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कर्मकाण्ड

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नृसिंह कवच

नृसिंह कवच

प्रह्लादकृत इस श्रीनृसिंह कवच का पाठ करने से सारे मनोरथ पूर्ण होता है और सभी रोग व बाधा दूर होकर अंत में मुक्ति प्राप्त होता है ।

प्रह्लादकृत श्रीनृसिंहकवचम्

प्रह्लादकृत श्रीनृसिंहकवचम्

॥ विनियोग ॥

अस्य श्रीनृसिंहकवचमंत्रस्य प्रह्लाद ऋषिः, नृसिंहो देवता, अनुष्टुप्छन्दः, सर्वव्यापीस्तम्भभवाय इति बीजम्, श्रीः शक्तिः गुह्यरूपधृग् इति कीलकम्, श्रीनृसिंहप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।।

॥ करन्यास ॥

ॐ योगीहृत्पद्मनिवासाय अंगुष्ठाभ्यां नमः ॥

ॐ नृसिंहाय तर्जनीभ्यां नमः॥

ॐ स्वप्रकाशाय मध्यमाभ्या नमः।।

ॐ सूर्यसोमाग्निलोचनाय अनामिकाभ्यां नमः।।

ॐ दिव्यनखास्त्राय कनिष्ठिकाभ्यां नमः।।

ॐ विद्युत्जिह्वाय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।।

॥ हृदयादिन्यास ।

ॐ योगीहृत्पद्मनिवासाय हृदयाय नमः।

ॐ नसिंहाय शिरसे स्वाहा।।

ॐ स्वप्रकाशाय शिखायै वषट्।।

ॐ सोमसूर्याग्निलोचनाय कवचाय हुम्।।

ॐ दिव्यनखास्त्राय नेत्राभ्यां वषट्।

ॐ विद्युजिह्वाय अस्त्राय फट्।

श्रीनृसिंहकवचम्

॥अथ ध्यानम् ॥

कर्पूरधामधवलं कटकाङ्गदादिभूषं

त्रिनेत्रशशिशेखरमण्डितास्याम् ।।

वामाङ्गसंश्रितरमा नयनाभिरामं,

चक्राब्जशंखसगदनं नहर नमामि ॥१॥

अर्थ-जो कपूर की राशि के समान श्वेतवर्ण हैं, कंकण तथा केयूर आदि आभूषणों से जो शोभित हैं, नेत्रों को सुन्दर दिखाई देनेवाली लक्ष्मी जिनके बायें अंग में स्थित हैं, जो चक्र, कमल, शंख तथा गदा से युक्त हैं; उन भगवान् नृसिंह को मैं प्रणाम करता हूँ ।।१।।

ध्यात्वा नृसिंहं देवेशं हेमसिंहासनस्थितम् ।

विततास्यं त्रिनयनं शरदिन्दुसमप्रभम् ॥२॥

लक्ष्म्यालिङ्गितं वामभागं सिद्धैरुपासितम् ।

चतुर्भुजं कोमलांगं मणिकुण्डलभूषितम् ॥३॥

हारोपशोभितोरस्कं रत्नकेयूरमण्डितम् ।

तप्तकांचनसंकाशं पीतनिर्मलवाससम् ॥४॥

इन्द्रादिसुरमौलीस्थवरमाणिक्यदीप्तिभिः।

विराजितपदद्वन्द्वं शंखचक्रादिहेतिभिः॥ ५॥

गरुत्मता च विनयात्स्तूयमानं मुदान्वितम् ।

स्वहृत्कमलमध्यस्थं कृत्वा तु कवचं पठेत् ॥६॥

अर्थ-सोने के सिंहासन पर स्थित, विकराल मुखवाले, त्रिनेत्र, शरद्कालीन चन्द्रमा के समान प्रभावाले, जिनके बाँयें भाग में लक्ष्मी सुशोभित हैं, सिद्धों के द्वारा जिनकी उपासना हो रही है, चार भुजावाले, कोमल शरीरवाले, मणि-कुण्डल से शोभित, जिनके वक्षःस्थल पर हार शोभा पा रहा है, रत्नों से युक्त आभूषणों से जिनकी भुजा शोभित हो रही है, जो तपे हुए सोने के समान सुन्दर पीताम्बर शरीर पर धारण किये हैं, इन्द्र आदि देवताओं के मुकुटों में जड़ित श्रेष्ठ मणियों की कान्ति से शंख-चक्र आदि से चिह्नित जिनके दोनों चरण शोभायमान हैं, नम्र हो गरुड़जी जिनकी स्तुति कर रहे हैं, ऐसे प्रसन्न मुख-मुद्रावाले देवेश श्रीलक्ष्मीनृसिंह का ध्यानकर उनको अपने हृदय कमल के मध्य में स्थापित करके इस नृसिंह-कवच का पाठ करें ।।२-६।।

