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अग्निपुराण
अध्याय २४३ में पुरुष के लक्षण का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अध्यायः २४३
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अग्निपुराण
अध्याय २४३
अग्निपुराणम् अध्यायः २४३– पुरुषलक्षणम्
अथ त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
अग्निरुवाच
रामोक्तोक्ता
मथा नीतिः स्त्रीणां राजन् नृणां वदे ।
लक्षणं
यत्समुद्रेण गर्गायोक्तं यथा पुरा ।। १ ।।
अग्निदेव कहते
हैं- वसिष्ठ! मैंने श्रीराम के प्रति वर्णित राजनीति का प्रतिपादन किया। अब मैं
स्त्री-पुरुषों के लक्षण बतलाता हूँ, जिसका पूर्वकाल में भगवान् समुद्र ने गर्ग मुनि को उपदेश दिया
था ॥ १ ॥
समुद्र उवाच ।
पुंसाञ्च
लक्षणं वक्ष्ये स्त्रीणाञ्चैव शुभाशुभं ।
एकाधिको
द्विशुक्लश्च त्रिगम्भीरस्तथैव च ।। २ ।।
त्रित्रिकस्त्रिप्रलम्बश्च
त्रिभिर्व्याप्नोति यस्तया ।
त्रिबलीमांस्त्रिविनतस्त्रिकालज्ञश्च
सुव्रत ।। ३ ।।
पुरुषः
स्यात्सुलक्षण्यो विपुलश्च तथा त्रिषु ।
चतुर्ल्लेशस्तथा
यश्च तथैव च चतुःसमः ।। ४ ।।
चतुष्किष्कुश्चतुर्दंश्च
सप्तस्नेहो नवामलः ।
दशपद्मो
दशव्यूहो न्यग्रोधपरिमण्डलं ।। ५ ।।
षडुन्नतोऽष्टवंशश्च
सप्तस्नहो नवामलः ।
दशपद्मो
दशव्यूहो न्यग्रोधपरिमण्डलः ।। ६ ।।
चतुर्दशसमद्वन्द्वः
षोडशाक्षश्च शस्यते ।
समुद्र ने कहा— उत्तम व्रत का आचरण करनेवाले गर्ग! मैं
स्त्री-पुरुषों के लक्षण एवं उनके शुभाशुभ फल का वर्णन करता हूँ। एकाधिक, द्विशुक्ल, त्रिगम्भीर, त्रित्रिक
त्रिप्रलम्ब, त्रिकव्यापी, त्रिवलीयुक्त,
त्रिविनत, त्रिकालज्ञ एवं त्रिविपुल पुरुष शुभ
लक्षणों से समन्वित माना जाता है। इसी प्रकार चतुर्लेख, चतुस्सम,
चतुष्किष्कु, चतुर्दष्ट, चतुष्कृष्ण, चतुर्गन्ध, चतुर्हस्व,
पञ्चसूक्ष्म, पञ्चदीर्घ, षडुन्नत, अष्टवंश, सप्तस्नेह,
नवामल, दशपद्म, दशव्यूह,
न्यग्रोधपरिमण्डल, चतुर्दशसमद्वन्द्व एवं
षोडशाक्ष पुरुष प्रशस्त है ॥ २-६अ ॥
धर्मार्थकामसंयुक्तो
धर्मो ह्येकाधिको मतः ।। ७ ।।
तारकाभ्यां
विना नेत्रे शुक्लदन्तो द्विशुक्लकः ।
गाम्बीरस्त्रिश्रवा
नाभिः सत्त्वञ्चैकं त्रिकं स्मृतं ।। ८ ।।
अनसूया दया
क्षान्तिर्मङ्गलाचारयुक्तता ।
शौचं स्पृहा
त्वकार्पण्यमनायासश्च शौर्य्यता ।। ९ ।।
त्रित्रिकस्त्रिप्रलम्बः
स्याद्वृषणो भुजयोर्नरः ।
दिग्देशजातिवर्गांश्च
तेजसा यशसा श्रिया ।। १० ।।
व्याप्नोति
यस्त्रिकव्यापि त्रिबलीमान्नरस्त्वसौ ।
उदरे
बलयस्तिस्त्रो नरन्त्रिविनतं श्रृणु ।।११ ।।
देवतानां
द्विजानाञ्च गुरूणां प्रणतस्तु यः ।
धर्मार्थकामकालज्ञस्त्रिकालज्ञोऽभिधीयते
।। १२ ।।
धर्म, अर्थ तथा काम से संयुक्त धर्म 'एकाधिक' माना गया है। तारकाहीन नेत्र एवं उज्ज्वल
