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श्री रामचरित
मानस
प्रथम सोपान
(बालकाण्ड)
नाम प्रसाद
संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥
सुक सनकादि
सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥
नाम ही के
प्रसाद से शिव अविनाशी हैं और अमंगल वेषवाले होने पर भी मंगल की राशि हैं। शुकदेव
और सनकादि सिद्ध, मुनि, योगी गण नाम के ही प्रसाद से ब्रह्मानंद को भोगते हैं।
नारद जानेउ
नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥
नामु जपत
प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥
नारद ने नाम
के प्रताप को जाना है। हरि सारे संसार को प्यारे हैं,
(हरि को हर प्यारे हैं) और
आप (नारद) हरि और हर दोनों को प्रिय हैं। नाम के जपने से प्रभु ने कृपा की,
जिससे प्रह्लाद भक्त शिरोमणि हो गए।
ध्रुवँ सगलानि
जपेउ हरि नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥
सुमिरि पवनसुत
पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू॥
ध्रुव ने
ग्लानि से हरि नाम को जपा और उसके प्रताप से अचल अनुपम स्थान प्राप्त किया। हनुमान
ने पवित्र नाम का स्मरण करके राम को अपने वश में कर रखा है।
अपतु अजामिलु
गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
कहौं कहाँ लगि
नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
नीच अजामिल,
गज और गणिका भी हरि के नाम के प्रभाव से मुक्त हो गए। मैं
नाम की बड़ाई कहाँ तक कहूँ, राम भी नाम के गुणों को नहीं गा सकते।
दो० - नामु
राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
जो सुमिरत भयो
भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥ 26॥
कलियुग में
राम का नाम कल्पतरु और कल्याण का निवास है, जिसको स्मरण करने से भाँग-सा (निकृष्ट) तुलसीदास तुलसी के
समान (पवित्र) हो गया॥ 26॥
चहुँ जुग तीनि
काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥
बेद पुरान संत
मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू॥
(केवल कलियुग की ही बात नहीं है,) चारों युगों में, तीनों काल में और तीनों लोकों में नाम को जपकर जीव शोकरहित
हुए हैं। वेद, पुराण और संतों का मत यही है कि समस्त पुण्यों का फल राम में (या राम नाम में)
प्रेम होना है।
ध्यानु प्रथम
जुग मख बिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥
कलि केवल मल
मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना॥
पहले (सत्य)
युग में ध्यान से, दूसरे (त्रेता) युग में यज्ञ से और द्वापर में पूजन से
भगवान प्रसन्न होते हैं, परंतु कलियुग केवल पाप की जड़ और मलिन है,
इसमें मनुष्यों का मन पापरूपी समुद्र में मछली बना हुआ है
नाम कामतरु
काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥
राम नाम कलि
अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥
ऐसे कराल
(कलियुग के) काल में तो नाम ही कल्पवृक्ष है, जो स्मरण करते ही संसार के सब जंजालों को नाश कर देनेवाला
है। कलियुग में यह राम नाम मनोवांछित फल देनेवाला है,
परलोक का परम हितैषी और इस लोक का माता-पिता है
नहिं कलि करम
न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥
कालनेमि कलि
कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥
कलियुग में न
कर्म है,
न भक्ति है और न ज्ञान ही है, राम नाम ही एक आधार है। कपट की खान कलियुगरूपी कालनेमि के
लिए राम नाम ही बुद्धिमान और समर्थ हनुमान हैं।
दो० - राम नाम
नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।
जापक जन
प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥ 27॥
राम नाम
नृसिंह भगवान है, कलियुग हिरण्यकशिपु है और जप करनेवाले जन प्रह्लाद के समान
हैं,
यह राम नाम देवताओं के शत्रु को मारकर जप करने वालों की
रक्षा करेगा॥ 27॥
भायँ कुभायँ
अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
सुमिरि सो नाम
राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥
अच्छे भाव
(प्रेम) से, बुरे भाव (बैर) से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता
है। उसी राम नाम का स्मरण करके और रघुनाथ को मस्तक नवाकर मैं राम के गुणों का
वर्णन करता हूँ।
मोरि सुधारिहि
सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
राम सुस्वामि
कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो॥
वे मेरा सब
तरह से सुधार लेंगे, जिनकी कृपा कृपा करने से नहीं अघाती। राम से उत्तम स्वामी और
मुझ सरीखा बुरा सेवक! इतने पर भी उन दयानिधि ने अपनी ओर देखकर मेरा पालन किया है।
लोकहुँ बेद
सुसाहिब रीती। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥
गनी गरीब
ग्राम नर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥
लोक और वेद
में भी अच्छे स्वामी की यही रीति प्रसिद्ध है कि वह विनय सुनते ही प्रेम को पहचान
लेता है। अमीर-गरीब, गँवार-नगर निवासी, पंडित-मूर्ख, बदनाम-यशस्वी...
सुकबि कुकबि
निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी॥
साधु सुजान
सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला॥
सुकवि-कुकवि,
सभी नर-नारी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार राजा की सराहना
करते हैं और साधु, बुद्धिमान, सुशील, ईश्वर के अंश से उत्पन्न कृपालु राजा - ।
सुनि सनमानहिं
सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी॥
यह प्राकृत
महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥
सबकी सुनकर और
उनकी वाणी, भक्ति, विनय और चाल को पहचानकर सुंदर वाणी से सबका यथायोग्य सम्मान करते हैं। यह
स्वभाव तो संसारी राजाओं का है, कोसलनाथ राम तो चतुरशिरोमणि हैं।
रीझत राम सनेह
निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें॥
राम तो
विशुद्ध प्रेम से ही रीझते हैं, पर जगत में मुझसे बढ़कर मूर्ख और मलिन बुद्धि और कौन होगा?
दो० - सठ सेवक
की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।
उपल किए जलजान
जेहिं सचिव सुमति कपि भालु॥ 28(क)॥
तथापि कृपालु
राम मुझ दुष्ट सेवक की प्रीति और रुचि को अवश्य रखेंगे,
जिन्होंने पत्थरों को जहाज और बंदर-भालुओं को बुद्धिमान
मंत्री बना लिया॥ 28(क)॥
हौंहु कहावत
सबु कहत राम सहत उपहास।
साहिब सीतानाथ
सो सेवक तुलसीदास॥ 28(ख)॥
सब लोग मुझे
राम का सेवक कहते हैं और मैं भी कहलाता हूँ (कहने वालों का विरोध नहीं करता),
कृपालु राम इस निंदा को सहते हैं कि सीतानाथ - जैसे स्वामी
का तुलसीदास-सा सेवक है॥ 28(ख)॥
अति बड़ि मोरि
ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥
समुझि सहम
मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥
यह मेरी बहुत
बड़ी ढिठाई और दोष है, मेरे पाप को सुनकर नरक ने भी नाक सिकोड़ ली है (अर्थात नरक
में भी मेरे लिए ठौर नहीं है)। यह समझकर मुझे अपने ही कल्पित डर से डर हो रहा है,
किंतु भगवान राम ने तो स्वप्न में भी इस पर (मेरी इस ढिठाई
और दोष पर) ध्यान नहीं दिया।
सुनि अवलोकि
सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥
कहत नसाइ होइ
हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥
वरन मेरे
प्रभु राम ने तो इस बात को सुनकर, देखकर और अपने सुचित्तरूपी चक्षु से निरीक्षण कर मेरी भक्ति
और बुद्धि की सराहना की। क्योंकि कहने में चाहे बिगड़ जाए (अर्थात मैं चाहे अपने
को भगवान का सेवक कहता-कहलाता रहूँ), परंतु हृदय में अच्छापन होना चाहिए। राम भी दास के हृदय की
स्थिति जानकर रीझ जाते हैं।
रहति न प्रभु
चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥
जेहिं अघ बधेउ
ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली॥
प्रभु के
चित्त में अपने भक्तों की हुई भूल-चूक याद नहीं रहती और उनके हृदय को सौ-सौ बार
