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त्रैलोक्यविजय श्रीकृष्ण कवच
श्रीगायत्री कवच
इस श्रीगायत्री कवच के पाठ करने से
सभी पाप नष्ट होता तथा वह पुत्रवान्,
धनवान्, श्रीमान् तथा अनेक विद्याओं का निधि
बन जाता है ।
गायत्री कवच
श्रीगणेशाय नमः ।
याज्ञवल्क्य उवाच ।
स्वामिन् सर्वजगन्नाथ संशयोऽस्ति
महान्मम ।
चतुःषष्ठिकलानं च पातकानां च तद्वद
॥ १॥
मुच्यते केन पुण्येन ब्रह्मरूपं कथं
भवेत् ।
देहं च देवतारूपं मन्त्ररूपं
विशेषतः ॥ २॥
क्रमतः श्रोतुमिच्छामि कवचं विधिपूर्वकम्
।
याज्ञवल्क्य ने ब्रह्माजी से कहा:
हे समस्त जगत् के स्वामिन् ! मेरे हृदय में बहुत बड़ी शङ्का है। चौंसठ कला वाले
पापों से मनुष्य किस पुण्य के द्वारा छुटकारा पाता है ?
तथा उसका शरीर कैसे मन्त्ररूप, देवतारूप तथा
ब्रह्मरूप होता है। मैं क्रम से विधिपूर्वक कवच सुनना चाहता हूं।
तब ब्रह्माजी ने इस प्रकार कवच का
उपदेश दिया:
ब्रह्मोवाच ।
गायत्र्याः कवचस्यास्य ब्रह्मा
विष्णुः शिवो ऋषिः ॥ ३॥
ऋग्यजुःसामाथर्वाणि छन्दांसि
परिकीर्तिताः ।
परब्रह्मस्वरूपा सा गायत्री देवता
स्मृता ॥ ४॥
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं कवचेन विना
कृतम् ।
सर्वं सर्वत्र संरक्षेत्सर्वाङ्गं
भुवनेश्वरी ॥ ५॥
बीजं भर्गश्च युक्तिश्च धियः
कीलकमेव च ।
पुरुषार्थविनियोगो यो नश्च
परिकीर्त्तितः ॥ ६॥
ऋषिं मूर्ध्नि न्यसेत्पूर्वं मुखे
छन्द उदीरितम् ।
देवतां हृदि विन्यस्य गुह्ये बीजं
नियोजयेत् ॥ ७॥
शक्तिं विन्यस्य पदयोर्नाभौ तु
कीलकं न्यसेत् ।
द्वात्रिंशत्तु महाविद्याः
साङ्ख्यायनसगोत्रजाः ॥ ८॥
द्वादशलक्षसंयुक्ता विनियोगाः
पृथक्पृथक् ।
एवं न्यासविधिं कृत्वा कराङ्गं
विधिपूर्वकम् ॥ ९॥
व्याहृतित्रयमुच्चार्य
ह्यनुलोमविलोमतः ।
चतुरक्षरसंयुक्तं
कराङ्गन्यासमाचरेत् ॥ १०॥
आवाहनादिभेदं च दश मुद्राः
प्रदर्शयेत् ।
सा पातु वरदा देवी
अङ्गप्रत्यङ्गसङ्गमे ॥ ११॥
ध्यानं मुद्रां नमस्कारं
गुरुमन्त्रं तथैव च ।
संयोगमात्मसिद्धिं च षड्विधं किं
विचारयेत् ॥ १२॥
उपरोक्त कवच में ३ रें श्लोक से १२ वें श्लोक तक का अर्थ विनियोग न्यास
आदि करना है, जिसे निचे संक्षिप्त रूप से दिया जा रहा है-
ब्रह्मोवाच :
विनियोग : ॐ अस्य श्रीगायत्रीकवचस्य
ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषय : । ऋग्यजुः सामाथर्वाणिच्छन्दांसि ।
परब्रह्मस्वरूपिणी गायत्री देवता।
