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कर्मकाण्ड

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श्रीसीतारामाष्टक

श्रीसीतारामाष्टक

भगवान् राम और माता सीता के इस श्रीसीतारामाष्टक का जो पाठ करता है उनके सारे अनिष्टों का नाश हो जाता है और भगवान् श्रीरामजी के चरणकमलों की दासता प्राप्त करता है।

श्रीसीतारामाष्टक

श्रीसीतारामाष्टकम्

ब्रह्ममहेन्द्रसुरेन्द्रमरुद्गणरुद्रमुनीन्द्रगणैरतिरम्यं

क्षीरसरित्पतितीरमुपेत्य नुतं हि सतामवितारमुदारम् ।

भूमिभरप्रशमार्थमथ प्रथितप्रकटीकृतचिद्घनमूर्तिम् ।

त्वां भजतो रघुनन्दन देहि दयाघन मे स्वपदाम्बुजदास्यम् ॥ १॥

ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, मरुद्गण, रुद्र और मुनिजनों ने जब अति रमणीय क्षीरसागर के तट पर जाकर संत-प्रतिपालक अति उदार आपकी वन्दना की, तब भूमि का भार उतारने के लिये जिन आपने अपनी चिद्घन मूर्ति को प्रकट किया, हे दयामय रघुनन्दन ! उन आपको भजनेवाले मुझको अपने चरणकमलों की दासता दीजिये ॥१॥

पद्मदलायतलोचन हे रघुवंशविभूषण देव दयालो

निर्मलनीरदनीलतनोऽखिललोकहृदम्बुजभासक भानो ।

कोमलगात्र पवित्रपदाब्जरजःकणपावित गौतमकान्त ।

त्वां भजतो रघुनन्दन देहि दयाघन मे स्वपदाम्बुजदास्यम् ॥ २॥

हे कमलदललोचन ! हे रघुवंशावतंस ! हे देव ! हे दयालो ! हे निर्मल श्यामघन के सदृश शरीरवाले ! हे निखिललोकहृत्पद्म-प्रभाकर ! हे अति सुकुमार शरीरवाले ! अपने अति पुनीत चरणारविन्दों की धूलि से गौतमपत्नी अहल्या को पवित्र करनेवाले, दयामय रघुनन्दन ! अपने भजनेवाले मुझको आप अपने चरणकमलों की दासता दीजिये ॥

पूर्ण परात्पर पालय मामतिदीनमनाथमनन्तसुखाब्धे

प्रावृडदभ्रतडित्सुमनोहरपीतवराम्बर राम नमस्ते ।

कामविभञ्जन कान्ततरानन काञ्चनभूषण रत्नकिरीट ।

त्वां भजतो रघुनन्दन देहि दयाघन मे स्वपदाम्बुजदास्यम् ॥ ३॥

हे पूर्ण ! हे परात्पर ! हे अनन्त सुखसागर ! मुझ अति दीन और अनाथ की रक्षा करो। वर्षाकालीन अति चपल चञ्चला के समान मनोहर पीताम्बरधारी श्रीराम ! आपको नमस्कार है। हे कन्दर्प-दर्प-दलन, हे सुन्दर वदन, सुवर्ण-भूषण एवं रत्नकिरीटधारी, दयामय, रघुनन्दन ! अपने भजनेवाले मुझको आप अपने चरणकमलों की दासता दीजिये ॥३॥

दिव्यशरच्छशिकान्तिहरोज्ज्वलमौक्तिकमालविशालसुमौले

कोटिरविप्रभ चारुचरित्रपवित्र विचित्रधनुःशरपाणे ।

चण्डमहाभुजदण्डविखण्डितराक्षसराजमहागजदण्डम् ।

त्वां भजतो रघुनन्दन देहि दयाघन मे स्वपदाम्बुजदास्यम् ॥ ४॥

दिव्यशरच्चन्द्र की कान्ति को मलिन करनेवाली स्वच्छ मुक्तामाला को अपने सुविशाल मौलि पर धारण करनेवाले, कोटि सूर्य की-सी आभावाले, सदाचार से पवित्र, करकमलों में विचित्र धनुष-बाण धारण करनेवाले एवं अपने प्रचण्ड भुजदण्ड से रावणरूपी महागज का वध करनेवाले हे दयामय श्रीरघुनन्दन ! अपने भजनेवाले मुझको आप अपने चरणकमलों की दासता दीजिये ॥ ४ ॥