याद करते रहते हैं। जिस पाप के कारण उन्होंने बालि को व्याध की तरह मारा था,
वैसी ही कुचाल फिर सुग्रीव ने चली।
सोइ करतूति
बिभीषन केरी। सपनेहूँ सो न राम हियँ हेरी॥
ते भरतहि
भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने॥
वही करनी
विभीषण की थी, परंतु राम ने स्वप्न में भी उसका मन में विचार नहीं किया। उलटे भरत से मिलने
के समय रघुनाथ ने उनका सम्मान किया और राजसभा में भी उनके गुणों का बखान किया।
दो० - प्रभु
तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान।
तुलसी कहूँ न
राम से साहिब सील निधान॥ 29(क)॥
प्रभु तो
वृक्ष के नीचे और बंदर डाली पर परंतु ऐसे बंदरों को भी उन्होंने अपने समान बना
लिया। तुलसीदास कहते हैं कि राम-सरीखे शीलनिधान स्वामी कहीं भी नहीं हैं॥ 29(क)॥
राम निकाईं
रावरी है सबही को नीक।
जौं यह साँची
है सदा तौ नीको तुलसीक॥ 29(ख)॥
हे राम! आपकी
अच्छाई से सभी का भला है। यदि यह बात सच है तो तुलसीदास का भी सदा कल्याण ही होगा॥
29(ख)॥
एहि बिधि निज
गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।
बरनउँ रघुबर
बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ॥ 29(ग)॥
इस प्रकार
अपने गुण-दोषों को कहकर और सबको फिर सिर नवाकर मैं रघुनाथ का निर्मल यश वर्णन करता
हूँ,
जिसके सुनने से कलियुग के पाप नष्ट हो जाते हैं॥ 29(ग)॥
जागबलिक जो
कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥
कहिहउँ सोइ
संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥
मुनि
याज्ञवल्क्यजी ने जो सुहावनी कथा मुनिश्रेष्ठ भरद्वाज को सुनाई थी,
उसी संवाद को मैं बखानकर कहूँगा;
सब सज्जन सुख का अनुभव करते हुए उसे सुनें।
संभु कीन्ह यह
चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥
सोइ सिव
कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा॥
शिव ने पहले
इस सुहावने चरित्र को रचा, फिर कृपा करके पार्वती को सुनाया। वही चरित्र शिव ने
काकभुशुंडि को रामभक्त और अधिकारी पहचानकर दिया।
तेहि सन
जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥
ते श्रोता
बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥
उन काकभुशुंडि
से फिर याज्ञवल्क्य ने पाया और उन्होंने फिर उसे भरद्वाज को गाकर सुनाया। वे दोनों
वक्ता और श्रोता (याज्ञवल्क्य और भरद्वाज) समान शीलवाले और समदर्शी हैं और हरि की
लीला को जानते हैं।
जानहिं तीनि
काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना॥
औरउ जे हरिभगत
सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना॥
वे अपने ज्ञान
से तीनों कालों की बातों को हथेली पर रखे हुए आँवले के समान (प्रत्यक्ष) जानते
हैं। और भी जो सुजान हरि भक्त हैं, वे इस चरित्र को नाना प्रकार से कहते,
सुनते और समझते हैं।
दो० - मैं
पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
समुझी नहिं
तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥ 30(क)॥
फिर वही कथा
मैंने वाराह क्षेत्र में अपने गुरु से सुनी, परंतु उस समय मैं लड़कपन के कारण बहुत बेसमझ था,
इससे उसको समझा नहीं॥ 30(क)॥
श्रोता बकता
ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।
किमि समुझौं
मैं जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़॥ 30(ख)॥
श्री राम की
गूढ़ कथा के वक्ता और श्रोता ज्ञान के खजाने होते हैं। मैं कलियुग के पापों से
ग्रसा हुआ महामूढ़ जड़ जीव भला उसको कैसे समझ सकता था?॥ 30(ख)॥
तदपि कही गुर
बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥
भाषाबद्ध करबि
मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥
तो भी गुरु ने
जब बार-बार कथा कही, तब बुद्धि के अनुसार कुछ समझ में आई। वही अब मेरे द्वारा
भाषा में रची जाएगी, जिससे मेरे मन को संतोष हो।
जस कछु बुधि
बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें॥
निज संदेह मोह
भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी॥
जैसा कुछ
मुझमें बुद्धि और विवेक का बल है, मैं हृदय में हरि की प्रेरणा से उसी के अनुसार कहूँगा। मैं
अपने संदेह, अज्ञान और भ्रम को हरनेवाली कथा रचता हूँ, जो संसाररूपी नदी के पार करने के लिए नाव है।
बुध बिश्राम
सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥
रामकथा कलि
पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥
रामकथा
पंडितों को विश्राम देनेवाली, सब मनुष्यों को प्रसन्न करनेवाली और कलियुग के पापों का नाश
करनेवाली है। रामकथा कलियुगरूपी साँप के लिए मोरनी है और विवेकरूपी अग्नि के प्रकट
करने के लिए अरणि (मंथन की जानेवाली लकड़ी) है।
रामकथा कलि
कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥
सोइ बसुधातल
सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि॥
रामकथा कलियुग
में सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाली कामधेनु गौ है और सज्जनों के लिए सुंदर संजीवनी
जड़ी है। पृथ्वी पर यही अमृत की नदी है, जन्म-मरणरूपी भय का नाश करनेवाली और भ्रमरूपी मेढ़कों को
खाने के लिए सर्पिणी है।
असुर सेन सम
नरक निकंदिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि॥
संत समाज
पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी॥
यह रामकथा
असुरों की सेना के समान नरकों का नाश करनेवाली और साधु- रूप देवताओं के कुल का हित
करनेवाली पार्वत है। यह संत-समाजरूपी क्षीर समुद्र के लिए लक्ष्मी के समान है और
संपूर्ण विश्व का भार उठाने में अचल पृथ्वी के समान है।
जम गन मुहँ
मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥
रामहि प्रिय
पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥
यमदूतों के
मुख पर कालिख लगाने के लिए यह जगत में यमुना के समान है और जीवों को मुक्ति देने
के लिए मानो काशी ही है। यह राम को पवित्र तुलसी के समान प्रिय है और तुलसीदास के
लिए हुलसी (तुलसीदास की माता) के समान हृदय से हित करनेवाली है।
सिवप्रिय मेकल
सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥
सदगुन सुरगन
अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥
यह रामकथा शिव
को नर्मदा के समान प्यारी है, यह सब सिद्धियों की तथा सुख-संपत्ति की राशि है। सद्गुणरूपी
देवताओं के उत्पन्न और पालन-पोषण करने के लिए माता अदिति के समान है। रघुनाथ की भक्ति
और प्रेम की परम सीमा-सी है।
दो० - रामकथा
मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।
तुलसी सुभग
सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥ 31॥
तुलसीदास कहते
हैं कि रामकथा मंदाकिनी नदी है, सुंदर (निर्मल) चित्त चित्रकूट है,
और सुंदर स्नेह ही वन है, जिसमें सीताराम विहार करते हैं॥ 31॥
रामचरित
चिंतामनि चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू॥
जग मंगल
गुनग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के॥
राम का चरित्र
सुंदर चिंतामणि है और संतों की सुबुद्धिरूपी स्त्री का सुंदर श्रंगार है। राम के
गुण-समूह जगत का कल्याण करनेवाले और मुक्ति, धन, धर्म और परमधाम के देनेवाले हैं।
सदगुर ग्यान
बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥
जननि जनक सिय
राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥
ज्ञान,
वैराग्य और योग के लिए सद्गुरु हैं और संसाररूपी भयंकर रोग
का नाश करने के लिए देवताओं के वैद्य (अश्विनीकुमार) के समान हैं। ये सीताराम के
प्रेम के उत्पन्न करने के लिए माता-पिता हैं और संपूर्ण व्रत,
धर्म और नियमों के बीज हैं।
समन पाप संताप
सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के॥
सचिव सुभट
भूपति बिचार के। कुंभज लोभ उदधि अपार के॥
पाप,
संताप और शोक का नाश करनेवाले तथा इस लोक और परलोक के प्रिय
