श्रीयुगलकिशोर अष्टक
युगलकिशोर अर्थात् श्रीराधाकृष्ण
जिनकी नवीन किशोरावस्था है । श्रीरूपगोस्वामीजी ने इस आठ पदों के अष्टक स्तोत्र जिसे
श्रीयुगलकिशोराष्टक कहा जाता है, में उन्होंने युगलकिशोर के सुन्दर श्रृंगार व
स्वरूप का वर्णन किया है ।
श्री युगलकिशोराष्टकम्
shri Yugal kishor Ashtak
श्रीराधा और श्रीकृष्ण अर्थात् ‘युगलकिशोर’, ‘युगलसरकार’ या ‘युगलछवि’ एक ही ज्योति के दो रूप हैं । जो श्रीकृष्ण
हैं, वही श्रीराधा हैं और जो श्रीराधा हैं, वही श्रीकृष्ण हैं; श्रीराधा-माधव के रूप में एक ही
ज्योति दो प्रकार से प्रकट है, जैसे शरीर अपनी छाया से शोभित
हो ।
श्रीराधा-माधव चरन बंदौ बारंबार ।
एक तत्त्व दो तनु धरें,
नित-रस पारावार ।।
(भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)
युगलकिशोर अष्टकं
।। श्रीयुगलकिशोराष्टक ।।
युगलकिशोर अष्टक स्तोत्र
अथ श्रीयुगलकिशोराष्टक
नवजलधर विद्युद्धौतवर्णौ प्रसन्नौ,
वदननयन पद्मौ चारूचन्द्रावतंसौ ।
अलकतिलक भालौ केशवेशप्रफुल्लौ,
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ
।।१।।
जिनका रंग नवीन जल भरे मेघ और
विद्युत की छटा के समान है, जिनके मुख पर सदा
प्रसन्नता छायी रहती है, जिनके मुख और नेत्र खिले कमल के
समान हैं, जिनके मस्तक पर मयूरपंख का मुकुट (श्रीकृष्ण) और
सोने की चन्द्रिका (श्रीराधा) है, जिनके माथे पर सुन्दर तिलक
लगा है और अलकावली बिखरी हुई हैं और जो सुन्दर केश रचना के कारण फूले-फूले से लगते
हैं, अरे मेरे मन ! तू उन श्रीराधा और श्रीकृष्ण का ही
निरन्तर भजन किया कर ।
नववसन हरितनीलौ चन्दनालेपनांगौ,
मणिमरकत दीप्तौ स्वर्णमालाप्रयुक्तौ
।
कनकवलय हस्तौ रासनाट्यप्रसक्तौ,
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ
।।२।।
जिनके श्रीअंगों पर पीले और नीले वस्त्र
शोभायमान हैं, श्रीविग्रह पर चंदन लगा हुआ है,
जिनके शरीर की कांति मरकतमणि और सोने के समान है, जिनके वक्ष पर सोने के हार और हाथों में सोने के कंगन चमक रहे हैं और जो
रासलीला में संलग्न हैं, अरे मेरे मन ! तू उन
श्रीबृषभानुकिशोरी और श्रीश्यामसुन्दर का ही निरन्तर भजन किया कर ।
अतिमधुर सुवेषौ रँगभँगित्रिभंगौ,
मधुरमृदुल हास्यौ कुण्डलाकीर्णकर्णौ
।
नटवरवर रम्यौ नृत्यगीतानुरक्तौ,
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ
।।३।।
जिन्होंने अत्यन्त मधुर और सुन्दर
वेष बना रखा है, जो अत्यन्त सुन्दर त्रिभंगी
मुद्रा में खड़े हैं और मधुर हंसी हंस रहे हैं, जिन्होंने
कानों में कुण्डल और कर्णफूल पहने हैं, जो श्रेष्ठ नट और नटी
के रूप में सुशोभित हैं, जो नृत्य और गीत के परम अनुरागी हैं,
अरे मेरे मन ! तू उन श्रीराधिका और श्रीकृष्ण का ही निरन्तर भजन
किया कर ।
विविधगुण विदग्धौ वन्दनीयौसुवेशौ,
मणिमय मकराद्यै: शोभितांगौ
स्तुवन्तौ ।
स्मितनमित कटाक्षौ धर्मकर्मप्रदत्तौ,
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ
।।४।।
जो विभिन्न गुणों से भूषित और सदा
वंदन के योग्य हैं, जिन्होंने अत्यन्त
सुन्दर वेष धारण कर रखा है, जिनके अंगों पर मणिमय मकराकृत
