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वर्णानामर्थसंघानां
रसानां छंदसामपि।
मंगलानां च
कर्त्तारौ वंदे वाणीविनायकौ॥ १॥
अक्षरों,
अर्थ समूहों, रसों, छंदों और मंगलों की कर्त्री सरस्वती और गणेश की मैं वंदना
करता हूँ॥ १॥
भवानीशंकरौ
वंदे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना
न पश्यंति सिद्धाः स्वांत:स्थमीश्वरम्॥ २॥
श्रद्धा और
विश्वास के स्वरूप पार्वती और शंकर की मैं वंदना करता हूँ,
जिनके बिना सिद्धजन अपने अंत:करण में स्थित ईश्वर को नहीं
देख सकते॥ २॥
वंदे बोधमयं
नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो हि
वक्रोऽपि चंद्र: सर्वत्र वंद्यते॥ ३॥
ज्ञानमय,
नित्य, शंकररूपी गुरु की मैं वंदना करता हूँ,
जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चंद्रमा भी सर्वत्र होता है॥
३॥
सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
वंदे
विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ॥ ४॥
सीताराम के
गुणसमूहरूपी पवित्र वन में विहार करनेवाले, विशुद्ध विज्ञान संपन्न कवीश्वर वाल्मीकि और कपीश्वर हनुमान
की मैं वंदना करता हूँ॥ ४॥
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं
क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं
सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥ ५॥
उत्पत्ति,
स्थिति (पालन) और संहार करनेवाली,
क्लेशों को हरनेवाली तथा संपूर्ण कल्याणों को करनेवाली राम
की प्रियतमा सीता को मैं नमस्कार करता हूँ॥ ५॥
यन्मायावशवर्त्ति
विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्त्वादमृषैव
भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव
हि भवांभोधेस्तितीर्षावतां
वंदेऽहं
तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥ ६॥
जिनकी माया के
वशीभूत संपूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्ता से रस्सी में सर्प के भ्रम की भाँति यह सारा
दृश्य जगत सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागर से तरने की इच्छा
वालों के लिए एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणों से परे राम कहानेवाले भगवान हरि की मैं
वंदना करता हूँ॥ ६॥
नानापुराणनिगमागमसम्मतं
यद्
रामायणे
निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वांत:सुखाय
तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबंधमतिमंजुलमातनोति॥
७॥
अनेक पुराण,
वेद और शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और
कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध रघुनाथ की कथा को तुलसीदास अपने अंत:करण के सुख के लिए
अत्यंत मनोहर भाषा रचना में निबद्ध करता है॥ ७॥
सो० - जो
सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह
सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥ १॥
जिन्हें स्मरण
करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं, जो गणों के स्वामी और सुंदर हाथी के मुखवाले हैं,
वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के धाम (गणेश) मुझ पर
कृपा करें॥ १॥
मूक होइ बाचाल
पंगु चढ़इ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो
दयाल द्रवउ सकल कलिमल दहन॥ २॥
जिनकी कृपा से
गूँगा बहुत सुंदर बोलनेवाला हो जाता है और लँगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता
है,
वे कलियुग के सब पापों को जला डालनेवाले दयालु (भगवान) मुझ
पर द्रवित हों॥ २॥
नील सरोरुह
स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।
करउ सो मम उर
धाम सदा छीरसागर सयन॥ ३॥
जो नीलकमल के
समान श्यामवर्ण हैं, जिनके पूर्ण खिले हुए लाल कमल के समान नेत्र हैं और जो सदा
क्षीरसागर पर शयन करते हैं, वे (नारायण) मेरे हृदय में निवास करें॥ ३॥
कुंद इंदु सम
देह उमा रमन करुना अयन।
जाहि दीन पर
नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥ ४॥
जिनका कुंद के
पुष्प और चंद्रमा के समान (गौर) शरीर है, जो पार्वती के प्रियतम और दया के धाम हैं और जिनका दीनों पर
स्नेह है,
वे कामदेव का मर्दन करनेवाले (शंकर) मुझ पर कृपा करें॥ ४॥
बंदउँ गुरु पद
कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम
पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥ ५॥
मैं उन गुरु
के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में हरि ही हैं और जिनके वचन
महामोहरूपी घने अंधकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥ ५॥
बंदऊँ गुरु पद
पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय
चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥
मैं गुरु के
चरण कमलों की रज की वंदना करता हूँ, जो सुरुचि, सुगंध तथा अनुरागरूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी
जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो संपूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करनेवाला है।
सुकृति संभु
तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु
मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥
वह रज सुकृति
(पुण्यवान पुरुष) रूपी शिव के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण
और आनंद की जननी है, भक्त के मनरूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करनेवाली और तिलक
करने से गुणों के समूह को वश में करनेवाली है।
श्रीगुर पद नख
मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो
सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥
श्री गुरु के
चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती
है। वह प्रकाश अज्ञानरूपी अंधकार का नाश करनेवाला है,
वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं।
उघरहिं बिमल
बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम
चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥
उसके हृदय में
आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसाररूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट
जाते हैं एवं रामचरित्ररूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है,
सब दिखाई पड़ने लगते हैं।
दो० - जथा
सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत
सैल बन भूतल भूरि निधान॥ १॥
जैसे सु-अंजन
को नेत्रों में लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वी के अंदर कौतुक से ही बहुत-सी खानें देखते
हैं॥ १॥
गुरु पद रज
मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि
बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥
गुरु के चरणों
की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करनेवाला है। उस अंजन से
विवेकरूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ानेवाले राम के
चरित्र का वर्णन करता हूँ।
बंदउँ प्रथम
महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
सुजन समाज सकल
गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥
पहले पृथ्वी
के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वंदना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरनेवाले हैं। फिर सब
गुणों की खान संत समाज को प्रेम सहित सुंदर वाणी से प्रणाम करता हूँ।
साधु चरित सुभ
चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख
परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥
संतों का
चरित्र कपास के चरित्र के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के
छिद्रों को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त किया है।
मुद मंगलमय
संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ
सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥
संतों का समाज
आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज है,
जहाँ राम भक्तिरूपी गंगा की धारा हैं और ब्रह्मविचार का
प्रचार सरस्वती हैं।
बिधि निषेधमय
कलिमल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि हर कथा
बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥
विधि और निषेध
(यह करो और यह न करो) रूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को हरनेवाली सूर्यतनया
यमुना हैं और भगवान विष्णु और शंकर की कथाएँ त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैं,
जो सुनते ही सब आनंद और कल्याणों को देनेवाली हैं।
बटु बिस्वास
अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब
दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥
अपने धर्म में
जो अटल विश्वास है, वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज है। वह
सब देशों में, सब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करने से
क्लेशों को नष्ट करनेवाला है।
अकथ अलौकिक
तीरथराऊ। देह सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥
वह तीर्थराज
अलौकिक और अकथनीय है एवं तत्काल फल देनेवाला है, उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है।
दो० - सुनि
समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल
अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥ २॥
जो मनुष्य इस
संत समाजरूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और फिर अत्यंत
प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर के रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष - चारों फल पा जाते हैं॥ २॥
मज्जन फल
पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै
जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥
इस तीर्थराज
में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले
हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है।
बालमीक नारद
घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर
नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥
वाल्मीकि,
नारद और अगस्त्य ने अपने-अपने मुखों से अपनी होनी (जीवन का
वृत्तांत) कही है। जल में रहनेवाले, जमीन पर चलनेवाले और आकाश में विचरनेवाले नाना प्रकार के
जड़-चेतन जितने जीव इस जगत में हैं -
मति कीरति गति
भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग
प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥
उनमें से
जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि,
कीर्ति, सद्गति, विभूति और भलाई पाई है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों में और लोक