पालन करनेवाले हैं। विचार रूपी राजा के शूरवीर मंत्री और लोभरूपी अपार समुद्र के
सोखने के लिए अगस्त्य मुनि हैं।
काम कोह कलिमल
करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के॥
अतिथि पूज्य
प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के॥
भक्तों के
मनरूपी वन में बसनेवाले काम, क्रोध और कलियुग के पापरूपी हाथियों को मारने के लिए सिंह
के बच्चे हैं। शिव के पूज्य और प्रियतम अतिथि हैं और दरिद्रतारूपी दावानल के
बुझाने के लिए कामना पूर्ण करनेवाले मेघ हैं।
मंत्र महामनि
बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के॥
हरन मोह तम
दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से॥
विषयरूपी साँप
का जहर उतारने के लिए मंत्र और महामणि हैं। ये ललाट पर लिखे हुए कठिनता से
मिटनेवाले बुरे लेखों (मंद प्रारब्ध) को मिटा देनेवाले हैं। अज्ञानरूपी अंधकार को
हरण करने के लिए सूर्य किरणों के समान और सेवकरूपी धान के पालन करने में मेघ के
समान हैं।
अभिमत दानि
देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से॥
सुकबि सरद नभ
मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से॥
मनोवांछित
वस्तु देने में श्रेष्ठ कल्पवृक्ष के समान हैं और सेवा करने में हरि-हर के समान
सुलभ और सुख देनेवाले हैं। सुकविरूपी शरद् ऋतु के मनरूपी आकाश को सुशोभित करने के
लिए तारागण के समान और राम के भक्तों के तो जीवन धन ही हैं।
सकल सुकृत फल
भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से॥
सेवक मन मानस
मराल से। पावन गंग तरंग माल से॥
संपूर्ण
पुण्यों के फल महान भोगों के समान हैं। जगत का छलरहित हित करने में साधु-संतों के
समान हैं। सेवकों के मनरूपी मानसरोवर के लिए हंस के समान और पवित्र करने में गंगा
की तरंगमालाओं के समान हैं।
दो० - कुपथ
कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।
दहन राम गुन
ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड॥ 32(क)॥
राम के गुणों
के समूह कुमार्ग, कुतर्क, कुचाल और कलियुग के कपट, दंभ और पाखंड को जलाने के लिए वैसे ही हैं,
जैसे ईंधन के लिए प्रचंड अग्नि॥ 32(क)॥
रामचरित राकेस
कर सरिस सुखद सब काहु।
सज्जन कुमुद
चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु॥ 32(ख)॥
रामचरित्र
पूर्णिमा के चंद्रमा की किरणों के समान सभी को सुख देनेवाले हैं,
परंतु सज्जनरूपी कुमुदिनी और चकोर के चित्त के लिए तो विशेष
हितकारी और महान लाभदायक हैं॥ 32(ख)॥
कीन्हि प्रस्न
जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी॥
सो सब हेतु
कहब मैं गाई। कथा प्रबंध बिचित्र बनाई॥
जिस प्रकार
पार्वती ने शिव से प्रश्न किया और जिस प्रकार से शिव ने विस्तार से उसका उत्तर कहा,
वह सब कारण मैं विचित्र कथा की रचना करके गाकर कहूँगा।
जेहिं यह कथा
सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करै सुनि सोई॥
कथा अलौकिक
सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥
रामकथा कै
मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥
नाना भाँति
राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा॥
जिसने यह कथा
पहले न सुनी हो, वह इसे सुनकर आश्चर्य न करे। जो ज्ञानी इस विचित्र कथा को सुनते हैं,
वे यह जानकर आश्चर्य नहीं करते कि संसार में रामकथा की कोई
सीमा नहीं है। उनके मन में ऐसा विश्वास रहता है। नाना प्रकार से राम के अवतार हुए
हैं और सौ करोड़ तथा अपार रामायणें हैं।
कलपभेद
हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए॥
करिअ न संसय
अस उर आनी। सुनिअ कथा सादर रति मानी॥
कल्पभेद के
अनुसार हरि के सुंदर चरित्रों को मुनीश्वरों ने अनेकों प्रकार से गाया है। हृदय
में ऐसा विचार कर संदेह न कीजिए और आदर सहित प्रेम से इस कथा को सुनिए।
दो० - राम
अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार।
सुनि आचरजु न
मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार॥ 33॥
श्री राम अनंत
हैं,
उनके गुण भी अनंत हैं और उनकी कथाओं का विस्तार भी असीम है।
अतएव जिनके विचार निर्मल हैं, वे इस कथा को सुनकर आश्चर्य नहीं मानेंगे॥ 33॥
एहि बिधि सब
संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी॥
पुनि सबही
बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥
इस प्रकार सब
संदेहों को दूर करके और गुरु के चरणकमलों की रज को सिर पर धारण करके मैं पुनः हाथ
जोड़कर सबकी विनती करता हूँ, जिससे कथा की रचना में कोई दोष स्पर्श न करने पावे।
सादर सिवहि
नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा॥
संबत सोरह सै
एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा॥
अब मैं
आदरपूर्वक शिव को सिर नवाकर राम के गुणों की निर्मल कथा कहता हूँ। हरि के चरणों पर
सिर रखकर संवत 1631 में इस कथा का आरंभ करता हूँ।
नौमी भौम बार
मधुमासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा॥
जेहि दिन राम
जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल जहाँ चलि आवहिं॥
चैत्र मास की
नवमी तिथि मंगलवार को अयोध्या में यह चरित्र प्रकाशित हुआ। जिस दिन राम का जन्म
होता है,
वेद कहते हैं कि उस दिन सारे तीर्थ वहाँ (अयोध्या में) चले
आते हैं।
असुर नाग खग
नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा॥
जन्म महोत्सव
रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना॥
असुर-नाग,
पक्षी, मनुष्य, मुनि और देवता सब अयोध्या में आकर रघुनाथ की सेवा करते हैं।
बुद्धिमान लोग जन्म का महोत्सव मनाते हैं और राम की सुंदर कीर्ति का गान करते हैं।
दो० - मज्जहिं
सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर।
जपहिं राम धरि
ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर॥ 34॥
सज्जनों के
बहुत-से समूह उस दिन सरयू के पवित्र जल में स्नान करते हैं और हृदय में सुंदर
श्याम शरीर रघुनाथ का ध्यान करके उनके नाम का जप करते हैं॥ 34॥
दरस परस मज्जन
अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥
नदी पुनीत
अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारदा बिमल मति॥
वेद-पुराण कहते
हैं कि सरयू का दर्शन, स्पर्श, स्नान और जलपान पापों को हरता है। यह नदी बड़ी ही पवित्र है,
इसकी महिमा अनंत है, जिसे विमल बुद्धिवाली सरस्वती भी नहीं कह सकतीं।
राम धामदा
पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि॥
चारि खानि जग
जीव अपारा। अवध तजें तनु नहिं संसारा॥
यह शोभायमान
अयोध्यापुरी राम के परमधाम की देनेवाली है, सब लोकों में प्रसिद्ध है और अत्यंत पवित्र है। जगत में चार
प्रकार के अनंत जीव हैं, इनमें से जो कोई भी अयोध्या में शरीर छोड़ते हैं,
वे फिर संसार में नहीं आते।
सब बिधि पुरी
मनोहर जानी। सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी॥
बिमल कथा कर
कीन्ह अरंभा। सुनत नसाहिं काम मद दंभा॥
इस
अयोध्यापुरी को सब प्रकार से मनोहर, सब सिद्धियों की देनेवाली और कल्याण की खान समझकर मैंने इस
निर्मल कथा का आरंभ किया, जिसके सुनने से काम, मद और दंभ नष्ट हो जाते हैं।
रामचरितमानस
एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥
मन करि बिषय
अनल बन जरई। होई सुखी जौं एहिं सर परई॥
इसका नाम
रामचरितमानस है, जिसके सुनते ही कानों को शांति मिलती है। मनरूपी हाथी विषयरूपी दावानल में जल
रहा है,
वह यदि इस रामचरितमानस रूपी सरोवर में आ पड़े तो सुखी हो
जाए।
रामचरितमानस
मुनि भावन। बिरचेउ संभु सुहावन पावन॥
त्रिबिध दोष
दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन॥
यह
रामचरितमानस मुनियों का प्रिय है, इस सुहावने और पवित्र मानस की शिव ने रचना की। यह तीनों
प्रकार के दोषों, दुःखों और दरिद्रता को तथा कलियुग की कुचालों और सब पापों