कुण्डल और अन्य आभूषण हैं, जिनके शरीर से सुन्दर कांति निकल
रही है, नेत्रों में हंसी खेल रही है और जो हमारे धर्म-कर्म
के कारण हमें प्राप्त हुए हैं, अरे मेरे मन ! तू उन श्रीराधा
और श्रीनन्दनंदन में ही सदा तल्लीन रह ।
कनकमुकुट चूडौ पुष्पितोद्भूषितांगौ,
सकलवन निविष्टौ सुन्दरानन्दपुज्जौ ।
चरणकमल दिव्यौ देवदेवादिसेव्यौ,
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ
।।५।।
जो मस्तक पर सोने का मुकुट और सोने
की ही चन्द्रिका धारण किए हुए हैं, जिनके
अंग फूलों के श्रृंगार और विभिन्न प्रकार के आभूषणों से विभूषित हैं, जो व्रज के वनों में विभिन्न प्रकार की लीलाएं रचते रहते हैं, जो सुन्दरता और आनन्द के मूर्तरूप हैं, जिनके चरण
कमल अत्यन्त दिव्य हैं और जो महादेवजी के भी आराध्य हैं, अरे
मेरे मन ! तू उन श्रीराधा और श्रीकृष्ण का ही निरन्तर चिन्तन किया कर ।
अतिसुवलित गात्रौ गन्धमाल्यैर्विराजौ,
कतिकति रमणीनां सेव्यमानौ सुवेशौ ।
मुनिसुरगण नाथौ वेदशास्त्रादिविज्ञौ,
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ
।।६।।
जिनके अंगों का संचालन अत्यन्त
सुन्दर है और श्रीअंग पर सुगन्धित लेप लगे हैं, जो
नाना प्रकार के पुष्पों की मालाओं से सजे हैं, अनगिनत
व्रजबालाएं जिनकी सेवा में सदैव लगी रहती हैं, जिनका वेश
अत्यन्त मनमोहक है, बड़े-बड़े देवता और मुनिगण भी जिनका
ध्यान में ही दर्शन कर पाते हैं, जो वेदों के महान पंडित हैं,
अरे मेरे मन ! तू उन कीर्तिकुमारी और यशोदानंदन का ही निरन्तर ध्यान
किया कर ।
अतिसुमधुर मूर्ती
दुष्टदर्पप्रशान्ती,
सुरवर संवादौ द्वौ
सर्वसिद्धिप्रदानौ ।
अतिरसवश मग्नौ गीतवाद्यप्रतानौ,
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ
।।७।।
जिनका श्रीविग्रह अत्यन्त मधुर है,
जो दुष्टों के दर्प को चूर्ण करने में अत्यन्त कुशल हैं, जो बड़े-बड़े देवताओं को भी वर देने की सामर्थ्य रखते हैं और सभी
सिद्धियों को देने वाले हैं, जो परस्पर प्रेम के वश होकर
आनंद में मग्न रहते हैं और गायन-वादन करते रहते हैं, अरे
मेरे मन ! तू उन श्रीराधा और श्रीकृष्ण की ही निरन्तर भावना किया कर ।
अगमनिगम सारौ सृष्टिसंहारकारौ,
वयसि नवकिशोरौ नित्यवृन्दावनस्थौ ।
शमनभय विनाशौ पापिनस्तारवन्तौ,
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ
।।८।।
जो अगम्य वेदों के सारभूत हैं,
सृष्टि और संहार जिनकी लीलाएं हैं, जो सदा
नवीन किशोरावस्था में रहते हैं, वृन्दावन में ही जिनका नित्य
निवास है, जो यमराज के भय का नाश करने वाले और पापियों को भी
भवसागर से तार देने वाले हैं, अरे मेरे मन ! तू उन श्रीराधा
और श्रीकृष्ण का ही निरन्तर भजता रह ।
इदं मनोहरं स्त्रोत्रं श्रद्धया य: पठेन्नर: ।
राधिकाकृष्णचन्द्रौ च सिद्धिदौ
नात्र संशय ।।९।।
इस मनोहर स्तोत्र का जो कोई मनुष्य
श्रद्धापूर्वक पाठ करेगा, उसके मनोरथ को
श्रीराधाकृष्ण अवश्य पूर्ण करेंगे।
॥ इति श्रीमद्रूपगोस्वामिविरचितं श्रीयुगलकिशोराष्टकं सम्पूर्णम् ॥

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