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अथर्वशिर उपनिषद्
अथर्वशिर उपनिषद् अथर्ववेदीय शाखा
के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित है। इसके रचियता
वैदिक काल के ऋषियों को माना जाता है परन्तु मुख्यत वेदव्यास जी को कई उपनिषदों का
लेखक माना जाता है। अथर्ववेद से सम्बन्धित इस उपनिषद में देवगणों द्वारा 'रुद्र' की परमात्मा-रूप में उपासना की गयी है। साथ
ही सत, रज, तम, त्रय
गुणों तथा मूल क्रियाशील तत्त्व आप: (जल) की उत्पत्ति और उससे सृष्टि के विकास का
वर्णन किया गया है।
अथर्वशिर उपनिषद्
॥शान्ति पाठ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाँ
सस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः॥
स्वस्ति न ऽइन्द्रो वृद्धश्रवाः
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
भावार्थ- हे देव ! हम कानों से
कल्याणकारी बातें सुनें, आँखों से
कल्याणकारी (दृश्य) देखें, हम हृष्ट-पुष्ट अंगों और शरीर से
ईश्वर द्वारा प्रदत्त पूरी आयु देवहित कार्यों में बिताएँ। महान् कीर्ति सम्पन्न
देवराज इन्द्र हमारा कल्याण करें। सर्वज्ञाता पूषा देवता हमारा कल्याण करें।
अरिष्टनेमि (जिसकी गति अवरुद्ध न की जा सके), तार्क्ष्य
(गरुड़) तथा बृहस्पतिदेव हमारा कल्याण करें। त्रिविध तापों की शान्ति हो।
अथर्वशिर उपनिषद्
देवा ह वै स्वर्गं लोकमायँस्ते देवा रुद्रमपृच्छन्को भवानिति । सोऽब्रवीदहमेकः प्रथममासं वर्तामि च भविष्यामि च नान्यः कश्चिन्मत्तो व्यतिरिक्त इति । सोऽन्तरादन्तरं प्राविशत् दिशश्चान्तरं प्राविशत् सोऽहं नित्यानित्योऽहं व्यक्ताव्यक्तो ब्रह्माहमब्रह्माहं प्राञ्चः प्रत्यञ्चोऽहं दक्षिणाञ्च उदञ्चोऽहं अधश्चोर्ध्वं चाहं दिशश्च प्रतिदिशश्चाहं पुमानपुमान् स्त्रियश्चाहं गायत्र्यहं सावित्र्यहं सरस्वत्यहं त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप् चाहं छन्दोऽहं गार्हपत्यो दक्षिणाग्निराहवनीयोऽहं सत्योऽहं गौरहं गौर्यहमृगहं यजुरहं सामाहमथर्वाङ्गिरसोऽहं ज्येष्ठोऽहं श्रेष्ठोऽहं वरिष्ठोऽहमापोऽहं तेजोऽहं गुह्योऽहमरण्योऽहमक्षरमहं क्षरमहं पुष्करमहं पवित्रमहमग्रं च मध्यं च बहिश्च पुरस्ताज्जयो-तिरित्यहमेव सर्वे मामेव स सर्वे स मां यो मां वेद स देवान्वेद स सर्वांश्च वेदान्साङ्गानपि ब्रह्म ब्राह्मणैश्च गां गोभिर्ब्राह्मणान्ब्राह्मण्येन हविर्हविषा आयुरायुषा सत्येन सत्यं धर्मेण धर्मं तर्पयामि स्वेन तेजसा। ततो ह वै ते देवा रुद्रमपृच्छन् ते देवा रुद्रमपश्यन्। ते देवा रुद्रमध्यायंस्ततो देवा ऊर्ध्वबाहवो रुद्रं स्तुन्वन्ति ॥१॥
भावार्थ- एक समय देवताओं ने
स्वर्गलोक में जाकर रूद्र से पूछा- आप कौन हैं? रुद्र
ने उत्तर दिया- मैं एक हूँ, भूतकाल हूँ, वर्तमान काल हूँ और भविष्यकाल भी मैं ही हूँ। मेरे अतिरिक्त और कुछ भी
नहीं है। जो अन्तर के भी अन्तर में विद्यमान है, जो समस्त
दिशाओं में सन्निविष्ट है, वह मैं ही हूँ। मैं ही नित्य और
अनित्य, व्यक्त और अव्यक्त, ब्रह्म और
अब्रह्म हूँ। मैं ही प्राची (पूर्व) और प्रतीची (पश्चिम), उत्तर
और दक्षिण, ऊर्ध्व और अध: आदि दिशाएँ तथा विदिशाएँ हूँ।
पुमान् (पुरुष), अपुमान् (अपुरुष) और स्त्री भी मैं ही हूँ।
मैं ही गायत्री, सावित्री और सरस्वती हूँ। त्रिष्टुप् जगती
और अनुष्टुप आदि छन्द भी मैं ही हूँ। मैं गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि
और आहवनीय अग्नि हूँ। मैं सत्य, गौ, गौरी,
ज्येष्ठ, श्रेष्ठ और वरिष्ठ हूँ। आपः और तेजस्
भी मैं ही हूँ। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद
और अथर्ववेद भी मैं ही हूँ। अक्षर-क्षर गोप्य (छिपाने योग्य) और गुह्य (छिपाया
हुआ) भी मैं हूँ। अरण्य, पुष्कर (तीर्थ), पवित्र मैं हूँ। अग्र, मध्य, बाह्य
और पुरस्ताद् (पूर्व) आदि दसों दिशाओं में अवस्थित और अनवस्थित ज्योतिरूप शक्ति
मुझे ही मानना चाहिए और सब कुछ मुझमें ही व्याप्त जानना चाहिए। इस प्रकार जो मुझे
जानता है, वह समस्त देवों और अङ्गों सहित समस्त वेदों को
जानता है। मैं गौओं को गोत्व से, ब्राह्मणों को ब्राह्मणत्व
से, हवि को हविष्य से, आयु को आयुष्य
से, सत्य को सत्यता से, धर्म को धर्म
तत्त्व से तृप्त करता हूँ। यह सुनकर देवगणों ने रुद्र को देखा और उनका ध्यान करने
लगे । तत्पश्चात् भुजाएँ उठाकर इस प्रकार स्तुति की ॥
ॐ यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च ब्रह्मा
तस्मै वै नमो नमः ॥ १॥ यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च विष्णुस्तस्मै वै नमो नमः ॥२॥ यो
वै रुद्रः स भगवान्यश्च स्कन्दस्तस्मै वै नमो नमः ।। ३ ।। यो वै रुद्रः स
भगवान्यश्चेन्द्रस्तस्मै वै नमो नमः ॥४॥ यो वै रुद्रः स भगवान्यश्चग्निस्तस्मै वै
नमो नमः ।। ५ ।। यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च वायुस्तस्मै वै नमो नमः ।। ६ ।। यो वै
रुद्रः स भगवान्यश्च सूर्यस्तस्मै वै नमो नमः ॥ ७॥ यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च
सोमस्तस्मै वै नमो नमः ॥ ८॥ यो वै रुद्रः स भगवान्ये चाष्टौ ग्रहास्तस्मै वै नमो
नमः ॥ ९॥ यो वै रुद्रः स भगवान्ये चाष्टौ प्रतिग्रहास्तस्मै वै नमो नमः ॥ १०॥ यो
वै रुद्रः स भगवान्यच्च भूस्तस्मै वै नमो नमः ॥ ११ ॥ यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च
भुवस्तस्मै वै नमो नमः॥ १२॥ यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च स्वस्तस्मै वै नमो नमः ॥
१३॥ यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च महस्तस्मै वै नमो नमः॥ १४॥ यो वै रुद्रः स भगवान्या
च पृथिवी तस्मै वै नमो नमः ॥ १५॥ यो वै रुद्रः स भगवान्यच्चान्तरिक्षं तस्मै वै
नमो नमः ।। १६ । यो वै रुद्रः स भगवान्या च द्यौस्तस्मै वै नमो नमः ॥ १७॥ यो वै
रुद्रः स भगवान्याशापस्तस्मै वै नमो नमः ॥ १८॥ यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च
तेजस्तस्मै वै नमो नमः ॥ १९॥ यो वै रुद्रः स भगवान्यच्चाकाशं तस्मै वै नमो नमः ॥
२० ॥ यो वै रुद्रः स । भगवान्यश्च कालस्तस्मै वै नमो नमः ॥ २१॥ यो वै रुद्रः स
भगवान्यश्च यमस्तस्मै वै नमो नमः ।। २२ । यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च मृत्युस्तस्मै
वै नमो नमः ॥ २३॥ यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च मृत्युतस्मै वै नमो नमः ॥ २४॥ यो वै
रुद्रः स भगवान्यच्चामृतं विश्वं तस्मै वै नमो नमः ॥ २५ ॥ यो वै रुद्रः स
भगवान्यच्च स्थूलं तस्मै वै नमो नमः ॥ २६ ॥ यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च सूक्ष्मं
तस्मै वै नमो नमः ॥ २७॥ यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च शुक्लं तस्मै वै नमो नमः ॥ २८ ॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च कृष्णं तस्मै वै नमो नमः ॥ २९॥ यो वै रुद्रः स
