष्णु सहस्त्रनाम' पर अपनी अपूर्व टीका लिखी है । उनका कथन है-

'गाने योग्य गीतों में 'गीता' और 'विष्णु सहस्त्रनाम' हैं और ध्यान करने योग्य रूपों में श्रीपति (विष्णु और श्रीकृष्ण) हैं ।'

श्रीमद् आदिशंकराचार्य ने अपनी माता की मुक्ति के लिए आठ मधुर श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण से प्रकट होकर दर्शन देने की प्रार्थना की, तब उन्हें सुनकर भगवान श्रीकृष्ण आचार्य के समक्ष शंख, चक्र, कमल लिये प्रकट हो गये तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है ?

भगवान के रूप का वर्णन करते हुये श्रीशंकराचार्यजी ने लिखा-'भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मा-विष्णु-महेश से पृथक् विकाररहित और सर्वश्रेष्ठ एक सच्चिन्मयी नीलिमा हैं; इस नीलिमा में जगत् के सभी रंगों का लय हो जाता है ।'

अच्युताष्टकम्

अच्युताष्टकम्

अच्युतं केशवं राम नारायणं

कृष्ण दामोदरं वासुदेवं हरिम् ।

श्रीधरं माधवं गोपिकावल्लभं

जानकीनायकं रामचन्द्रं भजे ।।१ ।।

अच्युतं केशवं सत्यभामाधवं

माधवं श्रीधरं राधिकाराधितम् ।

इन्दिरामन्दिरं चेतसा सुन्दरं

देवकीनन्दनं नन्दजं सन्दधे ।। २ ।।

विष्णवे जिष्णवे शंखिने चक्रिणे

रुक्मिणीरागिणे जानकी जानये ।

वल्लवीवल्लभायार्चितायात्मने

कंसविध्वंसिने वंशिने ते नम: ।।३ ।।

कृष्ण गोविन्द हे राम नारायण

श्रीपते वासुदेवाजित श्रीनिधे ।

अच्युतानन्त हे माधवाधोक्षज

द्वारकानायक द्रौपदीरक्षक ।। ४ ।।

राक्षसक्षोभित: सीतया शोभितो

दण्डकारण्यभूपुण्यताकारण: ।

लक्ष्मणेनान्वितो वानरै: सेवितो-

ऽगस्त्यसम्पूजितो राघव: पातु माम् ।। ५ ।।

धेनुकारिष्टकानिष्टकृद् द्वेषिहा

केशिहा कंसहृद्वंशिकावादक: ।

पूतनाकोपक: सूरजाखेलनो

बालगोपालक: पातु मां सर्वदा ।। ६ ।।

विद्युदुद्योतवत्प्रस्फुरद्वाससं

प्रावृडम्भोदवत्प्रोल्लसद्विग्रहम् ।

वन्यया मालया शोभितोर:स्थलं

लोहितांघ्रिद्वयं वारिजाक्षं भजे ।। ७ ।।

कुंचितै: कुन्तलैर्भ्राजमानाननं

रत्नमौलिं लसत्कुण्डलं गण्डयो: ।

हारकेयूरकं कंकणप्रोज्ज्वलं

किंकणीमंजुलं श्यामलं तं भजे ।। ८ ।।

अच्युताष्टकं य: पठेदिष्टदं

प्रेमत: प्रत्यहं पूरुष: सस्पृहम् ।

वृत्तत: सुन्दरं कर्तृविश्वम्भर-

स्तस्य वश्यो हरिर्जायते सत्वरम् ।। ९ ।।

॥ इति श्रीशङ्कराचार्यविरचितमच्युताष्टकं सम्पूर्णम् ॥

अच्युताष्टकम् (हिन्दी अर्थ सहित)

अच्युतं केशवं रामनारायणं कृष्णदामोदरं वासुदेवं हरिम् ।

श्रीधरं माधवं गोपिकावल्लभं जानकीनायकं रामचन्द्रं भजे ॥ १॥

अर्थात्-अच्युत, केशव, राम, नारायण, कृष्ण, दामोदर, वासुदेव, हरि, श्रीधर, माधव, गोपिकावल्लभ तथा जानकीनायक रामचन्द्रजी को मैं भजता हूँ ।

अच्युतं केशवं सत्यभामाधवं माधवं श्रीधरं राधिकाराधितम् ।

इन्दिरामन्दिरं चेतसा सुन्दरं देवकीनन्दनं नन्दनं सन्दधे ॥ २॥

अर्थात्-अच्युत, केशव, सत्यभामापति, लक्ष्मीपति, श्रीधर, राधिकाजी द्वारा आराधित, लक्ष्मीनिवास, परम सुन्दर, देवकीनन्दन, नन्दकुमार का चित्त से ध्यान करता हूँ ।

