रघुवंशम् तृतीय सर्ग

रघुवंशम् तृतीय सर्ग

इससे पूर्व महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् द्वितीय सर्ग में आपने... गुरु की आज्ञा से राजा-रानी नंदनी के दुध का पारणा कर घर को लौट गए और रानी सुदक्षिणा ने गर्भ धारण किया,यहाँ तक की कथा पढ़ा । अब इससे आगे की कथा रघुवंशम् तृतीय सर्ग में पढ़ेंगे- 

रघुवंशम् तृतीय सर्ग
Raghuvansham tritiya sarg

रघुवंशम् महाकाव्यम् । तृतीयः सर्गः।


रघुवंशं सर्ग ३ कालिदासकृतम् ॥


अथेप्सितं भर्तुरुपस्थितोदयं सखीजनोद्वीक्षणकौमुदीमुखम् ।

निदानमिक्ष्वाकुकुलस्य संततेः सुदक्षिणा दौहृदलक्षणं दधौ ॥ ३-१॥

उस के बाद रानी सुदक्षिणा ने जिसका समय उपस्थित हो गया है और जो स्वामी महाराज दिलीप का अभीष्ट है तथा सखी लोगों के नेत्रों को आह्लादित करने वाली चन्द्रिका का जो प्रादुर्भाव स्वरूप है और जो इक्ष्वाकु वंश के सन्तान (पुत्र) का मुख्य कारण है, ऐसे गर्भ के लक्षण जो कि आगे शरीर की कृशता आदि से कहे जायेंगे उसको धारण किया ॥१॥

शरीरसादादसमग्रभूषणा मुखेन सालक्ष्यत लोध्रपाण्डुना ।

तनुप्रकाशेन विचेयतारका प्रभातकल्पा शशिनेव शर्वरी ॥ ३-२॥

शरीर के कृश हो जाने के कारण से सारे आभूषणों को नहीं पहने हुई लोध्र के फूल के रङ्ग की तरह पाण्डु वर्ण वाले मुख से उपलक्षित (लक्ष्य की जाती हुई) उस रानी सुदक्षिणा को गिने जाने लायक (विरल) नक्षत्रों वाली थोड़ी कान्ति से युक्त चन्द्रमा से उपलक्षित सवेरा होने में थोड़ी ही देरी जिसमें है, ऐसी रात्रि के समान लोगों ने देखा ॥२॥

तदाननं मृत्सुरभि क्षितीश्वरो रहस्युपाघ्राय न तृप्तिमाययौ ।

करीव सिक्तं पृषतैः पयोमुचां शुचिव्यपाये वनराजिपल्वलम् ॥ ३-३॥

पृथ्वी के स्वामी राजा दिलीप ने एकान्त में मिट्टी के खाने से सुगन्ध युक्त उस सुदक्षिणा के मुख को सूंघ कर, गर्मी के अन्त में मेघों के बूंदों से सींचे हुए वन की कतारों के बीच में स्थित छोटे तालाब ( थोड़े जल वाले गड्ढे ) को सूंघ कर हाथी के समान तृप्ति को नहीं प्राप्त किया ॥३॥

दिवं मरुत्वानिव भोक्ष्यते भुवं दिगन्तविश्रान्तरथो हि तत्सुतः ।

अतोऽभिलाषे प्रथमं तथाविधे मनो बबन्धान्यरसान्विलङ्घ्य सा ॥ ३-४॥

क्योंकि दिशाओं के अन्त में रथ को विश्राम कराने (पहुँचाने) वाला (चक्रवत्ती) उस (सुदक्षिणा) का पुत्र इन्द्र जैसे स्वर्ग का भोग करता है उसी भांति पृथ्वी का भोग करेगा इस कारण से प्रथम उस (सुदक्षिणा) ने उस प्रकार के मिट्टी रूप भोग्य वस्तु में अन्य चखने लायक वस्तुओं को छोड़ कर मन लगाया ॥४॥

न मे ह्रिया शंसति किंचिदीप्सितं स्पृहावती वस्तुषु केषु मागधी ।

इति स्म पृच्छत्यनुवेलमादृतः प्रियासखीरुत्तरकोसलेश्वरः ॥ ३-५॥

मगध देश के राजा की लड़की रानी सुदक्षिणा लज्जा से किसी अभिलाषा को मुझसे नहीं प्रकट करती है, अतः किन वस्तुओं में पाने की उस की इच्छा रहती है। इस बात को बारंबार आदरपूर्वक रानी की सखियों से उत्तर कोशल देश के अधिपति राजा दिलीप पूछा करते थे ॥५॥

उपेत्य सा दोहददुःखशीलतां यदेव वव्रे तदपश्यदाहृतम् ।

न हीष्टमस्य त्रिदिवेऽपि भूपतेरभूदनासाद्यमधिज्यधन्वनः ॥ ३-६॥

उस सुदक्षिणा ने गर्भिणियों का मनोरथ द्वारा जो दुःख पाने का स्वभाव है उसे पाकर जिस वस्तु के पाने की इच्छा की उसी को महाराज दिलीप से तुरत मंगवाई गई देखा। क्योंकि-धनुष को चढ़ाये हुए इन महाराज दिलीप के स्वर्ग में भी वान्छित वस्तु हो तो वह पाने के लायक नहीं हुई यह नहीं कह सकते अर्थात् पाने के योग्य ही हुई ॥६॥

क्रमेण निस्तीर्य च दोहदव्यथां प्रचीयमानावयवा रराज सा ।

पुराणपत्रापगमादनन्तरं लतेव संनद्धमनोज्ञपल्लवा ॥ ३-७॥

और वह रानी सुदक्षिणा क्रम से गर्भिणियों के मनोरथ से जो व्यथा होती है, उसे अतिक्रमण करके, जिस के अवयव पुष्ट हो रहे हैं, ऐसी होती हुई पुराने पत्तों के गिरने के बाद, नवीन होने से सुन्दर पल्लव जिसमें उत्पन्न हो गये है ऐसी लता के समान सुशोभित हुई ॥ ७॥

दिनेषु गच्छत्सु नितान्तपीवरं तदीयमानीलमुखं स्तनद्वयम् ।

तिरश्चकार भ्रमराभिनीलयोः सुजातयोः पङ्कजकोशयोः श्रियम् ॥ ३-८॥

कुछ दिन व्यतीत होने पर अत्यन्त मोटे और चारों तरफ से नील वर्ण मुख वाले उस सुदक्षिणा के दोनों कुचों ने भौरों से व्याप्त सुन्दर कमल की दो कलियों को शोभा को 'अपनी शोभा से' नीचा कर दिया ॥८॥