भगवान्यच्च कृत्स्नं तस्मै वै नमो नमः ॥ ३०॥ यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च सत्यं
तस्मै वै नमो नमः ॥ ३१॥ यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च सर्वं तस्मै वै नमो नमः ॥ २॥
भावार्थ- हे भगवान् रुद्र! आप
ब्रह्मा स्वरूप हैं, आपको नमन है। हे
भगवान् रुद्र! आप विष्णु स्वरुप हैं, आपको नमस्कार है। हे
भगवान् रुद्र! आप स्कन्द रूप हैं, आपको नमन है। आप इन्द्र
स्वरूप, अग्नि स्वरूप, वायु स्वरुप और
सूर्य स्वरुप है, आपको नमन है। हे भगवान ! आप सोम स्वरूप हैं।
अष्टग्रह स्वरुप, प्रतिग्रह स्वरुप हैं, आपको नमस्कार है। आप भूः स्वरूप, भुवः स्वरूप,
स्वः स्वरूप और महः स्वरूप हैं, आपको नमन है।
हे रुद्र भगवान् ! आप पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्यौ, आप और आकाश रूप है, आपको
नमस्कार है। हे रुद्र भगवान्! आप विश्वरूप, स्थूलरूप,
सूक्ष्मरूप, कृष्ण और शुक्ल स्वरूप है,
आपको नमन है। आप सत्यरूप और सर्वस्वरूप हैं, आपको
बारम्बार नमन है॥
भूस्ते आदिर्मध्यं भुवस्ते स्वस्ते
शीर्षं विश्वरूपोऽसि ब्रह्मैकस्त्वं द्विधा त्रिधा बद्धस्त्वं शान्तिस्त्वं
पुष्टिस्त्वं दत्तमदत्तं दत्तमदत्तं सर्वमसर्वं विश्वमविश्वं कृतमकृतं परमपरं
परायणं च त्वम्।अपाम सोभममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान्।किं
नूनमस्मान्कृणवदरातिः किमु धूर्तिरमृतं मर्त्यस्य च॥३॥
भावार्थ- हे रुद्र भगवान् ! भूः,
भुवः और स्वः लोक क्रमशः आपके नीचे, मध्य और
शीर्ष के लोक हैं। आप विश्वरूप हैं और एक मात्र ब्रह्म हैं; किन्तु
भ्रमवश दो और तीन संख्या वाले प्रतीत होते हैं। आप वृद्धि स्वरूप, शान्तिस्वरूप, पुष्टिरूप, हुत-अहुतरूप,
दत्तरूप-अदत्तरूप,सर्वरूप-असर्वरूप, विश्व-अविश्वरूप, कृतरूप अकृतरूप, पर- अपररूप और परायणरूप हैं। आपने हमें (देवों को) अमृत स्वरूप सोमपान कराकर
अमृतत्व प्रदान किया है। हम ज्योति स्वरूप होकर ज्ञान को प्राप्त हुए हैं। अब
कामादि शत्रु हमें क्षति नहीं पहुँचा सकते। आप मर्त्यों (मनुष्यों) के लिए अमृत
तुल्य हैं।
[सोम स्थूल ही नहीं, सूक्ष्म दिव्य ज्ञान रूप भी है। सोम रूप ज्ञान को आत्मसात् करके साधक स्वयं
ज्योतित हो जाता है। तब दिव्य ज्ञान के साथ स्वाभाविक रूप से योग होता है और
कामादि विकार प्रभावी नहीं हो पाते।]
सोमसूर्य पुरस्तात् सूक्ष्मः पुरुषः
। सर्वं जगद्धितं वा एतदक्षरं प्राजापत्यं सौम्यं सूक्ष्म पुरुषमग्राह्यग्राह्येण
भावं भावेन सौम्यं सौम्येन सूक्ष्मं सूक्ष्मेण वायव्यं वायव्येन ग्रसति स्वेन
तेजसा तस्मा उपसंहर्त्रे महाग्नासाय वै नमो नमः । हृदिस्था देवताः सर्वा हृदि
प्राणा: प्रतिष्ठिताः॥४॥
भावार्थ-हे देव! आप सोम (चन्द्र) और
सूर्य से भी पूर्व उत्पन्न सूक्ष्म पुरुष हैं। आप सम्पूर्ण जगत् का हित करने वाले,
अक्षर रूप, प्राजापत्य (प्रजापतियों द्वारा
स्तुत्य), सूक्ष्म, सौम्य पुरुष हैं,
जो अपने तेज से अग्राह्य को अग्राह्य से, भाव
को भाव से, सौम्य को सौम्य से, सूक्ष्म
को सूक्ष्म से, वायु को वायु से ग्रस लेते हैं, ऐसे महाग्रास करने वाले आप (रुद्र भगवान्) को नमस्कार है। सभी हृदयों में
देवगण, प्राण और आप विराजते हैं।
[मनुष्य के अनम् में जीवन
ऊर्जारुप प्राणों, दिव्य संवेदना रूप देवगणों तथा आत्म चेतन
रुप में परमात्मा का आवास ऋषि अनुभव करते हैं। उन्हें उनसे सम्बन्धित अनुशासों के
माध्यम से सक्रिय एवं फलित किया जा सकता है।]