भू: बीजम्। भुव: शक्ति:। स्वः कीलकम् । श्रीगायत्रीप्रीत्यर्थ जपे विनियोग : ।
ऋष्यादिन्यास : ॐ ब्रह्मविष्णुरुद्रऋषिभ्यो
नमः शिरसि ॥१॥ ऋग्यजुः सामाथर्वच्छन्दोभ्यो
नमः मुखे ॥ २।। परब्रह्मस्वरूपिणी
गायत्रीदेवतायै नमः हृदि ॥ ३॥ भू: बीजाय नमः गुह्ये ॥४॥
भुवः शक्तये नमः पादयो: ॥५॥। स्वः
कीलकाय नमः नाभौ ॥ ६॥ विनियोगाय नमः सर्वांगे ॥ ७॥
करन्यास : ॐ भूर्भुव: स्वः तत्सवितुरित्यंगुष्ठाभ्यां
नमः॥१॥ ॐ भूर्भुवः स्वः वरेण्यं
तर्जनीभ्यां नमः ॥२॥ ॐ भूर्भुवः
स्व: भर्गोदेवस्य मध्यमाभ्यां नमः ॥ ३॥ ॐ भूर्भुवः स्व:
धीमह्मनामिकाभ्ययां नमः।।४॥ ॐ भूर्भुवः
स्वः धियो यो नः कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॥५॥
ॐ भूर्भुवः स्व: प्रचोदयात्
करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ॥ ६॥
षडङ्गन्यास : ॐ भूर्भुवः स्वः
तत्सवितुरिति हृदयाय नमः ।
ॐ भूर्भुवः स्वः वरेण्यमिति शिरसे
स्वाहा ।
ॐ भूर्भुवः स्वः भर्गो देवस्येति
शिखायै वषट् ।
ॐ भूर्भुवः स्वः धीमहीति कवचाय हुम्
।
ॐ भूर्भुवः स्वः धियो यो नः इति नेत्रत्रयाय
वौषट् ।
ॐ भूर्भुवः स्वः प्रचोदयादिति
अस्त्राय फट् ॥
वर्णास्त्रां कुण्डिकाहस्तां
शुद्धनिर्मलज्योतिषीम्म् ।
सर्वतत्त्वमयीं वन्दे गायत्रीं
वेदमातरम् ॥ १३॥
अथ ध्यानम् ।
मुक्ता
विद्रुमहेमनीलधवलच्छायैर्मुखैस्त्रीक्षणै-
र्युक्तामिन्दुनिबद्धरत्नमुकुटां
तत्त्वार्थवर्णात्मिकाम् ।
गायत्रीं वरदाभयाङ्कुशकशां शूलं
कपालं गुणं
शङ्खं चक्रमथारविन्दयुगलं हस्तैर्वहन्तीं
भजे ॥ १४॥
मोती, मूंगा, सुवर्ण, नीलम्, तथा हीरा इत्यादि रत्नों की तीक्ष्ण आभा से जिनका मुख मण्डल उल्लसित हो
रहा है। चंद्रमा रूपी रत्न जिनके मुकुट में संलग्न हैं। जो आत्म तत्व का बोध कराने
वाले वर्णों वाली हैं। जो वरद मुद्रा से युक्त अपने दोनों ओर के हाथों में अंकुश,अभय, चाबुक, कपाल, वीणा,शंख,चक्र,कमल धारण किए हुए हैं ऐसी गायत्री देवी का हम ध्यान करते हैं।
श्रीगायत्रीकवचम्
अथ श्रीगायत्रीकवचम्
ॐ गायत्री पूर्वतः पातु सावित्री
पातु दक्षिणे ।
ब्रह्मविद्या च मे पश्चादुत्तरे मां
सरस्वती ॥ १५॥
पावकी मे दिशं
रक्षेत्पावकोज्ज्वलशालिनी ।
यातुधानीं दिशं
रक्षेद्यातुधानगणार्दिनी ॥ १६॥
पावमानीं दिशं रक्षेत्पवमानविलासिनी
।
दिशं रौद्रीमवतु मे रुद्राणी
रुद्ररूपिणी ॥ १७॥
ऊर्ध्वं ब्रह्माणी मे रक्षेदधस्ताद्वैष्णवी
तथा ।
एवं दश दिशो रक्षेत् सर्वतो
भुवनेश्वरी ॥ १८॥
ब्रह्मास्त्रस्मरणादेव वाचां