निधानगर्भामिव सागराम्बरां शमीमिवाभ्यन्तरलीनपावकाम् ।

नदीमिवान्तःसलिलां सरस्वतीं नृपः ससत्त्वां महिषीममन्यत ॥ ३-९॥

राजा दिलीप ने गर्भिणी रानी सुदक्षिणा को, गर्भ में रत्नों के निधि को रखने वाली पृथ्वी तथा भीतर में छिपी हुई अग्नि को रखने वाले शमी वृक्ष और अन्तर्गत जल वाली सरस्वती नदी के समान समझा ॥९॥

प्रियानुरागस्य मनः समुन्नतेर्भुजार्जितानां च दिगन्तसंपदाम् ।

यथाक्रमं पुंसवनादिकाः क्रिया धृतेश्च धीरः सदृशीर्व्यधत्त सः ॥ ३-१०॥

बुद्धिमान् उन राजा दिलीप का जैसा रानी सुदक्षिणा में स्नेह था, तथा जैसी उनमें मन की उदारता थी और बाहुबल से उपार्जित चारों दिशाओं के प्रान्त की जैसी सम्पत्ति थी, तथा मेरा पुत्र होगा इससे जितना सन्तोष था, उसके अनुरूप पुंसवन आदि सभी संस्कारों को जैसा जिसका क्रम है उसी क्रम से उन्होंने किया ॥१०॥

सुरेन्द्रमात्राश्रितगर्भगौरवात्प्रयत्नमुक्तासनया गृहागतः ।

तयोपचाराञ्जलिखिन्नहस्तया ननन्द पारिप्लवनेत्रया नृपः ॥ ३-११॥

गृह में आये हुए राजा दिलीप लोकपालों के अंशों से भरे हुये गर्भ की गुरुता से कोशिश करके अपने आसन का परित्याग किये हुई, तथा उपचारार्थ (प्रणाम करने के लिये ) अंजलि बांधने में शिथिल हाथ वाली होती हुई, अत एव चंचल नेत्रों वाली उस रानी सुदक्षिणा से बहुत खुश हुये ॥ ११ ॥

कुमारभृत्याकुशलैरनुष्ठिते भिषग्भिराप्तैरथ गर्भभर्मणि ।

पतिः प्रतीतः प्रसवोन्मुखीं प्रियां ददर्श काले दिवमभ्रितामिव ॥ ३-१२॥

उसके (आसन्न प्रसव के लक्षण जानने के)बाद बाल चिकित्सा में निपूण विश्वास पात्र वैद्यों के द्वारा गर्भ की रक्षा कर चुकने पर समय प्राप्त होने पर अर्थात् दशवें महीने में, 'आकाशपक्ष में वर्षा ऋतु के आरम्भ काल में बच्चा जनने के तरफ उन्मुख होती हुई प्यारी पत्नी सुदक्षिणा को वर्षणोन्मुख मेघों से व्याप्त आकाश स्थली की भाँति स्वामी राजा दिलीप ने प्रसन्न होते हुये देखा ।। १२॥

ग्रहैस्ततः पञ्चभिरुच्चसंस्थितैरसूर्यगैः सूचितभाग्यसंपदम् ।

असूत पुत्रं समये शचीसमा त्रिसाधना शक्तिरिवार्थमक्षयम् ॥ ३-१३॥

उसके बाद इन्द्राणी के तुल्य रानी सुदक्षिणा ने प्रसव के समय (दसवां महीना)होने पर उच्च स्थान में स्थित सूर्य के सान्निध्य से अस्त को नहीं प्राप्त होते हुये पाँच ग्रहों के द्वारा जिसकी भाग्यसम्पत्ति सूचित हो रही है ऐसे पुत्र को प्रभाव, उत्साह, मन्त्र इन तीन उपायों से उत्पन्न होने वाली शक्ति जैसे अक्षय अर्थ को उत्पन्न करती है,उस भांति उत्पन्न किया ॥१३॥

दिशः प्रसेदुर्मरुतो ववुः सुखाः प्रदक्षिणार्चिर्हविरग्निराददे ।

बभूव सर्वं शुभशंसि तत्क्षणं भवो हि लोकाभ्युदयाय तादृशाम् ॥ ३-१४॥

उस क्षण (रघु के जन्म समय) में दिशायें निर्मल हो गई, सुख पहुँचाने वाला जिसका स्पर्श है, ऐसा वायु बहने लगा। अग्नि, दक्षिण के तरफ घुमकर जिसकी ज्वाला निकल रही है ऐसा होता हुआ, हवि घृत आदि को ग्रहण करने लगा। इस प्रकार से सभी 'उस समय शुभ-सूचक लक्षण होने लगे। क्योंकि इस तरह के महापुरुषों का जन्म जगत् के कल्याण के लिये होता है ॥ १४ ॥

अरिष्टशय्यां परितो विसारिणा सुजन्मनस्तस्य निजेन तेजसा ।

निशीथदीपाः सहसा हतत्विषो बभूवुरालेख्यसमर्पिता इव ॥ ३-१५॥

सूतिकागृह में शैय्या के चारों तरफ फैलने वाले, सुन्दर जन्म लेने वाले उस बालक रघु के स्वाभाविक तेज से एकाएक कान्ति क्षीण हो गयी है जिनकी ऐसे अर्धरात्रि के समय सभी प्रदीप चित्र में लिखे हुये की भांति हो गये अर्थात् मालूम पड़ने लगे ॥१५॥

जनाय शुद्धान्तचराय शंसते कुमारजन्मामृतसंमिताक्षरम् ।

आदेयमासीत्त्रयमेव भूपतेः शशिप्रभं छत्रमुभे च चामरे ॥ ३-१६॥

राजा दिलीप को अमृत के समान अक्षर है जिसके ऐसे 'पुत्र का जन्म हुआ है। इस बात को कहते हुये अन्तःपुर में चलने फिरने वाले जो लोग है, उनके लिये तीन ही वस्तुएँ नहीं देने योग्य थीं, एक चन्द्र के समान उज्ज्वल वर्ण छत्र और दो चामर, बाकी कुल वस्तुएँ देने योग्य थीं ॥ १६ ॥

निवातपद्मस्तिमितेन चक्षुषा नृपस्य कान्तं पिबतः सुताननम् ।

महोदधेः पूर इवेन्दुदर्शनाद्गुरुः प्रहर्षः प्रबभूव नात्मनि ॥ ३-१७॥

वायु से रहित प्रदेश में स्थित कमल की भाँति निश्चल नेत्रों से सुन्दर पुत्र के मुख को तृष्णापूर्वक देखते हुये राजा दिलीप का पुत्रदर्शन से उत्पन्न महान् आनन्द चन्द्र के देखने से महान् समुद्र के जल की वृद्धि के समान शरीर के भीतर ठहरने में समर्थ न हो सका किन्तु बाहर निकल पड़ा ॥ १७ ॥