हदि त्वमसि यो नित्यं तिस्त्रो
मात्राः परस्तु सः। तस्योत्तरत: शिरो दक्षिणतः पादौ य उत्तरतः स ओङ्कारः य ओङ्कारः
स प्रणवो यः प्रणवः स सर्वव्यापी यः सर्वव्यापी सोऽनन्तो। योऽनन्तस्तत्तारं
यत्तारं तत्सूक्ष्मं यत्सूक्ष्मं तच्छुक्लं यच्छुक्लं तद्वैद्युतं यद्वैद्युतं
तत्परं ब्रह्म यत्परं ब्रह्म स एकः य एकः स रुद्रो यो रुद्रः स ईशानो य ईशानः स
भगवान महेश्वरः ॥५॥
भावार्थ- हृदय में विराजते हुए (वह)
आप तीनों मात्राओं (अ, उ, म्) से परे हैं। (हृदय के) उत्तर में उसका सिर है, दक्षिण
में पाद हैं, जो उत्तर में विराजमान है, वही ओंकार है। ओंकार को ही ‘प्रणव' कहते हैं और प्रणव ही सर्वव्यापी है। वह सर्वव्यापी प्रणव हो अनन्त है। जो
अनन्त है, वही तारक स्वरूप है। जो तारक है, वही सूक्ष्म स्वरूप है। जो सूक्ष्म स्वरूप है, वही
शुक्ल है। जो शुक्ल (प्रकाशित) है, वही विद्युत् (विशेष रूप
से द्युतिमान्) है। जो विद्युत् है, वही परब्रह्म है। जो
परब्रह्म है, वही एक रूप है। जो एक रूप है, वही रुद्र है। जो रुद्र है, वहीं ईशानरूप है। जो
ईशान है, वही भगवान् महेश्वर है॥
[ऋषि यहाँ ‘स्व’-जीव चेतना, ईश- नियामक
चेतना तथा महेश्वर-परमात्म चेतना तीनों की एकरूपता का आभास करा रहे हैं ।]
अथ कस्मादुच्यत ओङ्कारो
यस्मादुच्चार्यमाण एवं प्राणानूर्ध्वमुत्क्रामयति तस्मादुच्यते ओङ्कारः। अथ
कस्मादुच्यते प्रणवः यस्मादुच्चार्यमाण एव ऋग्यजुःसामाथर्वाङ्गिरसो ब्रह्म
ब्राह्मणेभ्यः प्रणामयति नामयति च तस्मादुच्यते प्रणवः। अथ कस्मादुच्यते
सर्वव्यापी यस्मादुच्चार्यमाण एव सर्वान् लोकान् व्याप्नोति स्न्नेहो यथा
पललपिण्डमिव शान्तरूपमोतप्रोतमनुप्राप्तो व्यतिषिक्तश्च तस्मादुच्यते सर्वव्यापी।
अथ कस्मादच्यतेऽनन्तो यस्मादुच्चार्यमाण एव तिर्यगूर्ध्वमधस्ताच्चास्यान्तो
नोपलभ्यते तस्मादुच्यतेऽनन्तः । अथ कस्मादुच्यते तारं यस्मादुच्चार्यमाण एव
गर्भजन्मव्याधिजरामरणसंसारमहाभयात्तारयति त्रायते च तस्मादुच्यते तारम् । अथ
कस्मादुच्यते शुक्लं यस्मादुच्चार्यमाण एवं क्लन्दते क्लामयते च तस्मादुच्यते
शुक्लम्। अथ कस्मादुच्यते सूक्ष्मं यस्मादुच्चार्यमाण एवं सूक्ष्मो भूत्वा
शरीराण्यधितिष्ठति सर्वाणि चाङ्गान्यभिमृशति तस्मादुच्यते सूक्ष्मम् । अथ
कस्मादुच्यते वैद्युतं यस्मादुच्चार्यमाण एवाव्यक्ते महति तमसि द्योतयते
तस्मादुच्यते वैद्युतम्। अथ कस्मादुच्यते परं ब्रह्म यस्मात्परमपरं परायणं च
बृहद्बृहत्या बृंहयति तस्मादुच्यते परं ब्रह्म । अथ कस्मादुच्यते एको यः
सर्वान्प्राणान्संभक्ष्य संभक्षणेनाजः संसृजति विसृजति च। तीर्थमेके व्रजन्ति
तीर्थमेके दक्षिणाः प्रत्यञ्च उदञ्च:प्राञ्चोऽभिव्रजन्त्येके तेषां सर्वेषामिह
संगतिः । साकं स एको भूतश्चरति प्रजानां तस्मादुच्यत एकः । अथ कस्मादुच्यते रुद्रः
यस्मादृषिभिर्नान्यैर्भक्त्तैर्द्रुतमस्य रूपमुपलभ्यते तस्मादुच्यते रुद्रः । अथ
कस्मादुच्यते ईशानः यः सर्वान्देवानीशते ईशनीभिर्जननीभिश्च परम शक्तिभिः। अभि त्वा
शूर नोनुमो दुग्धा इव धेनवः । ईशानमस्य जगतः स्वर्दृशमीशानमिन्द्र तस्थुष इति
तस्मादुच्यत ईशानः। अथ कस्मादुच्यते भगवान्महेश्वरः यस्माद्भक्ताज्ञानेन
भजन्त्यनुगृह्णाति च वाचं संसृजति विसृजति च सर्वान्भावान्यरित्यज्यात्मज्ञानेन
योगैश्वर्येण महति महीयते तस्मादुच्यते भगवान्महेश्वरः । तदेतद्रुद्रचरितम्॥६॥
भावार्थ- ॐकार किस कारण से कहा जाता
है?