का नाश करनेवाला है।
रचि महेस निज
मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥
तातें
रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥
महादेव ने
इसको रचकर अपने मन में रखा था और सुअवसर पाकर पार्वती से कहा। इसी से शिव ने इसको
अपने हृदय में देखकर और प्रसन्न होकर इसका सुंदर 'रामचरितमानस' नाम रखा।
कहउँ कथा सोइ
सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई॥
मैं उसी सुख
देनेवाली सुहावनी रामकथा को कहता हूँ, हे सज्जनो! आदरपूर्वक मन लगाकर इसे सुनिए।
दो० - जस मानस
जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।
अब सोइ कहउँ
प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु॥ 35॥
यह रामचरितमानस
जैसा है,
जिस प्रकार बना है और जिस हेतु से जगत में इसका प्रचार हुआ,
अब वही सब कथा मैं उमा-महेश्वर का स्मरण करके कहता हूँ॥ 35॥
संभु प्रसाद
सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी॥
करइ मनोहर मति
अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥
शिव की कृपा
से उसके हृदय में सुंदर बुद्धि का विकास हुआ, जिससे यह तुलसीदास रामचरितमानस का कवि हुआ। अपनी बुद्धि के
अनुसार तो वह इसे मनोहर ही बनाता है, किंतु फिर भी हे सज्जनो! सुंदर चित्त से सुनकर इसे आप सुधार
लीजिए।
सुमति भूमि थल
हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू॥
बरषहिं राम
सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मंगलकारी॥
सुंदर बुद्धि
भूमि है,
हृदय ही उसमें गहरा स्थान है, वेद-पुराण समुद्र हैं और साधु-संत मेघ हैं। वे (साधुरूपी
मेघ) राम के सुयशरूपी सुंदर, मधुर, मनोहर और मंगलकारी जल की वर्षा करते हैं।
लीला सगुन जो
कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी॥
प्रेम भगति जो
बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई॥
सगुण लीला का
जो विस्तार से वर्णन करते हैं, वही राम-सुयशरूपी जल की निर्मलता है,
जो मल का नाश करती है और जिस प्रेमाभक्ति का वर्णन नहीं
किया जा सकता, वही इस जल की मधुरता और सुंदर शीतलता है।
सो जल सुकृत
सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई॥
मेधा महि गत
सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥
भरेउ सुमानस
सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥
वह
(राम-सुयशरूपी) जल सत्कर्मरूपी धान के लिए हितकर है और राम के भक्तों का तो जीवन
ही है। वह पवित्र जल बुद्धिरूपी पृथ्वी पर गिरा और सिमटकर सुहावने कानरूपी मार्ग
से चला और मानस रूपी श्रेष्ठ स्थान में भरकर वहीं स्थिर हो गया। वही पुराना होकर
सुंदर,
रुचिकर, शीतल और सुखदायी हो गया।
दो० - सुठि
सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।
तेइ एहि पावन
सुभग सर घाट मनोहर चारि॥ 36॥
इस कथा में
बुद्धि से विचारकर जो चार अत्यंत सुंदर और उत्तम संवाद (भुशुंडि-गरुड़,
शिव-पार्वती, याज्ञवल्क्य-भरद्वाज और तुलसीदास और संत) रचे हैं,
वही इस पवित्र और सुंदर सरोवर के चार मनोहर घाट हैं॥ 36॥
सप्त प्रबंध
सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना॥
रघुपति महिमा
अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा॥
सात कांड ही
इस मानस सरोवर की सुंदर सात सीढ़ियाँ हैं, जिनको ज्ञानरूपी नेत्रों से देखते ही मन प्रसन्न हो जाता
है। रघुनाथ की निर्गुण और निर्बाध महिमा का जो वर्णन किया जाएगा,
वही इस सुंदर जल की अथाह गहराई है।
राम सीय जस
सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम॥
पुरइनि सघन
चारु चौपाई। जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई॥
राम और सीता
का यश अमृत के समान जल है। इसमें जो उपमाएँ दी गई हैं,
वही तरंगों का मनोहर विलास है। सुंदर चौपाइयाँ ही इसमें घनी
फैली हुई पुरइन (कमलिनी) हैं और कविता की युक्तियाँ सुंदर मणि उत्पन्न करनेवाली
सुहावनी सीपियाँ हैं।
छंद सोरठा
सुंदर दोहा। सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा॥
अरथ अनूप
सुभाव सुभासा। सोइ पराग मकरंद सुबासा॥
जो सुंदर छंद,
सोरठे और दोहे हैं, वही इसमें बहुरंगे कमलों के समूह सुशोभित हैं। अनुपम अर्थ,
ऊँचे भाव और सुंदर भाषा ही पराग (पुष्परज),
मकरंद (पुष्परस) और सुगंध हैं।
सुकृत पुंज
मंजुल अलि माला। ग्यान बिराग बिचार मराला॥
धुनि अवरेब
कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहुभाँती॥
सत्कर्मों
(पुण्यों) के पुंज भौंरों की सुंदर पंक्तियाँ हैं, ज्ञान, वैराग्य और विचार हंस हैं। कविता की ध्वनि वक्रोक्ति,
गुण और जाति ही अनेकों प्रकार की मनोहर मछलियाँ हैं।
अरथ धरम
कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी॥
नव रस जप तप
जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा॥
अर्थ,
धर्म, काम, मोक्ष - ये चारों, ज्ञान-विज्ञान का विचार के कहना,
काव्य के नौ रस, जप, तप, योग और वैराग्य के प्रसंग - ये सब इस सरोवर के सुंदर जलचर
जीव हैं।
सुकृती साधु
नाम गुन गाना। ते बिचित्र जलबिहग समाना॥
संतसभा चहुँ
दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसंत सम गाई॥
सुकृती जनों
के,
साधुओं के और रामनाम के गुणों का गान ही विचित्र जल
पक्षियों के समान है। संतों की सभा ही इस सरोवर के चारों ओर की अमराई हैं और
श्रद्धा वसंत ऋतु के समान कही गई है।
भगति निरूपन
बिबिध बिधाना। छमा दया दम लता बिताना॥
सम जम नियम
फूल फल ग्याना। हरि पद रति रस बेद बखाना॥
नाना प्रकार
से भक्ति का निरूपण और क्षमा, दया तथा दम (इंद्रिय निग्रह) लताओं के मंडप हैं। मन का
निग्रह,
यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह), नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान) ही उनके फूल हैं,
ज्ञान फल है और हरि के चरणों में प्रेम ही इस ज्ञानरूपी फल
का रस है। ऐसा वेदों ने कहा है।
औरउ कथा अनेक
प्रसंगा। तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा॥
इस
(रामचरितमानस) में और भी जो अनेक प्रसंगों की कथाएँ हैं,
वे ही इसमें तोते, कोयल आदि रंग-बिरंगे पक्षी हैं।
दो० - पुलक
बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु।
माली सुमन
सनेह जल सींचत लोचन चारु॥ 37॥
कथा में जो
रोमांच होता है, वही वाटिका, बाग और वन हैं और जो सुख होता है, वही सुंदर पक्षियों का विहार है। निर्मल मन ही माली है,
जो प्रेमरूपी जल से सुंदर नेत्रों द्वारा उनको सींचता है॥ 37॥
जे गावहिं यह
चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे॥
सदा सुनहिं
सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥
जो लोग इस
चरित्र को सावधानी से गाते हैं, वे ही इस तालाब के चतुर रखवाले हैं और जो स्त्री-पुरुष सदा
आदरपूर्वक इसे सुनते हैं, वे ही इस सुंदर मानस के अधिकारी उत्तम देवता हैं।
अति खल जे
बिषई बग कागा। एहि सर निकट न जाहिं अभागा॥
संबुक भेक
सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना॥
जो अति दुष्ट
और विषयी हैं, वे अभागे बगुले और कौए हैं, जो इस सरोवर के समीप नहीं जाते,
क्योंकि यहाँ (इस मानस सरोवर में) घोंघे,
मेंढ़क और सेवार के समान विषय-रस की नाना कथाएँ नहीं हैं।
तेहि कारन आवत
हियँ हारे। कामी काक बलाक बिचारे॥
आवत ऐहिं सर
अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई॥
इसी कारण
बेचारे कौवे और बगुलेरूपी विषयी लोग यहाँ आते हुए हृदय में हार मान जाते हैं।
क्योंकि इस सरोवर तक आने में कठिनाइयाँ बहुत हैं। राम की कृपा बिना यहाँ नहीं आया
जाता।
कठिन कुसंग
कुपंथ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला॥
गृह कारज नाना
जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला॥
घोर कुसंग ही
भयानक बुरा रास्ता है; उन कुसंगियों के वचन ही बाघ, सिंह और साँप हैं। घर के कामकाज और गृहस्थी के भाँति-भाँति
