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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
रूद्रयामल द्वितीय पटल भाग ४
रुद्रयामल द्वितीय पटल भाग- ४ में कुलाचार
विधि अतर्गत फिर मंत्र दीक्षा एवं पुरश्चरण (९७ -१२७) तथा दीक्षा विधि वर्णित है
(१२८--१४३)। इसके बाद मन्त्र साधन में प्रयुक्त होने वाले ताराचक्र,
राशिचक्र, विष्णुचक्र, ब्रह्मचक्र,
देव चक्र, ऋणधनात्मक महाचक्र, उल्का चक्र एवं सूक्ष्म चक्र का वर्णन है (१४४-१६२)।
रूद्रयामलम् द्वितीय पटल अंतिम भाग
रूद्रयामलम् द्वितीय: पटल: चतुर्थ भाग
रुद्रयामल तंत्र पटल २ भाग ४
रूद्रयामलम्
(उत्तरतन्त्रम्)
अथ द्वितीयः पटलः - मन्त्रदीक्षा
तंत्र शास्त्ररूद्रयामल
मन्त्रदीक्षाविचारः
यदि भाग्यवशेनैव सिद्धमन्त्रं लभेत्
प्रभो ।
महाविद्या त्रिशक्त्याश्च गृहणीयात्
तत्कुलाद्ध्रुवम् ॥९४॥
गुरोर्विचारं सर्वत्र तातमातामहं
विना ।
प्रमादाच्च तथाज्ञानान् एभ्यो मन्त्रं समाचरन् ॥९५॥
प्रायश्चितं ततः कृत्वा पुनर्दीक्षां
समाचरेत्।
मन्त्रदीक्षा विचार --- भैरवी ने
कहा --- हे प्रभो ! यदि भाग्यवश महाविद्या का अथवा त्रिशक्ति का सिद्ध मन्त्र कहीं
से मिल जाय तो उस कुल से निश्चित रूप से उस मन्त्र को ग्रहण कर लेना चाहिए । पिता
और मातामह को छोड़कर सर्वत्र गुरु का विचार करना चाहिए । प्रमाद से अथवा अज्ञान से
बिना विचारे गुरु से मन्त्र लेने वाला प्रायश्चित्त कर पुनः दीक्षा ग्रहण करें ॥९४
- ९६॥
सावित्रीमन्त्रजापञ्च लक्ष्यं
जाप्यं जगत्पतेः ॥९६॥
विष्णोर्वा प्रणवं लक्ष्यं
प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् ।
सावित्री
मन्त्र का एक लाख जप करे, अथवा जगत्पति विष्णु
के मन्त्र का १ लाख जप करे अथवा प्रणव का १ लाख जप करे । यही उसका प्रायश्चित्त
हैं । हे महादेव ! यदि इतने जप करने की सामर्थ्य न हो तो १० हजार मन्त्र गायत्री
का जप कर लेवे । क्योंकि दश सहस्त्र मात्र जपी गई गायत्री सभी कल्मषों को
नष्ट कर देने वाली है ॥९६ - ९७॥
अशक्तश्चेन्महादेव चायुतं
प्रजपेन्मनुम् ॥९७॥
दशसाहस्त्रजाप्येन सर्वकल्मषनाशिनी
।
गायत्रीच्छन्दसां माता
पापराशितुलानला ॥९८॥
मम मूर्तिप्रकाशा च पशुभावविवर्जिता
।
फलोद्भवप्रकरणे ब्रह्मणापद्यते निशि
॥९९॥
यदि भाग्यवशाद् देव सिद्धमन्त्रं
गुरुं तथा ।
तदैव तान्तु दीक्षेत अष्टैश्वर्याय
केवलम् ॥१००॥