दन्तपङ्क्ति से सुशोभित पुरुष 'द्विशुक्ल' कहलाता है। जिसके स्वर, नाभि एवं सत्त्व- तीनों
गम्भीर हों, वह 'त्रिगम्भीर' होता है। निर्मत्सरता, दया, क्षमा,
सदाचरण, शौच, स्पृहा,
औदार्य, अनायास (अथक श्रम) तथा शूरता- इनसे
विभूषित पुरुष 'त्रित्रिक' माना गया
है। जिस मनुष्य के वृषण (लिङ्ग) एवं भुजयुगल लंबे हों, वह 'त्रिप्रलम्ब' कहा जाता है। जो अपने तेज, यश एवं कान्ति से देश, जाति, वर्ग
एवं दसों दिशाओं को व्याप्त कर लेता है, उसको 'त्रिकव्यापी' कहते हैं। जिसके उदर में तीन रेखाएँ
हों, वह 'त्रिवलीमान्' होता है। अब 'त्रिविनत' पुरुष का
लक्षण सुनो। वह देवता, ब्राह्मण तथा गुरुजनों के प्रति विनीत
होता है। धर्म, अर्थ एवं काम के समय का ज्ञाता 'त्रिकालज्ञ' कहा जाता है।
उरो ललाटं
वक्त्रञ्च त्रिवस्तीर्णो विलेखवान् ।
द्वौ पाणी
द्वौ तथा पादौ ध्वजच्छत्रादिभिर्युतौ ।। १३ ।।
अङ्गुल्यो
हृदयं पृष्ठं कटिः शस्तं चतुःसमं ।
षण्णवत्यह्गुलोत्सेधश्चतुष्किष्कुप्रमाणतः
।। १४ ।।
द्रंष्ट्राश्चतस्रश्चन्द्राभाश्चतुःकृष्णं
वदामि ते ।
नेत्रतारौ
ब्रुवौ श्मश्रुः कृष्णाः केशास्तथैव च ।। १५ ।।
नासायां वदने
स्वेदे कक्षयोर्विडगन्धकः ।
ह्रस्वं
लिङ्गं तथा ग्रीवा जङ्घे स्याद्वेदह्रस्वकं ।। १६ ।।
सूक्ष्माण्यह्गुलिपर्वाणि
नखकेशद्विजत्वचः ।
हनू नेत्रे
ललाटे च नासा दीर्घा स्तनान्तरं ।। १७ ।।
वक्षः कक्षौ
खा नासोन्नतं वक्त्रं कृकाटिका ।
स्रिग्धास्त्वक्केशदन्ताश्च
लोम दृष्टिर्नखाश्च वाक् ।। १८ ।।
जिसका
वक्षःस्थल, ललाट एवं
मुख विस्तारयुक्त हो, वह 'त्रिविपुल'
तथा जिसके हस्तयुगल एवं चरणयुगल ध्वज – छत्रादि से चिह्नित हों,
वह पुरुष 'चतुर्लेख' होता
है। अङ्गुलि, हृदय, पृष्ठ एवं कटि –
ये चारों अङ्ग समान होने से प्रशस्त होते हैं। ऐसा पुरुष 'चतुस्सम' कहा गया है। जिसकी ऊँचाई छानबे अङ्गुल की
हो, वह 'चतुष्किष्कु' प्रमाणवाला एवं जिसको चारों दंष्ट्राएँ चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हों,
वह 'चतुर्दष्ट्र' होता
है। अब मैं तुमको 'चतुष्कृष्ण' पुरुष के
विषय में कहता हूँ। उसके नयनतारक, भ्रू-युगल, श्मश्रु एवं केश कृष्ण होते हैं। नासिका, मुख एवं
कक्षयुग्म में उत्तम गन्ध से युक्त मनुष्य 'चतुर्गन्ध'
कहलाता है। लिङ्ग, ग्रीवा तथा जङ्घा-युगल के हृस्व
होने से पुरुष 'चतुर्हस्व' होता है।
अङ्गुलिपर्व, नख, केश, दन्त तथा त्वचा सूक्ष्म होने पर पुरुष 'पञ्चसूक्ष्म'
एवं हनु, नेत्र, ललाट,
नासिका एवं वक्षःस्थल के विशाल होने से 'पञ्चदीर्घ'
माना जाता है। वक्षःस्थल, कक्ष, नख, नासिका, मुख एवं कृकाटिका
