गायत्री रहस्योपनिषद्

गायत्री रहस्योपनिषद्

गायत्री रहस्योपनिषद् में गायत्री की महिमा व गायत्री महामंत्र के रहस्य अदि का वर्णन किया गया है।

गायत्री रहस्योपनिषद्

गायत्री रहस्योपनिषद्


ॐ स्वस्ति सिद्धम्।

ॐ नमो ब्रह्मणे।

ॐ नमस्कृत्य याज्ञवल्क्य ऋषिः स्वयंभुवं परिपृच्छति।

हे ब्रह्मन् गायत्र्या उत्पत्तिं श्रोतुमिच्छामि। अथातो वसिष्ठः स्वयंभुवं परिपृच्छति।

यो ब्रह्मा स ब्रह्मोवाच ।

ब्रह्मज्ञानोत्पत्तेः प्रकृतिं व्याख्यास्यामः।

को नाम स्वयंभूः पुरुष इति । तेनाङ्गुलीमथ्यमानात् सलिलमभवत् ।

सलिलात् फेनमभवत् । फेनाद्बुद्बुदमभवत् । बुद्बुदाद ण्डमभवत् ।

अण्डाद्ब्रह्माभवत् । ब्रह्मणो वायुरभवत् । वायोरग्निरभवत् ।

अग्नेरोङ्कारोऽभवत्। ओंकाराद्वयाहृतिरभवत्। व्याहृत्या: गायत्र्यभवत्।

गायत्र्याः सावित्र्यभवत्। सावित्र्याः सरस्वत्यभवत् ।

सरस्वत्याः सर्वे वेदा अभवन्। सर्वेभ्यो वेदेभ्यः सर्वे लोका अभवन्।

सर्वेभ्यो लोकेभ्यः सर्वे प्राणिनोऽभवन्॥१॥

भावार्थ- सबका कल्याण हो। ब्रह्म को नमन-वन्दन है। इस प्रकार नमन-वन्दन के पश्चात् याज्ञवल्क्य ऋषि ने स्वयम्भुव ब्रह्माजी से प्रश्न पूछा- 'हे ब्रह्मन् ! गायत्री को उत्पत्ति किस प्रकार हुई, यह सुनने की हम सभी को इच्छा है। वसिष्ठ जी ने भी स्वयम्भुव से यही पूछा था। (प्रश्न सुनकर ) जो ब्रह्म से उत्पन्न हैं, ऐसे ब्रह्मा जी ने कहा- ब्रह्मज्ञान के उत्पत्ति की कारणभूता प्रकृति की व्याख्या की जाती है। स्वयंभुव नाम का कौन पुरुष है? (यह वही पुराण पुरुष है। उसी ने अपनी अँगुली से मन्थन करते हुए जल को प्रकट किया । जल से फेन हुआ, फेन से बुद्बुद, बुद्बुद से अण्डा, अण्डे से ब्रह्मा, ब्रह्मा से वायु वायु से अग्नि, अग्नि से ॐकार, ॐकार से व्याहति, व्याहति से गायत्री हुई, गायत्री से सावित्री, सावित्री से सरस्वती, सरस्वती से चारों वेद, चारों वेद से समस्त लोक और इसके पश्चात् अन्त में सभी लोकों से सभी प्राणी प्रादुर्भूत हुए ॥


अथातो गायत्री व्याहृतयश्च प्रवर्तन्ते।

का च गायत्री काश्च व्याहृतयः ।

किं भूः किं भुवः किं सुवः किं महः किं जनः किं तपः किं सत्यं किं तत्

किं सवितुः किं वरेण्यं किं भर्ग: किं देवस्य किं धीमहि किं धियः

किं यः किं नः किं प्रचोदयात्।

ॐ भूरिति भुवो लोकः । भुव इत्यन्तरिक्षलोकः । स्वरिति स्वर्गलोकः ।

मह इति महर्लोकः । जन इति जनलोकः । तप इति तपोलोकः ।

सत्यमिति सत्यलोकः । तदिति तदसौ तेजोमयं तेजोऽग्निर्देवता ।

सवितुरिति सविता सावित्रमादित्यो वै। वरेण्यमित्यत्र प्रजापतिः।

भर्ग इत्यापो वै भर्गः।

देवस्य इतीन्द्रो देवो द्योतत इति स इन्द्रस्तस्मात् सर्वपुरुषो नाम रुद्रः।

धीमहीत्यन्तरात्मा। धिय इत्यन्तरात्मा परः। य इति सदाशिवपुरुषः ।

नो इत्यस्माकं स्वधर्म।

प्रचोदयादिति प्रचोदितकाम इमान् लोकान् प्रत्याश्रयते यः परो धर्म इत्येषा गायत्री॥२॥