गायत्री सभी छन्दों की जननी हैं ।
यह पापराशिरूपी रुई को जलाने के लिए अग्नि हैं । किं बहुना,
मेरी देदीप्यमान मूर्ति हैं, उनमें पशुभाव
(जीवभाव) नहीं हैं । फलोदभव प्रकरण रुप निशा में ब्रह्मदेव गायत्री का पाठ
करते हैं । हे देव ! यदि भाग्यवश सिद्धमन्त्र और गुरु मिल जावें तो उसी समय अष्ट
ऐश्वैर्य की प्राप्ति के लिए उनसे गायत्री की दीक्षा ले लेनी चाहिए ॥९७ - १००॥
निर्बीजञ्च पितुर्मन्त्रं शैवे
शाक्ते न दुष्यति ।
ज्येष्ठपुत्राय दातव्यं कुलीनैः
कुलपण्डितैः ॥१०१॥
कुलयुक्ताय दान्ताय महामन्त्रं
कुलेश्वरम् ।
तदैव मुक्तिमाप्नोति सत्यं सत्यं न
संशयः ॥१०२॥
ऐसे तो पिता के द्वारा प्रदत्त
मन्त्र निर्बीज होता है , किन्तु शिव
मन्त्र और शाक्त मन्त्र में वह दोषप्रद नहीं होता । अतः कुलीन तथा कुलपण्डितों को
ज्येष्ठ पुत्रा के लिए उसे देने में कोई बाधा नहीं है । कुलीन इन्द्रियों का दमन
करने वाले शिष्य को कुलेश्वर महामन्त्र देने से उसी समय मुक्ति प्राप्त हो जाती है
यह सत्य है यह सत्य है इसमें संशय नहीं ॥१०१ - १०२॥
कनिष्ठञ्च रिपुं चापि सोदरं
वैरिपक्षगम् ।
मातामहञ्च पितरं यतिञ्च वनवासिनम्
॥१०३॥
अनाश्रम कुसंसर्गं स्वकुलत्यागिनं
तथा ।
वर्जयित्वा च शिष्यांस्तान्
दीक्षाविधिमुपाचरेत् ॥१०४॥
कनिष्ठ पुत्र,
शत्रु-सहोदर, बैरी के पक्ष में रहने वाला,
मातामह (नाना), पिता, यति,
वनवासी, आश्रमधर्मरहित, दुष्ट
का साथ करने वाले, अपने कुल (शाक्त सम्प्रदाय) का त्याग करने
वाले इतने को छोड़कर अन्य शिष्यों को दीक्षा प्रदान करना चाहिए ॥१०३ - १०४॥
अन्यथा तद्विरोधेन कामनाभोगनाशनम् ।
सिद्धमन्त्रञ्च गृहणीयाद्
दुष्कुलदपि भैरव ॥१०५॥
सद्गुरो र्भावनेच्छन्नरुपे रुपे धरे
शुभे ।
तत्र दीक्षां समाकुर्वन्
अष्टैश्वर्यजयं लभेत् ॥१०६॥
अन्यथा विरोधी को मन्त्र देने से
कामना और भोग दोनों का ही नाश होता है । हे भैरव ! मेरा तो विचार है कि
सिद्धमन्त्र दुष्कुल में उत्पन्न लोगों से भी ग्रहण कर लेना चाहिए । (भक्ति) भावना
वाले,
प्रच्छन्नरूप वाले अथवा माङ्गलिक रुप धारण करने वाले सदगुरु से
दीक्षा लेने वाला अष्टैश्वर्य पर विजय प्राप्त कर लेता है ॥१०५ - १०६॥
स्वप्ने तु नियमो नास्ति दीक्षासु
गुरुशिष्ययोः ।
स्वप्नलब्धे स्त्रिया दत्ते
संस्कारेणैव शुद्धयति ॥१०७॥
स्वप्न
में मन्त्र की प्राप्ति होने पर गुरु और शिष्य का कोई नियम नहीं रहता । स्वप्न में