सिद्धिः प्रजायते ।
ब्रह्मदण्डश्च मे पातु
सर्वशस्त्रास्त्रभक्षक्रः ॥ १९॥
ब्रह्मशीर्षस्तथा पातु शत्रूणां
वधकारकः ।
सप्त
व्याहृतयः पान्तु सर्वदा बिन्दुसंयुताः ॥ २०॥
वेदमाता च मां पातु सरहस्या सदैवता
।
देवीसूक्तं सदा पातु
सहस्राक्षरदेवता ॥ २१॥
चतुःषष्टिकला विद्या दिव्याद्या
पातु देवता ।
बीजशक्तिश्च मे पातु पातु
विक्रमदेवता ॥ २२॥
तत्पदं पातु मे पादौ जङ्घे मे
सवितुःपदम् ।
वरेण्यं कटिदेशं तु नाभिं
भर्गस्तथैव च ॥ ५३॥
देवस्य मे तु हृदयं धीमहीति गलं तथा
।
धियो मे
पातु जिह्वायां यःपदं पातु लोचने ॥ २४॥
ललाटे नः पदं पातु मूर्धानं मे
प्रचोदयात् ।
तद्वर्णः पातु मूर्धानं सकारः पातु
भालकम् ॥ २५॥
चक्षुषी मे विकारस्तु श्रोत्रं
रक्षेत्तु कारकः ।
नासापुटेर्वकारो मे रेकारस्तु कपोलयोः
॥ २६॥
णिकारस्त्वधरोष्ठे च यकारस्तूर्ध्व
ओष्ठके ।
आत्यमध्ये भकारस्तु गोकारस्तु
कपोलयोः ॥ २७॥
देकारः कण्ठदेशे च वकारः
स्कन्धदेशयोः ।
स्यकारो दक्षिणं हस्तं धीकारो
वामहस्तकम् ॥ २८॥
मकारो हृदयं रक्षेद्धिकारो जठरं तथा
।
धिकारो नाभिदेशं तु योकारस्तु
कटिद्वयम् ॥ २९॥
गुह्यं रक्षतु योकार ऊरू मे नः
पदाक्षरम् ।
प्रकारो जानुनी रक्षेच्चोकारो
जङ्घदेशयोः ॥ ३०॥
दकारो गुल्भदेशं तु यात्कारः
पादयुग्मकम् ।
जातवेदेति गायत्री त्र्यम्बकेति
दशाक्षरा ॥ ३१॥
सर्वतः सर्वदा पातु आपोज्योतीति षोडशी
।
श्रीगायत्रीकवचम् महात्म्य च फलश्रुति:
इदं तु कवचं दिव्यं बाधाशतविनाशकम् ॥
३२॥
चतुःषष्ठिकलाविद्यासकलैश्वर्यसिद्धिदम्
।
जपारम्भे च हृदयं जपान्ते कवचं
पठेत् ॥ ३३॥
स्त्रीगोब्राह्मणमित्रादिद्रोहाद्यखिलपातकैः
।
मुच्यते सर्वपापेभ्यः परं
ब्रह्माधिगच्छति ॥ ३४॥
यह दिव्य कवच सैकड़ों बाधाओं को नाश
करने वाला है । चौंसठ कलाओं और विद्याओं तथा समस्त ऐश्वर्य की सिद्धि देने वाला
है। जो साधक जप के प्रारम्भ में हृदय तथा अन्त में कवच का पाठ करता है वह स्त्री,
गो, ब्राह्मण, मित्र आदि
के द्रोह आदि समस्त पापों से छूट कर ब्रह्म को प्राप्त करता है।
पुष्पाञ्जलिं च गायत्र्या मूलेनैव
पठेत्सकृत् ।
शतसाहस्रवर्षाणां पूजायाः फलमाप्नुयात्
॥ ३५॥
पुष्पाञ्जलि को मूल गायत्री के साथ
ही पढ़ना चाहिये। ऐसा करने से साधक एक लाख वर्षों की पूजा का फल प्राप्त करता है।
भूर्जपत्रे लिखित्वैतत् स्वकण्ठे
धारयेद्यदि ।
शिखायां दक्षिणे बाहौ कण्ठे वा
धारयेद्बुधः ॥ ३६॥
त्रैलोक्यं क्षोभयेत्सर्वं
त्रैलोक्यं दहति क्षणात् ।