(गर्दन की घंटी) - ये छः अङ्ग उन्नत एवं त्वचा, केश, दन्त, रोम, दृष्टि, नख एवं वाणी- ये सात स्निग्ध होने पर शुभ होते हैं।
जान्वोरुर्वोश्च
पृष्ठस्थ वंशौ द्वौ करनासयोः ।
नेत्रे
नासपुटौ कर्णौ मेढ्रं पायुमुखेऽमलं ।। १९ ।।
जिह्वोष्ठे
तालुनेत्रे तु हस्तपादौ नखास्तथा ।
शिश्नाग्रवक्त्रं
शस्यन्ते पद्माभा दश देहिनां ।। २० ।।
पाणिपादं सुखं
ग्रीवा श्रवणे हृदयं शिरः ।
ललाटमुदरं
पृष्ठं वृहन्तः पूजिता दश ।। २१ ।।
प्रसारितभुजस्येह
मध्यमाग्रद्वयान्तरं ।
उच्छ्रायेण
समं यस्य न्यग्रोधपरिमण्डलः ।। २२ ।।
जानुद्वय, ऊरुद्वय, पृष्ठ,
हस्तद्वय एवं नासिका को मिलाकर कुल 'आठ वंश'
होते हैं। नेत्रद्वय, नासिकाद्वय, कर्णयुगल, शिश्न, गुदा एवं मुख-
ये स्थान निर्मल होने से पुरुष 'नवामल' होता है। जिह्वा, ओष्ठ, तालु,
नेत्र, हाथ, पैर,
नख, शिश्नाग्र एवं मुख- ये दस अङ्ग पद्म के
समान कान्ति से युक्त होने पर प्रशस्त माने गये हैं। हाथ, पैर,
मुख, ग्रीवा, कर्ण,
हृदय, सिर, ललाट,
उदर एवं पृष्ठ – ये दस बृहदाकार होने पर
सम्मानित होते हैं। जिस पुरुष की ऊँचाई भुजाओं के फैलाने पर दोनों मध्यमा अङ्गुलियों
के मध्यमान्तर के समान हो, वह 'न्यग्रोधपरिमण्डल'
कहलाता है।
पादौ गुल्फौ
स्फिचौ पर्श्वौ वङ्क्षणौ वृषणौ कुचौ ।
कर्णौष्ठे सक्थिनी
जह्घे हस्तौ बाहू तथाक्षिणी ।। २३ ।।
चतुर्द्दशमद्वन्द्व
एतत्सामान्यतो नरः ।
विद्याश्चतुर्द्दश
द्व्यक्षैः पश्येद्यः षोडशाक्षकः ।। २४ ।।
रूक्षं
शिराततं गात्रमशुभं मांसवजितं ।
दुर्गन्धिविपरीतं
यच्छस्तन्दृष्ट्या प्रसन्नया ।। २५ ।।
धःयस्य मधुरा
वाणी गतिर्म्मत्तेभसन्निभा ।
एककूपभवं रोम
भये रक्षा सकृत् सकृत् ।। २६ ।।
जिसके चरण, गुल्फ, नितम्ब,
पार्श्व, वक्षण, वृषण,
स्तन, कर्ण, ओष्ठ,
ओष्ठान्त, जङ्घा, हस्त,
बाहु एवं नेत्र - ये अङ्ग-युग्म समान हों, वह
पुरुष 'चतुर्दशसमद्वन्द्व' होता है। जो
अपने दोनों नेत्रों से चौदह विद्याओं का अवलोकन करता है, वह 'षोडशाक्ष' कहा जाता है। दुर्गन्धयुक्त, मांसहीन, रुक्ष एवं शिराओं से व्याप्त शरीर अशुभ
माना गया है। इसके विपरीत गुणों से सम्पन्न एवं उत्फुल्ल नेत्रों से सुशोभित शरीर
प्रशस्त होता है। धन्य पुरुष की वाणी मधुर एवं चाल मतवाले हाथी के समान होती है।
प्रतिरोमकूप से एक-एक रोम ही निर्गत होता है। ऐसे पुरुष की बार-बार भय से रक्षा
होती है । ७- २६ ॥
इत्यादिमहापुराणे
आग्नेये पुरुणलक्षणं नाम त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।
इस प्रकार आदि
आग्रेय महापुराण में 'पुरुष- लक्षण - वर्णन' दो सौ तैंतालीसवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ २४३ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 244
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