अथवा स्त्री के द्वारा प्राप्त मन्त्र संस्कार से ही शुद्ध हो जाते हैं ॥१०७॥
साध्वी चैव सदाचार गुरुभक्ता
जितेन्दिया ।
सर्वमन्त्रार्थ तत्त्वज्ञा सुशीला
पूजने रता ॥१०८॥
सर्वलक्शणसम्पन्ना जापिका पद्मलोचना
।
रत्नालङ्कसंयुक्ता वर्णाभूवनभूषिता
॥१०९॥
शान्ता कुलीना कुलजा चन्द्रास्या
सर्ववृद्धिगा ।
अनन्तगुणसम्पन्ना रुद्रत्वदायिनी
प्रिया ॥११०॥
गुरुरुपा मुक्तिदात्री
शिवज्ञाननिरुपिणी ।
गुरुयोग्यता भवेत् सा हि विधवा
परिवर्जिता ॥१११॥
साध्वी,
सदाचार संपन्ना, गुरुभक्ता, इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाली, सभी मन्त्रों
के अर्थतत्त्व को जानने वाली, सुशीला, पूजा
में निरत, सर्वलक्षण संयुक्त, जप करने
वाली, कमलनयना, रत्नालङ्कार संयुक्ता
सुन्दरी को भुवमोहिनी, शान्ता, कुलीना,
कुलजा, चन्द्रमुखी, सर्ववृद्धि
वाली, अनन्तगुणसम्पन्ना, रुद्रत्व
प्रदान करने वाली प्रिया, गुरुरुपा, मुक्तिदात्री
तथा शिवज्ञान क निरुपण करने वाली स्त्री भी गुरु बनाने के योग्य़ है, किन्तु विधवा परिवर्जित है ॥१०८ - १११॥
स्त्रिया दीक्षा प्रोक्ता
मन्त्रश्चाष्टगुणा स्मृता ।
पुत्रिणी विधवा ग्राह्या केवला
ऋणकारिणी ॥११२॥
सिद्धमन्त्रो यदि भवेद् गृहणीयाद् विधवामुखात्
।
केवलं सुफलं तत्र मातुरष्टागुणं
ध्रुवम् ॥११३॥
स्त्री से ली गई दीक्षा शुभावह होती
है । उसके दिये गये मन्त्र में भी आठ गुनी शक्ति आती है । पुत्रिणी विधवा से भी
मन्त्रदीक्षा ली जा सकती है । किन्तु पुत्रपतिहीना विधवा की दीक्षा ऋणकारिणी होती
है । यदि सिद्धि मन्त्र हो तो विधवा के मुख से भी उसे ले लेना चाहिए । उससे केवल
सुफल प्राप्त होता है । किन्तु माता से ली गई मन्त्रदीक्षा आठ गुना फलदायिनी होती
है ॥११२ - ११३॥
सधवा स्वप्रकृत्या च ददाति यदि
तन्मनुम् ।
ततोऽष्टगुणमाप्नोति यदि सा पुत्रिणी
सती ॥११४॥
यदि माता स्वकं मन्त्रं ददाति
स्वसुताय च ।
तदाष्टसिद्धिमाप्नोति भक्तिमार्गे न
संशयः ॥११५॥
तदैव दुर्लभं देव यदि मात्रा
प्रदीयते ।
पुत्रवती और सती सधवा यदि अपनी
इच्छा से सिद्धमन्त्र प्रदान करे तो भी अष्टगुण फल होता है । यदि माता (गुरु
परम्परा से प्राप्त) स्वकीय मन्त्र अपने पुत्र को प्रदान करे तो उस पुत्र को आठों
सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । भक्ति मार्ग में संशय नहीं करना चाहिए । हे देव !