यह इसलिए कहा जाता है कि ॐकार उच्चारित करने में श्वास (प्राणों) को
ऊपर की ओर खींचना पड़ता है। प्रणव इसलिए कहा जाता है कि इसका उपयोग (उच्चारण) ऋक्,
यजुः, साम, अथर्वाङ्गिरस
और ब्राह्मणों को प्रणाम करने के लिए किया जाता है। इसीलिए इसका नाम ‘प्रणव’ ऐसा हुआ है। इसे सर्वव्यापी क्यों कहा जाता
है? इसलिए कि जिस प्रकार तिल में तेल विद्यमान (संव्याप्त)
है, उसी प्रकार यह अव्यक्त रूप से सम्पूर्ण सृष्टि में
व्याप्त है, इसी कारण ‘सर्वव्यापी’
ऐसा कहा जाता है। इसका नाम अनन्त इसलिए है कि इस ‘शब्द’ का उच्चारण करते हुए ऊपर-नीचे और तिरछे कहीं
भी इसका अन्त प्रतीत नहीं होता।‘तारक’ नाम
इसलिए दिया गया है कि यह गर्भ, जन्म, व्याधि,
वृद्धावस्था और मरण से युक्त संसार के भय से तारने वाला है। इसका
नाम ‘शुक्ल’ इसलिए है कि यह स्व
प्रकाशित है, अन्यों के लिए प्रकाशक है। इसे ‘सूक्ष्म’ इस कारण कहा जाता है कि इसका उच्चारण करने
पर यह सूक्ष्म स्वरूप होकर स्थावर आदि सभी शरीरों में अधिष्ठित होता है। इसे ‘वैद्युत’ कहने का कारण यह है कि इसका उच्चारण करने
से घोर अन्धकार (अज्ञान) को स्थिति में भी समग्र काया (स्थूल, सूक्ष्म, कारण आदि) विशेष रुप से द्युतिमान् हो जाती
है। परब्रह्म कहने का कारण यह है कि वह पर, अपर और परायण (इन
तीनों) बृहत् (ध्यापक घटकों) को बृहत्या (विशालता के माध्यम से) व्यापक बनाता है।
[ऋषि द्वारा परमात्म-सत्ता को
परब्रह्म कहने का तात्पर्य प्रकट किया गया है- पर+ब्रह्म के संयोग से परब्रह्म बना
है। जो पर( अव्यक्त ) है तथा जो अपर ( व्यक्त) है, वे एक
दूसरे के परायण-एक दूसरे के प्रति जागरूक- परस्पर पूरक हैं। इस भाव को प्रथम पद ‘पर’ से प्रकट किया गया है। जो बृहत्-विशाल है तथा
विशालता ( संकीर्णता से मुक्तभाव) से सभी घटकों को व्यापकता प्रदान करता है,
उसके लिए दूसरा पद ‘ब्रह्म’ प्रयुक्त किया गया है।]
इसे (ब्रह्म को) एक इसलिए कहा जाता
है कि यह समस्त प्राणों का भक्षण करके ‘अज’
स्वरूप होकर उत्पत्ति और संहार करता है। समस्त तीर्थों में वह 'एक' ही (तत्त्व) विद्यमान है। अनेक लोग पूर्व,
पश्चिम, उत्तर और दक्षिण के विभिन्न तीर्थों
में परिभ्रमण करते हैं। वहाँ भी उनकी सद्गति का कारण वह एक ही (तत्त्व) है। समस्त
प्राणियों में एक रूप में निवास करने के कारण उस तत्त्व को ‘एक’
कहते हैं।‘रुद्र’ इसलिए
कहा जाता है कि इसके स्वरूप का ज्ञान ऋषियों को सहज ही हो सकता है। सामान्य जनों
को इसका ज्ञान हो सकना कठिन है।‘ईशान’ क्यों
कहते हैं? इसलिए कि वह समस्त देवों और उनकी शक्तियों पर अपना
प्रभुत्व (ईशत्व) रखता है। (सों हे रुद्र!) आप शूर की हम उसी प्रकार स्तुति करते
हैं, जिस प्रकार दुग्ध प्राप्त करने के लिए गौ को प्रसन्न
किया जाता है। ( हे रुद्र!) आप ही इन्द्र रूप होकर स्थावर-जंगम संसार के ईश और
दिव्य दृष्टि सम्पन्न हैं, इसी कारण आपको ‘ईशान’ नाम से सम्बोधित किया जाता है। आपको भगवान्
महेश्वर क्यों कहते हैं? इसलिए कि जो भक्तजन ज्ञान पाने के
लिए आपका भजन करते हैं और आप उन पर कृपा- वर्षण करते हैं, वाक्
शक्ति का प्रादुर्भाव करते हैं, साथ ही समस्त भावों का
परित्याग करके आत्मज्ञान और योग के ऐश्वर्य से अपनी महिमा में स्थित रहते हैं,
इसीलिए आपको ‘महेश्वर’ कहा
जाता है। इस प्रकार इस रुद्र के चरित का वर्णन हुआ॥
एषो हदेवः प्रदिशो नु सर्वाःपूर्वो
ह जातः स उ गर्भे अन्तः । स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः
।एको रुद्रो न द्वितीयाय तस्मै य इमाँल्लोकानीशत ईशनीभिः। प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति
संचुकोचान्तकाले संसृन्य विश्वा भुवनानि गोप्ता । यो योनि योनिमधितिष्ठत्येको
येनेदं संचरति विचरति सर्वम्। तमीशानं वरदं देवमीडयं निचाय्येमां
शान्तिमत्यन्तमेति। क्षमां हित्वा हेतुजालस्य मूलं बुद्ध्या संचितं स्थापयित्वा तु
रुद्रे रुद्रमेकत्वमाहुः । शाश्वतं वै पुराणमिषमूर्जेन पशवोऽनुनामयन्तं
