श्रीयुगलकिशोराष्टक
‘युगलकिशोराष्टक’ श्रीरूपगोस्वामीजी द्वारा श्रीराधाकृष्ण की संयुक्त उपासना के लिए आठ पदों
में रचा गया बहुत सुन्दर स्तोत्र (अष्टक) है । मूल स्तोत्र सहित नीचे इसका हिन्दी
भावार्थ दिया जा रहा है ।
॥ श्रीयुगलकिशोराष्टक ॥
नवजलधर विद्युद्धौतवर्णौ प्रसन्नौ,
वदननयन पद्मौ चारूचन्द्रावतंसौ ।
अलकतिलक भालौ केशवेशप्रफुल्लौ,
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ
॥ १ ॥
नववसन हरितनीलौ चन्दनालेपनाङ्गौ,
मणिमरकत दीप्तौ स्वर्णमालाप्रयुक्तौ
।
कनकवलयहस्तौ रासनाट्यप्रसक्तौ,
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ
॥ २ ॥
अतिमधुर सुवेषौ रङ्गभङ्गित्रिभङ्गौ,
मधुरमृदुलहास्यौ कुण्डलाकीर्णकर्णौ
।
नटवरवररम्यौ नृत्यगीतानुरक्तौ,
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ
॥ ३ ॥
विविधगुणविदग्धौ वन्दनीयौ सुवेशौ,
मणिमयमकराद्यै: शोभितांगौ स्फुरन्तौ
।
स्मितनमित कटाक्षौ धर्मकर्मप्रदत्तौ,
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ
॥ ४ ॥
कनकमुकुटचूडौ पुष्पितोद्भूषिताङ्गौ,
सकलवननिविष्टौ सुन्दरानन्दपुज्जौ ।
चरणकमलदिव्यौ देवदेवादिसेव्यौ,
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ
॥ ५ ॥
अतिसुवलितगात्रौ गन्धमाल्यैर्विराजौ,
कतिकतिरमणीनां सेव्यमानौ सुवेशौ ।
मुनिसुरगणभाव्यौ
वेदशास्त्रादिविज्ञौ,
भज भज तु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ
॥ ६ ॥
अतिसुमधुरमूर्तौ दुष्टदर्पप्रशान्तौ,
सुरवरवरदौ द्वौ सर्वसिद्धिप्रदानौ ।
अतिरसवशमग्नौ गीतवाद्यैप्रतानौ,
भज भज तु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ
॥ ७ ॥
अगमनिगमसारौ सृष्टिसंहारकारौ,
वयसि नवकिशोरौ नित्यवृन्दावनस्थौ ।
शमनभयविनाशौ पापिनस्तारयन्तौ,
भज भज तु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ
॥ ८ ॥
इदं मनोहरं स्तोत्रं श्रद्धया यः
पठेन्नरः ।
राधिकाकृष्णचन्द्रौ च सिद्धिदौ नात्र
संशयः ॥ ९ ॥
॥ इति श्रीमद्रूपगोस्वामिविरचितं
श्रीयुगलकिशोराष्टकं सम्पूर्णम् ॥
श्रीयुगल किशोराष्टक हिंदी भावार्थ सहित
नवजलधर विद्युद्धौतवर्णौ प्रसन्नौ,
वदननयन पद्मौ चारूचन्द्रावतंसौ ।
अलकतिलक भालौ केशवेशप्रफुल्लौ,
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ ॥ १ ॥
जिनका वर्ण क्रमशः नवीन जलपूर्ण मेघ
एवं विद्युच्छटा के समान है, जिनके मुख पर
सदा प्रसन्नता छायी रहती हैं, जिनके मुख एवं नेत्र कमल के
समान प्रफुल्लित हैं, जिनके मस्तक पर क्रमशः मयूरपिच्छ का
मुकुट एवं स्वर्णमय चन्द्रिका सुशोभित है, जिनके ललाट पर