स जातकर्मण्यखिले तपस्विना तपोवनादेत्य पुरोधसा कृते ।

दिलीपसूनुर्मणिराकरोद्भवः प्रयुक्तसंस्कार इवाधिकं बभौ ॥ ३-१८॥

वे राजा दिलीप के नवजात पुत्र, तपस्वी पुरोहित वसिष्ठ महर्षि के द्वारा तपोवन से आकर सम्पूर्ण जातकर्म नामक संस्कार विशेष के किये जाने पर जिसका शान पर चढ़ाना आदि संस्कार हो चुका है, ऐसे खान से निकले हुये मणि की भांति अधिक सुशोभित हुये ।।१८।।

सुखश्रवा मङ्गलतूर्यनिस्वनाः प्रमोदनृत्यैः सह वारयोषिताम्।

न केवलं सद्मनि मागधीपतेः पथि व्यजृम्भन्त दिवौकसामपि ॥३ -१९॥

सुनने में सुखकर मंगलवाद्य मृदंग आदि की ध्वनि, वेश्याओं के आनन्द सम्बन्धी नाच के साथ मगध देश के राजा की लड़की सुदक्षिणा के स्वामी महाराज दिलीप के गृह में ही केवल नहीं स्फुट हुआ, किन्तु देवताओं के मार्ग आकाश में भी स्फुट हुभा ॥१९॥

न संयतस्तस्य बभूव रक्षितुर्विसर्जयेद्यं सुतजन्महर्षितः ।

ऋणाभिधानात्स्वयमेव केवलं तदा पितॄणां मुमुचे स बन्धनात् ॥ ३-२०॥

भलीभाँति रक्षा करने वाले उन दिलीप महाराज का कोई कैदी नहीं था कि जिसे पुत्रजन्म से प्रसन्न होते हुए छोड़े, किन्तु ये महाराज उस समय पितरों के ऋणरूपी बन्धन से अकेले स्वयं ही मुक्त हुये ॥२०॥

श्रुतस्य यायादयमन्तमर्भकः तथा परेषां युधि चेति पार्थिवः ।

अवेक्ष्य धातोर्गमनार्थमर्थविच्चकार नाम्ना रघुमात्मसम्भवम् ॥ ३-२१॥

शब्दों के अर्थों को जानने वाले पृथ्वी के स्वामी राजा दिलीप ने यह बालक शास्त्र के पार को निश्चय जा सकेगा (जान सकेगा) तथा युद्ध में शत्रुओं के पार (नाश ) को जा सकेगा ( कर सकेगा) इस कारण लघि धातु के जाना रूप अर्थ को विचार कर अपने लड़के का रघु ऐसा नाम रखा ॥२१॥

पितुः प्रयत्नात्स समग्रसंपदः शुभैः शरीरावयवैर्दिने दिने ।

पुपोष वृद्धिं हरिदश्वदीधितेरनुप्रवेशादिव बालचन्द्रमाः ॥ ३-२२॥

वह बालक रघु पूर्ण सम्पत्तिशाली पिता दिलीप के प्रयत्न से मनोहर अङ्ग और उपाङ्गों से सूर्य की किरणों के भीतर प्रवेश करने से बाल चन्द्रमा ( प्रतिपद् के चन्द्रमा) की भांति प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त करने लगा ॥ २२ ॥

उमावृषाङ्कौ शरजन्मना यथा यथा जयन्तेन शचीपुरन्दरौ ।

तथा नृपः सा च सुतेन मागधी ननन्दतुस्तत्सदृशेन तत्समौ ॥ ३-२३॥

पार्वती और भगवान् शङ्कर ने कात्तिकेय से और इन्द्राणी तथा इन्द्र ने जयन्त से जैसा आनन्द पाया, उसी तरह से उन दोनों (पार्वती और शङ्कर जी तथा इन्द्राणी और इन्द्र ) के सदृश वह सुदक्षिणा और राजा दिलीप ( इन दोनों) ने उन दोनों (कात्तिकेय और जयन्त) के सदृश पुत्र रघु से आनन्द पाया ॥ २३ ॥

रथाङ्कनाम्नोरिव भावबन्धनं बभूव यत्प्रेम परस्पराश्रयम् ।

विभक्तमप्येकसुतेन तत्तयोः परस्परस्योपरि पर्यचीयत ॥ ३-२४॥

चकवा चकवी की भाँति उन दोनों (सुदक्षिणा और दिलीप) के हृदय को आकृष्ट करने वाला अन्योन्य विषयक जो प्रेम था वह केवल पुत्र रघु के द्वारा बढ़ जाने पर भी परस्पर एक दूसरे के ऊपर बढ़ता गया ॥ २४ ॥

उवाच धात्र्या प्रथमोदितं वचो ययौ तदीयामवलम्ब्य चाङ्गुलिम् ।

अभूच्च नम्रः प्रणिपातशिक्षया पितुर्मुदं तेन ततान सोऽर्भकः ॥ ३-२५॥

वह बालक रघु धाई के द्वारा पहले उच्चारण किये तात आदि वचन का उच्चारण करने लगा और उसकी अंगुली का सहारा लेकर चलने लगा तथा प्रणाम करने की शिक्षा से बड़ों के सामने नम्र होने लगा, इन सब पूर्वोक्त प्रकारों से पिता के हर्ष को बढ़ाने लगा ।।२५।।

तमङ्कमारोप्य शरीरयोगजैः सुखैर्निषिञ्चन्तमिवामृतं त्वचि ।

उपान्तसंमीलितलोचनो नृपश्चिरात्सुतस्पर्शरसज्ञतां ययौ ॥ ३-२६॥

'पुत्र के अङ्ग के सङ्ग से उत्पन्न आनन्द के द्वारा मानो त्वचा पर अमृत बरसाते हुये उस पुत्र को गोद में बिठा कर नेत्रप्रान्त को बन्द किये हुये राजा दिलीप ने बहुत दिनों से अभिलषित पुत्र के स्पर्श मुख की अभिज्ञता को प्राप्त किया ॥ २६ ॥

अमंस्त चानेन परार्ध्यजन्मना स्थितेरभेत्ता स्थितिमन्तमन्वयम् ।

स्वमूर्तिभेदेन गुणाग्र्यवर्तिना पतिः प्रजानामिव सर्गमात्मनः ॥ ३-२७॥

मर्यादा की रक्षा करनेवाले राजा दिलीप ने उत्कृष्ट जन्मवाले इस रघु के द्वारा वंश को, जिस भाति प्रजापति ब्रह्माजी सर्वगुण वाले अपने अवतार विशेष विष्णु भगवान के द्वारा अपनी सृष्टि को स्थिर रहने वाली मानते हैं उसी भाति स्थिर रहने वाला माना ॥ २७॥