श्रीनृसिंहगायत्रीमंत्र

ॐ वज्रनखाय विद्महे तीक्ष्णदंष्ट्राय धीमहि ।

तन्नो मृसिंह प्रचोदयात ॥

श्रीनृसिंहकवचमंत्र

अथ श्रीनृसिंहकवचम्  

नसिंहो मे शिरः पात लोकरक्षार्थसम्भवः।

सर्वव्यापी स्तंभवासी भालं मे रक्षतु बली ॥१॥

श्रुतौ मे पातु नृहरिर्मुनिवर्यस्तुतिप्रिय ।

नासां मे सिंहनासौ मुखं लक्ष्मीमुखप्रिय ॥२॥

संसार की रक्षा के लिये प्रगट हुए नृसिंह मेरे शिर की रक्षा करे, सर्वव्यापी स्तंभ में निवास करनेवाले बलशाली नृसिंह मेरे मस्तक की रक्षा करें। श्रेष्ठ ऋषियों द्वारा की गई स्तुति से प्रसन्न होनेवाले नरसिंह मेरे कानों की रक्षा करें, सिंहनासिकावाले नरसिंह मेरी नासिका की रक्षा करें, लक्ष्मी के मुख से प्रेम करनेवाले नरसिंह मेरी मुख की रक्षा करें।।१-२॥

सर्वविद्याधिपः पातु नृसिंहो रसनां मम ।

नृसिंहः पातु मे कण्ठं सदा प्रह्लादवंदितः ॥३॥

सम्पूर्ण विद्याओं के अधिपति नृसिंह मेरी जिह्वा की रक्षा करें, प्रह्लाद के द्वारा वंदित भगवान् नृसिंह सदा मेरे कण्ठ की रक्षा करें ।।३।।

वक्त्रं पात्विन्दुवदनः भूभारनाशकृत् ।

दिव्यास्त्रशोभितभुजो नृसिंहः पातु मे भुजौ ॥४॥

चन्द्रमा के समान मुखवाले नृसिंह मेरे मुख की रक्षा करें, पृथ्वी के भार का नाश करनेवाले नृसिंह मेरे कंधों की रक्षा करें, दिव्य अस्त्रों से शोभित भुजावाले नृसिंह मेरी भुजाओं की रक्षा करें।।४॥

करौ मे देववरदो नृसिंहः पातु सर्वतः।

हृदयं योगिहृत्पद्मनिवासः पातु मे हरिः॥ ५॥

देवताओं को वरदान देनेवाले नृसिंह मेरे दोनों हाथों की रक्षा करें, स्वयं नृसिंह मेरे चारों ओर की रक्षा करें। योगियों के हृदयकमल में निवास करनेवाले श्रीहरि मेरे हृदय की रक्षा करें।॥५॥

मध्यं पातु हिरण्याक्षरक्षः कुक्षिविदारणः।

नाभिं मे पातु नृहरिः स्वनाभिब्रह्मसंस्तुतः॥ ६॥

हिरण्याक्ष राक्षस के उदर का विदारण करनेवाले नृसिंह मेरे मध्यभाग की रक्षा करें, अपनी नाभि से उत्पन्न ब्रह्माजी से स्तुत नृसिंह मेरी नाभि की रक्षा करें।।६।।

ब्रह्माण्डकोटयः कट्या यस्यासौ पातु मे कटिम् ।

गुह्यं मे पातु गुह्यानां मन्त्राणां गुह्यरूपधृक् ॥७॥

जिनकी कटिभाग में करोड़ों ब्रह्माण्ड स्थित हैं, ऐसे नृसिंह मेरे कटिभाग की रक्षा करें, गोपनीय मंत्रों में गुप्तरूप से निवास करनेवाले भगवान् मेरे गुह्य अंगों की रक्षा करें।।७।।