भावार्थ- अब यहाँ गायत्री और व्याहृतियों का वर्णन प्रारम्भ होता है। प्रश्न-गायत्री कौन है और व्याहृतियाँ कौन हैं? भू: क्या है ? भुवः क्या है? स्व: क्या है? मह: क्या है?जन: क्या है? तप: क्या है? सत्यं क्या है? तत् क्या है? सवितुः क्या है? वरेण्यं क्या है? भर्ग: क्या है? देवस्य क्या है? धोमहि क्या है? धियः क्या है? यः क्या है? नः क्या है? तथा प्रचोदयात् क्या है? उत्तर- ॐ भू--यह भूलोक का वाचक है, भुवः - अन्तरिक्ष वाची है, स्व-स्वर्ग लोक का वाची है, मह-महर्लोक का वाचक है, जन:-जनोलोक का, तपः-तपोलोक का, सत्यम्-सत्यलोक का, तत्-तेजसरूप अग्निदेव , सवितुः-सह सूर्य का वाचक है, वरेण्यं यह प्रजापति (ब्रह्मा) का, भर्ग:-आपः (जल) का, देवस्य यह तेजस्वी इन्द्र का जो परम ऐश्वर्य का द्योतक सर्वपुरुष नामक रूद्र द्वारा प्रयाख्त है। धीमहि यह अन्तरात्मा का, धिय:-यह दूसरी अन्तरात्मा का -ब्रह्म का, य:-यह उस भगवान् सदाशिव पुरुष का, न:-यह अपने स्वरूप का (अर्थात् हमारे इस अर्थ का वाचक है), इस तरह से सभी यथोक्त क्रम से सतत स्वरूप का बोध (साक्षात्कार) कराने वाले हैं। प्रचोदयात्-यह प्रेरणा को इच्छा का द्योतक है। जो धर्म इन सभी लोकों का आत्ज्श्रय करा दे, यही गायत्री है॥