पुत्रवान् धनवान्
श्रीमान्नानाविद्यानिधिर्भवेत् ॥ ३७॥
जो साधक भोजपत्र पर इस गायत्री मन्त्र को लिखकर शिखा में, दाहिने हाथ में या
कण्ठ में धारण करता है वह तीनों लोकों को कँपा देता है तथा तत्क्षण तीनों लोकों को
भस्म कर सकता है। वह पुत्रवान्, धनवान्, श्रीमान् तथा अनेक विद्याओं का निधि बन जाता है ।
ब्रह्मास्त्रादीनि सर्वाणि
तदङ्गस्पर्शनात्ततः ।
भवन्ति तस्य तुच्छनि किमन्यत्कथयामि
ते ॥ ३८॥
ब्रह्मास्त्र आदि सब अस्त्र उस साधक
के शरीर से स्पर्श करते ही उसके तुल्य हो जाते हैं, और अधिक मैं तुमसे क्या कहूं।
अभिमन्त्रितगायत्रीकवचं मानसं पठेत्
।
तज्जलं पिबतो नित्यं पुरश्चर्याफलं
भवेत् ॥ ३९॥
जो साधक अभिमन्त्रित गायत्री कवच का
मानस-पाठ करता है और नित्य उसका जल पीता है उसे गायत्री पुरश्चरण का फल मिलता है ।
लघुसामान्यकं मन्त्रं,
महामन्त्रं तथैव च ।
यो वेत्ति धारणां युञ्जन्,
जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ ४०॥
लघु, सामान्य और महामन्त्र की धारणा को जो साधक जानता है, वह जीवनमुक्त कहा जाता है।
सप्ताव्याहृतिविप्रेन्द्र सप्तावस्थाः
प्रकीर्तिताः ।
सप्तजीवशता
नित्यं व्याहृती अग्निरूपिणी ॥ ४१॥
हे विप्र,
सात व्याहृतियाँ और सात अवस्थाएँ बतायी गयी हैं। सप्तजीवशता व्याहृती
सदा अग्निरूपिणी कही गयी है।
प्रणवे नित्ययुक्तस्य व्याहृतीषु च
सप्तसु ।
सर्वेषामेव पापानां सङ्करे
समुपस्थिते ॥ ४२॥
शतं सहस्रमभ्यर्च्य गायत्री पावनं
महत् ।
दशशतमष्टोत्तरशतं गायत्री पावनं महत् ॥ ४३॥
जो साधक प्रणव अर्थात् (ॐ) तथा
व्याहृति (भू:, भुव:,
स्व: ) नित्य लगा रखता है वह सभी पापों के समूह के उपस्थित होने पर सौ या हजार बार
या एक सौ आठ बार इसका जप करके विघ्न से छूट जाता है।
भक्तियुक्तो भवेद्विप्रः
सन्ध्याकर्म समाचरेत् ।
काले काले प्रकर्तव्यं सिद्धिर्भवति
नान्यथा ॥ ४४।
जो विप्र भक्तिमान् है उसे सन्ध्या
नित्य करनी चाहिये । निर्धारित समय पर उसे जप आदि कर्म करना चाहिये तभी सिद्धि
प्राप्त होती है, अन्यथा नहीं।
प्रणवं पूर्वमुद्धृत्य
भूर्भुवस्वस्तथैव च ।
तुर्यं सहैव गायत्रीजप एवमुदाहृतम्
॥ ४५॥
जप में पहले प्रणव का उच्चारण करके
भू:,
भुव:, स्व: का उच्चारण करना चाहिये । इसके बाद
चौथे चरण के साथ गायत्री का जप करना चाहिये।
तुरीयपादमुत्सृज्य गायत्रीं च
जपेद्द्विजः ।
स मूढो नरकं याति कालसूत्रमधोगतिः ॥
४६॥
जो द्विज चौथे चरण को छोड़कर
