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श्रीकृष्ण ब्रह्माण्ड पावन कवच
त्रैलोक्यविजय श्रीकृष्ण कवच
नरसिंह स्तवन
पूर्वकाल में राजा बलि के यज्ञ में
भगवान् वामन ने जो दैत्यगुरु शुक्राचार्य की आँख छेद डाली थी, उसे
उन्होंने पुनः भगवान की इस नृसिंह स्तुति द्वारा प्राप्त किया । इस नरसिंह स्तवन
के पाठ से साधक की सभी कमाना पूर्ण होती है।
नरसिंह स्तवन
नृसिंह स्तुति
नरसिंहस्तुति शुक्राचार्यप्रोक्त
नरसिंहपुराणे
मार्कण्डेय उवाच
वामनेन स विद्धाक्षो बहुतीर्थेषु
भार्गवः ।
जाह्नवीसलिले स्थित्वा देवमभ्यर्च्य
वामनम् ॥ १॥
ऊर्ध्वबाहुः स देवेशं
शंखचक्रगदाधरम् ।
हृदि संचिन्त्य तुष्टाव नरसिंहं
सनातनम् ॥ २॥
मार्कण्डेयजी बोले-वामनजी के द्वारा
जब आँख छेद दी गयी, तब भृगुनन्दन
शुक्राचार्यजी ने बहुत तीर्थों में भ्रमण किया। फिर एक जगह गङ्गाजी के जल में खड़े
हो भगवान् वामन की पूजा की और अपनी बाँहें ऊपर उठाकर शङ्ख चक्र गदाधारी सनातन
देवेश्वर भगवान नरसिंह का मन-ही-मन ध्यान करते हुए वे उनकी स्तुति करने लगे॥२-३॥
शुक्र उवाच
नमामि देवं विश्वेशं वामनं
विष्णुरूपिणम् ।
बलिदर्पहरं शान्तं शाश्वतं
पुरुषोत्तमम् ॥ ३॥
शुक्राचार्यजी बोले- सम्पूर्ण विश्व
स्वामी और श्रीविष्णु के अवतार उन देवदेव वामनजी को नमस्कार करता हूँ जो बलि का
अभिमान चूर्ण करनेवाले, परम शान्त, सनातन पुरुषोत्तम हैं।
धीरं शूरं महादेवं शङ्खचक्रगदाधरम्
।
विशुद्धं ज्ञानसम्पन्नं नमामि
हरिमच्युतम् ॥ ४॥
जो धीर हैं,
शूर हैं, सबसे बड़े देवता हैं । शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले हैं, उन विशुद्ध एवं
ज्ञानसम्पन्न भगवान् अच्युत को में नमस्कार करता हूँ।
सर्वशक्तिमयं देवं सर्वगं
सर्वभावनम् ।
अनादिमजरं नित्यं नमामि गरुडध्वजम्
॥ ५॥
जो सर्वशक्तिमान्,
सर्वव्यापक और सबको उत्पन्न करनेवाले हैं, उन
जरारहित, अनादिदेव भगवान् गरुडध्वज को मैं प्रणाम करता हूँ।
सुरासुरैर्भक्तिमद्भिः स्तुतो नारायणः
सदा ।
पूजितं च हृषीकेशं तं नमामि
जगद्गुरुम् ॥ ६॥
देवता और असुर सदा ही जिन नारायण की
भक्तिपूर्वक स्तुति किया करते हैं, उन
सर्वपूजित जगदगुरु भगवान् हृषीकेश को मैं नमस्कार करता हूँ।
हृदि संकल्प्य यद्रूपं ध्यायन्ति
यतयः सदा ।
ज्योतीरूपमनौपम्यं नरसिंहं नमाम्यहम्
॥ ७॥
यतिजन अपने अन्त:करण में भावना द्वारा
स्थापित करके जिनके स्वरूप का सदा ध्यान करते रहते हैं,
उन अतुलनीय एवं ज्योतिर्मय भगवान् नृसिंह को मैं प्रणाम करता हूँ।
न जानन्ति परं रूपं ब्रह्माद्या
देवतागणाः ।
यस्यावताररूपाणि समर्चन्ति नमामि
तम् ॥ ८॥
ब्रह्मा आदि देवतागण जिनके परमार्थ
स्वरूप को भलीभीत नहीं जानते। अत: जिनके अवताररूपों का ही ये सदा पूजन किया करते
हैं। उन भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।
एतत्समस्तं येनादौ सृष्टं
दुष्टवधात्पुनः ।
त्रातं यत्र जगल्लीनं तं नमामि
जनार्दनम् ॥ ९॥
जिन्होंने प्रथम इस सम्पूर्ण जगत्की
सृष्टि की थी, फिर जिन्होंने दुष्टों का वध
करके इसकी रक्षा की है तथा जिनमें ही यह सारा जगत् लीन हो जाता है, उन भगवान् जनार्दन को मैं प्रणाम करता हूँ।
भक्तैरभ्यर्चितो यस्तु नित्यं
भक्तप्रियो हि यः ।
तं देवममलं दिव्यं प्रणमामि
जगत्पतिम् ॥ १०॥
भक्तजन जिनका सदा अर्चन करते हैं
तथा जो भक्तों के प्रेमी हैं, उन परम निर्मल
दिव्य कान्तिमय जगदीश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।
दुर्लभं चापि भक्तानां यः प्रयच्छति
तोषितः ।
तं सर्वसाक्षिणं विष्णुं प्रणमामि
सनातनम् ॥ ११॥
जो प्रसन्न होने पर अपने भक्तों को
दुर्लभ वस्तु भी प्रदान करते हैं, उन सर्वसाक्षी
सनातन विष्णुभगवान्को मैं प्रणाम करता हूँ॥४-१२॥
इति श्रीनरसिंहपुराणे शुक्रवरप्रदानो नाम नरसिंह स्तवन पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः ॥५५॥
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