सा च किं गोत्रा कत्यक्षरा कति पादा।

कति कुक्षयः। कानि शीर्षाणि ।

सांख्यायनगोत्रा सा चतुर्विंशत्यक्षरा गायत्री त्रिपादा चतुष्यादा।

पुनस्तस्याश्चत्वारः पादाः षट् कुक्षिकाः पञ्च शीर्षाणि भवन्ति।

के च पादाः काश्च कुक्षयः कानि शीर्षाणि। ऋग्वेदोऽस्याः प्रथमः पादो भवति।

यजुर्वेदो द्वितीयः पादः । सामवेदस्तृतीयः पादः। अथर्ववेदश्चतुर्थः पादः ।

पूर्वा दिक् प्रथमा कुक्षिर्भवति । दक्षिणा द्वितीया कुक्षिर्भवति ।

पश्चिमा तृतीया कुक्षिर्भवति । उत्तरा चतुर्थी कुक्षिर्भवति ।

ऊध्व्रा वै पञ्चमी कुक्षिर्भवति। अधः षष्ठी कुक्षिर्भवति ।

व्याकरणोऽस्याः प्रथमः शीर्षों भवति । शिक्षा द्वितीयः। कल्पस्तृतीयः।

निरुक्तश्चतुर्थः । ज्योतिषामयनमिति पञ्चमः।

का दिक् को वर्णः किमायतनं कः स्वरः किं लक्षणं कान्यक्षरदैवतानि के ऋषयः

कानि छन्दांसि काः शक्तयः कानि तत्त्वानि के चावयवाः ।

पूर्वायां भवतु गायत्री। मध्यमायां भवतु सावित्री। पश्चिमायां भवतु सरस्वती।

रक्ता गायत्री। श्वेता सावित्री। कृष्णा सरस्वती।

पृथिव्यन्तरिक्ष द्यौरायतनानि ॥३॥

भावार्थ- प्रश्न- वह गायत्री किस गोत्र वाली है, कितने अक्षर वाली है, कितने पाद वाली, कितनी कुक्षि वाली है और उसके शीर्ष मूर्धादि स्थल क्या हैं? उत्तर-वह सांख्यायन गोत्र वाली, चौबीस अक्षर वाली, गायत्री तीन एवं चार पाद वाली है। तदनन्तर उसके चार पाद, छः कुक्षियाँ एवं पाँच शिर हैं। प्रश्न-इसके पाद कौन हैं? कुक्षियाँ कौन हैं? तथा शिर कौन हैं?उत्तर- ऋग्वेद इसका प्रथम पाद है, यजुर्वेद द्वितीय पाद है, सामवेद तृतीय पाद है और चतुर्थ पाद अथर्ववेद है। इसको पूर्व दिशा प्रथम कुक्षि है, दक्षिण दिशा द्वितीय कुक्षि है, पश्चिम दिशा तृतीय कुक्षि है,उत्तर दिशा चौथा कुक्षि है। ऊर्ध्वभाग पाँचवी कुक्षि है एवं अधः भाग छठी कुक्षि है। व्याकरण इसका प्रथम शिर, शिक्षा द्वितीय शिर, कल्प तृतीस शिर, निरुक्त चतुर्थ एवं ज्योतिष पञ्चम शिर है। प्रश्न-कौन सी दिशा में किस रंग की अधिष्ठात्री देवियाँ प्रतिष्ठित हैं? उनका विस्तार क्या है? स्वर-लक्षण क्या है? किन अक्षरों की वह अधिष्ठात्री देवियाँ हैं? उनके ऋषि कौन हैं? छन्द कौन हैं? शक्तियाँ कौन हैं? तत्व कौन हैं एवं उनके अवयव कौन हैं? उत्तर-पूर्व दिशा में गायत्री स्थित हैं (इनका वर्ण लाल है)। मध्यमा अर्थात् दक्षिण दिशा में (श्वेत वर्ण वाली) सावित्री स्थित हैं। पश्चिम दिशा में (कृष्ण वर्ण युक्त) सरस्वती विद्यमान हैं, यही ध्यान करना उचित है। पृथिवी, आकाश तथा स्वर्ग इन(त्रिशक्तियों) के विस्तार स्थल एवं निवास स्थान हैं।।


अकारोकारमकाररूपोदात्तादिस्वरात्मिका।

पूर्वा सन्ध्या हंसवाहिनी ब्राह्मी। मध्यमा वृषभवाहिनी माहेश्वरी ।

पश्चिमा गरुडवाहिनी वैष्णवी ।

पूर्वाह्ण्कालिका सन्ध्या गायत्री कुमारी रक्ता रक्ताङ्गी रक्तवासिनी रक्तगन्धमाल्यानुलेपनी पाशाङ्कुशाक्षमालाकमण्डलुवरहस्ता हंसारूढा ब्रह्मदैवत्या ऋग्वेदसहिता आदित्यपथगामिनी भूमण्डलवासिनी।

मध्याह्नकालिका सन्ध्या सावित्री युवती श्वेताङ्गी श्वेतवासिनी श्वेतगन्धमाल्यानुलेपनी त्रिशूलडमरुहस्ता वृषभारूढा रुद्रदैवत्या यजुर्वेदसहिता आदित्यपथगामिनी भुवोलोके व्यवस्थिता।

सायं सन्ध्या सरस्वती वृद्धा कृष्णाङ्गी कृष्णवासिनी कृष्णगन्धमाल्यानुलेपना शङ्खचक्रगदाभयहस्ता गरुडारूढा विष्णुदैवत्या सामवेदसहिता आदित्यपथगामिनी स्वर्गलोकव्यवस्थिता ॥४॥