गायत्री का जप करता है वह मूढ कालसूत्र नामक नरक को जाता है।
मन्त्रादौ जननं प्रोक्तं मत्रान्ते
मृतसूत्रकम् ।
उभयोर्दोषनिर्मुक्तं गायत्री सफला
भवेत् ॥ ४७॥
मन्त्र के आदि में जननदोष होता है
तथा मन्त्र के अन्त में मृतसूतक दोष होता है। इन दोनों दोषों से रहित गायत्री
मन्त्र का ही जप सफल होता है।
मत्रादौ पाशबीजं च मन्त्रान्ते
कुशबीजकम् ।
मन्त्रमध्ये तु या माया गायत्री
सफला भवेत् ॥ ४८॥
जिस गायत्री मन्त्र के प्रारम्भ में
पाश बीज तथा मन्त्र के अन्त में कुश बीज और मध्य में माया होती है वह गायत्री सफल
होती है।
वाचिकस्त्वहमेव स्यादुपांशु
शतमुच्यते ।
सहस्रं मानसं प्रोक्तं त्रिविधं
जपलक्षणम् ॥ ४९॥
वाचिक जप दसगुना,
उपांशु जप सौगुना तथा मानस जप हजार गुना फल वाला होता है। इस प्रकार
तीन तरह का जप होता है।
अक्षमालां च मुद्रां च गुरोरपि न
दर्शयेत् ।
जपं चाक्षस्वरूभेणानामिकामध्यपर्वणि
॥ ५०॥
अनामा मध्यया हीना कनिष्ठादिक्रमेण
तु ।
तर्जनीमूलपर्यन्तं गायत्रीजपलक्षणम्
॥ ५१॥
रुद्राक्ष की माला तथा मुद्रा किसी
को न दिखाये । रुद्राक्ष स्वरूप अनामिका अंगुली के पर्वो पर मध्यमा को छोड़कर कनिष्ठिका
के क्रम से तर्जनी के मूल पर्व तक गायत्री का जप करना चाहिये ।
पर्वभिस्तु जपेदेवमन्यत्र नियमः
स्मृतः ।
गायत्री वेदमूलत्वाद्वेदः पर्वसु
गीयते ॥ ५२॥
अंगुली के पर्वो से इस प्रकार
मन्त्र का जप करे। अन्यत्र यह नियम कहा गया है: गायत्री वेद का मूल है इस कारण वेद
पर्वो पर गाये जाते हैं इसलिए गायत्री मन्त्र भी अंगुलियों के पर्वो पर जपा जाता
है।
दशभिर्जन्मजनितं शतेनैव पुरा कृतम्
।
त्रियुगं तु सहस्राणि गायत्री हन्ति
किल्बिषम् ॥ ५३॥
गायत्री का दश बार जप करने से साधक
इस जन्म के पापों से छूट जाता है। सौ बार जप करने से पूर्वजन्म के पाप से छूट जाता
है और एक हजार गायत्री जप से तीनों युगों में किये पाप से छूट जाता है।
प्रातःकालेयु कर्तव्यं सिद्धिं
विप्रो य इच्छति ।
नादालये समाधिश्च सन्ध्यायां
समुपासते ॥ ५४॥
जो विप्र सिद्धि चाहता है,
उसे प्रात: काल जप करना चाहिये । सायंकाल शिवालय में समाधि लगानी
चाहिये ।
अङ्गुल्यग्रेण यज्जप्तं यज्जप्तं
मेरुलङ्घने ।
असङ्ख्यया च यज्जप्तं तज्जप्तं
निष्फलं भवेत् ॥ ५५॥
अंगुली के अग्रभाग से जो जप किया
जाता है और मेरु के लंघन पर जो जप किया जाता है तथा बिना गणना के जो जप किया जाता
है वह सब जप निष्फल होता है।
विना वस्त्रं प्रकुर्वीत गायत्री
निष्फला भवेत् ।
