श्रीरामरक्षास्तोत्रम्
श्रीरामरक्षास्तोत्रम् बुध कौशिक
ऋषि द्वारा रचित श्रीराम का स्तुति गान है। इसमें प्रभु श्री राम के अनेकों नाम का
गुणगान किया है। इसका पाठ करने के फायदे निम्न है-
1. इसका पाठ करने से प्रभु श्रीराम
आपकी हर तरह से रक्षा करते हैं।
2. कहते हैं कि इसके नित्य पठन से
हनुमानजी प्रसन्न होकर राम भक्तों की हर तरह से रक्षा करते हैं।
3. विधिवत रूप से राम रक्षा स्त्रोत
का 11 बार पाठ करने के दौरान एक कटोरी में सरसों के कुछ दानें लेकर उन्हें
अंगुलियों से घुमाते रहने से वह सिद्ध हो जाते हैं। उक्त दानों को घर में उचित और
पवित्र स्थान पर रख दें। यह दानें कोर्ट-कचहरी जाने के दौरान,
यात्रा पर जाने के दौरान या किसी एकांत में सोने के दौरान यह दानें
आपकी रक्षा करेंगे।
4. राम रक्षा स्तोत्रम् के 11 बार
किए जाने वाले पाठ से पानी को भी सरसों की तरह सिद्ध किया जा सकता है। इस पानी को
औषधि के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। इस पानी को रोगी को पिलाया जा सकता है।
इससे ली जाने वाली औषधि का तेजी से प्रभाव होता है। पानी को सिद्ध करने के लिये
राम रक्षा स्तोत्रम का पाठ करते हुए तांबे के बर्तन में पानी भरकर इसे अपने हाथ में
पकड़ कर रखें और अपनी दृष्टि पानी में रखें।
5. जो व्यक्ति नित्य राम रक्षा
स्तोत्रम् का पाठ करता रहता है वह आने वाली कई तरह की विपत्तियों से बच जाता है।
6. इसका प्रतिदिन पाठ करने से
व्यक्ति को दीर्घायु, संतान, शांति, विजयी, सुख और समृद्धि
प्राप्त होती है।
7. इसके नित्य पाठ करने से मंगल
ग्रह का कुप्रभाव भी समाप्त हो जाता है।
8. इसका नित्य पाठ करने वाले
व्यक्ति के मन में सकारात्मक भाव का संचार होता है और उसके चारों और सुरक्षा का एक
घेरा निर्मित हो जाता है।
9. इसका नित्य पाठ करने से मनुष्य
के मन से हर तरह का भय निकल जाता है और वह निर्भिक जीवन जीता है।
10. इसका नित्य पाठ करने से भगवान शिव की भी कृपा प्राप्त होती है क्योंकि इस स्त्रोत की रचना बुध कौशिक ऋषि ने भगवान शंकर के कहने पर ही की थी। भगवान शंकर ने उन्हें इस स्त्रोत की रचना की प्रेरणा स्वप्न में दी थी।
श्रीरामरक्षास्तोत्र
अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य
बुधकौशिक ऋषिः श्रीसीतारामचन्द्रो देवता अनुष्टुप् छन्दः सीता शक्तिः श्रीमद् हनुमान कीलकम्
श्रीरामचन्द्रप्रीत्यर्थे रामरक्षास्तोत्रजपे विनियोगः ॥
इस रामरक्षास्तोत्र-मन्त्र के
बुधकौशिक ऋषि हैं। सीता और रामचन्द्र देवता हैं, अनुष्टुप् छन्द है, सीता शक्ति हैं, श्रीमान् हनुमानजी कीलक हैं तथा श्रीरामचन्द्रजी की प्रसन्नता के लिये
रामरक्षास्तोत्र के जप में विनियोग किया जाता है।
अथ ध्यानम् ।
ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं
बद्धपद्मासनस्थं
पीतं वासो वसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं
प्रसन्नम् ।
वामाङ्कारूढ सीतामुखकमलमिलल्लोचनं
नीरदाभं
नानालङ्कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं
रामचन्द्रम् ॥
ध्यान-जो धनुष-बाण धारण किये हुए
हैं,
बद्धपद्मासन से विराजमान हैं, पीताम्बर पहने
हुए हैं, जिनके प्रसन्न नयन नूतन कमलदल से स्पर्धा करते तथा