सुन्दर तिलक किया हुआ है और अलकावली विथुरी हुई है और जो अद्भुत केशरचना के कारण
फूले-फूले-से लगते हैं, अरे मेरे मन ! तू उन श्रीराधिका एवं
श्रीकृष्णचन्द्र का ही निरन्तर सेवन कर ॥ १ ॥
नववसन हरितनीलौ चन्दनालेपनाङ्गौ,
मणिमरकत दीप्तौ स्वर्णमालाप्रयुक्तौ ।
कनकवलयहस्तौ रासनाट्यप्रसक्तौ,
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ ॥ २ ॥
जिनके श्रीअंगों पर क्रमशः पीले और
नीले वस्त्र सुशोभित हैं, जिनके श्रीविग्रह
चन्दन से चर्चित हो रहे हैं, जिनकी अंगकान्ति क्रमशः मरकतमणि
एवं स्वर्ण के सदृश है, जिनके वक्षःस्थल पर स्वर्णहार
सुशोभित हैं, हाथों में सोने के कंगन चमक रहे हैं और जो
रासक्रीडा में संलग्न हैं, अरे मन ! उन श्रीवृषभानुकिशोरी
एवं श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण का ही नित्य सेवन किया कर ॥ २ ॥
अतिमधुर सुवेषौ रङ्गभङ्गित्रिभङ्गौ,
मधुरमृदुलहास्यौ कुण्डलाकीर्णकर्णौ ।
नटवरवररम्यौ नृत्यगीतानुरक्तौ,
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ ॥ ३ ॥
जिन्होंने अत्यन्त मधुर एवं सुन्दर
वेष बना रखा है, जो अत्यन्त मधुर भङ्गी से
त्रिभङ्गी होकर स्थित हैं, जो मधुर एवं मृदुल हँसी हँस रहे
हैं, जिनके कानों में कुण्डल एवं कर्णफूल सुशोभित हैं,
जो श्रेष्ठ नट एवं नटी के रूप में सुसज्जित हैं तथा नृत्य एवं गीत
के परम अनुरागी हैं, अरे मन ! उन राधिका-कृष्णचन्द्र का ही
तू भजन किया कर ॥ ३ ॥
विविधगुणविदग्धौ वन्दनीयौ सुवेशौ,
मणिमयमकराद्यै: शोभितांगौ स्फुरन्तौ ।
स्मितनमित कटाक्षौ धर्मकर्मप्रदत्तौ,
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ ॥ ४ ॥
जो विविध गुणों से विभूषित हैं और
सदा वन्दन के योग्य हैं, जिन्होंने अत्यन्त
मनोहर वेष धारण कर रखा है, जिनके श्रीअंगों में मणिमय
मकराकृत कुण्डल आदि आभूषण सुशोभित हैं, जिनके अंगों से
प्रकाश की किरणें प्रस्फुटित हो रही हैं, जिनके
नेत्रप्रान्तों में मधुर हँसी खेलती रहती है और जो हमारे धर्म-कर्म के फलस्वरूप
हमें प्राप्त हुए हैं, अरे मन ! उन वृषभानुकिशोरी एवं
नन्दनन्दन श्रीकृष्ण में ही सदा लवलीन रह ॥ ४ ॥
कनकमुकुटचूडौ पुष्पितोद्भूषिताङ्गौ,
सकलवननिविष्टौ सुन्दरानन्दपुज्जौ ।
चरणकमलदिव्यौ देवदेवादिसेव्यौ,
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ ॥ ५ ॥
जो मस्तक पर स्वर्ण का मुकुट एवं
सोने की ही चन्द्रिका धारण किये हुए हैं, जिनके
अंग-प्रत्यंग फूलों के शृङ्गार एवं विविध आभूषणों से विभूषित हैं, जो व्रजभूमि के समस्त वनप्रान्तों में प्रवेश करके नाना प्रकार की लीलाएँ