स वृत्तचूलश्चलकाकपक्षकैरमात्यपुत्रैः सवयोभिरन्वितः ।

लिपेर्यथावद्ग्रहणेन वाङ्मयं नदीमुखेनेव समुद्रमाविशत् ॥ ३-२८॥

चूडाकर्म संस्कार हो चुकने पर उस बालक रघु ने चंचल शिखावाले अपने समवयस्क मन्त्रिपुत्रों के सहित वर्णमाला का भली भाँति परिचय पा चुकने पर उसी के द्वारा समस्त वाङ्मय में नदी के द्वारा मकरादि जैसे समुद्र में प्रवेश करते हैं, उसी भांति प्रवेश किया॥२८॥

अथोपनीतं विधिवद्विपश्चितो विनिन्युरेनं गुरवो गुरुप्रियम् ।

अवन्ध्ययत्नाश्च बभूवुरत्र ते क्रिया हि वस्तूपहिता प्रसीदति ॥ ३-२९॥

इसके बाद गर्भ से ११वें  वर्ष में शास्त्रानुकूल उपनयन कर चुकने पर गुरुओं के प्रिय इन रघु को विद्वान् गुरु लोगों ने शिक्षा दी और वे गुरु लोग इन रघु के विषय में सफल श्रमवाले हुये, क्योंकि शिक्षा सत्पात्र को दी हुई फलवती होती है ॥२९॥

धियः समग्रैः स गुणैरुदारधीः क्रमाच्चतस्रश्चतुरर्णवोपमाः ।

ततार विद्याः पवनातिपातिभिर्दिशो हरिद्भिर्हरितामिवेश्वरः ॥ ३-३०॥

अच्छी बुद्धिवाले उन राजकुमार रघु ने समग्र (गुरुशुश्रूषा-श्रवण-ग्रहण-धारण ऊहापोह-अर्थज्ञान तत्त्वज्ञान ) इन बुद्धि के गुणों के द्वारा चार समुद्र के समान चार (आन्वीक्षिकी वेदत्रयी-वार्ता-दण्डनीति आदि) विद्याओं को दिशाओं के स्वामी (सूर्य) जैसे पवन से भी अधिक वेगवान अपने घोड़ों से चारों दिशाओं को क्रम से पार करते है, उसी भांति पार किया ॥३०॥

त्वचं च मेध्यां परिधाय रौरवीमशिक्षतास्त्रं पितुरेव मन्त्रवत् ।

न केवलं तद्गुरुरेकपार्थिवः क्षितावभूदेकधनुर्धरोऽपि सः ॥ ३-३१॥

उस (रघु ) ने पवित्र रुरु मृग के चर्म को धारण करके मन्त्रयुक्त (आग्नेयादि) अस्त्रों को पिता ही से सीखा, क्योंकि-उसके पिता (दिलीप महाराज) अद्वितीय चक्रवर्ती महाराज केवल न थे, किन्तु-पृथ्वी में वह अद्वितीय धनुर्धर भी थे ॥ ३१ ॥

महोक्षतां वत्सतरः स्पृशन्निव द्विपेन्द्रभावं कलभः श्रयन्निव ।

रघुः क्रमाद्यौवनभिन्नशैशवः पुपोष गाम्भीर्यमनोहरं वपुः ॥ ३-३२॥

रघु क्रम से युवावस्था के द्वारा लड़कपन दूर होने पर बड़े भारी बैल के भाव को प्राप्त किये हुये दमन करने लायक बछड़े की भांति तथा गजराज के भाव (स्वभाव ) को प्राप्त किये हुये हाथी के बच्चे की भांति चञ्चलता न होने से सुन्दर शरीर को पुष्ट करने लगे ॥३२॥

अथास्य गोदानविधेरनन्तरं विवाहदीक्षां निरवर्तयद्गुरुः ।

नरेन्द्रकन्यास्तमवाप्य सत्पतिं तमोनुदं दक्षसुता इवाबभुः ॥ ३-३३॥

इसके बाद पिता दिलीप महाराज ने इन राजकुमार रघु का 'केशान्त' नामक संस्कार कर चुकने के बाद विवाह संस्कार किया, उसके बाद जिस तरह राजकन्यायें रोहिणी आदि चन्द्र को पाकर सुशोभित हुई थीं उसी भांति सुशोभित हुई ॥ ३३ ॥

युवा युगव्यायतबाहुरंसलः कवाटवक्षाः परिणद्धकंधरः ।

वपुःप्रकर्षादजयद्गुरुं रघुस्तथापि नीचैर्विनयाददृश्यत ॥ ३-३४॥

युवावस्था को प्राप्त हुये युग (यान का अङ्गभूत दारुविशेष जूआ) की भांति लम्बी भुज वाले बलवान् , किवाड़ की तरह चौड़ी छाती वाले तथा विशाल ग्रीवा वाले रघु ने यद्यपि शरीर की अधिकता से पिता को जीत लिया था, तथाऽपि विनय से छोटे ही दीख पड़ते थे॥३४॥

ततः प्रजानां चिरमात्मना धृतां नितान्तगुर्वीं लघयिष्यता धुरम् ।

निसर्गसंस्कारविनीत इत्यसौ नृपेण चक्रे युवराजशब्दभाक् ॥ ३-३५॥

उसके बाद स्वयं बहुत दिनों से धारण किये हुये अत्यन्त भारयुक्त प्रजापालन सम्बन्धी भार को हल्का करने की इच्छा करने वाले राजा दिलीप ने यह रघु स्वभाव से तथा शास्त्र के अभ्यास करने से उत्पन्न वासना से नम्र है इस कारण से उसे युवराज पद से भूषित किया॥३५॥  

नरेन्द्रमूलायतनादनन्तरं तदास्पदं श्रीर्युवराजसंज्ञितम् ।

अगच्छदंशेन गुणाभिलाषिणी नवावतारं कमलादिवोत्पलम् ॥ ३-३६॥

विनयादि गुणों की अभिलाषा रखने वाली राजलक्ष्मी के पक्ष में सुगन्ध आदि गुणों की अभिलाषा रखने वाली कमलालया लक्ष्मी, राजा दिलीप रूप प्रधान स्थान से समीप में स्थित युवराज इस पदवी को धारण करने वाले रघु रूप अपने स्थान को जैसे पुराने कमल से नवीन उत्पन्न हुये कमल को पद्मालया जाती है, वैसे ही एक अंश से गई ॥३६ ॥