के जंजाल ही अत्यंत दुर्गम बड़े-बड़े पहाड़ हैं।
बन बहु बिषम
मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयंकर नाना॥
मोह,
मद और मान ही बहुत-से बीहड़ वन हैं और नाना प्रकार के
कुतर्क ही भयानक नदियाँ हैं।
दो० - जे
श्रद्धा संबल रहित नहिं संतन्ह कर साथ।
तिन्ह कहुँ
मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥ 38॥
जिनके पास
श्रद्धारूपी राह खर्च नहीं है और संतों का साथ नहीं है और जिनको रघुनाथ प्रिय नहीं
हैं,
उनके लिए यह मानस अत्यंत ही अगम है। 38॥
जौं करि कष्ट
जाइ पुनि कोई। जातहिं नीद जुड़ाई होई॥
जड़ता जाड़
बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥
यदि कोई
मनुष्य कष्ट उठाकर वहाँ तक पहुँच भी जाए, तो वहाँ जाते ही उसे नींदरूपी जूड़ी आ जाती है। हृदय में
मूर्खतारूपी बड़ा कड़ा जाड़ा लगने लगता है, जिससे वहाँ जाकर भी वह अभागा स्नान नहीं कर पाता।
करि न जाइ सर
मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना।
जौं बहोरि कोउ
पूछन आवा। सर निंदा करि ताहि बुझावा॥
उससे उस सरोवर
में स्नान और उसका जलपान तो किया नहीं जाता, वह अभिमान सहित लौट आता है। फिर यदि कोई उससे (वहाँ का हाल)
पूछने आता है, तो वह (अपने अभाग्य की बात न कहकर) सरोवर की निंदा करके उसे समझाता है।
सकल बिघ्न
ब्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
सोइ सादर सर
मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥
ये सारे विघ्न
उसको नहीं व्यापते (बाधा नहीं देते) जिसे राम सुंदर कृपा की दृष्टि से देखते हैं।
वही आदरपूर्वक इस सरोवर में स्नान करता है और महान भयानक त्रिताप से (आध्यात्मिक,
आधिदैविक, आधिभौतिक तापों से) नहीं जलता।
ते नर यह सर
तजहिं न काऊ। जिन्ह कें राम चरन भल भाऊ॥
जो नहाइ चह
एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई॥
जिनके मन में
राम के चरणों में सुंदर प्रेम है, वे इस सरोवर को कभी नहीं छोड़ते। हे भाई! जो इस सरोवर में
स्नान करना चाहे, वह मन लगाकर सत्संग करे।
अस मानस मानस
चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
भयउ हृदयँ
आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥
ऐसे
मानस-सरोवर को हृदय के नेत्रों से देखकर और उसमें गोता लगाकर कवि की बुद्धि निर्मल
हो गई,
हृदय में आनंद और उत्साह भर गया और प्रेम तथा आनंद का
प्रवाह उमड़ आया।
चली सुभग
कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरिता सो॥
सरजू नाम सुमंगल
मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥
उससे वह सुंदर
कवितारूपी नदी बह निकली, जिसमें राम का निर्मल यशरूपी जल भरा है। इस (कवितारूपिणी
नदी) का नाम सरयू है, जो संपूर्ण सुंदर मंगलों की जड़ है। लोकमत और वेदमत इसके दो
सुंदर किनारे हैं।
नदी पुनीत
सुमानस नंदिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥
यह सुंदर-मानस
सरोवर की कन्या सरयू नदी बड़ी पवित्र है और कलियुग के पापरूपी तिनकों और वृक्षों
को जड़ से उखाड़ फेंकनेवाली है।
दो० - श्रोता
त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।
संतसभा अनुपम
अवध सकल सुमंगल मूल॥ 39॥
तीनों प्रकार
के श्रोताओं का समाज ही इस नदी के दोनों किनारों पर बसे हुए पुरवे,
गाँव और नगर हैं और संतों की सभा ही सब सुंदर मंगलों की जड़
अनुपम अयोध्या है॥ 39॥
रामभगति
सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥
सानुज राम समर
जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥
सुंदर
कीर्तिरूपी सुहावनी सरयू रामभक्तिरूपी गंगा में जा मिलीं। छोटे भाई लक्ष्मण सहित
राम के युद्ध का पवित्र यशरूपी सुहावना महानद सोन उसमें आ मिला।
जुग बिच भगति
देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥
त्रिबिध ताप
त्रासक तिमुहानी। राम सरूप सिंधु समुहानी॥
दोनों के बीच
में भक्तिरूपी गंगा की धारा ज्ञान और वैराग्य के सहित शोभित हो रही है। ऐसी तीनों
तापों को डरानेवाली यह तिमुहानी नदी रामस्वरूप रूपी समुद्र की ओर जा रही है।
मानस मूल मिली
सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही॥
बिच बिच कथा
बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा॥
इसका मूल मानस
है और यह गंगा में मिली है, इसलिए यह सुननेवाले सज्जनों के मन को पवित्र कर देगी। इसके
बीच-बीच में जो भिन्न-भिन्न प्रकार की विचित्र कथाएँ हैं,
वे ही मानो नदी तट के आस-पास के वन और बाग हैं।
उमा महेस
बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती॥
रघुबर जनम
अनंद बधाई। भवँर तरंग मनोहरताई॥
पार्वती और
शिव के विवाह के बाराती इस नदी में बहुत प्रकार के असंख्य जलचर जीव हैं। रघुनाथ के
जन्म की आनंद-बधाइयाँ ही इस नदी के भँवर और तरंगों की मनोहरता है।
दो० - बालचरित
चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग।
नृप रानी
परिजन सुकृत मधुकर बारि बिहंग॥ 40॥
चारों भाइयों
के जो बालचरित हैं, वे ही इसमें खिले हुए रंग-बिरंगे बहुत-से कमल हैं। महाराज
दशरथ तथा उनकी रानियों और कुटुंबियों के सत्कर्म ही भ्रमर और जल-पक्षी हैं॥ 40॥
सीय स्वयंबर
कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥
नदी नाव पटु
प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका॥
सीता के
स्वयंवर की जो सुंदर कथा है, वह इस नदी में सुहावनी छवि छा रही है। अनेकों सुंदर
विचारपूर्ण प्रश्न ही इस नदी की नावें हैं और उनके विवेकयुक्त उत्तर ही चतुर केवट
हैं।
सुनि अनुकथन
परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई॥
घोर धार
भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी॥
इस कथा को
सुनकर पीछे जो आपस में चर्चा होती है, वही इस नदी के सहारे-सहारे चलनेवाले यात्रियों का समाज शोभा
पा रहा है। परशुराम का क्रोध इस नदी की भयानक धारा है और राम के श्रेष्ठ वचन ही
सुंदर बँधे हुए घाट हैं।
सानुज राम
बिबाह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू॥
कहत सुनत
हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥
भाइयों सहित
राम के विवाह का उत्साह ही इस कथा नदी की कल्याणकारिणी बाढ़ है,
जो सभी को सुख देनेवाली है। इसके कहने-सुनने में जो हर्षित
और पुलकित होते हैं, वे ही पुण्यात्मा पुरुष हैं, जो प्रसन्न मन से इस नदी में नहाते हैं।
राम तिलक हित
मंगल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा।
काई कुमति
केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी॥
राम के
राजतिलक के लिए जो मंगल-साज सजाया गया, वही मानो पर्व के समय इस नदी पर यात्रियों के समूह इकट्ठे
हुए हैं। कैकेयी की कुबुद्धि ही इस नदी में काई है, जिसके फलस्वरूप बड़ी भारी विपत्ति आ पड़ी।
दो० - समन
अमित उतपात सब भरत चरित जपजाग।
कलि अघ खल
अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥ 41॥
संपूर्ण
अनगिनत उत्पातों को शांत करनेवाला भरत का चरित्र नदी-तट पर किया जानेवाला जपयज्ञ
है। कलियुग के पापों और दुष्टों के अवगुणों के जो वर्णन हैं,
वे ही इस नदी के जल का कीचड़ और बगुले-कौए हैं॥ 41॥
कीरति सरित
छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥
हिम
हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥
यह
कीर्तिरूपिणी नदी छहों ऋतुओं में सुंदर है। सभी समय यह परम सुहावनी और अत्यंत
पवित्र है। इसमें शिव-पार्वती का विवाह हेमंत ऋतु है। राम के जन्म का उत्सव
सुखदायी शिशिर ऋतु है।
बरनब राम
बिबाह समाजू। सो मुद मंगलमय रितुराजू॥
ग्रीषम दुसह
राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू॥
राम के विवाह
समाज का वर्णन ही आनंद-मंगलमय ऋतुराज वसंत है। राम का वनगमन दुःसह ग्रीष्म ऋतु है
और मार्ग की कथा ही कड़ी धूप और लू है।