वामभाग में विराजमान श्रीसीताजी के मुखकमल से मिले हुए हैं उन आजानुबाहु, मेघश्याम, नाना प्रकार के अलङ्कारों से विभूषित तथा
विशाल जटाजूटधारी श्रीरामचन्द्रजी का ध्यान करे।
इति ध्यानम् ॥
श्रीरामरक्षास्तोत्रम्
चरितं रघुनाथस्य शतकोटि प्रविस्तरम्
।
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ॥
१॥
श्रीरघुनाथजी का
चरित्र सौ करोड़ विस्तारवाला है और उसका एक-एक अक्षर भी मनुष्यों के महान् पापों को
नष्ट करनेवाला है ॥ १ ॥
ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं
राजीवलोचनम् ।
जानकीलक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमण्डितम्
॥ २॥
सासितूणधनुर्बाणपाणिं
नक्तञ्चरान्तकम् ।
स्वलीलया जगत्रातुं आविर्भूतं अजं
विभुम् ॥ ३॥
रामरक्षां पठेत्प्राज्ञः पापघ्नीं
सर्वकामदाम् ।
शिरोमे राघवः पातु भालं दशरथात्मजः
॥ ४॥
जो नीलकमलदल के समान श्यामवर्ण,
कमलनयन, जटाओं के मुकुट से सुशोभित, हाथों में खड्ग, तूणीर, धनुष
और बाण धारण करनेवाले, राक्षसों के संहारकारी तथा संसार की
रक्षा के लिये अपनी लीला से ही अवतीर्ण हुए हैं, उन अजन्मा और
सर्वव्यापक भगवान् राम का जानकी और लक्ष्मणजी के सहित स्मरण कर
प्राज्ञ पुरुष इस सर्वकामप्रदा और पापविनाशिनी रामरक्षा का पाठ करे। मेरे सिर की
राघव और ललाट की दशरथात्मज रक्षा करें ।। २-४॥
कौसल्येयो दृशौ पातु
विश्वामित्रप्रियश्रुती ।
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं
सौमित्रिवत्सलः ॥ ५॥
कौसल्यानन्दन नेत्रों की रक्षा करें,
विश्वामित्रप्रिय कानों को सुरक्षित रखें तथा यज्ञरक्षक घ्राण की और
सौमित्रिवत्सल मुख की रक्षा करें ॥ ५॥
जिह्वां विद्यानिधिः पातु कण्ठं
भरतवन्दितः ।
स्कन्धौ दिव्यायुधः पातु भुजौ
भग्नेशकार्मुकः ॥ ६॥
मेरी जिह्वा की विद्यानिधि,
कण्ठ की भरतवन्दित, कन्धों की दिव्यायुध और
भुजाओं की भग्नेशकार्मुक (महादेवजी का धनुष तोड़नेवाले) रक्षा करें ॥ ६॥
करौ सीतापतिः पातु हृदयं
जामदग्न्यजित् ।
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं
जाम्बवदाश्रयः ॥ ७॥
हाथों की सीतापति,
हृदय की जामदग्न्यजित् (परशुरामजी को जीतनेवाले), मध्यभाग की खरध्वंसी (खर नाम के राक्षस का नाश करनेवाले) और नाभि की
जाम्बवदाश्रय (जाम्बवान के आश्रयस्वरूप) रक्षा करें ।। ७॥
सुग्रीवेशः कटी पातु सक्थिनी
हनुमत्प्रभुः ।
ऊरू रघूत्तमः पातु
रक्षःकुलविनाशकृत् ॥ ८॥
कमर की सुग्रीवेश (सुग्रीव के स्वामी), सक्थियों की हनुमत्प्रभु और ऊरुओं की राक्षसकुलविनाशक रघुश्रेष्ठ रक्षा करें ।।
जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्घे
दशमुखान्तकः ।
पादौ बिभीषणश्रीदः पातु रामोऽखिलं
वपुः ॥ ९॥
जानुओं की सेतुकृत्,
जङ्घाओं की दशमुखान्तक (रावण को मारनेवाले), चरणों
की विभीषणश्रीद (विभीषण को ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले) और सम्पूर्ण शरीर की श्रीराम
रक्षा करें ॥ ९ ॥
एतां रामबलोपेतां रक्षां यः सुकृती
पठेत् ।
स चिरायुः सुखी पुत्री विजयी विनयी
भवेत् ॥ १०॥
जो पुण्यवान् पुरुष रामबल से
सम्पन्न इस रक्षा का पाठ करता है वह दीर्घायु, सुखी,
पुत्रवान्, विजयी और विनयसम्पन्न हो जाता है
।। १० ।।
पातालभूतलव्योमचारिणश्छद्मचारिणः ।
न द्रष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभिः
॥ ११॥
जो जीव पाताल,
पृथ्वी अथवा आकाश में विचरते हैं और जो
छद्मवेश से घूमते रहते हैं वे रामनामों से सुरक्षित पुरुष को देख भी नहीं
सकते ॥ ११ ॥
रामेति रामभद्रेति रामचन्द्रेति वा
स्मरन् ।
नरो न लिप्यते पापैः भुक्तिं
मुक्तिं च विन्दति ॥ १२॥
'राम', 'रामभद्र',
'रामचन्द्र' इन नामों का स्मरण करने से मनुष्य
पापों से लिप्त नहीं होता तथा भोग और मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥ १२ ॥
जगजैत्रैकमन्त्रेण
रामनाम्नाभिरक्षितम् ।
यः कण्ठे धारयेत्तस्य करस्थाः
सर्वसिद्धयः ॥ १३॥
जो पुरुष जगत्को विजय करनेवाले
एकमात्र मन्त्र रामनाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कण्ठ में धारण करता है (अर्थात्
इसे कण्ठस्थ कर लेता है) सम्पूर्ण सिद्धियाँ उसके हस्तगत हो जाती हैं ॥ १३ ॥
वज्रपञ्जरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत्
।
अव्याहताज्ञः सर्वत्र लभते
जयमङ्गलम् ॥ १४॥
जो मनुष्य वज्रपञ्जर नामक इस
रामकवच का स्मरण करता है उसकी आज्ञा का कहीं उल्लङ्घन नहीं होता और उसे
सर्वत्र जय और मङ्गल की प्राप्ति होती है ॥ १४॥
आदिष्टवान् यथा स्वप्ने
रामरक्षांमिमां हरः ।
तथा लिखितवान् प्रातः प्रबुद्धो
बुधकौशिकः ॥ १५॥
श्रीशङ्कर
ने रात्रि के समय स्वप्न में इस रामरक्षा का जिस प्रकार आदेश दिया था उसी
प्रकार प्रातःकाल जागने पर, बुधकौशिक ने इसे
लिख दिया ॥ १५॥
आरामः कल्पवृक्षाणां विरामः
सकलापदाम् ।
अभिरामस्त्रिलोकानां रामः श्रीमान्
स नः प्रभुः ॥ १६॥
जो मानो कल्पवृक्षों के बगीचे हैं
तथा समस्त आपत्तियों का अन्त करनेवाले हैं, जो
तीनों लोकों में परम सुन्दर हैं वे श्रीमान् राम हमारे प्रभु हैं ॥ १६ ॥
तरुणौ रूपसम्पन्नौ सुकुमारौ महाबलौ
।
पुण्डरीकविशालाक्षौ
चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥ १७॥
फलमूलाशिनौ दान्तौ तापसौ
ब्रह्मचारिणौ ।
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ
रामलक्ष्मणौ ॥ १८॥
शरण्यौ सर्वसत्त्वानां श्रेष्ठौ
सर्वधनुष्मताम् ।
रक्षः कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो
रघूत्तमौ ॥ १९॥
जो तरुण अवस्थावाले,
रूपवान्, सुकुमार, महाबली,
कमल के समान विशाल नेत्रवाले, चीरवस्त्र और
कृष्णमृगचर्मधारी, फल-मूल आहार करनेवाले, संयमी, तपस्वी, ब्रह्मचारी,
सम्पूर्ण जीवों को शरण देनेवाले, समस्त
धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और राक्षसकुल का नाश करनेवाले हैं वे रघुश्रेष्ठ दशरथकुमार
राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें ।। १७-१९ ॥
आत्तसज्जधनुषाविषुस्पृशावक्षयाशुगनिषङ्गसङ्गिनौ
।
रक्षणाय मम रामलक्ष्मणावग्रतः पथि
सदैव गच्छताम् ॥ २०॥
जिन्होंने सन्धान किया हुआ धनुष ले
रखा है,
जो बाण का स्पर्श कर रहे हैं तथा अक्षय बाणों से युक्त तूणीर लिये
हुए हैं वे राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करने के लिये मार्ग में सदा ही मेरे
आगे चलें ॥ २० ॥
सन्नद्धः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा
।
गच्छन्मनोरथोऽस्माकं रामः पातु
सलक्ष्मणः ॥ २१॥
सर्वदा उद्यत,
कवचधारी, हाथ में खड्ग लिये, धनुष-बाण धारण किये तथा युवा अवस्थावाले भगवान् राम लक्ष्मणजी के सहित