माता अपने पुत्र को मन्त्र दीक्षा दे यह समय तो बहुत दुर्लभ है ॥११४ - ११६॥
आदौ भक्तिं ततो मुक्तिं सम्प्राप्य
कालरुपधृक् ॥११६॥
सहस्त्रकोटिविद्यार्थं जानाति नात्र
संशयः ।
स्वप्ने तु माता यदि वा ददाति
शुद्धमन्त्रकम् ॥११७॥
पुनर्दीक्षां सोऽपि कृत्वा
दानवत्त्वमवाप्नुयात् ।
प्रथम भक्ति उसके बादा मुक्त
प्राप्त कर (इस प्रकार काल के अनुसार वेष बनाने वाला) साधक सहस्त्र करोड़ विद्या
के अर्थ को जान लेता हैं इसमें संशय नहीं । यदि माता स्वप्न में शुद्ध मन्त्र
प्रदान करें । ऐसा साधक यदि पुनः किसी अन्य से दीक्षा ग्रहण करे तो वह दानवत्व
प्राप्त करता है ॥११६ - ११८॥
यदि भाग्यवशेनैव जननी दानवर्तिनी
॥११८॥
तदा सिद्धिमवाप्नोति तत्र मन्त्रं
विचारयेत् ।
स्वीयमन्त्रोपदेशेन न कुर्याद्
गुरुचिन्तनम् ॥११९॥
तथा श्रीललिता काली महाविद्या
महामनोः ।
सर्वसिद्धियुतो भूत्त्वा वत्सरात्
तां प्रपश्यति ॥१२०॥
यदि भाग्यवश माता ही मन्त्र देने के
लिए उद्यत हो तो भी साधक को सिद्धि प्राप्त हो जाती है,
उस समय केवल मन्त्र का विचार करना चाहिए । यदि श्री ललिता,
काली अथवा महाविद्या के महामन्त्र का
कोई स्वयं उपदेश कर दे तो गुरु का विचार नहीं करना चाहिए । (स्वयं उपदिष्ट) वह
पुरुष सर्व प्रकार की सिद्धियों से युक्त हो कर एक संवत्सर में उनका दर्शन प्राप्त
कर लेता है ॥११८ - १२०॥
कालीकल्पलता देवी महाविद्यादिसाधने
।
गुरुचिन्ता न कर्तव्या ये जानन्ति
गुरोर्वच ॥१२१॥
यदि मन्त्रं विचार्याशु गृहणाति
साधकोत्तमः ।
अनन्तकोतिपुण्यस्य
द्विगुणं भवति ध्रुवम् ॥१२२॥
महाविद्या की साधना में काली
कल्पलता की देवी हैं । अतः जिन्हें अपने गुरु के वचन पर विश्वास है,
उन्हें उनके मन्त्र में गुरु की चिन्ता नहीं करनी चाहिए । यदि उत्तम
साधक विचार कर शीघ्रतापूर्वक मन्त्र ग्रहण करता है तो अनन्त कोटि पुण्य का उसे
द्विगुणित फल प्राप्त होता है यह निश्चय है ॥१२१ - १२२॥
विचार्य चक्रसारञ्च मन्त्रं गृहणाति
यो नरः ।
वैकुठनगरे वासस्तेषां जन्मशतैरपि
॥१२३॥
जो साधक वक्ष्यमाण चक्रसार का विचार
कर मन्त्र ग्रहण करता है, वह सैकड़ों
जन्मपर्यन्त श्री वैकुण्ठनगर में निवास करता है ॥१२३॥
इति श्रुत्वा महादेवो महादेव्याः
सरस्वतीम् ।
उवाच पुनरानन्दपुलकोल्लासविग्रहः
॥१२४॥
ज्ञातुं चक्रं षोडशञ्च
चक्रहस्तवरप्रदम् ।
अत्यद्भुतफलोपेत्
धर्मार्थकाममोक्षदम् ॥१२५॥
महादेव
आनन्दभैरव ने महादेवी के द्वारा कहे गए इस वाणी को सुन कर आनन्द से पुलकित
एवं उल्लसित शरीर होकर, अपना चक्र एवं
वरमुद्रा से संयुक्त हाथ भगवती के सामने बढा़ते हुए धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरुप पुरुषार्थ
चतुष्टय प्रदान करने वाले तथा अत्यन्त अदभुत फल देने वाले षोडश चक्र का माहात्म्य