बरषा घोर
निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमंगलकारी॥
राम राज सुख
बिनय बड़ाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥
राक्षसों के
साथ घोर युद्ध ही वर्षा ऋतु है, जो देवकुलरूपी धान के लिए सुंदर कल्याण करनेवाली है। राम के
राज्यकाल का जो सुख, विनम्रता और बड़ाई है, वही निर्मल सुख देनेवाली सुहावनी शरद् ऋतु है।
सती सिरोमनि
सिय गुन गाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥
भरत सुभाउ
सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई॥
सती-शिरोमणि
सीता के गुणों की जो कथा है, वही इस जल का निर्मल और अनुपम गुण है। भरत का स्वभाव इस नदी
की सुंदर शीतलता है, जो सदा एक-सी रहती है और जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
दो० - अवलोकनि
बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।
भायप भलि चहु
बंधु की जल माधुरी सुबास॥ 42॥
चारों भाइयों
का परस्पर देखना, बोलना, मिलना, एक-दूसरे से प्रेम करना, हँसना और सुंदर भाईपना इस जल की मधुरता और सुगंध है॥ 42॥
आरति बिनय
दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी॥
अदभुत सलिल
सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥
मेरा आर्तभाव,
विनय और दीनता इस सुंदर और निर्मल जल का कम हलकापन नहीं है।
यह जल बड़ा ही अनोखा है, जो सुनने से ही गुण करता है और आशारूपी प्यास को और मन के
मैल को दूर कर देता है।
राम सुप्रेमहि
पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानी॥
भव श्रम सोषक
तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥
यह जल राम के
सुंदर प्रेम को पुष्ट करता है, कलियुग के समस्त पापों और उनसे होनेवाली ग्लानि को हर लेता
है। संसार क श्रम को सोख लेता है, संतोष को भी संतुष्ट करता है और पाप,
ताप, दरिद्रता और दोषों को नष्ट कर देता है।
काम कोह मद
मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥
सादर मज्जन
पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥
यह जल काम,
क्रोध, मद और मोह का नाश करनेवाला और निर्मल ज्ञान और वैराग्य को
बढ़ानेवाला है। इसमें आदरपूर्वक स्नान करने से और इसे पीने से हृदय में रहनेवाले
सब पाप-ताप मिट जाते हैं।
जिन्ह एहिं
बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए॥
तृषित निरखि
रबि कर भव बारी। फिरिहहिं मृग जिमि जीव दुखारी॥
जिन्होंने इस
जल से अपने हृदय को नहीं धोया, वे कायर कलिकाल के द्वारा ठगे गए। जैसे प्यासा हिरन सूर्य
की किरणों के रेत पर पड़ने से उत्पन्न हुए जल के भ्रम को वास्तविक जल समझकर पीने
को दौड़ता है और जल न पाकर दुःखी होता है, वैसे ही वे जीव भी दुःखी होंगे।
दो० - मति अनुहारि
सुबारि गुन गन गनि मन अन्हवाइ।
सुमिरि भवानी
संकरहि कह कबि कथा सुहाइ॥ 43(क)॥
अपनी बुद्धि
के अनुसार इस सुंदर जल के गुणों को विचार कर, उसमें अपने मन को स्नान कराकर और भवानी-शंकर को स्मरण करके
कवि (तुलसीदास) सुंदर कथा कहता है॥ 43(क)॥
अब रघुपति पद
पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद।
कहउँ जुगल
मुनिबर्य कर मिलन सुभग संबाद॥ 43(ख)॥
मैं अब रघुनाथ
के चरण कमलों को हृदय में धारण कर और उनका प्रसाद पाकर दोनों श्रेष्ठ मुनियों के
मिलन का सुंदर संवाद वर्णन करता हूँ॥ 43(ख)॥
भरद्वाज मुनि
बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥
तापस सम दम
दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥
भरद्वाज मुनि
प्रयाग में बसते हैं, उनका राम के चरणों में अत्यंत प्रेम है। वे तपस्वी,
निगृहीत चित्त, जितेंद्रिय, दया के निधान और परमार्थ के मार्ग में बड़े ही चतुर हैं।
माघ मकरगत रबि
जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
देव दनुज
किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥
माघ में जब
सूर्य मकर राशि पर जाते हैं तब सब लोग तीर्थराज प्रयाग को आते हैं। देवता,
दैत्य, किन्नर और मनुष्यों के समूह सब आदरपूर्वक त्रिवेणी में
स्नान करते हैं।
पूजहिं माधव
पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
भरद्वाज आश्रम
अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन॥
वेणीमाधव के
चरणकमलों को पूजते हैं और अक्षयवट का स्पर्श कर उनके शरीर पुलकित होते हैं।
भरद्वाज का आश्रम बहुत ही पवित्र, परम रमणीय और श्रेष्ठ मुनियों के मन को भानेवाला है।
तहाँ होइ मुनि
रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥
मज्जहिं प्रात
समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥
तीर्थराज
प्रयाग में जो स्नान करने जाते हैं, उन ऋषि-मुनियों का समाज वहाँ (भरद्वाज के आश्रम में) जुटता
है। प्रातःकाल सब उत्साहपूर्वक स्नान करते हैं और फिर परस्पर भगवान के गुणों की
कथाएँ कहते हैं।
दो० - ब्रह्म
निरूपन धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।
कहहिं भगति
भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग॥ 44॥
ब्रह्म का
निरूपण,
धर्म का विधान और तत्त्वों के विभाग का वर्णन करते हैं तथा
ज्ञान-वैराग्य से युक्त भगवान की भक्ति का कथन करते हैं॥ 44॥
एहि प्रकार
भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥
प्रति संबत
अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥
इसी प्रकार
माघ के महीनेभर स्नान करते हैं और फिर सब अपने-अपने आश्रमों को चले जाते हैं। हर
साल वहाँ इसी तरह बड़ा आनंद होता है। मकर में स्नान करके मुनिगण चले जाते हैं।
एक बार भरि
मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥
जागबलिक मुनि
परम बिबेकी। भरद्वाज राखे पद टेकी॥
एक बार पूरे
मकर भर स्नान करके सब मुनीश्वर अपने-अपने आश्रमों को लौट गए। परम ज्ञानी
याज्ञवल्क्य मुनि को चरण पकड़कर भरद्वाज ने रख लिया।
सादर चरन सरोज
पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे॥
करि पूजा मुनि
सुजसु बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी॥
आदरपूर्वक
उनके चरण कमल धोए और बड़े ही पवित्र आसन पर उन्हें बैठाया। पूजा करके मुनि
याज्ञवल्क्य के सुयश का वर्णन किया और फिर अत्यंत पवित्र और कोमल वाणी से बोले -
नाथ एक संसउ
बड़ मोरें। करगत बेदतत्त्व सबु तोरें॥
कहत सो मोहि
लागत भय लाजा। जौं न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥
हे नाथ! मेरे
मन में एक बड़ा संदेह है; वेदों का तत्त्व सब आपकी मुट्ठी में है पर उस संदेह को कहते
मुझे भय और लाज आती है और यदि नहीं कहता तो बड़ी हानि होती है।
दो० - संत
कहहिं असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।
होइ न बिमल
बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव॥ 45॥
हे प्रभो! संत
लोग ऐसी नीति कहते हैं और वेद, पुराण तथा मुनिजन भी यही बतलाते हैं कि गुरु के साथ छिपाव
करने से हृदय में निर्मल ज्ञान नहीं होता॥ 45॥
अस बिचारि
प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥
राम नाम कर
अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा॥
यही सोचकर मैं
अपना अज्ञान प्रकट करता हूँ। हे नाथ! सेवक पर कृपा करके इस अज्ञान का नाश कीजिए।
संतों,
पुराणों और उपनिषदों ने राम नाम के असीम प्रभाव का गान किया
है।
संतत जपत संभु
अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥
आकर चारि जीव
जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीं॥
कल्याण-स्वरूप,
ज्ञान और गुणों की राशि, अविनाशी भगवान शंभु निरंतर राम नाम का जप करते रहते हैं।
संसार में चार जाति के जीव हैं, काशी में मरने से सभी परम पद को प्राप्त करते हैं।
सोपि राम
महिमा मुनिराया। सिव उपदेसु करत करि दाया॥
रामु कवन
प्रभु पूछउँ तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥
हे मुनिराज!