उरू मनोजवः पातु जानु नृहरिरूपधृक् ।

जंघे पातु धराभारहर्ता गुल्फो नृकेशरी ॥८॥

मन के समान वेगवान् नृसिंह मेरे दोनों पैरों की रक्षा करें, नृसिंह का रूप धारण करनेवाले भगवान् मेरे घुटनों की रक्षा करें, पृथ्वी का भार हरण करनेवाले जंघों की और नृसिंह भगवान् मेरे दोनों टखनों की रक्षा करें।।८।। 

सुरराज्यप्रदः पातु पादौ मे नृहरीश्वरः।

सहस्रशीर्षा पुरुषः पातु मे सर्वतस्तनुम् ॥९॥

इन्द्र को राज्य प्रदान करनेवाले भगवान् नृसिंह मेरे दोनों पैरों की रक्षा करें, हजार शिरवाले पुरुष मेरे शरीर की सब ओर से रक्षा करें।।९।।

इतः परं मंत्रपादौ पातु मे सर्वदिक्षु च ।

महोग्रः पूर्वतः पातु महावीरोऽग्निभागतः॥१०॥

इसके आगे मंत्रों को गति प्रदान करनेवाले भगवान् मेरी सब दिशाओं में रक्षा करें, पूर्व दिशा में महाउग्र, आग्नेय दिशा में महावीर मेरी रक्षा करें।॥१०॥

दक्षिणे च महाविष्णुः महाज्वालास्तु नैऋते ।

पश्चिमे पातु सर्वेशः सर्वात्मा सर्वतोमुखम् ॥११॥

महाविष्णु दक्षिण में और महाज्वालारूप नैर्ऋत्य में, सर्वेश्वर पश्चिम में और सर्वात्मा नृसिंह सर्वप्रकार से मेरी रक्षा करें।।११।।

नृसिंहः पातु वायव्ये सौम्ये भीषणविग्रहः ।

ईशाने पातु भद्रो मां सर्वमंगलदायकः ॥१२॥

नृसिंह वायव्यकोण में उत्तर में भयानक शरीर धारण करनेवाले नृसिंह तथा सम्पूर्ण मंगल प्रदान करनेवाले भगवान् नृसिंह ईशानकोण में मेरी रक्षा करें।।१२॥

संसारभयतः पातु मृत्युर्मृत्युजयो हरिः ।

जलं रक्षतु वाराहः स्थले रक्षतु वामनः ॥१३॥

संसार के भय से मृत्युञ्जय मृत्युस्वरूप श्रीहरि रक्षा करें। वाराह जल में और वामन स्थल में रक्षा करें।।१३।।

अटव्यां नारसिंहस्तु सर्वतः पातु केशवः ।

सुप्ते स्वयंभुवः साक्षात् जाग्रते च जनार्दनः ।।१४।।

वन में नृसिंह, सम्पूर्ण जगह केशव तथा सोते हुए साक्षात् स्वयंभू और जगने पर जनार्दन भगवान् रक्षा करें।।१४।।

श्रीनरसिंह कवचम् फलश्रुति

श्रीनृसिंहकवचमंत्र

इदं नृसिंहकवचं प्रह्लादमुखनिर्गतम् ।

भक्तिमान्यः पठेन्नित्यं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१५॥

प्रह्लाद के मुख से निकला हुआ यह कवच यदि मनुष्य भक्तिभाव से रोज पाठ करे तो वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।।१५।।

पुत्रवान् धनवांल्लोके दीर्घायुश्चाभिजायते ।

यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् ॥१६॥

मनुष्य इस कवच का पाठ करने से पुत्रवान्, धनवान् होकर संसार में दीर्घायु होता है और जिस-जिस का चिन्तन करता है, उस-उस को प्राप्त करता है।।१६।।

सर्वज्ञत्वं समवाप्नोति सर्वत्र विजयी भवेत् ।

भूम्यन्तरिक्षदिव्यानां ग्रहाणां विनिवारणम् ॥१७॥

कवच का पाठ करनेवाला सर्वज्ञ हो जाता है, वह सर्वत्र विजयी होता है। पृथ्वी, अन्तरिक्ष और दिव्यलोकों में रहनेवाले ग्रहों का यह कवच निवारक है।।१७।।