भावार्थ- (वह गायत्री) अकार, उकार, मकाररूप तथा उदात्तादि (उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित) स्वरात्मक है। (वह त्रिकाल) संध्या के अन्तर्गत प्रात:काल के समय में हंसारूढ़-ब्राह्मीरूपा, मध्याह्न काल की संध्या में वृषभारूढ़ माहेश्वरीरूपा और अन्तिम सायंकालीन गरुड़ारूढ़- वैष्णवीरूपा रहती हैं। प्रात:कालीन संध्या के समय गायत्री रक्तवर्णा, कुमारी रूपा, रक्त अंगों वाली, रक्त वस्त्रों वाली, रक्त चन्दन एवं मालाओं वाली, पाश अंकुश-अक्षमाला कमण्डलु वरमुद्रा युक्त हाथों वाली, हंसारूढ़ा, ब्रह्मा-देव शक्तिशाली, ऋग्वेद युक्ता, आदित्यपथगामिनी (आकाशगामिनी) तथा भूमण्डल पर रहने वाली हैं। मध्याह्न काल की संध्या में (वह) सावित्री युवा, श्वेत अंगों वाली, शुभवर्णा, श्वेत वस्त्रों को धारण करने वाली, श्वेतचन्दन एवं मालाएँ धारण करने वाली, त्रिशूल एवं डमरू धारण किए हुए वृषभ पर आरूढ़, रूद्राधिदेवता, यजुर्वेदयुक्ता हैं। (वह) आदित्यपथ पर गमन करने वाली और भुव: लोक में विशेष रूप से स्थित रहने वाली हैं। सायंकालीन संध्या सरस्वतीरूपा हैं। वह वृद्धा कृष्णवर्ण वाली, कृष्ण वस्त्रों को धारण करने वाली, काले गन्धमाला का अनुलेपन करने वाली, शंख, चक्र तथा गदा धारण किये हुए, गरुड़ पर आरूढ़, विष्णु दैवत्या (विष्णु जिसका अधिदेवता है), सामवेद युक्ता, भगवान् आदित्य के पथ पर गमन करने वाला तथा स्व: अर्थात् स्वर्गलोक में निवास करने वाली हैं।।


अग्निवायुसूर्यरूपाऽऽहवनीयगार्हपत्यदक्षिणाग्निरूपा ऋग्यजु:सामरूपा भूर्भुवः स्वरिति व्याहृतिरूपा प्रातर्मध्याह्नतृतीयसवनात्मिका सत्त्वरजस्तमोगुणात्मिका जागृत्स्वप्नसुषुप्तरूपा वसुरुद्रादित्यरूपा गायत्रीत्रिष्टुजगतीरूपा ब्रह्मशङ्करविष्णुरूपेच्छाज्ञानक्रियाशक्तिरूपा स्वरा-ड्विराड्वषड्ब्रह्मरूपेति ।

प्रथममाग्नेयं द्वितीयं प्राजापत्यं तृतीयं सौम्यं चतुर्थमीशानं पञ्चममादित्यं षष्ठं गार्हपत्यं सप्तमं मैत्रमष्टमं भगदैवतं नवममार्यमणं दशमं सावित्रमेकादशं त्वाष्टुं द्वादशं पौष्णं त्रयोदशमैन्द्राग्नं चतुर्दशं वायव्यं पञ्चदशं वामदेवं षोडशं मैत्रावरुणं सप्तदशं भ्रातृव्यमष्टादशं वैष्णवमेकोनविशं वामनं विंशं वैश्वदेवमेकविंशं रौद्र द्वाविंशं कौबेरं त्रयोविंशमाश्विनं चतुर्विशं ब्राह्ममिति प्रत्यक्षरदैवतानि।

प्रथमं वासिष्ठं द्वितीयं भारद्वाजं तृतीयं गार्ग्यं चतुर्थंमौपमन्यवं पञ्चमं भार्गवं षष्ठं शाण्डिल्यं सप्तमं लौहितमष्टमं वैष्णवं नवमं शातातपं दशमं सनत्कुमारमेकादशं वेदव्यासं द्वादशं शुकं त्रयोदशं पाराशर्यं चतुर्दशं पौण्ड्रकं पञ्चदशं क्रतुं षोडशं दाक्षं सप्तदशं काश्यपमष्टादशमात्रेयमेकोनविंशमगस्त्यं विंशमौद्दालकमेकविंशमाङ्गिरसं द्वाविंशं नामिकेतुं त्रयोविंशं मौद्गल्यं चतुर्विंशमाङ्गिरसं वैश्वामित्रमिति प्रत्यक्षराणामृषयो भवन्ति ॥५॥

