कृष्ण जन्म स्तुति
कृष्ण जन्म स्तुति ब्रह्मवैवर्तपुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड अध्याय-८ में तथा श्रीमद्भागवतमहापुराण के दसम स्कन्ध पूर्वार्ध
अध्याय ३में अपने अभी जन्मे पुत्र श्रीकृष्ण को साक्षात् भगवान जानकर पहले
श्रीवसुदेवजी ने फिर माता देवकी ने स्तुति किया।
गर्भगतकृष्णस्तुति सुनाकर देवता लोग
अपने-अपने धाम को चले गये। फिर जल की वृष्टि होने लगी। सारी मथुरा नगरी निश्चेष्ट
होकर सो रही थी। मुने! वह रात्रि घोर अन्धकार से व्याप्त थी। जब रात के सात
मुहूर्त निकल गये और आठवाँ उपस्थित हुआ, तब
आधी रात के समय सर्वोत्कृष्ट शुभ लग्न आया। वह वेदों से अतिरिक्त तथा दूसरों के
लिये दुर्ज्ञेय लग्न था। उस लग्न पर केवल शुभ ग्रहों की दृष्टि थी। अशुभ ग्रहों की
नहीं थी। रोहिणी नक्षत्र और अष्टमी तिथि के संयोग से जयन्ती नामक योग सम्पन्न हो
गया था। मुने! जब अर्धचन्द्रमा का उदय हुआ, उस समय लग्न की
ओर देख-देखकर भयभीत हुए सूर्य आदि सभी ग्रह आकाश में अपनी गति के क्रम को लाँघकर
मीन लग्न में जा पहुँचे।
शुभ और अशुभ सभी वहाँ एकत्र हो गये।
विधाता की आज्ञा से एक मुहूर्त के लिये वे सभी ग्रह प्रसन्नतापूर्वक ग्यारहवें
स्थान में जाकर वहाँ सानन्द स्थित हो गये। मेघ वर्षा करने लगे। ठंडी-ठंडी हवा चलने
लगी। पृथ्वी अत्यन्त प्रसन्न थी। दसों दिशाएँ स्वच्छ हो गयी थीं। ऋषि,
मनु, यक्ष, गन्धर्व,
किन्नर, देवता और देवियाँ सभी प्रसन्न थे।
अप्सराएँ नृत्य करने लगीं। गन्धर्वराज और विद्याधरियाँ गीत गाने लगीं। नदियाँ
सुखपूर्वक बहने लगीं। अग्निहोत्र की अग्नियाँ प्रसन्नतापूर्वक प्रज्वलित हो उठीं।
स्वर्ग में दुन्दुभियों और आनकों की मनोहर ध्वनि होने लगी। खिले हुए पारिजात के
पुष्पों की झड़ी लग गयी। पृथ्वी नारी का रूप धारण करके स्वयं सूतिकागार में गयी।
जहाँ जय-जयकार, शंखनाद तथा हरि कीर्तन का शब्द गूँज रहा था।
इसी समय सती देवकी वहाँ गिर पड़ीं। उनके पेट से वायु निकल गयी और वहीं भगवान
श्रीकृष्ण दिव्यरूप धारण करके देवकी के हृदय कमल के कोश से प्रकट हो गये।
अथ
श्रीकृष्ण जन्म स्तुति
कृष्ण जन्म स्तुति ब्रह्मवैवर्त पुराण
श्रीवसुदेव उवाच ।
श्रीमन्तमिन्द्रियातीतमक्षरं
निर्गुणं विभुम् ।
ध्यानासाध्यं च सर्वेषां
परमात्मानमीश्वरम् ।।
वसुदेव जी बोले–
भगवन! आप श्रीमान (सहज शोभा से सम्पन्न), इन्द्रियातीत,
अविनाशी, निर्गुण, सर्वव्यापी,
ध्यान से भी किसी के वश में न होने वाले, सबके
ईश्वर और परमात्मा हैं।
स्वेच्छामयं सर्वरूपं
स्वेच्छारूपधरं परम् ।
निर्लिप्तं परमं ब्रह्म बीजरूपं
सनातनम् ।।
स्वेच्छामय,
सर्वस्वरूप, स्वच्छन्द रूपधारी, अत्यन्त निर्लिप्त, परब्रह्म तथा सनातन बीजरूप हैं।
स्थूलात् स्थूलतरं
व्याप्तमतिसूक्ष्ममदर्शनम् ।
स्थितं सर्वशरीरेषु
साक्षिरूपमदृश्यकम् ।।
आप स्थूल से भी अत्यन्त स्थूल,
सर्वत्र व्याप्त, अतिशय सूक्ष्म, दृष्टिपथ में न आने वाले, समस्त शरीरों में
साक्षीरूप से स्थित तथा अदृश्य हैं।
शरीरवन्तं सगुणमशरीरं गुणोत्करम् ।
प्रकृतिं प्रकृतीशं च प्राकृतं
प्रकृतेः परम् ।।
साकार,
निराकार; सगुण, गुणों के
समूह; प्रकृति, प्रकृति के शासक तथा
प्राकृत पदार्थों में व्याप्त होते हुए भी प्रकृति से परे विद्यमान हैं।
सर्वेशं सर्वरूपं च
सर्वान्तकरमव्ययम् ।
सर्वाधारं निराधारं निर्व्यूहं
स्तौमि किं विभो।।
विभो! आप सर्वेश्वर,
सर्वरूप, सर्वान्तक, अविनाशी,
सर्वाधार, निराधार और निर्व्यूह (तर्क के
अविषय) हैं; मैं आपकी क्या स्तुति करूँ?