मृत्युपाशान्। तदेतेनात्मन्नेतेनार्धचतुर्थमात्रेण शान्तिं संसृजति पाशविमोक्षणम्।
या सा प्रथमा मात्रा ब्रह्मदेवत्या रक्ता वर्णन यस्तां ध्यायते नित्यं स
गच्छेद्वाह्यं पदम्। या सा द्वितीया मात्रा विष्णुदेवत्या कृष्णा वर्णन यस्तां
ध्यायते नित्यं स गच्छेद्वैष्णवं पदम्। या सा तृतीया मात्रा ईशानदेवत्या कपिला
वर्णन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेदैशानं पदम्। या साऽर्धचतुर्थी मात्रा
सर्वदेवत्याऽव्यक्तीभूता खं विचरति शुद्धस्फटिकसन्निभा वर्णेन यस्तां ध्यायते
नित्यं स गच्छेत्पदमनामयम् तदेतमुपासीत मुनयोऽर्वाग्वदन्ति न तस्य ग्रहणमयं पन्था
विहित उत्तरेण येन देवा यान्ति येन पितरो येन ऋषयः परमपरं परायणं चेति ।
बालाग्रमात्रं हृदयस्य मध्ये विश्वं देवं जातरूपं वरेण्यम्।तमात्मस्थं ये नु
पश्यन्ति धीरास्तेषां शान्तिर्भवति नेतरेषाम् । यस्मिन्क्रोधं यां च तृष्णां
क्षमां च तृष्णां हित्वा हेतुजालस्य मूलम्। बुद्धया संचितं स्थापयित्वा तु रुद्रे रुद्रमेकत्वमाहुः
। रुद्रो हि शाश्वतेन वै पुराणेनेषमूर्जेण तपसा नियन्ता। अग्निरिति भस्म वायुरिति
भस्म जलमिति भस्म स्थलमिति भस्म व्योमेति भस्म सर्वहँ वा इदं भस्म मन एतानि
चक्षुंषि भस्मानि यस्माद्व्रतमिदं पाशुपतं यद्भस्मनाङ्गानि
संस्पृशेत्तस्माद्ब्रह्म तदेतत्पाशुपतं पशुपाशविमोक्षणाय ॥७॥
भावार्थ- एक ही ऐसा देवता है,
जो समस्त दिशाओं में निवास करता है। सर्वप्रथम उसी का आविर्भाव हुआ।
वही मध्य और अन्त में स्थित है। वही उत्पन्न होता है और आगे भी उत्पन्न होगा।
प्रत्येक में वही संव्याप्त हो रहा है। अन्य कोई नहीं, केवल
एक रुद्र ही इस लोक का नियमन (नियंत्रण) कर रहा है। समस्त प्राणी उसी के अन्दर
निवास करते हैं और अन्ततः सबका उसी में विलय भी होता है। विश्व का उद्भव और
संरक्षण- कर्ता भी वही है, जो समस्त जीवों में संव्याप्त हो
रहा है और समस्त प्राणी जिसमें संव्याप्त हो रहे हैं। उस ‘ईशान’
देव के ध्यान से मनुष्य को परम शान्ति का लाभ मिल सकता है। समस्त
प्रपञ्चो के हेतु भूत- अज्ञान का परित्याग करके संचित कर्मों को बुद्धि के द्वारा
रुद्र में अर्पित करके परमात्मा का एकत्व प्राप्त होता है। जो शाश्वत और पुराण
पुरुष अपनी सामर्थ्य से अन्न आदि प्रदान करके प्राणियों को मृत्युपाश से मुक्त
करता है। यही आत्मज्ञान प्रदान करने वाला ॐ चतुर्थ मात्रा से शान्ति प्रदाता और
बन्धन मुक्ति प्रदाता है। उन रुद्रदेव की प्रथम मात्रा ब्रह्मा की है, जो लाल वर्ण की है, उसके नियमित ध्यान से ब्रह्मपद
प्राप्त होता है। दूसरी मात्रा विष्णु की है, जो कृष्ण वर्ण
की है, उसके नियमित ध्यान से विष्णु पद की प्राप्ति होती है।
तृतीय मात्रा ईशान की है, जिसका वर्ण पीला है, उसका ध्यान करने से ईशान पद की प्राप्ति होती है। जो अर्ध चतुर्थ मात्रा
है, वह समस्त देवों के रूप में अव्यक्त होकर आकाश में विचरण
करती है, वह शुद्ध स्फटिक मणि के वर्ण की है, जिसके ध्यान से मुक्ति प्राप्त होती है। मनीषियों का कहना है कि इस अर्ध
मात्रा की उपासना ही उचित है; क्योंकि इससे कर्मों के बन्धन
कट जाते हैं। इस उत्तरायण (उत्तरी मार्ग) से ही देव, पितर और
ऋषिगण गमन करते हैं। यही पर, अपर तथा परायण मार्ग है। बाल के
अग्रभाग के तुल्य, सूक्ष्म रूप से हृदय में निवास करने वाले,
विश्वरूप, देवरूप, समस्त
उत्पन्न हुए लोगों को जानने वाले श्रेष्ठ परमात्मा को जो ज्ञानी जन अपने अन्दर
देखते हैं, वे ही शान्ति प्राप्त करते हैं, अन्य किसी को वह शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती। तृष्णा, क्रोध आदि हेतु समूह के मूल का परित्याग करके संचित कर्मों का
बुद्धिपूर्वक रुद्र में स्थापन करने से रुद्र से एकत्व प्राप्त होता है। रुद्र ही
शाश्वत और पुराण (प्राचीन) हैं। अस्तु, वे अपनी शक्ति और तप
से सबके नियंत्रक हैं। अग्नि, वायु, जल,
स्थल (भूमि) और आकाश ये सभी भस्म रूप हैं। भगवान् पशुपति (बंधन से