विष्णवे जिष्णवे शङ्खिने चक्रिणे रुक्मिणिऱागिणे जानकीजानये ।

वल्लवीवल्लभायाऽर्चितायात्मने कंसविध्वंसिने वंशिने ते नमः ॥ ३॥

अर्थात्-जो विभु हैं, विजयी हैं, शंख-चक्र धारी हैं, रुक्मिणी के परम प्रेमी हैं, जानकीजी जिनकी धर्मपत्नी हैं तथा जो व्रजांगनाओं के प्राणाधार हैं, उन परम पूज्य, आत्मस्वरूप, कंसविनाशक मुरली मनोहर आपको नमस्कार करता हूँ ।

कृष्ण गोविन्द हे राम नारायण श्रीपते वासुदेवाजित श्रीनिधे ।

अच्युतानन्त हे माधवाधोक्षज द्वारकानायक द्रौपदीरक्षक ॥ ४॥

अर्थात्-हे कृष्ण ! हे गोविन्द ! हे राम ! हे नारायण ! हे रमानाथ ! हे वासुदेव ! हे अजेय ! हे शोभाधाम ! हे अच्युत ! हे अनन्त ! हे माधव ! हे अधोक्षज ! हे द्वारकानाथ ! हे द्रौपदीरक्षक ! मुझ पर कृपा कीजिए ।

राक्षसक्षोभितः सीतया शोभितो दण्डकारण्यभूपुण्यताकारणः ।

लक्ष्मणेनान्वितो वानरैः सेवितोऽगस्त्यसम्पूजितो राघवः पातु माम् ॥ ५॥        

अर्थात्-जो राक्षसों पर अत्यन्त क्रोधित हैं, सीताजी से सुशोभित हैं, दण्डकारण्य की भूमि को पवित्र करने वाले हैं, लक्ष्मणजी जिनका अनुसरण करते हैं, वानर जिनकी सेवा करते हैं, अगत्स्य मुनि से सेवित हैं, वे रघुवंशी श्रीरामचन्द्रजी मेरी रक्षा करें ।

धेनुकारिष्टकोऽनिष्टकृद्द्वेषिणां (द्वेषिहा) केशिहा कंसहृद्वंशिकावादकः । 

पूतनाकोपकः सूरजाखेलनो बालगोपालकः पातु माम् सर्वदा ॥ ६॥

अर्थात्-धेनुक और अरिष्टासुर आदि का अनिष्ट करने वाले, शत्रुओं का विनाश करने वाले, केशी और कंस का वध करने वाले, वंशी को बजाने वाले, पूतना पर कोप करने वाले, यमुना तट पर विहार करने वाले, बालगोपाल मेरी सदा रक्षा करें ।

विद्युदुद्योतवत्प्रस्फुरद्वाससं प्रावृडम्भोदवत्प्रोल्लसद्विग्रहम् ({अथवा}विद्युदुद्योतवान्)। 

वन्यया मालया शोभितोरःस्थलं लोहिताङ्घ्रिद्वयं वारिजाक्षं भजे ॥ ७॥

अर्थात्-विद्युत के प्रकाश के समान जिनका पीताम्बर सुशोभित हो रहा है, वर्षाकालीन मेघों के समान जिनका अति सुन्दर शरीर है, जिनका वक्ष:स्थल वनमाला से विभूषित है और चरणकमल अरुण वर्ण के हैं, उन कमलनयन श्रीहरि को मैं भजता हूँ ।

कुञ्चितैः कुन्तलैर्भ्राजमानाननं रत्नमौलिं लसत्कुण्डलं गण्डयोः ।

हारकेयूरकं कङ्कणप्रोज्ज्वलं किङ्किणीमञ्जुलं श्यामलं तं भजे ॥ ८॥

अर्थात्-जिनका मुख घुंघराली अलकों से सुशोभित है, मस्तक पर मणिमय मुकुट शोभा दे रहा है तथा कपोलों पर कुण्डल सुशोभित हो रहे हैं; उज्ज्वल हार, बाजूबन्द, कंकण और किंकणी से सुशोभित उन मंजुलमूर्ति श्रीश्यामसुन्दर को मैं भजता हूँ ।

अच्युतस्याष्टकं यः पठेदिष्टदं प्रेमतः प्रत्यहं पूरुषः सस्पृहम् ।

वृत्ततः सुन्दरं कर्तृ विश्वम्भरस्तस्य वश्यो हरिर्जायते सत्वरम् ॥ ९॥      

अर्थात्-जो मनुष्य इस अति सुन्दर छन्द वाले और मनवांछित फल देने वाले अच्युताष्टक को प्रेम और श्रद्धा से नित्य पढ़ता है, विश्वम्भर विश्वकर्ता श्रीहरि शीघ्र ही उसके वशीभूत हो जाते हैं ।