अनन्तः स्तवनेऽशक्तोऽशक्ता देवी
सरस्वती ।
यं स्तोतुमसमर्थश्च पञ्चवक्त्रः
षडाननः।।
भगवान अनन्त (सहस्रों जिह्वावाले
शेषनाग) भी आपका स्तवन करने में असमर्थ हैं। सरस्वती देवी में भी वह शक्ति नहीं कि
आपकी स्तुति कर सकें। पंचमुख महादेव और छः मुखवाले स्कन्द भी जिनकी स्तुति नहीं कर
सकते,
चतुर्मुखो वेदकर्ता यं स्तोतुमक्षमः
सदा ।
गणेशो न समर्थश्च योगीन्द्राणां गुरोर्गुरुः।।
वेदों को प्रकट करने वाले चतुर्मुख
ब्रह्मा भी जिनके स्तवन में सर्वदा अक्षम हैं तथा योगीन्द्रों के गुरु के भी गुरु
गणेश भी जिनकी स्तुति में असमर्थ हैं।
ऋषयो देवताश्चैव
मुनीन्द्रमनुमानवाः।
स्वप्ने तेषामदृश्यं च त्वामेवं किं
स्तुवन्ति ते ।।
उन आपका स्तवन ऋषि,
देवता, मुनीन्द्र, मनु
और मानव कैसे कर सकते हैं? उनकी दृष्टि में तो आप कभी आये ही
नहीं हैं।
श्रुतय स्तवनेऽशक्ताः किं स्तुवन्ति
विपश्चितः।
विहायैवं शरीरं च बालो भवितुमर्हसि ।।
जब श्रुतियाँ आपकी स्तुति नहीं कर
सकतीं तो विद्वान लोग क्या कर सकते हैं? मेरी
आपसे इतनी ही प्रार्थना है कि आप ऐसे दिव्य शरीर को त्यागकर बालक का रूप धारण कर
लें।
वसुदेवकृतं स्तोत्रं त्रिसंध्यं यः
पठेन्नरः।
भक्तिदास्यमवाप्नोति
श्रीकृष्णचरणाम्बुजे ।।
जो मनुष्य वसुदेव जी के द्वारा किये
गये इस स्तोत्र का तीनों संध्याओं के समय पाठ करता है,
वह श्रीकृष्ण चरणारविन्दों की दास्य-भक्ति प्राप्त कर लेता है।
विशिष्टपुत्रं लभते हरिदासं
गुणान्वितम् ।
सङ्कटं निस्तरेत् तूर्णं
शत्रुभीत्या प्रमुच्यते ।।
उसे विशिष्ट एवं हरि भक्त पुत्र की
प्राप्ति होती है। वह सारे संकटों से शीघ्र पार हो जाता और शत्रु के भय से छूट
जाता है।
(श्रीकृष्णजन्मखण्ड 7। 80-90)
कृष्ण जन्म स्तुति श्रीमद्भागवतमहापुराण
श्रीवसुदेव उवाच ।
विदितोऽसि भवान् साक्षात् पुरुषः
प्रकृतेः परः ।
केवलानुभवानन्द स्वरूपः
सर्वबुद्धिदृक् ॥ १॥
वसुदेवजी ने कहा —
मैं समझ गया कि आप प्रकृति से अतीत साक्षात् पुरुषोत्तम हैं । आपका
स्वरूप हैं केवल अनुभव और केवल आनन्द । आप समस्त बुद्धियों के एकमात्र साक्षी हैं।
स एव स्वप्रकृत्येदं सृष्ट्वाग्रे
त्रिगुणात्मकम् ।
तदनु त्वं ह्यप्रविष्टः प्रविष्ट इव
भाव्यसे ॥ २ ॥
आप ही सर्ग के आदि में अपनी प्रकृति
से इस त्रिगुणमय जगत् की सृष्टि करते हैं । फिर उसमें प्रविष्ट न होने पर भी आप
प्रविष्ट के समान जान पड़ते हैं।
यथा इमे अविकृता भावाः तथा ते
विकृतैः सह ।
नानावीर्याः पृथग्भूता विराजं
जनयन्ति हि ॥ ३ ॥
सन्निपत्य समुत्पाद्य