भावार्थ- (ये गायत्री) अग्नि, वायु एवं सूर्य रूपा हैं। आहवनीय, गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि वह्निरूपा हैं, ऋक् यजुः तथा सामवेद स्वरूपा हैं; भूः, भुवः तथा स्व: व्याहृतिरूप वाली हैं; प्रातः, मध्याह्न एवं सायंकालीन आत्मस्वरूपा; सत्त्व, रज एवं तम गुणात्मिका; जाग्रत्, स्वप्न, सुपुतिरूपा; वसु, रुद्र एवं आदित्यात्मक; गायत्री, त्रिष्टुप् एवं जगती आदि छन्दरूप वाली; ब्रह्मा, शंकर एवं विष्णु के स्वरूप वाली; इच्छा, ज्ञान एवं क्रिया शक्तिरूपा तथा स्वराट्, विराट् एवं वषट् ब्रह्मरूपा हैं। (इस गायत्री महामन्त्र के) प्रथम अक्षर के अग्नि, दूसरे के प्रजापति, तीसरे के सोम (चन्द्रमा), चौथे के ईशान, पाँचवें के आदित्य, छठे के गार्हपत्य (अग्निविशेष), सातवे के मैत्र, आठवें के भग देवता, नौवें के अर्यमा, दसवें के सविता, ग्यारहवें के त्वष्ट्रा, बारहवें के पूषा, तेरहवें के इन्द्राग्नि, चौदहवें के वायु, पन्द्रहवें के वामदेव, सोलहवें के मैत्रावरुण, सत्रहवें के भ्रातृव्य, अठारहवें के विष्णु, उन्नीसवें के वामन, बीसवे के वैश्वदेव, इक्कीसवें के रुद्रदेव, बाइसवें के कुबेर, तेईसवें के अश्विनीकुमार और चौबीसवें अक्षर के ब्रह्मदेव शक्तिरूप हैं-यही प्रत्येक अक्षर के देवता कहे गये हैं। (अब गायत्री के २४ अक्षरों के २४ ऋषियों का वर्णन करते हैं-) इसके प्रथम अक्षर के ऋषि वसिष्ठ, दूसरे के भरद्वाज, तीसरे के गर्ग, चौथे के उपमन्यु, पाँचवें के भृगु ( भार्गव), छठे के शाण्डिल्य, सातवें के लोहित, आठवें के विष्णु, नौवें के शातातप, दसवें के सनत्कुमार, ग्यारहवें के वेदव्यास, बारहवें के शुकदेव, तेरहवें के पाराशर, चौदहवें के पौण्ड्रफ, पन्द्रहवें के क्रतु, सोलहवें के दक्ष, सत्रहवें के कश्यप, अठारहवें के अत्रि, उन्नीसवें के अगस्त्य, बीसवें के उद्दालक, इक्कीसवें के आङ्गिरस, बाइसवें के नामिकेतु, तेईसवें के मुद्गल और चौबीसवें के अङ्गिरा गोत्रज विश्वामित्र हैं, यही प्रत्येक अक्षरों के अलग-अलग चौबस ऋषि होते हैं। ५ ।।


गायत्रीत्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप्पङ् क्तिबृहत्युष्णिगदितिरिति त्रिरावृत्तेन छन्दांसि प्रतिपाद्यन्ते।

प्रहादिनी प्रज्ञा विश्वभद्रा विलासिनी प्रभा शान्ता मा कान्तिः स्पर्शा दुर्गा सरस्वती विरूपा विशालाक्षी शालिनी व्यापिनी विमला तमोऽपहारिणी सूक्ष्मावयवा पद्मालया विरजा विश्वरूपा भद्रा कृपा सर्वतोमुखीति चतुर्विंशतिशक्तयो निगद्यन्ते । पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशगन्धरसरूपस्पर्शशब्दवाक्यानि पादपायूपस्थत्वक्चक्षुःश्रोत्रजिह्वाघ्राणमनोबुद्ध्यहङ्कारचित्तज्ञानानीति प्रत्यक्षराणां तत्त्वानि प्रतीयन्ते। चम्पकातसीकुङ्कमपिङ्गलेन्द्रनीलाग्निप्रभोद्यत्सूर्यविद्युत्तारकसरोजगौरमरकतशुक्लकुन्देन्दुशङ्खपाण्डुनेत्रनीलोत्पलचन्दनागुरुकस्तूरीगोरोचन ( मल्लिका केतकी ) घनसारसन्निभं प्रत्यक्षरमनुस्मृत्य समस्तपातकोपपातकमहापातकागम्यागमनगोहत्याब्रह्महत्याभ्रुणहत्यावीरहत्यापुरुषहत्याऽऽजन्मकृतहत्या स्त्रीहत्यागुरुहत्यापितृहत्याप्राण हत्याचराचरहत्याऽभक्ष्यभक्षणप्रतिग्रहस्वकर्मविच्छेदनस्वाम्यार्तिहीनकर्मकरणपरधनापहरणशूद्रान्नभोजनशत्रुमारणचण्डालीगमनादिसमस्तपापहरणार्थ संस्मरेत् ॥६॥