दोषविहिंस्रभुजङ्गसहस्रसुरोषमहानलकीलकलापे

जन्मजरामरणोर्मिमये मदमन्मथनक्रविचक्रभवाब्धौ ।

दुःखनिधौ च चिरं पतितं कृपयाद्य समुद्धर राम ततो माम् ।

त्वां भजतो रघुनन्दन देहि दयाघन मे स्वपदाम्बुजदास्यम् ॥ ५॥

जिसमें दोषरूपी हजारों हिंसक सर्प हैं,क्रोधरूपी बड़वानल की ज्वालाएँ उठ रही हैं, जन्म-जरा-मरणरूपिणी तरङ्गावली है तथा मद और कामरूपी मगरमच्छ और भँवर हैं, ऐसे इस दुःखमय भवसागर में चिरकाल से पड़े हुए मुझको, हे राम ! कृपया अब निकालिये; और हे दयामय रघुनन्दन ! अपने भजनेवाले मुझको आप अपने चरणकमलों की दासता दीजिये ॥ ५॥

संसृतिघोरमदोत्कटकुञ्जरतृट्क्षुदनीरदपिण्डिततुण्डं

दण्डकरोन्मथितं च रजस्तम उन्मदमोहपदोज्झितमार्तम् ।

दीनमनन्यगतिं कृपणं शरणागतमाशु विमोचय मूढम् ।

त्वां भजतो रघुनन्दन देहि दयाघन मे स्वपदाम्बुजदास्यम् ॥ ६॥

तृषा और क्षुधा जिसके तीक्ष्ण दाँत हैं, ऐसा संसाररूपी एक उन्मत्त हाथी है । उसकी यमरूपी सूंड से झटकों में पड़े हुए तथा रज, तम, उन्माद और मोहरूप चारों पगों से कुचले हुए अति आर्त, दीन, अनन्यशरण मुझ मूढ़ को शीघ्र ही छुड़ाइये; और हे दयामय रघुनन्दन ! अपने भजनेवाले मुझको अपने चरणकमलों की दासता दीजिये ॥ ६ ॥

जन्मशतार्जितपापसमन्वितहृत्कमले पतिते पशुकल्पे

हे रघुवीर महारणधीर दयां कुरु मय्यतिमन्दमनीषे ।

त्वं जननी भगिनी च पिता मम तावदसि त्ववितापि कृपालो ।

त्वां भजतो रघुनन्दन देहि दयाघन मे स्वपदाम्बुजदास्यम् ॥ ७॥

जिसका हृदयकमल सैकड़ों जन्मों के सञ्चित पापों से युक्त है, जो पशुतुल्य पतित हो गया है,उस अति मतिमन्द मुझ पर हे महारणधीर रघुवीर ! कृपा कीजिये। आप ही मेरे माता, पिता और भगिनी हैं तथा हे कृपालो ! आप ही मेरे रक्षक हैं। हे दयामय रघुनन्दन ! अपना भजन करनेवाले मुझको अपने चरणकमलों की दासता दीजिये॥७॥

त्वां तु दयालुमकिञ्चनवत्सलमुत्पलहारमपारमुदारं राम

विहाय कमन्यमनामयमीश जनं शरणं ननु यायाम् ।

त्वत्पदपद्ममतः श्रितमेव मुदा खलु देव सदाव ससीत ।

त्वां भजतो रघुनन्दन देहि दयाघन मे स्वपदाम्बुजदास्यम् ॥ ८॥

हे मेरे स्वामी राम ! गले में कमलपुष्पों की माला धारण करनेवाले आप-सदृश अतिशय उदार दीनवत्सल और दयामय प्रभु को छोड़कर मैं और किस अनामय पुरुष की शरण लूँ? अतः मैंने तो आपके ही चरणकमलों का आसरा लिया है। हे सीताजी के सहित राम ! आप प्रसन्न होकर मेरी सर्वदा रक्षा कीजिये और हे दयामय भगवान् रघुनन्दन ! आपका भजन करनेवाले मुझको अपने चरणकमलों की दासता दीजिये ॥ ८॥

यः करुणामृतसिन्धुरनाथजनोत्तमबन्धुरजोत्तमकारी

भक्तभयोर्मिभवाब्धितरिः सरयूतटिनीतटचारुविहारी ।

तस्य रघुप्रवरस्य निरन्तरमष्टकमेतदनिष्टहरं वै यस्तु

पठेदमरः स नरो लभतेऽच्युतरामपदाम्बुजदास्यम् ॥ ९॥

जो करुणारूप अमृत के समुद्र हैं, अनाथों के उत्तम बन्धु हैं, अजन्मा और उत्तम कर्मा हैं, भक्तों को भयरूप तरङ्गावलि से पूर्ण संसारसागर से पार करने के लिये नौकारूप हैं और सरयू नदी के तीर पर सुन्दर लीलाएँ करनेवाले हैं, उन रघुश्रेष्ठ के इस अष्टक का, जो सर्वदा सब अनिष्टों को दूर करनेवाला है, जो पुरुष पाठ करता है, वह अमर हो जाता है और अविनाशी भगवान् राम के चरणकमलों की दासता प्राप्त करता है॥९॥

॥ इति श्रीमन्मधुसूदनाश्रमशिष्याच्युतयतिविरचितं श्रीसीतारामाष्टकं सम्पूर्णम् ॥

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