वस्त्रपुच्छं
न जानाति वृथा तस्य परिश्रमः ॥ ५६॥
बिना वस्त्र के गायत्री निष्फल होती
है । जो साधक वस्त्रपुच्छ को नहीं जानता उसका परिश्रम व्यर्थ होता है ।
गायत्रीं तु परित्यज्य
अन्यमन्त्रमुपासते ।
सिद्धान्नं च परित्यज्य भिक्षामटति
दुर्मतिः ॥ ५७॥
जो साधक गायत्री को छोड़कर अन्य
मन्त्र का जप करता है वह दुर्मति प्राप्त अन्न को छोड़कर इधर-उधर भिक्षा मांगता
है।
ऋषिश्छन्दो देवताख्या बीजं शक्तिश्च
कीलकम् ।
नियोगं न च जानाति गायत्री निष्फला
भवेत् ॥ ५८॥
जो ऋषि,
छन्द, देवता, बीज,
शक्ति, कीलक तथा विनियोग नहीं जानता उसके लिए
गायत्री निष्फल है।
वर्णमुद्राध्यानपदमावाहनविसर्जनम् ।
दीपं चक्रं न जानाति गायत्री निषफला
भवेत् ॥ ५९॥
जो साधक वर्ण,
मुद्रा, ध्यान, पद,
आवाहन, विसर्जन तथा दीपचक्र नहीं जानता उसके
लिए गायत्री निष्फल है।
शक्तिर्न्यासस्तथा स्थानं
मन्त्रसम्बोधनं परम् ।
त्रिविधं यो न जानाति गायत्री तस्य
निष्फला ॥ ६०॥
शक्तिन्यास,
स्थान तथा मन्त्रसम्बोधन इन तीनों को जो नहीं जानता उसके लिए
गायत्री निष्फल है।
पञ्चोपचारकांश्चैव होमद्रव्यं तथैव
च ।
पञ्चाङ्गं च विना नित्यं गायत्री
निष्फला भवेत् ॥ ६१॥
पाঁचो उपचार,
होमद्रव्य तथा पञ्चाङ्ग के बिना गायत्री सदा निष्फल रहती है।
मन्त्रसिद्धिर्भवेज्जातु
विश्वामित्रेण भाषिम् ।
व्यासो वाचस्पतिर्जीवस्तुता देवी
तपःस्मृतौ ॥ ६२॥
विश्वामित्र, व्यास और वृहस्पति को
तप द्वारा स्मृति में गायत्री जागृत हुई।
सहस्रजप्ता सा देवी ह्युपपातकनाशिनी
।
लक्षजाप्ये तथा तच्च महापातकनाशिनी
।
कोटिजाप्येन राजेन्द्र यदिच्छति
तदाप्नुयात् ॥ ६३॥
वह गायत्री देवी एक हजार जप करने पर
उपपातकों को नष्ट करने वाली होती है । एक लाख जप करने पर वह महापापों को नष्ट करती
है। हे राजेन्द्र ! एक करोड़ जप करने के बाद साधक जो चाहता है वह पा सकता है।
न देयं परशिष्येभ्यो ह्यभक्तेभ्यो
विशेषतः ।
शिष्येभ्यो भक्तियुक्तेभ्यो
ह्यन्यथा मृत्युमाप्नुयात् ॥ ६४॥
इस गायत्री मन्त्र को दूसरे के
शिष्यों को नहीं देना चाहिये । जो भक्त नहीं हैं उन्हें तो विशेष रूप से नहीं देना
चाहिये। अपने भक्तियुक्त शिष्यों को इसे देना चाहिये । अन्यथा करने से साधक को
मृत्यु का ग्रास होना पड़ेगा।
इति श्रीमद्वसिष्ठसंहितोक्तं
गयत्रीकवचं सम्पूर्णम् ॥
इस प्रकार वसिष्ठसंहिता में गायत्री कवच सम्पूर्ण हुआ ॥
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