में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है।
बिनु सतसंग
बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद
मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥
सत्संग के
बिना विवेक नहीं होता और राम की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं।
सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि ही फल है और सब साधन तो फूल
है।
सठ सुधरहिं
सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन
कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥
दुष्ट भी
सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है,
किंतु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं,
तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण
करते हैं।
बिधि हरि हर
कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
सो मो सन कहि
जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥
ब्रह्मा,
विष्णु, शिव, कवि और पंडितों की वाणी भी संत-महिमा का वर्णन करने में
सकुचाती है, वह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचनेवाले से मणियों के गुणसमूह नहीं कहे
जा सकते।
दो० - बंदउँ
संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि गत सुभ
सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥ ३ (क)॥
मैं संतों को
प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु! जैसे अंजलि में रखे हुए
सुंदर फूल (जिस हाथ ने फूलों को तोड़ा और जिसने उनको रखा उन) दोनों ही हाथों को
समान रूप से सुगंधित करते हैं (वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप
से कल्याण करते हैं।)॥ ३ (क)॥
संत सरल चित
जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि
करि कृपा राम चरन रति देहु॥ ३ (ख)॥
संत सरल हृदय
और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ,
मेरी इस बाल-विनय को सुनकर कृपा करके राम के चरणों में मुझे
प्रीति दें॥ ३ (ख)॥
बहुरि बंदि खल
गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर हित हानि
लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥
अब मैं सच्चे
भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करनेवाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के
हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता
है।
हरि हर जस
राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥
जे पर दोष
लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥
जो हरि और हर
के यशरूपी पूर्णिमा के चंद्रमा के लिए राहु के समान हैं (अर्थात जहाँ कहीं भगवान
विष्णु या शंकर के यश का वर्णन होता है, उसी में वे बाधा देते हैं) और दूसरों की बुराई करने में
सहस्रबाहु के समान वीर हैं। जो दूसरों के दोषों को हजार आँखों से देखते हैं और
दूसरों के हितरूपी घी के लिए जिनका मन मक्खी के समान है (अर्थात जिस प्रकार मक्खी
घी में गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है,
उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों के बने-बनाए काम को अपनी हानि
करके भी बिगाड़ देते हैं),
तेज कृसानु
रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
उदय केत सम
हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥
जो तेज
(दूसरों को जलानेवाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं,
पाप और अवगुणरूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं,
जिनकी बढ़ती सभी के हित का नाश करने के लिए केतु (पुच्छल
तारे) के समान है, और जिनके कुंभकर्ण की तरह सोते रहने में ही भलाई है,
पर अकाजु लगि
तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
बंदउँ खल जस
सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥
जैसे ओले खेती
का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए अपना शरीर तक
छोड़ देते हैं। मैं दुष्टों को (हजार मुखवाले) शेष के समान समझकर प्रणाम करता हूँ,
जो पराए दोषों का हजार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते
हैं।
पुनि प्रनवउँ
पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
बहुरि सक्र सम
बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥
पुनः उनको
राजा पृथु (जिन्होंने भगवान का यश सुनने के लिए दस हजार कान माँगे थे) के समान
जानकर प्रणाम करता हूँ, जो दस हजार कानों से दूसरों के पापों को सुनते हैं। फिर
इंद्र के समान मानकर उनकी विनय करता हूँ, जिनको सुरा (मदिरा) अच्छी और हितकारी मालूम देती है (इंद्र
के लिए भी सुरानीक अर्थात देवताओं की सेना हितकारी है)।
बचन बज्र जेहि
सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥
जिनको कठोर
वचनरूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और जो हजार आँखों से दूसरों के दोषों को देखते
हैं।
दो० - उदासीन
अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग
जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥ ४॥
दुष्टों की यह
रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसी का भी हित सुनकर जलते हैं। यह जानकर दोनों हाथ जोड़कर
यह जन प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है॥ ४॥
मैं अपनी दिसि
कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस पलिअहिं
अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥
मैंने अपनी ओर
से विनती की है, परंतु वे अपनी ओर से कभी नहीं चूकेंगे। कौओं को बड़े प्रेम से पालिए,
परंतु वे क्या कभी मांस के त्यागी हो सकते हैं?
बंदउँ संत
असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
बिछुरत एक
प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥
अब मैं संत और
असंत दोनों के चरणों की वंदना करता हूँ, दोनों ही दुःख देनेवाले हैं, परंतु उनमें कुछ अंतर कहा गया है। वह अंतर यह है कि एक
(संत) तो बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे (असंत) मिलते हैं,
तब दारुण दुःख देते हैं।
उपजहिं एक संग
जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
सुधा सुरा सम
साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥
दोनों (संत और
असंत) जगत में एक साथ पैदा होते हैं, पर साधु अमृत के समान (मृत्युरूपी संसार से उबारनेवाला) और
असाधु मदिरा के समान (मोह, प्रमाद और जड़ता उत्पन्न करनेवाला) है,
दोनों को उत्पन्न करनेवाला जगतरूपी अगाध समुद्र एक ही है।
(शास्त्रों में समुद्रमंथन से ही अमृत और मदिरा दोनों की उत्पत्ति बताई गई है।)
भल अनभल निज
निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा सुधाकर
सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥
गुन अवगुन
जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥
भले और बुरे
अपनी-अपनी करनी के अनुसार सुंदर यश और अपयश की संपत्ति पाते हैं। अमृत,
चंद्रमा, गंगा और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुग के पापों की नदी अर्थात कर्मनाशा और हिंसा करनेवाला
व्याध,
इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं,
किंतु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है।
दो० - भलो
भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ
अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥ ५॥
भला भलाई ही
ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण किए रहता है। अमृत की सराहना अमर करने में
होती है और विष की मारने में॥ ५॥
खल अघ अगुन
साधु गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥
तेहि तें कछु
गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥
दुष्टों के
पापों और अवगुणों की और साधुओं के गुणों की कथाएँ - दोनों ही अपार और अथाह समुद्र
हैं। इसी से कुछ गुण और दोषों का वर्णन किया गया है, क्योंकि बिना पहचाने उनका ग्रहण या त्याग नहीं हो सकता।
भलेउ पोच सब
बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
कहहिं बेद
इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥
भले-बुरे सभी
ब्रह्मा के पैदा किए हुए हैं, पर गुण और दोषों को विचार कर वेदों ने उनको अलग-अलग कर दिया
है। वेद,
इतिहास और पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा की यह सृष्टि
गुण-अवगुणों से सनी हुई है।
दुख सुख पाप
पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
दानव देव ऊँच
अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥
माया ब्रह्म
जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
कासी मग
सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥
सरग नरक
अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥
दुःख-सुख,
पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुंदर जीवन) - मृत्यु,
माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, संपत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गंगा-कर्मनाशा, मारवाड़-मालवा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य (ये सभी पदार्थ ब्रह्मा की सृष्टि में हैं।)
वेद-शास्त्रों ने उनके गुण-दोषों का विभाग कर दिया है।
दो० - जड़
चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन
गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥ ६॥
विधाता ने इस
जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किंतु संतरूपी हंस दोषरूपी जल को छोड़कर गुणरूपी दूध को ही
ग्रहण करते हैं॥ ६॥
अस बिबेक जब
देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल सुभाउ करम
बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥
विधाता जब इस
प्रकार का (हंस का-सा) विवेक देते हैं, तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल
स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक
जाते हैं।
सो सुधारि
हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल
पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥
भगवान के भक्त
जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते हैं,
वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं,
परंतु उनका कभी भंग न होनेवाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता।
लखि सुबेष जग
बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
उघरहिं अंत न
होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥
जो (वेषधारी)
ठग हैं,
उन्हें भी अच्छा वेष बनाए देखकर वेष के प्रताप से जगत पूजता
है,
परंतु एक न एक दिन वे चौड़े आ ही जाते हैं,
अंत तक उनका कपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि, रावण और राहु का हाल हुआ।
किएहुँ कुबेषु
साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
हानि कुसंग
सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥
बुरा वेष बना
लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है, जैसे जगत में जाम्बवान और हनुमान का हुआ। बुरे संग से हानि
और अच्छे संग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद में है और सभी लोग इसको जानते हैं।
गगन चढ़इ रज
पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु असाधु
सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥
पवन के संग से
धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे की ओर बहनेवाले) जल के संग से कीचड़ में
मिल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के
तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं।
धूम कुसंगति
कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥
सोइ जल अनल
अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥
कुसंग के कारण
धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ (सुसंग से) सुंदर स्याही होकर पुराण लिखने के काम
में आता है और वही धुआँ जल, अग्नि और पवन के संग से बादल होकर जगत को जीवन देनेवाला बन
जाता है।
दो० - ग्रह
भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु
सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥ ७(क)॥
ग्रह,
औषधि, जल, वायु और वस्त्र - ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसार में
बुरे और भले पदार्थ हो जाते हैं। चतुर एवं विचारशील पुरुष ही इस बात को जान पाते
हैं॥ ७(क)॥
सम प्रकास तम
पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि सोषक पोषक
समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥ ७(ख)॥
महीने के
दोनों पखवाड़ों में उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है,
परंतु विधाता ने इनके नाम में भेद कर दिया है (एक का नाम
शुक्ल और दूसरे का नाम कृष्ण रख दिया)। एक को चंद्रमा का बढ़ानेवाला और दूसरे को
उसका घटानेवाला समझकर जगत ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे दिया॥ ७(ख)॥
जड़ चेतन जग
जीव जत सकल राममय जानि।
बंदउँ सब के
पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥ ७(ग)॥
जगत में जितने
जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों की सदा दोनों हाथ
जोड़कर वंदना करता हूँ॥ ७(ग)॥
देव दनुज नर
नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।
बंदउँ किंनर
रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब॥ ७(घ)॥
देवता,
दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गंधर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ। अब सब मुझ पर
कृपा कीजिए॥ ७(घ)॥
आकर चारि लाख
चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
सीय राममय सब
जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
चौरासी लाख
योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अंडज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को सीताराममय जानकर मैं दोनों
हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
जानि कृपाकर
किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥
निज बुधि बल
भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाहीं॥
मुझको अपना
दास जानकर कृपा की खान आप सब लोग मिलकर छल छोड़कर कृपा कीजिए। मुझे अपने बुद्धि-बल
का भरोसा नहीं है, इसीलिए मैं सबसे विनती करता हूँ।
करन चहउँ
रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥
सूझ न एकउ अंग
उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राउ॥
मैं रघुनाथ के
गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ, परंतु मेरी बुद्धि छोटी है और राम का चरित्र अथाह है। इसके
लिए मुझे उपाय का एक भी अंग अर्थात कुछ (लेशमात्र) भी उपाय नहीं सूझता। मेरे मन और
बुद्धि कंगाल हैं, किंतु मनोरथ राजा है।
मति अति नीच
ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिं सज्जन
मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥
मेरी बुद्धि
तो अत्यंत नीची है और चाह बड़ी ऊँची है, चाह तो अमृत पाने की है, पर जगत में जुड़ती छाछ भी नहीं। सज्जन मेरी ढिठाई को क्षमा
करेंगे और मेरे बाल वचनों को मन लगाकर (प्रेमपूर्वक) सुनेंगे।
जौं बालक कह
तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥
हँसिहहिं कूर
कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी॥
जैसे बालक जब
तोतले वचन बोलता है, तो उसके माता-पिता उन्हें प्रसन्न मन से सुनते हैं,
किंतु क्रूर, कुटिल और बुरे विचारवाले लोग जो दूसरों के दोषों को ही भूषण
रूप से धारण किए रहते हैं (अर्थात जिन्हें पराए दोष ही प्यारे लगते हैं),
हँसेंगे।
निज कबित्त
केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥
जे पर भनिति
सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥
रसीली हो या
अत्यंत फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती? किंतु जो दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं,
ऐसे उत्तम पुरुष जगत में बहुत नहीं हैं।
जग बहु नर सर
सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई॥
सज्जन सकृत
सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥
हे भाई! जगत
में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं (अर्थात अपनी ही
उन्नति से प्रसन्न होते हैं)। समुद्र-सा तो कोई एक विरला ही सज्जन होता है,
जो चंद्रमा को पूर्ण देखकर (दूसरों का उत्कर्ष देखकर) उमड़
पड़ता है।
दो० - भाग छोट
अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।
पैहहिं सुख
सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास॥ ८॥
मेरा भाग्य
छोटा है और इच्छा बहुत बड़ी है, परंतु मुझे एक विश्वास है कि इसे सुनकर सज्जन सभी सुख
पायेंगे और दुष्ट हँसी उड़ायेंगे॥ ८॥
खल परिहास होइ
हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥
हंसहिं बक
दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥
किंतु दुष्टों
के हँसने से मेरा हित ही होगा। मधुर कंठवाली कोयल को कौए तो कठोर ही कहा करते हैं।
जैसे बगुले हंस को और मेढक पपीहे को हँसते हैं, वैसे ही मलिन मनवाले दुष्ट निर्मल वाणी को हँसते हैं।
कबित रसिक न
राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥
भाषा भनिति
भोरि मति मोरी। हँसिबे जो हँसें नहिं खोरी॥
जो न तो कविता
के रसिक हैं और न जिनका राम के चरणों में प्रेम है, उनके लिए भी यह कविता सुखद हास्यरस का काम देगी। प्रथम तो
यह भाषा की रचना है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है, इससे यह हँसने के योग्य ही है,
हँसने में उन्हें कोई दोष नहीं।
प्रभु पद
प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी॥
हरि हर पद रति
मति न कुतरकी। तिन्ह कहुं मधुर कथा रघुबर की॥
जिन्हें न तो
प्रभु के चरणों में प्रेम है और न अच्छी समझ ही है, उनको यह कथा सुनने में फीकी लगेगी। जिनकी हरि (भगवान
विष्णु) और हर (भगवान शिव) के चरणों में प्रीति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क
करनेवाली नहीं है (जो हरि-हर में भेद की या ऊँच-नीच की कल्पना नहीं करते),
उन्हें रघुनाथ की यह कथा मीठी लगेगी।
राम भगति
भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
कबि न होउँ
नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥
सज्जनगण इस
कथा को अपने जी में राम की भक्ति से भूषित जानकर सुंदर वाणी से सराहना करते हुए
सुनेंगे। मैं न तो कवि हूँ, न वाक्य रचना में ही कुशल हूँ,
मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओं से रहित हूँ।
आखर अरथ
अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥
भाव भेद रस
भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥
नाना प्रकार
के अक्षर,
अर्थ और अलंकार, अनेक प्रकार की छंद रचना, भावों और रसों के अपार भेद और कविता के भाँति-भाँति के
गुण-दोष होते हैं।
कबित बिबेक एक
नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें॥
इनमें से
काव्य संबंधी एक भी बात का ज्ञान मुझमें नहीं है, यह मैं कोरे कागज पर लिखकर (शपथपूर्वक) सत्य-सत्य कहता हूँ।
दो० - भनिति
मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
सो बिचारि
सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक॥ ९॥
मेरी रचना सब
गुणों से रहित है, इसमें बस, जगत्प्रसिद्ध एक गुण है। उसे विचार कर अच्छी बुद्धिवाले
पुरुष,
जिनके निर्मल ज्ञान है, इसको सुनेंगे॥९॥
एहि महँ
रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
मंगल भवन
अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥
इसमें रघुनाथ
का उदार नाम है, जो अत्यंत पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है और अमंगलों को हरनेवाला है,
जिसे पार्वती सहित भगवान शिव सदा जपा करते हैं।
भनिति बिचित्र
सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोउ॥
बिधुबदनी सब
भाँति सँवारी। सोह न बसन बिना बर नारी॥
जो अच्छे कवि
के द्वारा रची हुई बड़ी अनूठी कविता है, वह भी राम नाम के बिना शोभा नहीं पाती। जैसे चंद्रमा के
समान मुखवाली सुंदर स्त्री सब प्रकार से सुसज्जित होने पर भी वस्त्र के बिना शोभा
नहीं देती।
सब गुन रहित
कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी॥
सादर कहहिं
सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥
इसके विपरीत,
कुकवि की रची हुई सब गुणों से रहित कविता को भी,
राम के नाम एवं यश से अंकित जानकर,
बुद्धिमान लोग आदरपूर्वक कहते और सुनते हैं,
क्योंकि संतजन भौंरे की भाँति गुण ही को ग्रहण करनेवाले
होते हैं।
जदपि कबित रस
एकउ नाहीं। राम प्रताप प्रगट एहि माहीं॥
सोइ भरोस
मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा॥
यद्यपि मेरी
इस रचना में कविता का एक भी रस नहीं है, तथापि इसमें राम का प्रताप प्रकट है। मेरे मन में यही एक
भरोसा है। भले संग से भला, किसने बड़प्पन नहीं पाया?