दृश्यन्तेऽनुगता इव ।
प्रागेव विद्यमानत्वात् न तेषां इह
संभवः ॥ ४ ॥
जैसे जब तक महत्तत्त्व आदि
कारण-तत्त्व पृथक्-पृथक् रहते हैं, तब
तक उनकी शक्ति भी पृथक्-पृथक् होती है; जब वे इन्द्रियादि
सोलह विकारों के साथ मिलते हैं, तभी इस ब्रह्माण्ड की रचना
करते हैं और इसे उत्पन्न करके इसी में अनुप्रविष्ट-से जान पड़ते हैं; परंतु सच्ची बात तो यह है कि वे किसी भी पदार्थ में प्रवेश नहीं करते ।
ऐसा होने का कारण यह है कि उनसे बनी हुई जो भी वस्तु है, उसमें
वे पहले से ही विद्यमान रहते हैं।
एवं भवान् बुद्ध्यनुमेयलक्षणैः
ग्राह्यैर्गुणैः सन्नपि तद्गुणाग्रहः ।
अनावृतत्वाद् बहिरन्तरं न ते सर्वस्य सर्वात्मन आत्मवस्तुनः ॥ ५॥
ठीक वैसे ही बुद्धि के द्वारा केवल
गुणों के लक्षणों का ही अनुमान किया जाता है और इन्द्रियों के द्वारा केवल गुणमय
विषयों का ही ग्रहण होता है । यद्यपि आप उनमें रहते हैं,
फिर भी उन गुणों के ग्रहण से आपका ग्रहण नहीं होता । इसका कारण यह
है कि आप सब कुछ हैं, सबके अन्तर्यामी हैं और परमार्थ सत्य,
आत्मस्वरूप है । गुणों का आवरण आपको ढक नहीं सकता । इसलिये आप में न
बाहर है न भीतर । फिर आप किसमें प्रवेश करेंगे ? (इसलिये
प्रवेश न करने पर भी आप प्रवेश किये हुए के समान दीखते हैं) ।
य आत्मनो दृश्यगुणेषु सन्निति
व्यवस्यते स्व-व्यतिरेकतोऽबुधः ।
विनानुवादं न च तन्मनीषितं सम्यग्
यतस्त्यक्तमुपाददत् पुमान् ॥ ६॥
जो अपने इन दृश्य गुणों को अपने से
पृथक् मानकर सत्य समझता है, वह अज्ञानी हैं ।
क्योंकि विचार करने पर ये देह-गेह आदि पदार्थ वाग्विलास के सिवा और कुछ नहीं सिद्ध
होते । विचार के द्वारा जिस वस्तु का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, बल्कि जो बाधित हो जाती है, उसको सत्य माननेवाला
पुरुष बुद्धिमान् कैसे हो सकता है ? ।
त्वत्तोऽस्य जन्मस्थिति संयमान्
विभो वदन्ति अनीहात् अगुणाद् अविक्रियात् ।
त्वयीश्वरे ब्रह्मणि नो विरुध्यते
त्वद् आश्रयत्वाद् उपचर्यते गुणैः ॥ ७ ॥
प्रभो ! कहते हैं कि आप स्वयं समस्त
क्रियाओं,
गुणों और विकारों से रहित हैं । फिर भी इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय आपसे ही होते हैं । यह बात परम ऐश्वर्यशाली परब्रह्म
परमात्मा आपके लिये असंगत नहीं है । क्योंकि तीनों गुणों के आश्रय आप ही हैं,
इसलिये उन गुणों के कार्य आदि का आपमें ही आरोप किया जाता है।
स त्वं त्रिलोकस्थितये स्वमायया
बिभर्षि शुक्लं खलु वर्णमात्मनः ।
सर्गाय रक्तं रजसोपबृंहितं कृष्णं च