जानने के लिए भैरवी से कहा ॥१२४ - १२५॥
रूद्रयामल पटल २ भाग ४
द्वितीय पटल - दीक्षा विधि
द्वितीयः पटलः - दीक्षाविधिः
श्री भैरव उवाच
कथयस्व महादेवि कुलसद्भावप्राप्तये
।
यदि मे सुकृपादृष्टिः वर्तते
स्नेहसागरे ॥१२६॥
त्वत्प्रसादाद् भैरवोऽहं कालोऽहं
जगदीश्वरः ।
भुक्तिमुक्तिप्रदाता च योगयोग्यो
दिगम्बरः ॥१२७॥
दीक्षा विधि --- श्रीभैरव ने कहा
--- हे महादेवि ! कुल ( शक्ति ) के सद्भाव की प्राप्ति के लिए यदि मुझ पर आपकी
कृपा दृष्टि है तो हे स्नेह सागर वाली ! षोडश-चक्र की विधि वर्णन कीजिए । हे देवि
! आपकी कृपा से मैं भैरव, काल और
जगदीश्वर हूँ । आपकी कृपा से भुक्ति एवं मुक्ति का प्रदाता याग, योगी और दिगम्बर हूँ ॥ १२६ - १२७॥
इदानीं सर्वविद्यांना दीक्षद्यं
चक्रमण्डलम् ।
अकाल कुलहीनञ्चाकडमञ्च कुलाकुलम्
॥१२८॥
ताराचक्रं राशिचक्रं कूर्मचक्रं
तथापरम ।
शिवचक्र विष्णुचक्रं ब्रह्मचक्रं
विलक्षणम् ॥१२९॥
देवचक्रं ऋणिधनि उल्काचक्रं ततः
परम् ।
वामाचक्रं चतुश्चक्रं सूक्ष्मचक्रं
ततो वदेत् ॥१३०॥
तथा कथहचक्रञ्च कथितं षोडशं प्रभो ।
एतदुत्तीर्णमन्त्रञ्च यें गृहणान्ति
नरोत्तमाः ॥१३१॥
तेषामसाध्यं जगति न किमपि वर्तते
ध्रुवम् ।
किमन्यत् कथयामीह देवतादर्शनं लभेत्
॥१३२॥
सर्वत्रगामी स भवेत् चक्रराजप्रसादतः
।
हे देवि ! सभी विद्याओं के दीक्षा
में प्रथम विचारणीय चक्र मण्डल का फल कहिए । कालरहित एवं कुलहीन १ . अकडम,
२ . कुलाकुल, ३ . ताराचक्र, ४ . राशिचक्र, ५ . कूर्मचक्र तथा ६ . शिवचक्र,
७ . विष्णुचक्र, ८ . त्रिलक्षण संयुक्त
ब्रह्मचक्र, ९ . देवचक्र, १० .
ऋणधनात्मक चक्र, ११ . उल्काचक्र, १२ .
वामाचक्र (बालाचक्र), १३ . चतुश्चक्र, १४
. सूक्ष्मचक्र का प्रकार कहिए । फिर हे प्रिये ! १५ . अकथह चक्र को कहिए । क्योंकि
जो उत्तम साधक इन चक्रों को विचार कर मन्त्र ग्रहण करते हैं उनके लिए निश्चित ही
कहीं कोई भी वस्तु असाध्य नहीं होती । इस विषय में हम बहुत क्या कहें, उस मनुष्य को देवताओं का दर्शन भी प्राप्त हो जाता है । इस चक्रराज के
विचार करने के कारण उसकी गति कहीं अवरुद्ध नहीं होती ॥१२८ - १३३॥
सर्वचक्रविचारञ्च न जानाति
द्विजोत्तमः ॥१३३॥
यज्जानाति तद्विचार्यं देवताप्रीतिकारकम्
।
द्विजोत्तम सभी चक्रों का विचार
नहीं करते । नाम के द्वारा चक्र का विचार देवता के लिए प्रीतिकारक होता है । अतः
उसका विचार अवश्य करना चाहिए ॥१३३ - १३४॥
ताराशुद्धिं वैष्णवानां
कोष्ठशुद्धिं शिवस्य च ॥१३४॥
राशिशुद्धिं त्रैपुरस्य गोपालेऽकडमः
स्मृतः ।
अकडमो वामने च गणेशे हरचक्रतः ॥१३५॥
विष्णुमन्त्र
की दीक्षा लेने वालों को ताराचक्र की शुद्धि, शिव मन्त्र की दीक्षा लेने वालों को कोष्ठ
शुद्धि, त्रिपुरादेवी के मन्त्र