विभावसुः सारथिनेव वायुना घनव्यपायेन गभस्थिमानिव ।

बभूव तेनातितरां सुदुःसहः कटप्रभेदेन करीव पार्थिवः ॥ ३-३७॥

सहायभूत वायु से जैसे अग्नि और मेघ का नाश जिसमें हैं ऐसे सहायभूत शरत्काल से जैसे सूर्य, तथा सहायभूत गण्डस्थल के फूटने से (मद के उदय होने से) जैसे हाथी, अत्यन्त सुदुःसह हो जाता है, उसी भांति राजा दिलीप भी सहायभूत उस रघु से 'दुश्मनों के लिये भली भांति दुःसह हुये अर्थात् नहीं जीतने लायक हुये ॥ ३७॥

नियुज्य तं होमतुरंगरक्षणे धनुर्धरं राजसुतैरनुद्रुतम् ।

अपूर्णमेकेन शतक्रतूपमः शतं क्रतूनामपविघ्नमाप सः ॥ ३-३८॥

इन्द्र के तुल्य उन दिलीप महाराज ने राजकुमारों से अनुसरण किये गये धनुष के धारण करने वाले उन युवराज रघु को होम के लिये जो अश्वमेध यज्ञ सम्बन्धी घोड़े थे, उनकी रक्षा करने में नियुक्त करके ९९ अश्वमेध यज्ञ को निर्विघ्न समाप्त किया ॥३८॥

ततः परं तेन मखाय यज्वना तुरंगमुत्सृष्टमनर्गलं पुनः ।

धनुर्भृतामग्रत एव रक्षिणां जहार शक्रः किल गूढविग्रहः ॥ ३-३९॥

उसके ( ९९ वां यज्ञ समाप्त होने के ) बाद विधिपूर्वक यज्ञ करने वाले उन दिलीप महाराज से फिर से यज्ञ करने के लिये छोड़े हुये बिना रोक टोक अपने मन से चलने वाले घोड़े को धनुर्धारी रक्षकों के आगे से ही इन्द्र गुप्त शरीर वाला होता हुआ हर ले गया ॥३९॥

विषादलुप्तप्रतिपत्ति विस्मितं कुमारसैन्यं सपदि स्थितं च तत् ।

वसिष्ठधेनुश्च यदॄच्छयागता श्रुतप्रभावा ददृशेऽथ नन्दिनी ॥ ३-४०॥

जब राजकुमार रघु की वह सेना उसी क्षण (घोड़ा के न दीख पड़ने के क्षण ) विषाद से 'क्या करना चाहिये क्या नहीं करना चाहिये' इस विचार से शून्य विस्मित होती हुई निश्चल स्थित हुई, तब उसके बाद जिसका प्रभाव सबसे विदित है, ऐसी अपनी इच्छा से आई हुई नन्दिनी नाम की वशिष्ठ महर्षि की धेनु को लोगों ने देखा ॥ ४० ॥

तदङ्कनिस्यन्दनजलेन लोचने प्रमृज्य पुण्येन पुरस्कृतः सताम् ।

अतीन्द्रियेष्वप्युपपन्नदर्शनो बभूव भावेषु दिलीपनन्दनः ॥ ३-४१॥

सज्जनों से पूजित दिलीप महाराज के पुत्र युवराज रघु, पवित्र उस नन्दिनी के अङ्ग से उत्पन्न जल (मूत्र) से दोनों आंखों को धोकर इन्द्रियों से नहीं प्रत्यक्ष होने वाली भी वस्तुओं में देखने की शक्ति वाले हो गये ॥ ४१ ॥

स पूर्वतः पर्वतपक्षशातनं ददर्श देवं नरदेवसंभवः ।

पुनः पुनः सूतनिषिद्धचापलं हरन्तमश्वं रथरश्मिसंयुतम् ॥ ३-४२॥

राजा दिलीप के लड़के उन युवराज रघु ने बारम्बार सारथि के द्वारा जिसकी उद्धतपना रोकी जा रही थी और जो रथ की डोरी से बंधा हुआ था, ऐसे घोड़े को हरण करके ले जाते हुये पर्वतों के पक्षों को काटने वाले देवराज इन्द्र को पूर्व दिशा में देखा ।। ४२ ॥

शतैस्तमक्ष्णामनिमेषवृत्तिभिर्हरिं विदित्वा हरिभिश्च वाजिभिः ।

अवोचदेनं गगनस्पृशा रघुः स्वरेण धीरेण निवर्तयन्निव ॥ ३-४३॥

युवराज रघु उन्हें (अश्व के हरण करने वाले को) निमेष ( पलक का गिरना ) शून्य व्यापार वाले सैकड़ों आँखों के द्वारा तथा हरे रंग के घोड़ों के द्वारा इन्द्र जानकर उसे आकाश में गूंज जाने वाले गम्भीर स्वर से लौटाते हुये की भांति बोले ॥ ४३ ॥

मखांशभाजां प्रथमो मनीषिभिस्त्वमेव देवेन्द्र सदा निगद्यसे ।

अजस्रदीक्षाप्रयतस्य मद्गुरोः क्रियाविघाताय कथं प्रवर्तसे ॥ ३-४४॥

हे इन्द्र ! विद्वान् लोग आप ही को यज्ञ के भाग को ग्रहण करने वाले देवताओं के यज्ञ में प्रथम सदा बतलाते हैं अतः निरन्तर यज्ञसम्बन्धी दीक्षा लेने में प्रवृत्त (सदा यज्ञ ही करते हुये) मेरे पिता दिलीप महाराज के अश्वमेध यज्ञ को नष्ट करने के लिये आप क्यों प्रवृत्त हो रहे हैं ॥४४॥

त्रिलोकनाथेन सदा मखद्विषस्त्वया नियम्या ननु दिव्यचक्षुषा ।

स चेत्स्वयं कर्मसु धर्मचारिणां त्वमन्तरायो भवसि च्युतो विधिः ॥ ३-४५॥

त्रिलोक के स्वामी दिव्य दृष्टि वाले आपके द्वारा यज्ञ के विध्वंस करने वाले राक्षसादि सदा निश्चय करके दण्डनीय है, अतः ऐसे जो आप हैं सो धर्म के आचरण करने वाले सज्जनों के यज्ञादि कर्म में स्वयम् यदि विघ्न हो रहे हैं तो यज्ञादि सत्कर्म नष्ट हुआ ही है अर्थात् लोक में तब सत्कर्म की कथा भी अस्त ही है ॥ ४५ ॥

तदङ्कमग्र्यं मघवन्महाक्रतोरमुं तुरंगं प्रतिमोक्तुमर्हसि ।

पथः श्रुतेर्दर्शयितार ईश्वरा मलीमसामददते न पद्धतिम् ॥ ३-४६॥

हे इन्द्र ! इस कारण से महायज्ञ (अश्वमेध ) का प्रधान साधन इस घोडे को छोड़ने के लिये आप समर्थ हो। क्योंकि-वेद के मार्ग को दिखाने वाले बड़े लोग मलिन (निन्दित) मार्ग ( यज्ञ का अश्व चुराना रूप ) का अवलम्बन नहीं करते हैं ।। ४६ ॥