वर्णं तमसा जनात्यये ॥ ८ ॥
आप ही तीनों लोकों की रक्षा करने के
लिये अपनी माया से सत्त्वमय शुक्लवर्ण (पोषणकारी विष्णुरूप) धारण करते हैं,
उत्पत्ति के लिये रजःप्रधान रक्तवर्ण (सुजनकारी ब्रह्मारूप) और
प्रलय के समय तमोगुण-प्रधान कृष्णवर्ण (संहारकारी रुद्ररूप) स्वीकार करते हैं।
श्रीकृष्णजन्मस्तुति श्रीमद्भागवतमहापुराण
श्रीदेवक्युवाच ।
रूपं यत् तत् प्राहुरव्यक्तमाद्यं
ब्रह्म ज्योतिर्निर्गुणं निर्विकारम् ।
सत्तामात्रं निर्विशेषं निरीहं स
त्वं साक्षात् विष्णुरध्यात्मदीपः ॥ १॥
माता देवकी ने कहा —
प्रभो ! वेदों ने आपके जिस रूप को अव्यक्त और सबका कारण बतलाया है,
जो ब्रह्म, ज्योतिःस्वरूप, समस्त गुणों से रहित और विकारहीन है, जिसे
विशेषण-रहित-अनिर्वचनीय, निष्क्रिय एवं केवल विशुद्ध सत्ता
के रूप में कहा गया हैं — वही बुद्धि आदि के प्रकाशक विष्णु
आप स्वयं हैं।
नष्टे लोके द्विपरार्धावसाने
महाभूतेषु आदिभूतं गतेषु ।
व्यक्ते अव्यक्तं कालवेगेन याते
भवान् एकः शिष्यते शेषसंज्ञः ॥ २ ॥
जिस समय ब्रह्मा की पूरी आयु —
दो परार्ध समाप्त हो जाते हैं, काल शक्ति के
प्रभाव से सारे लोक नष्ट हो जाते हैं, पञ्च महाभूत अहङ्कार
में, अहङ्कार महत्तत्त्व में और महत्तत्त्व प्रकृति में लीन
हो जाता है — उस समय एकमात्र आप ही शेष रह जाते हैं । इसी से
आपका एक नाम ‘शेष’ भी है ।
योऽयं कालस्तस्य तेऽव्यक्तबन्धो
चेष्टां आहुः चेष्टते येन विश्वम् ।
निमेषादिः वत्सरान्तो महीयान् तं
त्वेशानं क्षेमधाम प्रपद्ये ॥ ३ ॥
प्रकृति के एकमात्र सहायक प्रभो !
निमेष से लेकर वर्ष-पर्यन्त अनेक विभागों में विभक्त जो काल हैं,
जिसकी चेष्टा से यह सम्पूर्ण विश्व सचेष्ट हो रहा है और जिसकी कोई
सीमा नहीं है, वह आपकी लीलामात्र है । आप सर्वशक्तिमान् और
परम कल्याण के आश्रय हैं । मैं आपकी शरण लेती हूँ।
मर्त्यो मृत्युव्यालभीतः पलायन्
लोकान् सर्वान् निर्भयं नाध्यगच्छत् ।
त्वत्पादाब्जं प्राप्य यदृच्छयाद्य
स्वस्थः शेते मृत्युरस्मादपैति ॥ ४ ॥
प्रभो ! यह जीव मृत्युग्रस्त हो रहा
है । यह मृत्युरूप कराल व्याल से भयभीत होकर सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों में भटकता
रहा है,
परन्तु इसे कभी कहीं भी ऐसा स्थान न मिल सका, जहाँ
यह निर्भय होकर रहे । आज बड़े भाग्य से इसे आपके चरणारविन्दों की शरण मिल गयी ।
अतः अब यह स्वस्थ होकर सुख की नींद सो रहा है । औरों की तो वात ही क्या, स्वयं मृत्यु भी इससे भयभीत होकर भाग गयी है।
श्रीकृष्ण जन्म स्तुति: समाप्त॥
0 Comments