श्रीमद् आदिशंकराचार्य द्वारा रचित अच्युताष्टकम् समाप्त हुआ।

अच्युताष्टकम्  

अच्युताच्युत हरे परमात्मन् राम कृष्ण पुरुषोत्तम विष्णो ।

वासुदेव भगवन्ननिरुद्ध श्रीपते शमय दुःखमशेषम् ॥ १॥

विश्वमङ्गल विभो जगदीश नन्दनन्दन नृसिंह नरेन्द्र ।

मुक्तिदायक मुकुन्द मुरारे श्रीपते शमय दुःखमशेषम् ॥ २॥

रामचन्द्र रघुनायक देव दीननाथ दुरितक्षयकारिन् ।

यादवेद्र यदुभूषण यज्ञ श्रीपते शमय दुःखमशेषम् ॥ ३॥

देवकीतनय दुःखदवाग्ने राधिकारमण रम्यसुमूर्ते ।

दुःखमोचन दयार्णवनाथ श्रीपते शमय दुःखमशेषम् ॥ ४॥

गोपिकावदनचन्द्रचकोर नित्य निर्गुण निरञ्जन जिष्णो ।

पूर्णरूप जय शङ्कर सर्व श्रीपते शमय दुःखमशेषम् ॥ ५॥

गोकुलेश गिरिधारण धीर यामुनाच्छतटखेलनवीर ।

नारदादिमुनिवन्दितपाद श्रीपते शमय दुःखमशेषम् ॥ ६॥

द्वारकाधिप दुरन्तगुणाब्धे प्राणनाथ परिपूर्ण भवारे ।

ज्ञानगम्य गुणसागर ब्रह्मन् श्रीपते शमय दुःखमशेषम् ॥ ७॥

दुष्टनिर्दलन देव दयालो पद्मनाभ धरणीधरधारिन् ।

रावणान्तक रमेश मुरारे श्रीपते शमय दुःखमशेषम् ॥ ८॥

अच्युताष्टकमिदं रमणीयं निर्मितं भवभयं विनिहन्तुम् ।

यः पठेद्विषयवृत्तिनिवृत्तिर्जन्मदुःखमखिलं स जहाति ॥ ९॥

इति श्रीशङ्करभगवत्पादकृतम् अच्युताष्टकं २ सम्पूर्णम् ।

अच्युताष्टकं३   

अथ अच्युताष्टकम् ॥

अभिलपननिसर्गादच्युताख्ये भजे त्वां

हरसि मदघबृन्दं त्वद्भुबुक्षावशात् त्वम् ।

अघहृदिति तवांब प्रत्युत ख्यातिदोऽहं

त्वयि मम वद का वा संगतिर्दैन्यवाचाम् ॥ १॥

चिरातीता सान्दीपनितनुभुवः कालभवन-

प्रपत्तिस्तं पित्रोः पुनरगमयत् सन्निधिमिति ।

यशः कृष्णस्येदं कथमहह न त्वां रसनया

यदि श्रीकृष्णाख्ये भजति स तादनीं मुनिसुतः ॥ २॥

हरेर्यच्चोरत्वं यदपि च तथा जारचरितं

तदेतत् सर्वांहस्ततिकृते संकथनतः ।

इतीदं माहात्म्यं मधुमथन ते दीपितमिदं

वदन्त्याः कृष्णाख्ये तवहि विचरन्त्या विलसितम् ॥ ३॥

सभायां द्रौपत्यांऽशुकसृतिभिया तद्रसनया

धृता तस्याश्चेलं प्रतनु तदवस्थं विदधती ।

व्यतानीश्शैलाभं वसनविसरं चांब हरता-

मियान् गोविन्दाख्ये वद वसनराशिस्तव कुतः ॥ ४॥

अधिरसनमयि त्वामच्युताख्ये दधानं

वनजभवमुखानां वन्द्यमाहुर्महान्तः ।

सतु विनमति मातश्चाश्वगोश्वादनादीन्

भवति ननु विचित्रा पद्धतिस्तावकानाम् ॥ ५॥

जननि मुरभिदाख्ये जाह्नवीनिम्नगैका

समजनि पदपद्माच्चक्रिणस्त्वाश्रितानाम् ।

परिणमति समस्ताः पादवार्घिन्दुरेको

जगति ननु तटिन्यो जाह्नवीसह्यजाद्याः ॥ ६॥

समवहितमपश्यन् सन्निधौ वैनतेयं

प्रसभविधुतपद्मापाणिरीशोऽच्युताख्ये ।

समवितुमुपनीतः सागजेन्द्रं त्वया द्राक्

वद जननि विना त्वां केन वा किं तदाभूत् ॥ ७॥             

यदेष स्तौमि त्वां त्रियुगचरणत्रायिणि ततो

महिम्नः का हानिस्तवतु मम संपन्निरवधिः ।

शुना लीलाकामं भवति सुरसिन्धुर्भगवती

तदेषा किंभूता सतु सपदि सन्तापभरितः ॥ ८॥

इति श्रीश्रीधरवेंकटेशार्यकृतौ अच्युताष्टकं संपूर्णम् ॥

इति अच्युताष्टकम् समाप्त ॥

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