रचते रहते हैं, जो सौन्दर्य एवं आनन्द के मूर्तरूप हैं,
जिनके चरणकमल अत्यन्त दिव्य हैं और जो देवदेव महादेव आदि के भी
आराध्य हैं, अरे मन ! उन श्रीराधा-कृष्ण का ही तू निरन्तर
चिन्तन किया कर ॥ ५ ॥
अतिसुवलितगात्रौ गन्धमाल्यैर्विराजौ,
कतिकतिरमणीनां सेव्यमानौ सुवेशौ ।
मुनिसुरगणभाव्यौ
वेदशास्त्रादिविज्ञौ, भज भज तु मनो रे
राधिकाकृष्णचन्द्रौ ॥ ६ ॥
जिनके अंगों का संचालन अत्यन्त मधुर
प्रतीत होता है, जो नाना प्रकार के सुगन्धित
द्रव्यों का लेप किये हुए और नाना प्रकार के पुष्पों की मालाओं से सुसज्जित हैं,
असंख्य व्रजसुन्दरियाँ जिनकी सेवा में सदा संलग्न रहती हैं, जिनका वेश अत्यन्त मनोमोहक है, बड़े-बड़े देवता एवं
मुनिगण भी जिनका ध्यान में ही दर्शन कर पाते हैं और जो वेद-शास्त्रादि के महान्
पण्डित हैं, अरे मन ! तू उन कीर्तिकुमारी एवं यशोदानन्दन का
ही ध्यान किया कर ॥ ६ ॥
अतिसुमधुरमूर्तौ दुष्टदर्पप्रशान्तौ,
सुरवरवरदौ द्वौ सर्वसिद्धिप्रदानौ ।
अतिरसवशमग्नौ गीतवाद्यैप्रतानौ,
भज भज तु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ ॥ ७ ॥
जिनका श्रीविग्रह अत्यन्त मधुर है,
जो दुष्टजनों के दर्प को चूर्ण करने में परम दक्ष हैं, जो बड़े-बड़े देवताओं को भी वर देने की सामर्थ्य रखते हैं और सब प्रकार की
सिद्धियों को प्रदान करनेवाले हैं, जो सदा ही परमोत्कृष्ट
प्रेम के वशीभूत होकर आनन्द में मग्न रहते हैं तथा गीत-वाद्य का विस्तार करते रहते
हैं, अरे मन ! उन्हीं राधा-कृष्ण की तू भावना किया कर ॥ ७ ॥
अगमनिगमसारौ सृष्टिसंहारकारौ,
वयसि नवकिशोरौ नित्यवृन्दावनस्थौ ।
शमनभयविनाशौ पापिनस्तारयन्तौ,
भज भज तु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ ॥ ८ ॥
जो अगम्य वेदों के सारभूत हैं,
सृष्टि और संहार जिनकी लीलामात्र हैं, जो सदा
नवीन किशोरावस्था में प्रकट रहते हैं, वृन्दावन में ही जिनका
नित्य-निवास है, जो यमराज के भय का नाश करनेवाले और पापियों
को भी भवसागर से तार देनेवाले हैं, अरे मन ! तू उन
राधिका-कृष्णचन्द्र को ही भजता रह ॥ ८ ॥
इदं मनोहरं स्तोत्रं श्रद्धया यः
पठेन्नरः । राधिकाकृष्णचन्द्रौ च सिद्धिदौ नात्र संशयः ॥ ९ ॥
इस मनोहर स्तोत्र का जो कोई मनुष्य
श्रद्धापूर्वक पाठ करेगा, उसके मनोरथ को
श्रीराधा-कृष्ण निस्संदेह पूर्ण करेंगे ॥ ९ ॥
॥ इति श्रीमद्रूपगोस्वामिविरचितं
श्रीयुगलकिशोराष्टकं सम्पूर्णम् ॥
॥ इस प्रकार श्रीमरूपगोस्वामीविरचित श्रीयुगलकिशोराष्टक सम्पूर्ण हुआ ॥
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