धूमउ तजइ सहज
करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥
भनिति भदेस
बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी॥
धुआँ भी अगर
के संग से सुगंधित होकर अपने स्वाभाविक कड़ुवेपन को छोड़ देता है। मेरी कविता
अवश्य भद्दी है, परंतु इसमें जगत का कल्याण करनेवाली रामकथारूपी उत्तम वस्तु का वर्णन किया गया
है। (इससे यह भी अच्छी ही समझी जाएगी।)
छं० - मंगल
करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।
गति कूर कबिता
सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥
प्रभु सुजस
संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी।
भव अंग भूति
मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥
तुलसीदास कहते
हैं कि रघुनाथ की कथा कल्याण करनेवाली और कलियुग के पापों को हरनेवाली है। मेरी इस
भद्दी कवितारूपी नदी की चाल पवित्र जलवाली नदी (गंगा) की चाल की भाँति टेढ़ी है।
प्रभु रघुनाथ के सुंदर यश के संग से यह कविता सुंदर तथा सज्जनों के मन को भानेवाली
हो जाएगी। श्मशान की अपवित्र राख भी महादेव के अंग के संग से सुहावनी लगती है और
स्मरण करते ही पवित्र करनेवाली होती है।
दो० - प्रिय
लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।
दारु बिचारु
कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग॥ १०(क)॥
राम के यश के
संग से मेरी कविता सभी को अत्यंत प्रिय लगेगी। जैसे मलय पर्वत के संग से
काष्ठमात्र (चंदन बनकर) वंदनीय हो जाता है, फिर क्या कोई काठ (की तुच्छता) का विचार करता है?॥ १०(क)॥
स्याम सुरभि
पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
गिरा ग्राम्य
सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान॥ १० (ख)॥
श्यामा गौ
काली होने पर भी उसका दूध उज्ज्वल और बहुत गुणकारी होता है। यही समझकर सब लोग उसे
पीते हैं। इसी तरह गँवारू भाषा में होने पर भी सीताराम के यश को बुद्धिमान लोग
बड़े चाव से गाते और सुनते हैं॥ १० (ख)॥
मनि मानिक
मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
नृप किरीट
तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥
मणि,
माणिक और मोती की जैसी सुंदर छवि है,
वह साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा नहीं पाती। राजा के
मुकुट और नवयुवती स्त्री के शरीर को पाकर ही ये सब अधिक शोभा को प्राप्त होते हैं।
तैसेहिं सुकबि
कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
भगति हेतु
बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥
इसी तरह,
बुद्धिमान लोग कहते हैं कि सुकवि की कविता भी उत्पन्न और
कहीं होती है और शोभा अन्यत्र कहीं पाती है (अर्थात कवि की वाणी से उत्पन्न हुई
कविता वहाँ शोभा पाती है, जहाँ उसका विचार, प्रचार तथा उसमें कथित आदर्श का ग्रहण और अनुसरण होता है)।
कवि के स्मरण करते ही उसकी भक्ति के कारण सरस्वती ब्रह्मलोक को छोड़कर दौड़ी आती
हैं।
राम चरित सर
बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥
कबि कोबिद अस
हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥
सरस्वती की
दौड़ी आने की वह थकावट रामचरितरूपी सरोवर में उन्हें नहलाए बिना दूसरे करोड़ों
उपायों से भी दूर नहीं होती। कवि और पंडित अपने हृदय में ऐसा विचार कर कलियुग के
पापों को हरनेवाले हरि के यश का ही गान करते हैं।
कीन्हें
प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
हृदय सिंधु
मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥
संसारी
मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वती सिर धुनकर पछताने लगती हैं (कि मैं क्यों इसके
बुलाने पर आई)। बुद्धिमान लोग हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीप और सरस्वती को स्वाति नक्षत्र के समान कहते
हैं।
जौं बरषइ बर
बारि बिचारू। होहिं कबित मुकुतामनि चारू॥
इसमें यदि
श्रेष्ठ विचाररूपी जल बरसता है तो मुक्तामणि के समान सुंदर कविता होती है।
दो० - जुगुति
बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन
बिमल उर सोभा अति अनुराग॥ ११॥
उन कवितारूपी
मुक्तामणियों को युक्ति से बेधकर फिर रामचरित्ररूपी सुंदर तागे में पिरोकर सज्जन
लोग अपने निर्मल हृदय में धारण करते हैं, जिससे अत्यंत अनुरागरूपी शोभा होती है (वे आत्यंतिक प्रेम
को प्राप्त होते हैं)॥ ११ ॥
जे जनमे
कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥
चलत कुपंथ बेद
मग छाँड़े। कपट कलेवर कलि मल भाँड़े॥
जो कराल
कलियुग में जन्मे हैं, जिनकी करनी कौए के समान है और वेष हंस का-सा है,
जो वेदमार्ग को छोड़कर कुमार्ग पर चलते हैं,
जो कपट की मूर्ति और कलियुग के पापों के भाँड़ें हैं।
बंचक भगत कहाइ
राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥
तिन्ह महँ
प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरमध्वज धंधक धोरी॥
जो राम के
भक्त कहलाकर लोगों को ठगते हैं, जो धन (लोभ), क्रोध और काम के गुलाम हैं और जो धींगाधींगी करनेवाले,
धर्मध्व (धर्म की झूठी ध्वजा फहरानेवाले दंभी) और कपट के
धंधों का बोझ ढोनेवाले हैं, संसार के ऐसे लोगों में सबसे पहले मेरी गिनती है।
जौं अपने
अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ॥
ताते मैं अति
अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने॥
यदि मैं अपने
सब अवगुणों को कहने लगूँ तो कथा बहुत बढ़ जाएगी और मैं पार नहीं पाऊँगा। इससे
मैंने बहुत कम अवगुणों का वर्णन किया है। बुद्धिमान लोग थोड़े ही में समझ लेंगे।
समुझि बिबिधि
बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥
एतेहु पर
करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥
मेरी अनेकों
प्रकार की विनती को समझकर, कोई भी इस कथा को सुनकर दोष नहीं देगा। इतने पर भी जो शंका
करेंगे,
वे तो मुझसे भी अधिक मूर्ख और बुद्धि के कंगाल हैं।
कबि न होउँ
नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
कहँ रघुपति के
चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥
मैं न तो कवि
हूँ,
न चतुर कहलाता हूँ, अपनी बुद्धि के अनुसार राम के गुण गाता हूँ। कहाँ तो रघुनाथ
के अपार चरित्र, कहाँ संसार में आसक्त मेरी बुद्धि!