की दीक्षा लेने वाले को राशिचक्र से शुद्धि, गोपाल के मन्त्र की दीक्षा लेने वाले को अकडम चक्र से शुद्धि का विचार कर लेना
आवश्यक कहा गया है । इसी प्रकार वामन मन्त्र में अकडम चक्र तथा गणेश मन्त्र
में शिवचक्र से शुद्धि का विचार करना चाहिए ॥१३४ - १३५॥
कोष्ठचक्रं वराहस्य महालक्ष्म्याः
कुलाकुलम् ।
नामदिचक्रे सर्वेषां भूतचक्रे तथैव
च ॥१३६॥
वराह मन्त्र
में कोष्ठचक्र, महालक्ष्मी में कुलाकुल चक्र तथा नामादिचक्र में सभी मन्त्रों का और उसी प्रकार
भूतचक्र में भी सभी मन्त्रों की दीक्षा में विचार करना चाहिए ॥१३६॥
त्रैपुरं तारचक्रे च शुद्धं मन्त्रं
भजेद् बुधः ।
वैष्णवं राशिसंशुद्धं शैवञ्चाकडमं
स्मृतम् ॥१३७॥
कालिकायाश्च तारायाः हरचक्रं शुभं
भवेत् ।
चण्डिकाया भवेत् कोष्ठे गोपाले
ऋक्षचक्रकम् ॥१३८॥
बुद्धिमान् को त्रिपुरा मन्त्र
में ताराचक्र पर परीक्षित शुद्ध मन्त्र ग्रहण करना चाहिए । वैष्णव मन्त्र को
राशिचक्र पर तथा शैव मन्त्र को अकडम चक्र पर परीक्षा कर शुद्ध करना चाहिए । कालिका
एवं तारा मन्त्र की दीक्षा लेने वालों को शिवचक्र कल्याणकारी होता है । चण्डिका
मन्त्र की दीक्षा में कोष्ठक चक्र और गोपाल मन्त्र की दीक्षा में नक्षत्र
चक्र कल्याणकारक होता है ॥१३७ - १३८॥
हरचक्रे सर्वमन्त्रान् ऋणाधिक्येन
चाश्रयेत् ।
ऋणाधिक्ये शुभं विद्याद् धनाधिक्ये
च नो विधिः ॥१३९॥
दोषान् संशोध्य गृहणीयान्मध्यदेशे
तु साधकः ।
पितृमातृकृतं नाम त्यक्त्वा
शर्मादिदेवकान् ॥१४०॥
शिवचक्र में सभी मन्त्रों की
परीक्षा करे । ऋणधनात्मक चक्र में ऋणाधिक्य होने पर मन्त्र ग्रहण शुभकारक होता है
किन्तु धनाधिक्य में मन्त्र ग्रहण का विधान नहीं है । साधक मन्त्र ग्रहण में दोषों
का संशोधन कर मध्यभाग में उसे ग्रहण करे । चक्र की परीक्षा में शर्मादि तथा देव
आदि उपनामों को त्याग कर पिता माता द्वारा रखे गए नामो द्वारा परीक्षा करें ॥१३९ -
१४०॥
श्रीवर्णञ्च ततो विद्याचक्रेषु
योजयेत् क्रमात् ।
क्रमेण श्रृणु तत्सर्वं
शुभाशुभफलप्रदम् ॥१४१॥
जापकानां भावुकानां शुद्ध सिद्धयति
तत्क्षणात् ।
मन्त्रमात्रं प्रसिद्ध्येत
भक्तानामिति निश्चयः ॥१४२॥
विद्याचक्र में क्रमशः श्री वर्ण को
संयुक्त करे । अब शुभाशुभ फल देने वाले उन सभी विधियों को क्रमशः सुनिए ।
भावनापूर्वक भावुक जापकों को मन्त्र सिद्धि तत्काल हो जाती है । भक्तों का ऐसा
निश्चय है कि भावनापूर्वक जप करने से मन्त्र सिद्ध हो जाते हैं ॥१४१ - १४२॥
कुलीनकुलजातानां
ध्यानमार्गर्थगामिनाम् ।
महाविद्या महाज्ञान संशुद्धमपि
सिध्यति ॥१४३॥
ध्यानमार्ग का आश्रय लेकर चलने वाले
उत्तम कुलीन जनों को कुलीन महाविद्या महामन्त्र संशुद्ध होने पर सिद्ध हो जाता है
॥१४३॥
सिद्धमन्त्रप्रकरणे यदुक्तञ्च
महेश्वर ।
अष्टसिद्धिकरे तस्य