बंधे प्राणियों के स्वामी) को भस्म का जिसके अङ्ग में स्पर्श नहीं हुआ, वह भी भस्म के समान ही है। इस प्रकार पशुपति रुद्र की ब्रह्मरूप-भस्म पशु
(प्राणियों) के बन्धनों को काटने वाली है ॥
[पदार्थ अपने रूप में इसलिए रहता
है कि उसमें कणों को जोड़े रहने वाली प्रवृत्ति सक्रिय होती है। भस्म बनने पर उसका
वह रूप समाप्त हो जाता है; क्योंकि उसकी वह बाँधे रहने वाली
क्षमता समाप्त हो जाती है। पशुपति के रूप में वही आदि सत्ता जीव को काया के साथ
बाँधे रहती है तथा ब्रह्मरूप में वही सत्ता बाँधे रहने की प्रवृत्ति से मुक्त रहती
है, इसीलिए परब्रह्म को रूप, गुण के
बन्धन से मुक्त भस्मरूप कहा गया है।]
योऽग्नौ रुद्रो योऽप्स्वन्तर्य
ओषधीवरुध आविवेश। य इमा विश्वा भुवनानि चक्लृपे तस्मै रुद्राय नमोऽस्त्वग्नये । यो
रुद्रोऽग्नौ यो रुद्रोप्स्वन्तर्यो रुद्र ओषधीर्वीरुध आविवेश । यो रुद्र इमा
विश्वा भुवनानि चक्लुपे तस्मै रुद्राय वै नमो नमः । यो रुद्रोऽप्सु यो रुद्र
ओषधीषु यो रुद्रो वनस्पतिषु । येन रुद्रेण जगवं धारितं पृथिवी द्विधा त्रिधाधर्ता
धारिता नागा येऽन्तरिक्षे तस्मै रुद्राय वै नमो नमः । मूर्धानमस्य संसीव्याथर्वा
हृदयं च यत्। मस्तिष्कादुर्ध्वं प्रेरयन्। पवमानोऽधि शीर्षतः । तद्वा अथर्वणः शिरो
देवकोशः समुज्झितः। तत्प्राणोऽभिरक्षति शिरोऽन्तमथो मनः। न च दिवो देवजनेन गुप्ता
नचान्तरिक्षाणि न च भूम इमाः । यस्मिन्निदं सर्वमोतप्रोतं यस्मादन्यन्न परं
किंचनास्ति। न तस्मात्पूर्वं न परं तदस्ति न भूतं नोत भव्यं यदासीत्।
सहस्त्रपादेकमूर्ध्नां व्याप्तं स एवेदमावरीवर्ति भूतम्। अक्षरात्संजायते कालः
कालाद्व्यापक उच्यते । व्यापको हि भगवान्रुद्रो भोगायमानो यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते
प्रजाः । उच्छवसिते तमो भवति तमस आपोऽप्स्वङ्गुल्या मथिते मथितं शिशिरे शिशिरं
मध्यमानं फेनो भवति, फेनादण्डं
भवत्यण्डाद्ब्रह्मा भवति, ब्रह्मणो वायुः वायोरोंकार
ॐकारात्सावित्री सावित्र्या गायत्री गायत्र्या लोका भवन्ति। अर्चयन्ति तपः सत्यं
मधु क्षरन्ति यदध्रुवम् । एतद्धि परमं तप आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः
स्वरों नम इति ॥८॥
भावार्थ- जो रुद्र,
अग्नि और जल में निवास करते हैं। वे ही ओषधियों और वनस्पतियों में
भी प्रविष्ट हो गये हैं। जिनके द्वारा यह समस्त विश्व उत्पन्न हुआ है, उन अग्नि रूप रुद्र को नमन है। जो रुद्रदेव, अग्नि,
ओषधियों तथा वनस्पतियों में वास करते हैं और जिनके द्वारा विश्व और
समस्त भुवनों का सृजन किया जाता है, उन्हें नमस्कार है। जो
रुद्रदेव जल, वनस्पतियों और ओषधियों में विराजमान हैं,
जिनके द्वारा यह समस्त जगत् धारण किया गया है, जो रुद्र द्विधा (शिव और शक्ति) तथा त्रिधा (सत्, रज,
तम) से इस पृथिवी को संचालित करते हैं, जिनने
नागों (बादलों) को अन्तरिक्ष में प्रतिष्ठित कर रखा है, उन्हें
नमन है। भगवान् रुद्र की प्रणवरूप मूर्धा की उपासना करने वाले अथर्वा को उच्च
स्थिति प्राप्त करते हैं और उपासना न करने वाले निम्न स्थिति में ही रहते हैं।
समस्त देवताओं का सामूहिक स्वरूप रुद्र भगवान् का सिर ही है। उनका प्राण मन और
मरतक का रक्षक है। पृथिवी, आकाश अथवा स्वर्ग का संरक्षण करने
में देवता स्वयं समर्थ नहीं हैं। सभी कुछ रुद्र भगवान् में ही समाहित है, उनसे परे कुछ भी नहीं है, उनसे पूर्व भी कुछ नहीं
था। उनसे पूर्व भूतकाल में और उनसे आगे (भविष्यत्काल) में भी कुछ नहीं
है।सहस्त्रपद और एक मस्तक वाले रुद्र समस्त भूतों में संव्याप्त हैं।
[रुद्र का संकल्प निर्धारण एक ही
है। अस्तु,उन्हें एक सिर वाला कहा गया है। उनकी गतिशीलता के
हजारों पक्ष हैं, इसलिए उन्हें सहस्त्रपाद कहा गया है।]
अक्षर से काल की उत्पत्ति होती है
और काल से यह व्यापक कहलाता है। व्यापक और शोभायमान रुद्र जब शयन करने लगते हैं,
तब समस्त प्रजा (प्राणि समुदाय) का संहार हो जाता है। जब भगवान्