जेहिं मारुत
गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥
समुझत अमित
राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥
जिस हवा से
सुमेरु जैसे पहाड़ उड़ जाते हैं, कहिए तो, उसके सामने रूई किस गिनती में है। राम की असीम प्रभुता को
समझकर कथा रचने में मेरा मन बहुत हिचकता है।
दो० - सारद
सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।
नेति नेति कहि
जासु गुन करहिं निरंतर गान॥ १२॥
सरस्वती,
शेष, शिव, ब्रह्मा, शास्त्र, वेद और पुराण - ये सब 'नेति-नेति' कहकर (पार नहीं पाकर 'ऐसा नहीं', ‘ऐसा नहीं’ कहते हुए) सदा जिनका गुणगान किया करते हैं॥ १२॥
सब जानत प्रभु
प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥
तहाँ बेद अस
कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥
यद्यपि प्रभु
राम की प्रभुता को सब ऐसी (अकथनीय) ही जानते हैं, तथापि कहे बिना कोई नहीं रहा। इसमें वेद ने ऐसा कारण बताया
है कि भजन का प्रभाव बहुत तरह से कहा गया है।
एक अनीह अरूप
अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा॥
ब्यापक बिस्वरूप
भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥
जो परमेश्वर
एक है,
जिनके कोई इच्छा नहीं है, जिनका कोई रूप और नाम नहीं है,
जो अजन्मा, सच्चिदानंद और परमधाम है और जो सबमें व्यापक एवं विश्व रूप
है,
उसी भगवान ने दिव्य शरीर धारण करके नाना प्रकार की लीला की
है।
सो केवल भगतन
हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी॥
जेहि जन पर
ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥
वह लीला केवल
भक्तों के हित के लिए ही है, क्योंकि भगवान परम कृपालु हैं और शरणागत के बड़े प्रेमी
हैं। जिनकी भक्तों पर बड़ी ममता और कृपा है, जिन्होंने एक बार जिस पर कृपा कर दी,
उस पर फिर कभी क्रोध नहीं किया।
गई बहोर गरीब
नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥
बुध बरनहिं
हरि जस अस जानी। करहिं पुनीत सुफल निज बानी॥
वे प्रभु
रघुनाथ गई हुई वस्तु को फिर प्राप्त करानेवाले, गरीबनवाज, सरल स्वभाव, सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। यही समझकर बुद्धिमान लोग
उन हरि का यश वर्णन करके अपनी वाणी को पवित्र और उत्तम फल देनेवाली बनाते हैं।
तेहिं बल मैं
रघुपति गुन गाथा। कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥
मुनिन्ह प्रथम
हरि कीरति गाई। तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई॥
उसी बल से मैं
राम के चरणों में सिर नवाकर रघुनाथ के गुणों की कथा कहूँगा। इसी विचार से मुनियों
ने पहले हरि की कीर्ति गाई है। भाई! उसी मार्ग पर चलना मेरे लिए सुगम होगा।
दो० - अति
अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।
चढ़ि पिपीलिकउ
परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं॥ १३॥
जो अत्यंत
बड़ी श्रेष्ठ नदियाँ हैं, यदि राजा उन पर पुल बँधा देता है,
तो अत्यंत छोटी चींटियाँ भी उन पर चढ़कर बिना ही परिश्रम के
पार चली जाती हैं। (इसी प्रकार मुनियों के वर्णन के सहारे मैं भी रामचरित्र का
वर्णन सहज ही कर सकूँगा)॥ १३॥
एहि प्रकार बल
मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥
ब्यास आदि कबि
पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥
इस प्रकार मन
को बल दिखलाकर मैं रघुनाथ की सुहावनी कथा की रचना करूँगा। व्यास आदि जो अनेकों
श्रेष्ठ कवि हो गए हैं, जिन्होंने बड़े आदर से हरि का सुयश वर्णन किया है।
चरन कमल बंदउँ
तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥
कलि के कबिन्ह
करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥
मैं उन सब
(श्रेष्ठ कवियों) के चरणकमलों में प्रणाम करता हूँ, वे मेरे सब मनोरथों को पूरा करें। कलियुग के भी उन कवियों
को मैं प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने रघुनाथ के गुणसमूहों का वर्णन किया है।
जे प्राकृत
कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥
भए जे अहहिं
जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें॥
जो बड़े
बुद्धिमान प्राकृत कवि हैं, जिन्होंने भाषा में हरि चरित्र का वर्णन किया है,
जो ऐसे कवि पहले हो चुके हैं, जो इस समय वर्तमान हैं और जो आगे होंगे,
उन सबको मैं सारा कपट त्यागकर प्रणाम करता हूँ।
होहु प्रसन्न
देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू॥
जो प्रबंध बुध
नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥
आप सब प्रसन्न
होकर यह वरदान दीजिए कि साधु समाज में मेरी कविता का सम्मान हो,
क्योंकि बुद्धिमान लोग जिस कविता का आदर नहीं करते,
बाल कवि ही उसकी रचना का व्यर्थ परिश्रम करते हैं।
कीरति भनिति
भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
राम सुकीरति
भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा॥
कीर्ति,
कविता और संपत्ति वही उत्तम है,
जो गंगा की तरह सबका हित करनेवाली हो। राम की कीर्ति तो बड़ी
सुंदर है,
परंतु मेरी कविता भद्दी है। मुझे यह असामंजस्य होने का
अंदेशा है।
तुम्हरी कृपाँ
सुलभ सोउ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे॥
परंतु हे
कवियो! आपकी कृपा से यह बात भी मेरे लिए सुलभ है। रेशम की सिलाई टाट पर भी सुहावनी
लगती है।
दो० - सरल
कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।
सहज बयर
बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥ १४(क)॥
चतुर पुरुष
उसी कविता का आदर करते हैं, जो सरल हो और जिसमें निर्मल चरित्र का वर्णन हो तथा जिसे
सुनकर शत्रु भी स्वाभाविक बैर को भूलकर सराहना करने लगें॥ १४
(क)॥
सो न होई बिनु
बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।
करहु कृपा हरि
जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर॥ १४ (ख)॥
ऐसी कविता
बिना निर्मल बुद्धि के होती नहीं और मेरी बुद्धि का बल बहुत ही थोड़ा है,
इसलिए बार-बार निहोरा करता हूँ कि हे कवियो! आप कृपा करें
जिससे मैं हरियश का वर्णन कर सकूँ॥ १४ (ख)॥
कबि कोबिद
रघुबर चरित मानस मंजु मराल।
बालबिनय सुनि
सुरुचि लखि मो पर होहु कृपाल॥ १४ (ग)॥
कवि और
पंडितगण! आप जो रामचरित्रररूपी मानसरोवर के सुंदर हंस हैं,
मुझ बालक की विनती सुनकर और सुंदर रुचि देखकर मुझपर कृपा
करें॥ १४ (ग)॥
सो० - बंदउँ
मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।
सखर सुकोमल
मंजु दोष रहित दूषन सहित॥ १४ (घ)॥
मैं उन
वाल्मीकि मुनि के चरण कमलों की वंदना करता हूँ, जिन्होंने रामायण की रचना की है,
जो खर सहित होने पर भी खर से विपरीत बड़ी कोमल और सुंदर है
तथा जो दूषणसहित होने पर भी दूषण अर्थात दोष से रहित है॥ १४
(घ)॥
बंदउँ चारिउ
बेद भव बारिधि बोहित सरिस।
जिन्हहि न
सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु॥ १४ (ङ)॥
मैं चारों
वेदों की वंदना करता हूँ, जो संसार समुद्र के पार होने के लिए जहाज के समान हैं तथा
जिन्हें रघुनाथ का निर्मल यश वर्णन करते स्वप्न में भी खेद (थकावट) नहीं होता॥ १४
(ङ)॥
बंदउँ बिधि पद
रेनु भव सागर जेहिं कीन्ह जहँ।
संत सुधा ससि
धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी॥ १४ (च)॥
मैं ब्रह्मा
के चरण रज की वंदना करता हूँ, जिन्होंने भवसागर बनाया है, जहाँ से एक ओर संतरूपी अमृत, चंद्रमा और कामधेनु निकले और दूसरी ओर दुष्ट मनुष्यरूपी विष
और मदिरा उत्पन्न हुए॥ १४ (च)॥
दो० - बिबुध
बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि।
होइ प्रसन्न
पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि॥ १४ (छ)॥
देवता,
ब्राह्मण, पंडित, ग्रह - इन सबके चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर कहता हूँ कि
आप प्रसन्न होकर मेरे सारे सुंदर मनोरथों को पूरा करें॥ १४
(छ)॥
पुनि बंदउँ
सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥
मज्जन पान पाप
हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥
फिर मैं
सरस्वती और देवनदी गंगा की वंदना करता हूँ। दोनों पवित्र और मनोहर चरित्रवाली हैं।
एक (गंगा) स्नान करने और जल पीने से पापों को हरती है और दूसरी (सरस्वती) गुण और
यश कहने और सुनने से अज्ञान का नाश कर देती है।
गुर पितु मातु
महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥
सेवक स्वामि
सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के॥
महेश और
पार्वती को मैं प्रणाम करता हूँ, जो मेरे गुरु और माता-पिता हैं,
जो दीनबंधु और नित्य दान करनेवाले हैं,
जो सीतापति राम के सेवक, स्वामी और सखा हैं तथा मुझ तुलसी का सब प्रकार से कपटरहित
(सच्चा) हित करनेवाले हैं।
कलि बिलोकि जग
हित हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा॥
अनमिल आखर अरथ
न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥
जिन
शिव-पार्वती ने कलियुग को देखकर, जगत के हित के लिए, शाबर मंत्र समूह की रचना की, जिन मंत्रों के अक्षर बेमेल हैं,
जिनका न कोई ठीक अर्थ होता है और न जप ही होता है,
तथापि शिव के प्रताप से जिनका प्रभाव प्रत्यक्ष है।
सो उमेस मोहि
पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगल मूला॥
सुमिरि सिवा
सिव पाइ पसाऊ। बरनउँ रामचरित चित चाऊ॥
वे उमापति शिव
मुझ पर प्रसन्न होकर (राम की) इस कथा को आनंद और मंगल का मूल बनाएँगे। इस प्रकार
पार्वती और शिव दोनों का स्मरण करके और उनका प्रसाद पाकर मैं चाव भरे चित्त से राम
चरित्र का वर्णन करता हूँ।
भनिति मोरि
सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥
जे एहि कथहि
सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता॥
होइहहिं राम
चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमंगल भागी॥
मेरी कविता
शिव की कृपा से ऐसी सुशोभित होगी, जैसी तारागण के सहित चंद्रमा के साथ रात्रि शोभित होती है।
जो इस कथा को प्रेम सहित एवं सावधानी के साथ समझ-बूझकर कहें-सुनेंगे,
वे कलियुग के पापों से रहित और सुंदर कल्याण के भागी होकर
राम के चरणों के प्रेमी बन जाएँगे।
दो० - सपनेहुँ
साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ।
तौ फुर होउ जो
कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ॥ १५॥
यदि मु्झ पर
शिव और पार्वती की स्वप्न में भी सचमुच प्रसन्नता हो,
तो मैंने इस भाषा कविता का जो प्रभाव कहा है,
वह सब सच हो॥ १५॥
बंदउँ अवध
पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥
प्रनवउँ पुर
नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥
मैं अति
पवित्र अयोध्यापुरी और कलियुग के पापों का नाश करनेवाली सरयू नदी की वंदना करता
हूँ। फिर अवधपुरी के उन नर-नारियों को प्रणाम करता हूँ,
जिन पर प्रभु राम की ममता थोड़ी नहीं है (अर्थात बहुत है)।
सिय निंदक अघ
ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए॥
बंदउँ कौसल्या
दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची॥
उन्होंने
(अपनी पुरी में रहनेवाले) सीता की निंदा करनेवाले (धोबी और उसके समर्थक
पुर-नर-नारियों) के पाप समूह को नाश कर उनको शोकरहित बनाकर अपने लोक (धाम) में बसा
दिया। मैं कौशल्यारूपी पूर्व दिशा की वंदना करता हूँ,
जिसकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही है।
प्रगटेउ जहँ
रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल कमल तुसारू॥
दसरथ राउ सहित
सब रानी। सुकृत सुमंगल मूरति मानी॥
करउँ प्रनाम
करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी॥
जिन्हहि बिरचि
बड़ भयउ बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता॥
जहाँ
(कौशल्यारूपी पूर्व दिशा) से विश्व को सुख देनेवाले और दुष्टरूपी कमलों के लिए
पाले के समान रामरूपी सुंदर चंद्रमा प्रकट हुए। सब रानियों सहित राजा दशरथ को
पुण्य और सुंदर कल्याण की मूर्ति मानकर मैं मन, वचन और कर्म से प्रणाम करता हूँ। अपने पुत्र का सेवक जानकर
वे मुझ पर कृपा करें, जिनको रचकर ब्रह्मा ने भी बड़ाई पाई तथा जो राम के माता और
पिता होने के कारण महिमा की सीमा हैं।
सो० - बंदउँ
अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
बिछुरत
दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥ १६॥
मैं अवध के
राजा दशरथ की वंदना करता हूँ, जिनका राम के चरणों में सच्चा प्रेम था,
जिन्होंने दीनदयालु प्रभु के बिछुड़ते ही अपने प्यारे शरीर
को मामूली तिनके की तरह त्याग दिया॥ १६॥
प्रनवउँ परिजन
सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥
जोग भोग महँ
राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥
मैं परिवार
सहित राजा जनक को प्रणाम करता हूँ, जिनका राम के चरणों में गूढ़ प्रेम था,
जिसको उन्होंने योग और भोग में छिपा रखा था,
परंतु राम को देखते ही वह प्रकट हो गया।
प्रनवउँ प्रथम
भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥
राम चरन पंकज
मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥
सबसे पहले मैं
भरत के चरणों को प्रणाम करता हूँ, जिनका नियम और व्रत वर्णित नहीं किया जा सकता तथा जिनका मन
राम के चरणकमलों में भौंरे की तरह लुभाया हुआ है, कभी उनका पास नहीं छोड़ता।
बंदउँ लछिमन
पद जल जाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता॥
रघुपति कीरति
बिमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका॥
मैं लक्ष्मण
के चरण कमलों को प्रणाम करता हूँ, जो शीतल, सुंदर और भक्तों को सुख देनेवाले हैं। रघुनाथ की कीर्तिरूपी
विमल पताका में जिनका यश (पताका को ऊँचा करके फहरानेवाले) दंड के समान हुआ।
सेष सहस्रसीस
जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥
सदा सो
सानुकूल रह मो पर। कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर॥
जो हजार
सिरवाले और जगत के कारण (हजार सिरों पर जगत को धारण कर रखनेवाले) शेष हैं,
जिन्होंने पृथ्वी का भय दूर करने के लिए अवतार लिया,
वे गुणों की खान कृपासिंधु सुमित्रानंदन लक्ष्मण मुझ पर सदा
प्रसन्न रहें।
रिपुसूदन पद
कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी॥
महाबीर बिनवउँ
हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥
मैं शत्रुघ्न
के चरणकमलों को प्रणाम करता हूँ, जो बड़े वीर, सुशील और भरत के पीछे चलनेवाले हैं। मैं महावीर हनुमान की
विनती करता हूँ, जिनके यश का राम ने स्वयं वर्णन किया है॥
सो० - प्रनवउँ
पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन।
जासु हृदय
आगार बसहिं राम सर चाप धर॥ १७॥
मैं पवनकुमार
हनुमान को प्रणाम करता हूँ, जो दुष्टरूपी वन को भस्म करने के लिए अग्निरूप हैं,
जो ज्ञान की घनमूर्ति हैं और जिनके हृदयरूपी भवन में
धनुष-बाण धारण किए राम निवास करते हैं॥ १७॥
कपिपति रीछ
निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा॥
बंदउँ सब के
चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥
वानरों के
राजा सुग्रीव, रीछों के राजा जाम्बवान, राक्षसों के राजा विभीषण और अंगद आदि जितना वानरों का समाज
है,
सबके सुंदर चरणों की मैं वदना करता हूँ,
जिन्होंने अधम शरीर में भी राम को प्राप्त कर लिया।
रघुपति चरन
उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥
बंदउँ पद सरोज
सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥
पशु,
पक्षी, देवता, मनुष्य, असुर समेत जितने राम के चरणों के उपासक हैं,
मैं उन सबके चरणकमलों की वंदना करता हूँ,
जो राम के निष्काम सेवक हैं।
सुक सनकादि
भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥
प्रनवउँ सबहि
धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥
शुकदेव,
सनकादि, नारद मुनि आदि जितने भक्त और परम ज्ञानी श्रेष्ठ मुनि हैं,
मैं धरती पर सिर टेककर उन सबको प्रणाम करता हूँ,
हे मुनीश्वरो! आप सब मुझको अपना दास जानकर कृपा कीजिए।
जनकसुता जग
जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद
कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
राजा जनक की
पुत्री,
जगत की माता और करुणानिधान राम की प्रियतमा जानकी के दोनों
चरण कमलों को मैं मनाता हूँ, जिनकी कृपा से निर्मल बुद्धि पाऊँ।
पुनि मन बचन
कर्म रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक॥
राजीवनयन धरें
धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक॥
फिर मैं मन,
वचन और कर्म से कमलनयन, धनुष-बाणधारी, भक्तों की विपत्ति का नाश करने और उन्हें सुख देनेवाले
भगवान रघुनाथ के सर्व समर्थ चरण कमलों की वंदना करता हूँ।
दो० - गिरा
अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
बंदउँ सीता
राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥ १८॥
जो वाणी और
उसके अर्थ तथा जल और जल की लहर के समान कहने में अलग-अलग हैं,
परंतु वास्तव में अभिन्न हैं, उन सीताराम के चरणों की मैं वंदना करता हूँ,
जिन्हें दीन-दुःखी बहुत ही प्रिय हैं॥ १८॥
बंदउँ नाम राम
रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हरमय
बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥
मैं रघुनाथ के
नाम 'राम' की वंदना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चंद्रमा) का हेतु अर्थात 'र' 'आ' और 'म' रूप से बीज है। वह 'राम' नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों का प्राण है,
निर्गुण, उपमा रहित और गुणों का भंडार है।
महामंत्र जोइ
जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
महिमा जासु
जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥
जो महामंत्र
है,
जिसे महेश्वर शिव जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी
में मुक्ति का कारण है तथा जिसकी महिमा को गणेश जानते हैं,
जो इस 'राम' नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं।
जान आदिकबि
नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
सहस नाम सम
सुनि सिव बानी। जपि जेईं पिय संग भवानी॥
आदिकवि
वाल्मीकि राम नाम के प्रताप को जानते हैं, जो उलटा नाम ('मरा', 'मरा') जपकर पवित्र हो गए। शिव के इस वचन को सुनकर कि एक राम-नाम
सहस्र नाम के समान है, पार्वती सदा अपने पति (शिव) के साथ राम-नाम का जप करती रहती
हैं।
हरषे हेतु
हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को॥
नाम प्रभाउ
जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥
नाम के प्रति
पार्वती के हृदय की ऐसी प्रीति देखकर शिव हर्षित हो गए और उन्होंने स्त्रियों में
भूषण रूप पार्वती को अपना भूषण बना लिया। (अर्थात उन्हें अपने अंग में धारण करके
अर्धांगिनी बना लिया)। नाम के प्रभाव को शिव भली-भाँति जानते हैं,
जिस (प्रभाव) के कारण कालकूट जहर ने उनको अमृत का फल दिया।
दो० - बरषा
रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास।
राम नाम बर
बरन जुग सावन भादव मास॥ १९॥
रघुनाथ की
भक्ति वर्षा ऋतु है, तुलसीदास कहते हैं कि उत्तम सेवकगण धान हैं और 'राम' नाम के दो सुंदर अक्षर सावन-भादो के महीने हैं॥ १९॥
आखर मधुर
मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥
ससुमिरत सुलभ
सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥
दोनों अक्षर
मधुर और मनोहर हैं, जो वर्णमालारूपी शरीर के नेत्र हैं,
भक्तों के जीवन हैं तथा स्मरण करने में सबके लिए सुलभ और
सुख देनेवाले हैं और जो इस लोक में लाभ और परलोक में निर्वाह करते हैं।
कहत सुनत
सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के॥
बरनत बरन
प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती॥
ये कहने,
सुनने और स्मरण करने में बहुत ही अच्छे हैं,
तुलसीदास को तो राम-लक्ष्मण के समान प्यारे हैं। इनका ('र' और 'म' का) अलग-अलग वर्णन करने में प्रीति बिलगाती है (अर्थात बीज
मंत्र की दृष्टि से इनके उच्चारण, अर्थ और फल में भिन्नता दिख पड़ती है),
परंतु हैं ये जीव और ब्रह्म के समान स्वभाव से ही साथ
रहनेवाले।
नर नारायन
सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेषि जन त्राता॥
भगति सुतिय कल
करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन॥
ये दोनों
अक्षर नर-नारायण के समान सुंदर भाई हैं, ये जगत का पालन और विशेष रूप से भक्तों की रक्षा करनेवाले
हैं। ये भक्ति रूपिणी सुंदर स्त्री के कानों के सुंदर आभूषण (कर्णफूल) हैं और जगत
के हित के लिए निर्मल चंद्रमा और सूर्य हैं।
स्वाद तोष सम
सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के॥
जन मन मंजु
कंज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से॥
ये सुंदर गति
(मोक्ष) रूपी अमृत के स्वाद और तृप्ति के समान हैं, कच्छप और शेष के समान पृथ्वी के धारण करनेवाले हैं,
भक्तों के मनरूपी सुंदर कमल में विहार करनेवाले भौंरे के
समान हैं और जीभरूपी यशोदा के लिए कृष्ण और बलराम के समान हैं।
दो० - एकु
छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
तुलसी रघुबर
नाम के बरन बिराजत दोउ॥ २०॥
तुलसीदास कहते
हैं - रघुनाथ के नाम के दोनों अक्षर बड़ी शोभा देते हैं,
जिनमें से एक (रकार) छत्ररूप (रेफ) से और दूसरा (मकार) मुकुटमणि
(अनुस्वार -) रूप से सब अक्षरों के ऊपर हैं॥ २०॥
समुझत सरिस
नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
नाम रूप दुइ
ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥
समझने में नाम
और नामी दोनों एक-से हैं, किंतु दोनों में परस्पर स्वामी और सेवक के समान प्रीति है
(अर्थात नाम और नामी में पूर्ण एकता होने पर भी जैसे स्वामी के पीछे सेवक चलता है,
उसी प्रकार नाम के पीछे नामी चलते हैं। प्रभु राम अपने 'राम' नाम का ही अनुगमन करते हैं (नाम लेते ही वहाँ आ जाते हैं)।
नाम और रूप दोनों ईश्वर की उपाधि हैं; ये (भगवान के नाम और रूप) दोनों अनिर्वचनीय हैं,
अनादि हैं और सुंदर बुद्धि से ही इनका स्वरूप जानने में आता
है।
को बड़ छोट
कहत अपराधू। सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू॥
देखिअहिं रूप
नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥
इन (नाम और
रूप) में कौन बड़ा है, कौन छोटा, यह कहना तो अपराध है। इनके गुणों का तारतम्य (कमी-ज्यादा)
सुनकर साधु पुरुष स्वयं ही समझ लेंगे। रूप नाम के अधीन देखे जाते हैं,
नाम के बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकता।
रूप बिसेष नाम
बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें॥
सुमिरिअ नाम
रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥
कोई-सा विशेष
रूप बिना उसका नाम जाने हथेली पर रखा हुआ भी पहचाना नहीं जा सकता और रूप के बिना
देखे भी नाम का स्मरण किया जाए तो विशेष प्रेम के साथ वह रूप हृदय में आ जाता है।
नाम रूप गति
अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥
अगुन सगुन बिच
नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी॥
नाम और रूप की
गति की कहानी (विशेषता की कथा) अकथनीय है। वह समझने में सुखदायक है,
परंतु उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। निर्गुण और सगुण के
बीच में नाम सुंदर साक्षी है और दोनों का यथार्थ ज्ञान करानेवाला चतुर दुभाषिया
है।
दो० - राम नाम
मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर
बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥ २१॥
तुलसीदास कहते
हैं,
यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहता है,
तो मुखरूपी द्वार की जीभरूपी देहली पर रामनामरूपी मणि-दीपक
को रख॥ २१॥
नाम जीहँ जपि
जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥
ब्रह्मसुखहि
अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥
ब्रह्मा के
बनाए हुए इस प्रपंच (दृश्य जगत) से भली-भाँति छूटे हुए वैराग्यवान मुक्त योगी
पुरुष इस नाम को ही जीभ से जपते हुए जागते हैं और नाम तथा रूप से रहित अनुपम,
अनिर्वचनीय, अनामय ब्रह्मसुख का अनुभव करते हैं।