आगे-आगे चलकर हमारे मनोरथों की रक्षा करें ।। २१॥
रामो दाशरथिः शूरो लक्ष्मणानुचरो
बली ।
काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णः कौसल्येयो
रघुत्तमः ॥ २२॥
वेदान्तवेद्यो यज्ञेशः
पुराणपुरुषोत्तमः ।
जानकीवल्लभः श्रीमान् अप्रमेय
पराक्रमः ॥ २३॥
इत्येतानि जपन्नित्यं मद्भक्तः
श्रद्धयान्वितः ।
अश्वमेधाधिकं पुण्यं सम्प्राप्नोति
न संशयः ॥ २४॥
(भगवान्का कथन है कि) राम,
दाशरथि, शूर, लक्ष्मणानुचर,
बली, काकुत्स्थ, पुरुष,
पूर्ण, कौसल्येय, रघूत्तम,
वेदान्तवेद्य, यज्ञेश, पुरुषोत्तम,
जानकीवल्लभ, श्रीमान् और अप्रमेयपराक्रम - इन
नामों का नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करने से मेरा भक्त अश्वमेध-यज्ञ से भी अधिक
फल प्राप्त करता है, इसमें कोई सन्देह नहीं ।। २२-२४ ।।
रामं दुर्वादलश्यामं पद्माक्षं
पीतवाससम् ।
स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैः न ते
संसारिणो नरः ॥ २५॥
जो लोग दूर्वादल के समान श्यामवर्ण,
कमलनयन, पीताम्बरधारी, भगवान् राम का इन दिव्य नामों से स्तवन करते हैं
वे संसारचक्र में नहीं पड़ते ।। २५ ॥
रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं
सीतापतिं सुन्दरम् ।
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं
धार्मिकम् ।
राजेन्द्रं सत्यसन्धं दशरथतनयं
श्यामलं शान्तमूर्तिम् ।
वन्दे लोकाभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं
रावणारिम् ॥ २६॥
लक्ष्मणजी के पूर्वज,
रघुकुल में श्रेष्ठ, सीताजी के स्वामी, अति
सुन्दर, ककुत्स्थकुलनन्दन, करुणासागर,
गुणनिधान, ब्राह्मणभक्त, परम धार्मिक, राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ,
दशरथपुत्र, श्याम और शान्तमूर्ति, सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर,रघुकुलतिलक, राघव और रावणारि भगवान् राम की मैं वन्दना करता हूँ।। २६॥
रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे
।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥
२७॥
राम, रामभद्र, रामचन्द्र, विधातृस्वरूप,
रघुनाथ प्रभु सीतापति को नमस्कार है॥ २७ ॥
श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम
श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।
श्रीराम राम रणकर्कश राम राम
श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥ २८॥
हे रघुनन्दन श्रीराम ! हे भरताग्रज
भगवान् राम ! हे रणधीर प्रभु राम ! आप मेरे आश्रय होइये ॥ २८ ॥
श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि
श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि
श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ २९॥
मैं श्रीरामचन्द्र के चरणों का
मन से स्मरण करता हूँ, श्रीरामचन्द्र के
चरणों का वाणी से कीर्तन करता हूँ, श्रीरामचन्द्र के चरणों को
सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ तथा श्रीरामचन्द्र के चरणों की शरण लेता हूँ। २९ ।।
माता रामो मत्पिता रामचन्द्रः
स्वामी रामो मत्सखा रामचन्द्रः ।
सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु-
र्नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥ ३०॥
राम मेरी माता हैं,
राम मेरे पिता हैं, राम स्वामी हैं और राम ही