इति प्रगल्भं रघुणा समीरितं वचो निशम्याधिपतिर्दिवौकसाम् ।

निवर्तयामास रथं सविस्मयः प्रचक्रमे च प्रतिवक्तुमुत्तरम् ॥ ३-४७॥

इस प्रकार से रघु के द्वारा कहे हुये धृष्ट वचन को सुन कर देवताओं के स्वामी इन्द्र ने रघु के प्रभाव से आश्चर्ययुक्त होते हुये रथ को लौटाया और उत्तर देने के लिये आरम्भ किया ॥४७॥

यदात्थ राजन्यकुमार तत्तथा यशस्तु रक्ष्यं परतो यशोधनैः ।

जगत्प्रकाशं तदशेषमिज्यया भवद्गुरुर्लङ्घयितुं ममोद्यतः ॥ ३-४८॥

हे क्षत्रियकुमार रघु ! तुम जिस बात को कह रहे हो सो उसी तरह से (ठीक )ही है, किन्तु यश ही को धन मानने वाले हमारे ऐसे लोगों को शत्रु से यश की रक्षा करनी उचित है और आपके पिता जगत में अतिशय प्रसिद्ध जो सम्पूर्ण मेरा यश है,उसे यश से लंघन करने के लिये उद्यत हो रहे हैं ।। ४८ ।।

हरिर्यथैकः पुरुषोत्तमः स्मृतो महेश्वरस्त्र्यम्बक एव नापरः ।

तथा विदुर्मां मुनयः शतक्रतुं द्वितीयगामी न हि शब्द एष नः ॥ ३-४९॥

जिस प्रकार विष्णु ही केवल पुरुषोत्तम कहे जाते हैं और जिस प्रकार से त्र्यम्बक ही केवल महेश्वर कहे जाते हैं और दूसरा कोई नहीं कहा जाता है, उसी भांति से मुनि लोग मुझे शतक्रतु (सौ अश्वमेध यज्ञ का करने वाला) समझते हैं। हम लोगों के ये तीनों ( पुरुषोत्तम-महेश्वर-शतक्रतु ) शब्द दूसरे पुरुष के लिये नहीं हैं ॥ ४९ ॥

अतोऽयमश्वः कपिलानुकारिणा पितुस्त्वदीयस्य मयापहारितः ।

अलं प्रयत्नेन तवात्र मा निधाः पदं पदव्यां सगरस्य संततेः ॥ ३-५०॥

क्योंकि मैं ही केवल अश्वमेध का करनेवाला हूँ दूसरा कोई नहीं है इस कारण से तुम्हारे पिता के इस घोड़े को कपिल ऋषि के तुल्य मैंने चुरा लिया है। तुम्हारा इस घोड़े के विषय में 'छुड़ाने के लिये प्रयत्न करना वृथा है, और सगर महाराज के पुत्रों के मार्ग में पैर मत रक्खो अर्थात उनका अनुसरण मत करो॥५०॥

ततः प्रहास्यापभयः पुरन्दरं पुनर्बभाषे तुरगस्य रक्षिता ।

गृहाण शस्त्रं यदि सर्ग एष ते न खल्वनिर्जित्य रघुं कृती भवान् ॥ ३-५१॥

उसके ( इन्द्र की बात सुन चुकने के ) बाद घोड़े की रक्षा करने वाले रघु हँस कर निर्भीक होते हुये इन्द्र से बोले-हे देवेन्द्र ! यदि वह 'घोड़ा न छोड़ना रूप' आपका निश्चय है तो शस्त्र को ग्रहण करिये, क्योंकि आप मुझे बिना जीते घोड़ा ले जाने रूप कार्य में निश्चय कृतकृत्य नहीं हो सकेंगे ॥ ५१ ॥

स एवमुक्त्वा मघवन्तमुन्मुखः करिष्यमाणः सशरं शरासनम् ।

अतिष्ठदालीढविशेषशोभिना वपुःप्रकर्षेण विडम्बितेश्वरः ॥ ३-५२॥

वह रघु ऊपर को मुख किये हुये इन्द्र से इस प्रकार कह कर धनुष को बाण से युक्त किया जाने वाला करते हुए आलीढ नामक (आगे की ओर दाहिना पैर कुछ नीचे को झुका हो और बाँया पैर पीछे की ओर तना हुआ रखा हो तो उसे आलीढ नामक पैतरा धनुर्विद्या के जानने वाले कहते हैं ) पैतरे से विशेष शोभा देने वाले देह के औन्नत्य से शङ्कर भगवान् का अनुसरण किये हुये खड़ा हुआ ।। ५२ ॥

रघोरवष्टम्भमयेन पत्रिणा हृदि क्षतो गोत्रभिदप्यमर्षणः ।

नवाम्बुदानीकमुहूर्तलाञ्छने धनुष्यमोघं समधत्त सायकम् ॥ ३-५३॥

रघु के स्तम्भरूप बाण के द्वारा हृदय में क्षत (घाव ) हो जाने से क्रोधित हुये, पर्वतों के भेदन करने वाले (इन्द्र) ने भी नवीन मेघ के समूह की थोड़ी देर चिन्ह (शोभा) को धारण करने वाले धनुष पर अमोघ (कभी व्यर्थ नहीं जाने वाला) बाण सन्धान किया ।। ५३ ॥

दिलीपसूनोः स बृहद्भुजान्तरं प्रविश्य भीमासुरशोणितोचितः ।

पपावनास्वादितपूर्वमाशुगः कुतूहलेनेव मनुष्यशोणितम् ॥ ३-५४॥

भयङ्कर दैत्यों के रक्तपान में अभ्यस्त वा विदित उस बाण ने दिलीप के पुत्र रघु के विशाल वक्षःस्थल में प्रविष्ट होकर जिसका पहले कभी स्वाद नहीं लिया है ऐसे मनुष्य के रक्त का कुतूहल से मानो पान किया। ५४ ॥

हरेः कुमारोऽपि कुमारविक्रमः सुरद्विपास्फालनकर्कशाङ्गुलौ ।

भुजे शचीपत्रविशेषकाङ्किते स्वनामचिह्नं निचखान सायकम् ॥ ३-५५॥

कार्तिकेय के समान अत्यन्त पराक्रमी युवराज रघु ने भी ऐरावत हाथी के उत्साहार्थ मारने से कठिन अङ्गुलियां जिसकी हो रही है तथा इन्द्राणी के तिलक का जिसमें चिन्ह है, ऐसे इन्द्र के बाहु मध्य में अपने नाम का चिन्ह जिसमें मौजूद है ऐसे बाण को गाड दिया ॥ ५५॥