रुद्र श्वास लेते हैं, तो तम उत्पन्न हो जाता है। तम से आपः
तत्त्व का प्रादुर्भाव होता है। उसे आपः को (रुद्र द्वारा) अपनी अङ्गुली द्वारा
मथे जाने पर शिशिर (आपः तत्त्व का जमा हुआ गाढ़ा रूप) उत्पन्न होता है। उस शिशिर
के मथे जाने पर फेन उत्पन्न होता है, फेन से अण्डा और अण्डे
से ब्रह्मा का प्रादुर्भाव होता है। तत्पश्चात् ब्रह्मा से वायु और वायु से ओंकार,
ओंकार से सावित्री प्रकट होती हैं। सावित्री से गायत्री और गायत्री
से लोकों का उद्भव होता है। जब वे (रुद्) तप करते हैं, तब
सत्यरूपी मधु क्षरित होता है, जो शाश्वत होता है। यह परम तप
है। आपः, ज्योतिः, रस, अमृत, ब्रह्म, भूः, भुवः और स्व: रूप परब्रह्म को नमस्कार है ॥
[इस कण्डिका में आप का अर्थ जल
करना उचित नहीं है। वेद में आपः को सृष्टि का मूल क्रियाशील तत्व कहा गया है। आप
की उसी अवधारणा से मन्त्र का भाव स्पष्ट होता है। इसी प्रकार शिशिर का अर्थ ऋतु
विशेष यह उचित नहीं है। शिशिर का अर्थ जमा हुआ भी होता है, इसी
भाब से मन्त्रार्थ स्पष्ट होता है। गाढ़े आपः तत्व को मथने से फेन अर्थात् फला
पदार्थ पैदा होता है। वेद और विज्ञान दोनों इस तथ्य से सहमत हैं कि प्रारम्भिक मूल
पदार्थ का घनत्व अत्यधिक मा। उसे फुलाकर हलका करने पर ही वह सृष्टि के योग्य बना।
ब्रह्माण्ड फेन रूप ही है। इसी प्रकार अणड का अर्थ अण्डा नहीं ब्रह्माण्ड ही उचित
है। प्रत्येक ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत सृजनशील ‘ब्रह्मा’
का विकास होता है, तब दृश्य सृष्टि बनती है।
वायु से ओंकार की उत्पत्ति भी विवेक सम्मत है। ओंकार एक ध्वनि विशेष है। ध्वनि की
उत्पत्ति वायु से ही होती है। इसी क्रम से ऋषि ने सृष्टि के विकास के चरण स्पष्ट
किये हैं।]
य इदमथर्वशिरो ब्राह्मणोऽधीते
अश्रोत्रियः श्रोत्रियो भवति अनुपनीत उपनीतो भवति सोऽग्निपूतो भवति स वायुपूतो
भवति स सूर्यपूतो भवति स सोमपूतो भवति स सत्यपूतो भवति स सर्वपूतो भवति स
सर्वैर्देवैज्ञतो भवति स सर्वैर्वेदैरनुध्यातो भवति स सर्वेषु तीर्थेषु स्नातो
भवति तेन सर्वेः क्रतुभिरिष्टं भवति गायत्र्याः षष्टिसहस्त्राणि जप्तानि भवन्ति
इतिहासपुराणानां रुद्राणां शतसहस्त्राणि जप्तानि भवन्ति। प्रणवानामयुतं जप्तं
भवति। आ चक्षुषः पडिंक्त पुनाति । आ सप्तमात्पुरुषयुगान्पुनातीत्याह भगवानथर्वशिरः
सकृज्जप्त्वैव शुचिः स पूतः कर्मण्यो भवति । द्वितीयं जप्त्वा गणाधिपत्यमवाप्नोति
। तृतीयं जप्त्वैवमेवानु-प्रविशत्यों सत्यमों सत्यम्॥९॥
भावार्थ- जो ब्राह्मण इस अथर्वशिर
उपनिषद् का अध्ययन करता है, वह श्रोत्रिय न हो,
तो भी श्रोत्रिय हो जाता है। अनुपवीत व्यक्ति, उपवीत सम्पन्न हो जाता है। वह अग्नि के समान, वायु
के समान, सूर्य के समान, सोम के समान
और सत्य के समान पवित्र हो जाता है। वह समस्त देवों का ज्ञाता, समस्त वेदों का अध्येता और समस्त तीर्थों का स्न्नातक हो जाता है, वह समस्त यज्ञों के पुण्य का फल तथा साठ हजार गायत्री मन्त्र के जप का फल
प्राप्त करता है। उसे इतिहास और पुराणों के अध्ययन का, एक
लक्ष रुद्र के जप का तथा दस हजार प्रणव के जप का प्रतिफल प्राप्त होता है। उसका
दर्शन पाकर लोग पवित्र हो जाते हैं। वह अपने पूर्व की सात पीढ़ियों का उद्धार कर
देता है। भगवान् ने कहा कि अथर्वशिर के एक बार के जप से साधक पवित्र होकर कल्याण
कर्म का अधिकारी बन जाता है। दूसरी बार जप करने से गाणपत्य पद प्राप्त करता है तथा
तृतीय बार जप करने से वह सत्यरूप ओंकार में प्रविष्ट हो जाता है। यह सत्यरूप ओंकार
ही (त्रिकाल) सत्य है॥
अथर्वशिर उपनिषद्
॥शान्ति पाठ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाँ
सस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः॥
स्वस्ति न ऽइन्द्रो वृद्धश्रवाः
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अथर्वशिर उपनिषद् समाप्त॥
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