भावार्थ- गायत्री, त्रिष्टुप, जगती, अनुष्टुप, पंक्ति, बृहती, उष्णिक्-ये तीन आवृत्तियों से युक्त छन्द प्रतिपादित किये गये हैं। (गायत्री की चौबीस शक्तियों का वर्णन-) प्रह्लादिनी, प्रजा, विश्वभद्रा, विलासिनी, प्रभा, शान्ता, मा, कान्ति, स्पर्शा, दुर्गा, सरस्वती, विरूपा, विशालाक्षी, शालिनी, व्यापिनी, विमला, तमोपहारिणी, सूक्ष्मायवा, पद्मालया, विरजा, विश्वरूपा, भद्रा, कृपा और सर्वतोमुखी। अब गायत्री के प्रत्येक अक्षर के अलग-अलग चौबीस तत्वों का वर्णन करते हैं-पृथ्वी, जल, तेज,वायु, आकाश, गन्ध, रस,रूप, स्पर्श, शब्द, वाक्, पैर, पायु-उपस्थ (मल-मूत्रेन्द्रियाँ), त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार एवं ज्ञान यही गायत्री के प्रत्येक अक्षर के चौबीस तत्व हैं। (अब गायत्री के चौबीस अक्षर के अलग-अलग पुष्पों का वर्णन-) चम्पा, अतसी (एक नीला फूल), कुंकुम, पिङ्गल, इन्द्रनील, अग्निप्रभा, उद्यत्सूर्य, विद्युत्तारक, सरोज, गौर, मरकत, शुक्ल, कुन्द, इन्दु, शंख, पाण्डु नेत्र, नीलकमल, चन्दन, अगुरु, कस्तूरी, गोरोचन, मल्लिका, केतकी, कर्पूर के समान इन प्रत्येक अक्षरों के प्रत्येक पुष्पों को याद करना चाहिए। (अब चौबीस पातकों का वर्णन करते हैं- ) सभी पातक, उपपातक, महापातक, अगम्यागमन (जिनसे योनि सम्बन्ध नहीं होना चाहिए, उनसे योनि सम्बन्ध रखना आदि), गोहत्या, ब्रह्महत्या, भ्रूणहत्या (गर्भपात), वीरहत्या, पुरुष हत्या, कई जन्मों से की हुई हत्यायें, स्त्रीहत्या, गुरुहत्या, पितृहत्या, आत्मघात, चर तथा अचर आदि जीवों की हत्या, जो खाने के लायक नहीं, उन्हें खाने में होने वाली हत्या, दान ग्रहण का पाप, अपने कर्म का त्याग, स्वामी की सेवा से पराङ्मुख कर्म जन्य पाप, दूसरों के धन को चुराने से होने वाला पाप, शूद्र के अन्न को ग्रहण करने से होने वाला पाप, शत्रुयात तथा चाण्डाल से योनि सम्बन्ध रखना आदि इन समस्त पापों के विनाश के लिए हमेशा इन्हें याद रखे॥


मूर्धा ब्रह्मा शिखान्तो विष्णुर्ललाटं रुद्रश्चक्षुषी चन्द्रादित्यौ कर्णौ शुक्रबृहस्पती नासापुटे अश्विनौ दन्तोष्ठावुभे सन्ध्ये मुखं मरुतः स्तनौ वस्वादयो हृदयं पर्जन्य उरमाकाशो नाभिरग्निः। कटिरिन्द्राग्नी जघनं प्राजापत्यमूरू कैलासमूलं जानुनी विश्वेदेवौ जङघे शिशिरः गुल्फानि पृथिवीवनस्पत्यादीनि नखानि महती अस्थीनि नवग्रहा असृक्केतुर्मासमतुसन्धयः कालद्वयास्फालनं संवत्सरो निमेषोऽहोरात्रमिति वाग्देवीं गायत्रीं शरणमहं प्रपद्ये ॥७॥