सायुज्यपदमाप्नुयात् ॥१४४॥
चक्रं षोडह्ससारञ्च सर्वेषां
मन्त्रसिद्धये ॥१४५॥
हे महेश्वर ! सिद्धमन्त्र के
प्रकरण में हमने जितना भी कहा हैं उसके अनुसार साधक यदि उत्तमोत्तम मन्त्र ग्रहण
करे तो उसे(अणिमा, महिमा,
लघिमा आदि) अष्टसिद्धियों का प्रभाव मालूम पड़ने लगता है तथाअ
सायुज्य पद की प्राप्ति भी होती है । यह षोडसार चक्र सभी के मन्त्र सिद्धि के लिए
कहा गया है ॥१४४ - १४५॥
विचार्य सर्वमन्त्रञ्च यन्मया गदितं
हितम् ।
आदौ बालाभैरवीणामकडमान्मतं मया
॥१४६॥
कुमारीललितादेव्याः
कुरुकुल्लादिसाधने ।
श्रीचक्रं फलदं प्रोक्तं
सर्वचक्रफलप्रदम ॥१४७॥
मन्त्र योग में मेरे द्वारा कहे गए
कल्याणकारी मन्त्रों पर विचार कर उसे ग्रहण करना चाहिए । प्रथमतः बालाभैरवी
मन्त्रों के लिए अकडम चक्र से परीक्षित मन्त्र ग्रहण करना चाहिए यह मेरा मत है ।
कुमारी ललिता देवी के तथा कुरुकुल्लादि के साधन में सभी चक्रों का
फल देने वाला श्रीचक्र सुन्दर फल प्रदान करने वाला कहा गया है ॥१४६ - १४७॥
योगिन्यदिसाधने च ताराचक्र महत्फलम्
।
उन्मत्तभैरवीविद्याद्यादिसाधननिर्मले
॥१४८॥
राशिचक्रं कोटिफलं नानारत्नप्रदं
शुभम् ।
प्रत्यङिरासाधने च
उल्काविद्यादिसाधने ॥१४९॥
शिवचक्रं महापुण्य़ं सर्वचक्रफलप्रदम्
।
कालिकाचर्चिकामन्त्र
विमलाद्यादिसाधने ॥१५०॥
योगिनी
आदि के साधन में ताराचक्र महान् फल देता है उन्मत्त भैरवी विद्या आदि साधन में
राशिचक्र करोड़ गुना फल देने वाला एवं नानारत्न प्रदान करने वाला कहा गया है । प्रत्यङ्गिरा
साधन में तथा उल्काविद्यादि साधन में समस्त चक्रों का फल देने वाला शिवचक्र महान्
पुण्य उत्पन्न करने वाला है । कालिका चर्चिका मन्त्र में तथा विमला आदि
साधन में भी शिवचक्र पुण्य प्रदान करता है ॥१४८ - १५०॥
सम्पत्प्रदाभैरवीणां
मन्त्रग्रहणकर्मणि ।
विष्णुचक्रे कोटिशतं पुण्य़ं
प्राप्नोति मानवः ॥१५१॥
संपत्ति प्रदान करने वाली सभी
भैरवियों के मन्त्र ग्रहण कर्म में मनुष्यों को विष्णुचक्र के द्वारा (शोभित
मन्त्र) करोड़ों शत गुणित पुण्य प्राप्त कराने वाला होता है ॥१५१॥
छिन्नादिश्रीविद्यायाः
कृत्यादेव्याश्च साधने ।
नक्षत्रविद्याकामाख्या
ब्रह्माण्यादि सुसाधने ॥१५२॥
ब्रह्माचक्रं महापुण्यं
सर्वाविद्याफलं लभेत् ।
कोटिजाप्येन यत्पुण्यं ग्रहणात्
तत्फलं लभेत् ॥१५३॥
छिन्नमस्तकादि श्रीविद्या एवं
कृत्यादेवी के मन्त्र साधन में तथा नक्षत्रविद्या, कामाख्या एवं ब्रह्माणी आदि के साधन में ब्रह्माचक्र महान पुण्यकारक होता
है । किं बहुना मन्त्र ग्रहण करने वाला साधक उससे सभी विद्याओं का फल प्राप्त करता
है । करोड़ों जप से जितना पुण्य होता है ब्रह्मचक्र से सिद्ध मन्त्र उतना ही फलदायी
होता है ॥१५२ - १५३॥
वज्रज्वालामहाविद्यासाधने
मन्त्रजापने ।