वह भी राम (नाम) की ही महिमा है, क्योंकि शिव दया करके (काशी में मरनेवाले जीव को) राम नाम
का ही उपदेश करते हैं। हे प्रभो! मैं आपसे पूछता हूँ कि वे राम कौन हैं?
हे कृपानिधान! मुझे समझाकर कहिए।
एक राम अवधेस
कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥
नारि बिरहँ
दुखु लहेउ अपारा। भयउ रोषु रन रावनु मारा॥
एक राम तो अवध
नरेश दशरथ के कुमार हैं, उनका चरित्र सारा संसार जानता है। उन्होंने स्त्री के विरह
में अपार दुःख उठाया और क्रोध आने पर युद्ध में रावण को मार डाला।॥4॥
दो० - प्रभु
सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
सत्यधाम
सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥ 46॥
हे प्रभो! वही
राम हैं या और कोई दूसरे हैं, जिनको शिव जपते हैं? आप सत्य के धाम हैं और सब कुछ जानते हैं,
ज्ञान विचार कर कहिए॥ 46॥
जैसें मिटै
मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
जागबलिक बोले
मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥
हे नाथ! जिस
प्रकार से मेरा यह भारी भ्रम मिट जाए, आप वही कथा विस्तारपूर्वक कहिए। इस पर याज्ञवल्क्य मुसकराकर
बोले,
रघुनाथ की प्रभुता को तुम जानते हो।
रामभगत तुम्ह
मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारि मैं जानी॥
चाहहु सुनै
राम गुन गूढ़ा। कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा॥
तुम मन,
वचन और कर्म से राम के भक्त हो। तुम्हारी चतुराई को मैं जान
गया। तुम राम के रहस्यमय गुणों को सुनना चाहते हो, इसी से तुमने ऐसा प्रश्न किया है मानो बड़े ही मूढ़ हो।
तात सुनहु
सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई॥
महामोहु
महिषेसु बिसाला। रामकथा कालिका कराला॥
हे तात! तुम
आदरपूर्वक मन लगाकर सुनो; मैं राम की सुंदर कथा कहता हूँ। बड़ा भारी अज्ञान विशाल
महिषासुर है और राम की कथा (उसे नष्ट कर देनेवाली) भयंकर काली हैं।
रामकथा ससि
किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना॥
ऐसेइ संसय
कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥
राम की कथा
चंद्रमा की किरणों के समान है, जिसे संतरूपी चकोर सदा पान करते हैं। ऐसा ही संदेह पार्वती
ने किया था, तब महादेव ने विस्तार से उसका उत्तर दिया था।
दो० - कहउँ सो
मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।
भयउ समय जेहि
हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥ 47॥
अब मैं अपनी
बुद्धि के अनुसार वही उमा और शिव का संवाद कहता हूँ। वह जिस समय और जिस हेतु से
हुआ,
उसे हे मुनि! तुम सुनो, तुम्हारा विषाद मिट जाएगा॥ 47॥
एक बार त्रेता
जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥
संग सती
जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥
एक बार त्रेता
युग में शिव अगस्त्य ऋषि के पास गए। उनके साथ जगज्जननी भवानी सती भी थीं। ऋषि ने
संपूर्ण जगत के ईश्वर जानकर उनका पूजन किया।
रामकथा
मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥
रिषि पूछी
हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥
मुनिवर
अगस्त्य ने रामकथा विस्तार से कही, जिसको महेश्वर ने परम सुख मानकर सुना। फिर ऋषि ने शिव से
सुंदर हरिभक्ति पूछी और शिव ने उनको अधिकारी पाकर (रहस्य सहित) भक्ति का निरूपण
किया।
कहत सुनत
रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
मुनि सन बिदा
मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी॥
रघुनाथ के
गुणों की कथाएँ कहते-सुनते कुछ दिनों तक शिव वहाँ रहे। फिर मुनि से विदा माँगकर
शिव दक्षकुमारी सती के साथ घर (कैलास) को चले।
तेहि अवसर
भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
पिता बचन तजि
राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥
उन्हीं दिनों
पृथ्वी का भार उतारने के लिए हरि ने रघुवंश में अवतार लिया था। वे अविनाशी भगवान
उस समय पिता के वचन से राज्य का त्याग करके तपस्वी या साधु वेश में दंडकवन में
विचर रहे थे।
दो० - हृदयँ
बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।
गुप्त रूप
अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥ 48(क)॥
शिव हृदय में
विचारते जा रहे थे कि भगवान के दर्शन मुझे किस प्रकार हों। प्रभु ने गुप्त रूप से
अवतार लिया है, मेरे जाने से सब लोग जान जाएँगे॥ 48(क)॥
सो० - संकर उर
अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ।
तुलसी दरसन
लोभु मन डरु लोचन लालची॥ 48(ख)॥
शंकर के हृदय
में इस बात को लेकर बड़ी खलबली उत्पन्न हो गई, परंतु सती इस भेद को नहीं जानती थीं। तुलसीदास कहते हैं कि
शिव के मन में डर था, परंतु दर्शन के लोभ से उनके नेत्र ललचा रहे थे॥ 48(ख)॥
रावन मरन मनुज
कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥
जौं नहिं जाउँ
रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥
रावण ने
(ब्रह्मा से) अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से माँगी थी। ब्रह्मा के वचनों को प्रभु
सत्य करना चाहते हैं। मैं जो पास नहीं जाता हूँ तो बड़ा पछतावा रह जाएगा। इस
प्रकार शिव विचार करते थे, परंतु कोई भी युक्ति ठीक नहीं बैठती थी।
ऐहि बिधि भए
सोचबस ईसा। तेही समय जाइ दससीसा॥
लीन्ह नीच
मारीचहि संगा। भयउ तुरउ सोइ कपट कुरंगा॥
इस प्रकार
महादेव चिंता के वश हो गए। उसी समय नीच रावण ने जाकर मारीच को साथ लिया और वह
(मारीच) तुरंत कपट मृग बन गया।
करि छलु मूढ़
हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
मृग बधि बंधु
सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥
मूर्ख (रावण)
ने छल करके सीता को हर लिया। उसे राम के वास्तविक प्रभाव का कुछ भी पता न था। मृग
को मारकर भाई लक्ष्मण सहित हरि आश्रम में आए और उसे खाली देखकर (अर्थात वहाँ सीता
को न पाकर) उनके नेत्रों में आँसू भर आए।
बिरह बिकल नर
इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
कबहूँ जोग
बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें॥
रघुनाथ
मनुष्यों की भाँति विरह से व्याकुल हैं और दोनों भाई वन में सीता को खोजते हुए फिर
रहे हैं। जिनके कभी कोई संयोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरह का दुःख देखा गया।
दो० - अति
बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
जे मतिमंद
बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥ 49॥
रघुनाथ का
चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं। जो मंदबुद्धि हैं,
वे तो विशेष रूप से मोह के वश होकर हृदय में कुछ दूसरी ही
बात समझ बैठते हैं॥ 49॥
संभु समय तेहि
रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा॥
भरि लोचन
छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥
शिव ने उसी
अवसर पर राम को देखा और उनके हृदय में बहुत भारी आनंद उत्पन्न हुआ। शोभा के उस
समुद्र को शिव ने नेत्र भरकर देखा, परंतु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया।
जय सच्चिदानंद
जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
चले जात सिव
सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥
जगत को पवित्र
करनेवाले सच्चिदानंद की जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेव का नाश करनेवाले शिव चल पड़े।
कृपानिधान शिव बार-बार आनंद से पुलकित होते हुए सती के साथ चले जा रहे थे।
सतीं सो दसा
संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥
संकरु
जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥
सती ने शंकर
की वह दशा देखी तो उनके मन में बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया। (वे मन-ही-मन कहने लगीं
कि) शंकर की सारा जगत वंदना करता है, वे जगत के ईश्वर हैं; देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं।
तिन्ह
नृपसुतहि कीन्ह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधामा॥
भए मगन छबि
तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥
उन्होंने एक
राजपुत्र को सच्चिदानंद परधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर वे इतने
प्रेममग्न हो गए कि अब तक उनके हृदय में प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती।
दो० - ब्रह्म
जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि
होइ नर जाहि न जानत बेद॥ 50॥
जो ब्रह्म
सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते,
क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है?॥ 50॥
बिष्नु जो सुर
हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
खोजइ सो कि अग्य
इव नारी। ग्यानधामपति असुरारी॥
देवताओं के
हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करनेवाले जो विष्णु भगवान हैं,
वे भी शिव की ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के भंडार,
लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान विष्णु क्या अज्ञानी
की तरह स्त्री को खोजेंगे?