जाना चहहिं
गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥
साधक नाम
जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥
जो परमात्मा
के गूढ़ रहस्य को (यथार्थ महिमा को) जानना चाहते हैं,
वे (जिज्ञासु) भी नाम को जीभ से जपकर उसे जान लेते हैं।
(लौकिक सिद्धियों के चाहनेवाले अर्थार्थी) साधक लौ लगाकर नाम का जप करते हैं और
अणिमादि (आठों) सिद्धियों को पाकर सिद्ध हो जाते हैं।
जपहिं नामु जन
आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी॥
राम भगत जग
चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥
(संकट से घबराए हुए) आर्त भक्त नाम जप करते हैं, तो उनके बड़े भारी बुरे-बुरे संकट मिट जाते हैं और वे सुखी
हो जाते हैं। जगत में चार प्रकार के (१-अर्थार्थी - धनादि की चाह से भजनेवाले,
२-आर्त - संकट की निवृत्ति के लिए भजनेवाले,
३-जिज्ञासु - भगवान को जानने की इच्छा से भजनेवाले,
४-ज्ञानी - भगवान को तत्त्व से जानकर स्वाभाविक ही प्रेम से
भजनेवाले) रामभक्त हैं और चारों ही पुण्यात्मा, पापरहित और उदार हैं।
चहू चतुर कहुँ
नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥
चहुँ जुग चहुँ
श्रुति नाम प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥
चारों ही चतुर
भक्तों को नाम का ही आधार है, इनमें ज्ञानी भक्त प्रभु को विशेष रूप से प्रिय हैं। यों तो
चारों युगों में और चारों ही वेदों में नाम का प्रभाव है,
परंतु कलियुग में विशेष रूप से है। इसमें तो (नाम को
छोड़कर) दूसरा कोई उपाय ही नहीं है।
दो० - सकल
कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम
पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन॥ २२॥
जो सब प्रकार
की कामनाओं से रहित और रामभक्ति के रस में लीन हैं, उन्होंने भी नाम के सुंदर प्रेमरूपी अमृत के सरोवर में अपने
मन को मछली बना रखा है (अर्थात वे नामरूपी सुधा का निरंतर आस्वादन करते रहते हैं,
क्षण भर भी उससे अलग होना नहीं चाहते)॥ २२॥
अगुन सगुन दुइ
ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरें मत बड़
नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें॥
निर्गुण और
सगुण ब्रह्म के दो स्वरूप हैं। ये दोनों ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं। मेरी सम्मति में नाम इन दोनों से बड़ा
है,
जिसने अपने बल से दोनों को अपने वश में कर रखा है।
प्रौढ़ि सुजन
जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥
एकु दारुगत
देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥
उभय अगम जुग
सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें॥
ब्यापकु एकु
ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनँद रासी॥
सज्जनगण इस
बात को मुझ दास की ढिठाई या केवल काव्योक्ति न समझें। मैं अपने मन के विश्वास,
प्रेम और रुचि की बात कहता हूँ। (निर्गुण और सगुण) दोनों
प्रकार के ब्रह्म का ज्ञान अग्नि के समान है। निर्गुण उस अप्रकट अग्नि के समान है,
जो काठ के अंदर है, परंतु दिखती नहीं; और सगुण उस प्रकट अग्नि के समान है,
जो प्रत्यक्ष दिखती है।
अस प्रभु
हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥
नाम निरूपन
नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥
ऐसे विकार
रहित प्रभु के हृदय में रहते भी जगत के सब जीव दीन और दुःखी हैं। नाम का निरूपण
करके (नाम के यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभाव को जानकर) नाम का जतन करने से
(श्रद्धापूर्वक नाम जपरूपी साधन करने से) वही ब्रह्म ऐसे प्रकट हो जाता है जैसे
रत्न के जानने से उसका मूल्य।
दो० - निरगुन
तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।
कहउँ नामु बड़
राम तें निज बिचार अनुसार॥ २३॥
इस प्रकार
निर्गुण से नाम का प्रभाव अत्यंत बड़ा है। अब अपने विचार के अनुसार कहता हूँ,
कि नाम राम से भी बड़ा है॥ २३॥
राम भगत हित
नर तनु धारी। सहि संकट किए साधु सुखारी॥
नामु सप्रेम
जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा॥
राम ने भक्तों
के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके स्वयं कष्ट सहकर साधुओं को सुखी किया,
परंतु भक्तगण प्रेम के साथ नाम का जप करते हुए सहज ही में
आनंद और कल्याण के घर हो जाते हैं।
राम एक तापस
तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥
रिषि हित राम
सुकेतुसुता की। सहित सेन सुत कीन्हि बिबाकी॥
सहित दोष दुख
दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥
भंजेउ राम आपु
भव चापू। भव भय भंजन नाम प्रतापू॥
राम ने एक
तपस्वी की स्त्री (अहिल्या) को ही तारा, परंतु नाम ने करोड़ों दुष्टों की बिगड़ी बुद्धि को सुधार
दिया। राम ने ऋषि विश्वामित्र के हित के लिए एक सुकेतु यक्ष की कन्या ताड़का की
सेना और पुत्र (सुबाहु) सहित समाप्ति की; परंतु नाम अपने भक्तों के दोष,
दुःख और दुराशाओं का इस तरह नाश कर देता है जैसे सूर्य
रात्रि का। राम ने तो स्वयं शिव के धनुष को तोड़ा, परंतु नाम का प्रताप ही संसार के सब भयों का नाश करनेवाला
है।
दंडक बन प्रभु
कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन॥
निसिचर निकर
दले रघुनंदन। नामु सकल कलि कलुष निकंदन॥
प्रभु राम ने
दंडक वन को सुहावना बनाया, परंतु नाम ने असंख्य मनुष्यों के मनों को पवित्र कर दिया।
रघुनाथ ने राक्षसों के समूह को मारा, परंतु नाम तो कलियुग के सारे पापों की जड़ उखाड़नेवाला है।
दो० - सबरी
गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
नाम उधारे
अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥ २४॥
रघुनाथ ने तो
शबरी,
जटायु आदि उत्तम सेवकों को ही मुक्ति दी;
परंतु नाम ने अगनित दुष्टों का उद्धार किया। नाम के गुणों
की कथा वेदों में प्रसिद्ध है॥ २४॥
राम सुकंठ
बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ ॥
नाम गरीब अनेक
नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥
राम ने
सुग्रीव और विभीषण दोनों को ही अपनी शरण में रखा, यह सब कोई जानते हैं, परंतु नाम ने अनेक गरीबों पर कृपा की है। नाम का यह सुंदर
विरद लोक और वेद में विशेष रूप से प्रकाशित है।
राम भालु कपि
कटकु बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥
नामु लेत
भवसिंधु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥
राम ने तो
भालू और बंदरों की सेना बटोरी और समुद्र पर पुल बाँधने के लिए थोड़ा परिश्रम नहीं
किया;
परंतु नाम लेते ही संसार समुद्र सूख जाता है। सज्जनगण! मन
में विचार कीजिए (कि दोनों में कौन बड़ा है)।
राम सकुल रन
रावनु मारा। सीय सहित निज पुर पगु धारा॥
राजा रामु अवध
रजधानी। गावत गुन सुर मुनि बर बानी॥
सेवक सुमिरत
नामु सप्रीती। बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती॥
फिरत सनेहँ
मगन सुख अपनें। नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें॥
राम ने कुटुंब
सहित रावण को युद्ध में मारा, तब सीता सहित उन्होंने अपने नगर (अयोध्या) में प्रवेश किया।
राम राजा हुए, अवध उनकी राजधानी हुई, देवता और मुनि सुंदर वाणी से जिनके गुण गाते हैं। परंतु
सेवक प्रेमपूर्वक नाम के स्मरण मात्र से बिना परिश्रम मोह की प्रबल सेना को जीतकर
प्रेम में मग्न हुए अपने ही सुख में विचरते हैं, नाम के प्रसाद से उन्हें सपने में भी कोई चिंता नहीं सताती।
दो० - ब्रह्म
राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित सत
कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥ २५॥
इस प्रकार नाम
ब्रह्म और राम दोनों से बड़ा है। यह वरदान देने वालों को भी वर देनेवाला है। शिव
ने अपने हृदय में यह जानकर ही सौ करोड़ राम चरित्र में से इस 'राम' नाम को ग्रहण किया है॥ २५॥
रामचरितमानस बालकांड
मासपारायण,
पहला विश्राम
शेष जारी....पढे श्रीरामचरित मानस- बालकाण्ड मासपारायण, दूसरा विश्राम
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