गुह्यकालीसाधने च कुब्जिकमन्त्रसाधने
॥१५४॥
देवचक्रं शुभं प्रोक्तं
वाक्यसिद्धिप्रदायकम् ।
कामेश्वरी अट्टहासामन्त्रसाधनकर्मणि
॥१५५॥
राकिणीमन्दिरादेवी
मन्दिरामन्त्रसाधने ।
ऋणिधनिमहाचक्र विचार्य सर्वसिद्धदम्
॥१५६॥
वज्र ज्वाला महाविद्या के साधन में तथा उनके मन्त्र के जप में, इसी प्रकार गुह्य काली के साधन में, कुब्जिका मन्त्र के साधन में, वाणी की सिद्धि देने वाला देवचक्र शुभकारक कहा गया है । कामेश्वरी अट्टहासा के मन्त्र साधन कर्म में और इसी प्रकार राकिणी मन्दिरा देवी एवं मन्दिरा के मन्त्र साधन कर्म में ऋणधनात्मक महाचक्र का विचार सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करता है ॥१५४ - १५६॥
श्रीविद्याभुवनेशानीभैरवीसाधने तथा
।
पृथ्वीकुलावतीवीणासाधने वामनीमनोः
॥१५७॥
उल्काचक्रं महापुण्यं राजत्वफलदं
शुभम् ।
शिवादिनायिकाकामन्त्रे बालाचक्रे
सुखप्रदम् ॥१५८॥
श्रीविद्या भुवनेश्वरी तथा
भैरवी के मन्त्र साधन में , इसी प्रकार पृथ्वी
कुलावती वीणा के साधन में और वामनी मन्त्र के साधन में उल्काचक्र महान् पुण्यदायका
है । इतना ही नहीं यह राजत्व का फल भी प्रदान करता है तथा हितकारी भी है । इसी
प्रकार शिवादिनायिका मन्त्र में बालाचक्र सुखकारक कहा गया है ॥१५७ - १५८॥
फेत्कारीमन्त्रजाप्ये च
उड्डीयानेश्वरी मनोः ।
चतुश्चक्रं शतफलं महामन्त्रफलप्रदम्
॥१५९॥
द्राविणीदीर्घजङ्कादि
ज्वालामुख्यादिसाधने ।
नारसिंहीसाधने च सूक्ष्मचक्रं
फलोद्भवम् ॥१६०॥
फेत्कारी देवी के मन्त्र के जप में
एवं उड्डीयानेश्वरी के मन्त्र में महामन्त्र का फल देने वाला चतुश्चक्र सैकड़ों
गुना फल प्रदान करता है । द्राविणी और दीर्घजंघादि तथा ज्वालामुखी आदि के मन्त्र
साधन में इसी प्रकार नारसिंही मन्त्र के साधन में सूक्ष्मचक्र फलदायी होता है ॥१५९
- १६०॥
हरिणी मोहिनी कात्ययनीसाधनकर्मणि ।
वैष्णव च तथा शैवे देवी मन्त्रे च
भैरव ॥१६१॥
अकथहं महाचक्रं विचार्य
यत्नपूर्वकम् ।
यो गृहणाति महामन्त्रं स शिवो नात्र
संशयः ॥१६२॥
हरिणी,
मोहिनी एवं कात्यायनी देवी के साधनकर्म में, इसी प्रकार हे भैरव ! विष्णुमन्त्र, शिवमन्त्र तथा
देवीमन्त्र में अकथह महाचक्र का यत्नपूर्वक विचार कर जो मन्त्र ग्रहण करता है वह
साक्षात शिव है, इसमें संशय नहीं ॥१६१ - १६२॥
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्र
महायन्त्रोद्दीपने सर्वचक्रानुष्ठाने महागुरुप्रकरणे भावनिर्णये भैरवीभैरवसंवादे
द्वितीयः पटलः ॥२॥
इस प्रकार श्रीरुद्रयामल
उत्तरतन्त्र का द्वितीय पटल अंतिम भाग समाप्त हुआ ॥२ ॥
रूद्रयामलम् द्वितीय पटल समाप्त ॥२ ॥
शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र तृतीय पटल
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