संभुगिरा पुनि
मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥
अस संसय मन
भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥
फिर शिव के
वचन भी झूठे नहीं हो सकते। सब कोई जानते हैं कि शिव सर्वज्ञ हैं। सती के मन में इस
प्रकार का अपार संदेह उठ खड़ा हुआ, किसी तरह भी उनके हृदय में ज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता
था।
जद्यपि प्रगट
न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥
सुनहि सती तव
नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥
यद्यपि भवानी
ने प्रकट कुछ नहीं कहा, पर अंतर्यामी शिव सब जान गए। वे बोले - हे सती! सुनो,
तुम्हारा स्त्री स्वभाव है। ऐसा संदेह मन में कभी न रखना
चाहिए।
जासु कथा
कुंभज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥
सोइ मम
इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥
जिनकी कथा का
अगस्त्य ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनि को सुनाई,
ये वही मेरे इष्टदेव रघुवीर हैं,
जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं।
छं० - मुनि
धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम
पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
सोइ रामु
ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने
भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी॥
ज्ञानी मुनि,
योगी और सिद्ध निरंतर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं
तथा वेद,
पुराण और शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी, मायापति, नित्य परम स्वतंत्र, ब्रह्मरूप भगवान राम ने अपने भक्तों के हित के लिए रघुकुल
के मणिरूप में अवतार लिया है।
सो० - लाग न
उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।
बोले बिहसि
महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥ 51॥
यद्यपि शिव ने
बहुत बार समझाया, फिर भी सती के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा। तब महादेव मन
में भगवान की माया का बल जानकर मुस्कुराते हुए बोले - ॥ 51॥
जौं तुम्हरें
मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
तब लगि बैठ
अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥
जो तुम्हारे
मन में बहुत संदेह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती?
जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इसी बड़ की छाँह में
बैठा हूँ।
जैसें जाइ मोह
भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥
चलीं सती सिव
आयसु पाई। करहिं बिचारु करौं का भाई॥
जिस प्रकार
तुम्हारा यह अज्ञानजनित भारी भ्रम दूर हो, विवेक के द्वारा सोच-समझकर तुम वही करना। शिव की आज्ञा पाकर
सती चलीं और मन में सोचने लगीं कि भाई! क्या करूँ?
इहाँ संभु अस
मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥
मोरेहु कहें न
संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥
इधर शिव ने मन
में ऐसा अनुमान किया कि दक्षकन्या सती का कल्याण नहीं है। जब मेरे समझाने से भी
संदेह दूर नहीं होता तब विधाता ही उलटे हैं, अब सती का कुशल नहीं है।
होइहि सोइ जो
राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे
जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥
जो कुछ राम ने
रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। (मन में) ऐसा कहकर शिव भगवान
हरि का नाम जपने लगे और सती वहाँ गईं जहाँ सुख के धाम प्रभु राम थे।
दो० - पुनि
पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगें होइ चलि
पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥ 52॥
सती बार-बार
मन में विचार कर सीता का रूप धारण करके उस मार्ग की ओर आगे होकर चलीं,
जिससे मनुष्यों के राजा राम आ रहे थे॥ 52॥
लछिमन दीख
उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
कहि न सकत कछु
अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥
सती के बनावटी
वेष को देखकर लक्ष्मण चकित हो गए और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया। वे बहुत
गंभीर हो गए, कुछ कह नहीं सके। धीर- बुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथ के प्रभाव को जानते थे।
सती कपटु
जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
सुमिरत जाहि
मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥
सब कुछ
देखनेवाले और सबके हृदय की जाननेवाले देवताओं के स्वामी राम सती के कपट को जान गए,
जिनके स्मरण मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है,
वही सर्वज्ञ भगवान राम हैं।
सती कीन्ह चह
तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥
निज माया बलु
हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥
स्त्री स्वभाव
का असर तो देखो कि वहाँ भी सती छिपाव करना चाहती हैं। अपनी माया के बल को हृदय में
बखानकर,
राम हँसकर कोमल वाणी से बोले।
जोरि पानि
प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि
कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥
पहले प्रभु ने
हाथ जोड़कर सती को प्रणाम किया और पिता सहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि वृषकेतु
शिव कहाँ हैं? आप यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रही हैं?
दो० - राम बचन
मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु।
सती सभीत महेस
पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु॥ 53॥
राम के कोमल
और रहस्य भरे वचन सुनकर सती को बड़ा संकोच हुआ। वे डरती हुई शिव के पास चलीं,
उनके हृदय में बड़ी चिंता हो गई॥ 53॥
मैं संकर कर
कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥
जाइ उतरु अब
देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥
कि मैंने शंकर
का कहना न माना और अपने अज्ञान का राम पर आरोप किया। अब जाकर मैं शिव को क्या
उत्तर दूँगी? (यों सोचते-सोचते) सती के हृदय में अत्यंत भयानक जलन पैदा हो गई।
जाना राम सतीं
दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥
सतीं दीख
कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित भ्राता॥
राम ने जान
लिया कि सती को दुःख हुआ, तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया।
सती ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा कि राम सीता और लक्ष्मण सहित आगे चले जा
रहे हैं।
फिरि चितवा
पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर बेषा॥
जहँ चितवहिं
तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥
उन्होंने पीछे
की ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी भाई लक्ष्मण और सीता के साथ राम सुंदर वेष में
दिखाई दिए। वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु राम विराजमान हैं और सुचतुर सिद्ध मुनीश्वर
उनकी सेवा कर रहे हैं।
देखे सिव बिधि
बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बंदत चरन करत
प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥
सती ने अनेक
शिव,
ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक-से-एक बढ़कर असीम प्रभाववाले थे। भाँति-भाँति के वेष
धारण किए सभी देवता राम की चरणवंदना और सेवा कर रहे हैं।
दो० - सती
बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।
जेहिं जेहिं
बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥ 54॥
उन्होंने
अनगिनत अनुपम सती, ब्रह्माणी और लक्ष्मी देखीं। जिस-जिस रूप में ब्रह्मा आदि
देवता थे,
उसी के अनुकूल रूप में ये सब भी थीं॥ 54॥
देखे जहँ जहँ
रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥
जीव चराचर जो
संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥
सती ने
जहाँ-जहाँ जितने रघुनाथ देखे, शक्तियों सहित वहाँ उतने ही सारे देवताओं को भी देखा। संसार
में जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकार के सब देखे।
पूजहिं
प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥
अवलोके रघुपति
बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥
अनेकों वेष
धारण करके देवता प्रभु राम की पूजा कर रहे हैं, परंतु राम का दूसरा रूप कहीं नहीं देखा। सीता सहित रघुनाथ
बहुत-से देखे, परंतु उनके वेष अनेक नहीं थे।
सोइ रघुबर सोइ
लछिमनु सीता। देखि सती अति भईं सभीता॥
हृदय कंप तन
सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥
वही रघुनाथ,
वही लक्ष्मण और वही सीता - सती ऐसा देखकर बहुत ही डर गईं।
उनका हृदय काँपने लगा और देह की सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूँदकर मार्ग में
बैठ गईं।
बहुरि बिलोकेउ
नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥
पुनि पुनि नाइ
राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥
फिर आँख खोलकर
देखा,
तो वहाँ दक्षकुमारी को कुछ भी न दिख पड़ा। तब वे बार-बार
राम के चरणों में सिर नवाकर वहाँ चलीं, जहाँ शिव थे।
दो० - गईं
समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात।
लीन्हि परीछा
कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥ 55॥
जब पास पहुँचीं,
तब शिव ने हँसकर कुशल प्रश्न करके कहा कि तुमने राम की किस
प्रकार परीक्षा ली, सारी बात सच-सच कहो॥ 55॥
श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण,
दूसरा विश्राम
समाप्त॥
शेष
जारी....पढे श्रीरामचरित मानस- बालकाण्ड मासपारायण,
तीसरा विश्राम
पूर्व पढ़े- रामचरितमानस बालकांड मासपारायण, पहला विश्राम
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