जहार चान्येन मयूरपत्रिणा शरेण शक्रस्य महाशनिध्वजम् ।

चुकोप तस्मै स भृशं सुरश्रियः प्रसह्य केशव्यपरोपणादिव ॥ ३-५६॥

उसके बाद फिर रघु ने दूसरे मयूर के पंखों से युक्त बाण से इन्द्र की बड़ी भारी वज्र के चिह्न से युक्त पताका को काट डाला और तब इन्द्र ने देवताओं की राजलक्ष्मी के केश जबर्दस्ती कट जाने की तरह पनाका कट जाने से उस रघु के ऊपर अत्यन्त कोप किया ॥५६।।

तयोरुपान्तस्थितसिद्धसैनिकं गरुत्मदाशीविषभीमदर्शनैः ।

बभूव युद्धं तुमुलं जयैषिणोरधोमुखैरूर्ध्वमुखैश्च पत्रिभिः ॥ ३-५७॥

परस्पर विजय पाने की इच्छा रखने वाले उन दोनों इन्द्र और रघु का पक्षयुक्त ( उड़ने वाले) सर्पो के समान देखने में भयङ्कर अधोमुख (इन्द्र के) तथा ऊर्ध्वमुख (रघु के) वाले बाणों से पास में ही स्थित हैं सिद्ध (इन्द्र के) और सैनिक (रघु के) जिसमें ऐसा घमासान युद्ध हुआ ॥ ५७ ॥

अतिप्रबन्धप्रहितास्त्रवृष्टिभिस्तमाश्रयं दुष्प्रसहस्य तेजसः ।

शशाक निर्वापयितुं न वासवः स्वतश्च्युतं वह्निमिवाद्भिरम्बुदः ॥ ३-५८॥

इन्द्र अत्यन्त यत्न से प्रयोग किये हुये अस्त्रों की वृष्टि से अत्यन्त दुःसह प्रताप के स्थान उस रघु को, जैसे बादल जल की वृष्टि से अपने से उत्पन्न अग्नि (वैद्युताग्नि ) को बुझाने के लिये समर्थ नहीं होता, उसी भांति बुझाने के लिये (शान्त करने के लिये) समर्थ नहीं हुये ।। ५८॥

ततः प्रकोष्ठे हरिचन्दनाङ्किते प्रमथ्यमानार्णवधीरनादिनीम् ।

रघुः शशाङ्कार्धमुखेन पत्रिणा शरासनज्यामलुनाद्बिडौजसः ॥ ३-५९॥

इसके बाद रघु ने हरिचंदन लगे हुए प्रकोष्ठ (कोहिनी से कलाई पर्यंत भाग)में मथे जाते हुए समुद्र के समान गंभीर शब्द करने वाली इंद्र के धनुष की प्रत्यंचा को चन्द्र के आधे टुकडे के समान फल वाले बाण से काट दिया।। ५९॥

स चापमुत्सृज्य विवृद्धमत्सरः प्रणाशनाय प्रबलस्य विद्विषः ।

महीध्रपक्षव्यपरोपणोचितं स्फुरत्प्रभामण्डलमस्त्रमाददे ॥ ३-६०॥

धनुष की प्रत्यंचा से कट जाने से जिसका क्रोध अत्यंत बढ़ गया है, ऐसे इंद्र ने धनुष को छोड़कर अत्यंत बलवान शत्रु रघु का नाश करने के लिए पर्वतो के पक्षों के काटने में प्रसिद्ध, चमकती हुई प्रभा का मण्डल जिसके चारों तरफ है ऐसे वज्रसंज्ञक अस्त्र को ग्रहण किया ॥६०॥

रघुर्भृशं वक्षसि तेन ताडितः पपात भूमौ सह सैनिकाश्रुभिः ।

निमेषमात्रादवधूय च व्यथां सहोत्थितः सैनिकहर्षनिस्वनैः ॥ ३-६१॥

रघु उस (इन्द्र से छोड़े हुये ) वज्र से छाती में अत्यन्त चोट लगने से सैनिकों के अश्रु के साथ जमीन पर गिर पड़े और क्षणभर के बाद ही उसकी पीड़ा को सहन करके सैनिकों के हर्ष से किये सिंहनाद के साथ ही उठ पड़े ॥ ६१ ॥

तथापि शस्त्रव्यवहारनिष्ठुरे विपक्षभावे चिरमस्य तस्थुषः ।

तुतोष वीर्यातिशयेन वृत्रहा पदं हि सर्वत्र गुणैर्निधीयते ॥ ३-६२॥

उस प्रकार के वज्रप्रहार होने पर भी अस्त्रों के व्यव्हार करने से निष्ठुर शत्रु भाव में बहुत देर से स्थित हुये इस रघु के पराक्रम की अधिकता से वृत्रासुर को ( उसी वज्र से) मारने वाले इन्द्र प्रसन्न हुये, क्योंकि - गुण ही सर्वत्र शत्रु-मित्रादिकों में पैर को स्थापित करता है अर्थात् गुण से ही सर्वत्र आदर होता है ।। ६२ ॥

असङ्गमद्रिष्वपि सारवत्तया न मे त्वदन्येन विसोढमायुधम् ।

अवेहि मां प्रीतमृते तुरङ्गमात्किमिच्छसीति स्फुटमाह वासवः ॥ ३-६३॥

सारवान् ( दृढ़ ) होने से पर्वतों में भी नहीं रुकने वाला मेरा अस्त्र जो यह वज्र है, इसे तुम्हारे अलावा किसी दूसरे ने नहीं सहन किया है, अतः हमें तुम प्रसन्न समझो, और घोड़े को छोड़ कर क्या चाहते हो ? ऐसा इन्द्र ने प्रकाश रूप से रघु से कहा ॥६३॥

ततो निषङ्गादसमग्रमुधृतं सुवर्णपुङ्खद्युतिरञ्जिताङ्गुलिम् ।

नरेन्द्रसूनुः प्रतिसंहरन्निषुं प्रियंवदः प्रत्यवदत्सुरेश्वरम् ॥ ३-६४॥

उसके (इन्द्र की बात सुनने के) बाद तरकस से पूरे नहीं निकाले हुये जिसके सुवर्ण-मय मूल भाग की कान्ति से अङ्गुलियां रङ्ग गई हैं ऐसे बाण को फिर से तरकस में रखते हुये प्रियवचन बोलने वाले महाराज दिलीप के कुमार रघु देवताओं के प्रभु इन्द्र से बोले ॥ ६४॥

अमोच्यमश्वं यदि मन्यसे प्रभो ततः समाप्ते विधिनैव कर्मणि ।

अजस्रदीक्षाप्रयतः स मद्गुरुः क्रतोरशेषेण फलेन युज्यताम् ॥ ३-६५॥

हे प्रभो ! अश्व को यदि नहीं छोड़ने लायक आप समझते हैं तो जो निरन्तर यज्ञ की दीक्षा में लगे हुये हैं, ऐसे वे मेरे पिता महाराज दिलीप विधिपूर्वक कर्म की समाप्ति होने पर यज्ञ का जो फल होता है उस सम्पूर्ण फल से युक्त होय, 'यह मैं चाहता हूँ' ॥६५॥