भावार्थ- मैं ऐसी उस वाक् शक्ति की अधिष्ठात्री देवी गायत्री की शरण (आश्रय) को प्राप्त करता हूँ, जिसकी मूर्धा (शिर) ब्रह्मा, शिखान्त (शिखा का अन्त भाग) विष्णु, ललाट (मस्तक) रुद्र, (दोनों) नेत्र-सूर्य और चन्द्रमा, (दोनों) कान- शुक्राचार्य एवं बृहस्पति, नासिका के दोनों रन्ध्र (छिद्र) अश्विनीकुमार, दोनों दन्तोष्ठ-दोनों सन्ध्याये, मुख-मरुत् (वायु), स्तन-वसु आदि, हृदय-बादल, पेट-आकाश, नाभि-अग्नि, कमर-इन्द्राग्नि,जाँघ-प्रजापत्य, उरुद्वय-कैलाश के मूल स्थल, दोनों घुटने-विश्वदेव, जंघाएँ (पिंडली)-शिशिर, गुल्फ (टखने)पृथ्वी की वनस्पति आदि, नख-महत् तत्त्व, हड्डियाँ-नवग्रह, अँतड़ियाँ-केतु, मांस-ऋतु-संधियाँ, दोनों कालों का गमन बोधक वर्ष-संवत्सर और निमेष-दिन एवं रात्रि हैं ॥


य इदं गायत्रीरहस्यमधीते तेन क्रतुस्त्रमिष्टं भवति ।

य इदं गायत्री रहस्यमधीते दिवसकृतं पापं नाशयति ।

प्रातर्मध्याह्नयोः षण्मासकृतानि पापानि नाशयति ।

सायं प्रातरधीयानो जन्मकृतं पापं नाशयति ।

य इदं गायत्रीरहस्यं ब्राह्मणः पठेत् तेन गायत्र्याः षष्टिसहस्त्रलक्षाणि जप्तानि भवन्ति ।

सर्वान् वेदानधीतो भवति । सर्वेषु तीर्थेषु स्नातो भवति ।

अपेयपानात् पूतो भवति। अभक्ष्यभक्षणात्। पूतो भवति ।

वृषलीगमनात् पूतो भवति। अब्रह्मचारी ब्रह्मचारी भवति ।

पंक्तिषु सहस्त्रपानात् पूतो। भवति ।

अष्टौ ब्राह्मणान् ग्राहयित्वा ब्रह्मलोकं स गच्छति ।

इत्याह भगवान् ब्रह्मा॥८॥

भावार्थ- जो मनुष्यः इस गायत्री रहस्य का अध्ययन (पाठ) करता है,ऐसा मानना चाहिए कि उसने तो सहस्त्रो यज्ञ सम्पन्न कर लिये हैं। जो इस गायत्री रहस्य का पाठ करता है, उसके द्वारा (भूल से) दिन में किये हुए समस्त पापों का उसके पाठ से क्षय (विनाश) हो जाता है। जो प्रातः एवं मध्याह्न काल में इसका पाठ (अध्ययन) करता है, वह अपने छः मास के किये हुए पापों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है अर्थात् पापरहित हो जाता है। जो प्रतिदिन प्रातः एवं सायंकाल इसका पाठ करे, तो उसके समस्त जन्मों के पाप विनष्ट हो जाते हैं। जो भी ब्राह्मण ! इस गायत्री रहस्य का पाठ करे, तो यह मानना चाहिए कि उसने गायत्री महामन्त्र का साठ हजार बार जप कर लिया है, उसने सभी (चारों) वेदों का पाठ कर लिया, समस्त तीर्थों में उसने स्नान कर लिया है। अपेय पदार्थ (शराब आदि) को पीने से जो पाप होता है, उससे भी वह मुक्त हो जाता है। अखाद्य पदार्थों को ग्रहण करने (खाने) से हुए पाप से भी वह पापरहित हो जाता है। द्रगमन (शूद्रस्त्री से यौन सम्बन्ध बनाने) के पाप से मुक्त हो जाता है। यदि वह ब्रह्मचारी न भी हो, तो (पाठ करने से) वह ब्रह्मचारी (के सदृश तेजोमय) हो जाता है। पंक्तियों में यदि उसने सहस्त्रो बार भी अपेय पदार्थों का पान किया है, तो भी (वह) पाठ करने से पवित्र हो जाता है। आठ ब्राह्मणों को इस गायत्री रहस्य को ग्रहण करवा कर अर्थात् बता-समझाकर (वह) ब्रह्मलोक को गमन कर जाता है, ऐसा भगवान् ब्रह्माजी ने याज्ञवल्क्य ऋषि से कहा ॥


इति: गायत्री रहस्योपनिषद् समाप्त ॥

Post a Comment

0 Comments