वृश्चिकोरगसम्भूतविषाय हरणं परम् ।

गुह्मराक्षसयक्षाणा दूराद्विद्रावकारणम् ॥१८॥

बिच्छू, एवं सर्पदंश से उत्पन्न विष को हरनेवाला तथा गुह्यकों, राक्षसों और यक्षों को दूर भगा देनेवाला है।।१८॥

भूर्जे वा तालपत्रे वा लिखितं कवचं शुभम् ।

करमूले धृतं येन सिद्धयस्तत्करे स्थिताः ॥१९॥

भोजपत्र या तालपत्र पर लिखकर इस शुभ कवच को भुजा में बाँधने से सिद्धियाँ उसके हाथ में स्थित हो जाती हैं।।१९।।

नृसिंहकवचेनैव रक्षितो वज्ररक्षित ।

देवासुर मनुष्येषु स्वाज्ञया विजयं भवेत ॥२०॥

नृसिंह कवच को धारण करने से मनुष्य की वज्र से भी रक्षा होती है तथा देवों, असुरों, मनुष्यों पर उसकी आज्ञा मात्र से विजय होती है।।२०।।

एकसन्ध्यं द्विसन्ध्यं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः।

प्राप्नोति परमारोग्यं विष्णुलोके महीयते ॥२१॥

एक सन्ध्या के समय, दोनों सन्ध्या के समय या तीनों सन्ध्या के समय जो कोई इस कवच का पाठ करता है, वह परम आरोग्यता पाकर विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है।।२१।।

द्वात्रिंशतिसहस्राणि पठेच्छुद्धात्मनां नृणाम् ।

कवचस्यास्य मन्त्रस्य मन्त्रसिद्धिः प्रजायते ॥२२॥

इस कवच मन्त्र का जो मनुष्य शुद्ध आत्मा से बत्तीस हजार पाठ करे, उसे मन्त्र की सिद्धि हो जाती है।।२२।।

अनेन मंत्रराजेन कृत्वा भस्माभिमंत्रितम् ।

तिलकं धारयेद्यस्तु तस्य ग्रहभयं हरेत् ॥२३॥

यह कवच मंत्रराज है, इससे अभिमन्त्रित करके भस्म का तिलक धारण करने से उसका (जिसको तिलक लगाये) ग्रहभय दूर हो जाता है।।२३।।

त्रिवारं जपमानस्तु पूतं वार्यमभिमन्त्र्य च ।

प्राशमेद्यं नरं मंत्रं नृसिंहध्यानमाचरेत् ॥२४।।

तस्य रोगाः प्रणश्यन्ति ये च स्युः कुक्षिसम्भवाः ।

किमत्र बहुनोक्तेन नृसिंहसदृशो भवेत् ॥२५॥

इस कवच के मंत्र को तीन बार पढ़कर जल अभिमंत्रित करे, फिर नृसिंह भगवान् का ध्यान कर रोगी आदमी को पिलाने से उस रोगी के उदरजन्य सब प्रकार के रोग नष्ट हो जाते हैं अधिक क्या कहा जाय, वह मनुष्य नृसिंह के समान हो जाता है।।२४-२५।।

षण्मासे फलमाप्नोति कवचस्य प्रभावतः ।

मनसा चिन्तितं यद्यत्तत्तत्प्राप्नोति निश्चितम् ॥२६॥

कवच के प्रभाव से छ: मास तक नियमपूर्वक पाठ करने से फल की प्राप्ति हो जाती है और मन में जिसे प्राप्त करने की चिन्ता होती है, निश्चित रूप से उसकी प्राप्ति होती है।।२६।।

इति परमरहस्यसारभूतं कवच वरं पठति प्रकृष्टभक्त्या ।

स भवति धनधान्यपुत्रलाभी तनुविगमे समुपैति नारसिंहम् ॥२७॥

यह श्रेष्ठ कवच सम्पूर्ण रहस्यों का सारतत्त्व है, जो उत्कृष्ट भक्ति से इस कवच का पाठ करता है, वह धन-धान्य-पुत्र आदि प्राप्त करता है तथा शरीर छूटने के उपरान्त नृसिंह तत्त्व को प्राप्त करता है।।२७।।

।। इति श्रीनृसिंहपुराणे प्रह्लादोक्तनृसिंहकवचम्।।

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