यथा स वृत्तान्तमिमं सदोगतस्त्रिलोचनैकांशतया दुरासदः ।

तवैव संदेशहराद्विशांपतिः शृणोति लोकेश तथा विधीयताम् ॥ ३-६६॥

और यज्ञमण्डप में स्थित शङ्कर भगवान् का भी एक अंश ( यजमान रूपमूर्ति ) होने से हमारे ऐसे लोगों के लिये बड़ी कठिनाई से प्राप्त होने के योग्य महाराजाधिराज दिलीप जी जिस प्रकार इस वृत्तान्त को तुम्हारे दूत से ही सुनें, हे लोकपाल इन्द्र जी ! वैसा आप करें॥६६॥

तथेति कामं प्रतिशुश्रुवान्रघोर्यथागतं मातलिसारथिर्ययौ ।

नृपस्य नातिप्रमनाः सदोगृहं सुदक्षिणासूनुरपि न्यवर्तत ॥ ३-६७॥

मातलि नामक सारथि है जिसका ऐसे इन्द्रजी रघु की अभिलाषा के सम्बन्ध में वैसा ही होगा 'जैसा कि तुमने कहा है। ऐसी प्रतिज्ञा करके जिस मार्ग से आये थे उसी मार्ग से गये और सुदक्षिणा के पुत्र रघु भी 'विजय होने पर भी घोड़ा न मिलने से' अत्यन्त प्रसन्न चित्त नहीं होते हुये राजा दिलीप के सभाभवन की ओर लौटे ॥ ६७॥

तमभ्यनन्दत्प्रथमं प्रबोधितः प्रजेश्वरः शासनहारिणा हरेः ।

परामृशन्हर्षजडेन पाणिना तदीयमङ्गं कुलिशव्रणाङ्कितम् ॥ ३-६८॥

इन्द्र की आज्ञा को लाने वाले पुरुष से (रघु के आने के ) पहिल ही वृत्तान्त को जाने हुए प्रजाओं के मालिक, राजा दिलीप ने हर्ष से कांपते हुये हाथ से वज्र के घाव से युक्त उन (रघु) के शरीर का स्पर्श करते हुये उन (रघु) का अभिनन्दन किया ॥ ६८॥

इति क्षितीशो नवतिं नवाधिकां महाक्रतूनां महनीयशासनः ।

समारुरुक्षुर्दिवमायुषः क्षये ततान सोपानपरम्परामिव ॥ ३-६९॥

जिसकी आज्ञा सभी लोगों को माननीय है ऐसे पृथ्वी के स्वामी राजा दिलीप ने इस प्रकार से नव अधिक नम्बे अर्थात् निन्यानवे ९९ अश्वमेध नामक महायज्ञ को जो पूरा किया सो मानों जीवन समाप्त होने पर ऊपर स्वर्ग पर चढ़ने की इच्छा रखने वाले की मांति सीढ़ियों की पंक्ति तैयार की ।। ६९ ॥

अथ स विषयव्यावृत्तात्मा यथाविधि सूनवे नृपतिककुदं दत्त्वा यूने सितातपवारणम् ।

मुनिवनतरुच्छायां देव्या तया सह शिश्रिये गलितवयसामिक्ष्वाकूणामिदं हि कुलव्रतम् ॥ ३-७०॥

इसके बाद विषयों (इन्द्रिय ग्राह्य रूपादिकों) से जिनका चित्त हट गया है, ऐसे दिलीप महाराज शास्त्रोक्त रीति से युवावस्था को प्राप्त पुत्र रघु को राजचिन्ह श्वेतच्छत्र देकर पूर्वोक्त महारानी सुदक्षिणा के साथ मुनिजनों के तपोवन के वृक्षों की छाया का सेवन करने लगे (अर्थात्-वानप्रस्थाश्रम ले लिया ), क्योंकि-वृद्ध इक्ष्वाकुवंश के राजाओं का यह (वन में जाना ) कुलागत नियम है ॥ ७० ॥

इति श्रीकालिदासकृते रघुवंशे महाकाव्ये सजीविनीम्याख्यायां रघुराज्याभिषेको नाम तृतीयः सर्गः॥३॥


रघुवंशम् तृतीय सर्ग संक्षिप्त कथासार-


राजा ने सुदक्षिणा की गर्भकालिक सारी अभिलाषाओं को पूर्ण करके बड़ी धूम धाम के साथ पुरोहितों द्वारा पुंसवन-सीमन्तोन्नयनादि संस्कारों को कराया। पूर्ण समय होने पर शुभ मुहूर्त में पुत्रोत्पन्न सुनकर राजा अत्यन्त मुदित हुए। वशिष्ठ ने जातकर्म संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न किया। दिलीप ने पुत्र का नाम "रघु' रखा। रघु चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगे और थोड़े ही दिनों में सभी कला कौशल एवं विद्याओं में पारंगत हो गये। युवा होने पर राजा दिलीप ने उनको युवराज पद पर नियुक्त कर सौवाँ अश्वमेध यज्ञ प्रारंभ कर दिया जिसकी पूर्ति के लिये रघु को रक्षक बनाकर दिग्विजय के लिये घोड़ा छोड़ा गया किन्तु रक्षकों के सामने ही इन्द्र ने उस घोड़ा को चुरा लिया। घोड़ा के अपहरण से सब चकित हो उठे। उसी समय नन्दिनी वहाँ आ गई। रघु ने उसके मूत्र से आंखों को धो कर घोड़ा चुराकर ले जाते हुए इन्द्र को देखा और बाणों से देवराज इन्द्र की बांह को बेधकर इन्द्र-ध्वज को काट डाला । इस तरह दानों की घोर लड़ाई शुरू हो गई। रघु की वीरता पर प्रसन्न होकर इन्द्र ने कहा वत्स ! घोड़ा को छोड़कर दूसरा कोई वर मांगो । रघु ने कहा-यदि आप घोड़ा नहीं देना चाहते तो मेरे पिताजी सौंवा यज्ञ नहीं करके भी अश्वमेध यज्ञ के फल का भागी हों यह वर दें। इन्द्र 'तथास्तु' कहकर स्वर्ग चले गये। बाद में राजा दिलीप रघु जैसे वीर योग्य पुत्र को राजगद्दी पर बैठाकर वाणप्रस्थाश्रम में चले गये।

रघुवंशम् तृतीय सर्ग समाप्त ।

शेष कथा जारी........रघुवंशम् चतुर्थ सर्ग

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