मेरे सखा हैं। दयामय रामचन्द्र ही मेरे सर्वस्व हैं; उनके
सिवा और किसी को मैं नहीं जानता-बिलकुल नहीं जानता ॥ ३० ॥
दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु
जनकात्मजा ।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे
रघुनन्दनम् ॥ ३१॥
जिनकी दायीं ओर लक्ष्मणजी,
बायीं ओर जानकीजी और सामने हनुमानजी विराजमान हैं उन रघुनाथजी की मैं वन्दना करता
हूँ ।। ३१ ॥
लोकाभिरामं रणरङ्गधीरं
राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम् ।
कारुण्यरूपं करुणाकरं तं
श्रीरामचन्द्रम् शरणं प्रपद्ये ॥ ३२॥
जो सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर,
रणक्रीडा में धीर, कमलनयन, रघुवंशनायक, करुणामूर्ति और करुणा के भण्डार हैं
उन श्रीरामचन्द्रजी की मैं शरण लेता हूँ॥ ३२ ॥
मनोजवं मारुततुल्यवेगं
जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं
श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥ ३३॥
जिनकी मन के समान गति और वायु के
समान वेग है, जो परम जितेन्द्रिय और
बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं उन पवननन्दन वानराग्रगण्य श्रीरामदूत की
मैं शरण लेता हूँ॥ ३३॥
कूजन्तं राम रामेति मधुरं
मधुराक्षरम् ।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे
वाल्मीकिकोकिलम् ॥ ३४॥
कवितामयी डाली पर बैठकर मधुर
अक्षरों वाले 'राम-राम' इस
मधुर नाम को कूजते हुए वाल्मीकिरूप कोकिल की मैं वन्दना करता हैं ॥ ३४॥
आपदां अपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम्
।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो
नमाम्यहम् ॥ ३५॥
आपत्तियों को हरनेवाले तथा सब
प्रकार की सम्पत्ति प्रदान करनेवाले लोकाभिराम भगवान् राम को बारंबार
नमस्कार करता हूँ ।। ३५ ॥
भर्जनं भवबीजानां अर्जनं
सुखसम्पदाम् ।
तर्जनं यमदूतानां राम रामेति
गर्जनम् ॥ ३६॥
'राम-राम' ऐसा
घोष करना सम्पूर्ण संसारबीजों को भून डालनेवाला, समस्त
सुख-सम्पत्ति की प्राप्ति करानेवाला तथा यमदूतों को भयभीत करनेवाला है ॥ ३६ ॥
रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं
भजे
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः ।
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य
दासोस्म्यहं
रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर
॥ ३७॥
राजाओं में श्रेष्ठ श्रीरामजी सदा
विजय को प्राप्त होते हैं। मैं लक्ष्मीपति भगवान् राम का भजन करता हूँ। जिन
रामचन्द्रजी ने सम्पूर्ण राक्षससेना का ध्वंस कर दिया था,
मैं उनको प्रणाम करता हूँ । राम से बड़ा और कोई भी आश्रय नहीं है।
मैं उन रामचन्द्रजी का दास हूँ। मेरा चित्त सदा राम में ही लीन रहे; हे राम ! आप मेरा उद्धार कीजिये ॥ ३७॥
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे
।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥
३८॥
(श्रीमहादेवजी पार्वतीजी
से कहते हैं-) हे सुमुखि ! रामनाम विष्णुसहस्रनाम के तुल्य है। मैं सर्वदा 'राम, राम, राम' इस प्रकार मनोरम राम-नाम में ही रमण करता हूँ॥ ३८ ॥
इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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