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गणेशगीता अध्याय ८

गणेशगीता अध्याय ८   

गणेशगीता के पुर्व अध्यायों में सांख्यसारार्थयोग, कर्मयोग, विज्ञानप्रतिपादन, वैधसंन्यासयोग, योगावृत्तिप्रशंसन, बुद्धियोग, उपासनायोग को कहा गया है और अब अध्याय ८ में श्रीगणेशजी का राजा वरेण्य को अपने विराट्रूप का दर्शन कराना को बतलाया गया है।

गणेशगीता अध्याय ८

गणेशगीता आठवाँ अध्याय

Ganesh geeta chapter 8

गणेश गीता अध्याय ८   

श्रीगणेशगीता

गणेशगीता अष्टमोऽध्यायः विश्वरूपदर्शन

॥ श्रीगणेशगीता ॥

॥ अष्टमोऽध्यायः ॥

॥ विश्वरूपदर्शन ॥

वरेण्य उवाच

भगवन्नारदो मह्यं तव नाना विभूतयः ।

उक्तवांस्ता अहं वेद न सर्वाः सोऽपि वेत्ति ताः ॥१ ॥

वरेण्य बोले - हे भगवन्! नारदजी के मुख से मैंने आपकी अनेक विभूतियों का श्रवण किया है, उन्हें मैं जानता हूँ, सब नहीं जानते; क्योंकि सम्पूर्ण विभूति तो नारदजी भी नहीं जानते ॥ १ ॥

त्वमेव तत्त्वतः सर्वा वेत्सि ता द्विरदानन ।

निजं रूपमिदानीं मे व्यापकं चारु दर्शय ॥२ ॥

हे गजानन ! आप ही उन सबको तत्त्व से जानते हैं, इस समय आप अपना मनोहर और व्यापक रूप मुझे दिखाइये ॥ २ ॥

श्रीगजानन उवाच

एकस्मिन्मयि पश्य त्वं विश्वमेतच्चराचरम् ।

नानाश्चर्याणि दिव्यानि पुराऽदृष्टानि केनचित् ॥३ ॥

श्रीगणेशजी बोले अकेले मुझमें ही तुम यह चराचर संसार देखो और अनेक प्रकार के दिव्य आश्चर्य देखो, जो पूर्वकाल में किसी ने नहीं देखे हैं ॥ ३ ॥

ज्ञानचक्षुरहं तेऽद्य सृजामि स्वप्रभावतः ।

चर्मचक्षुः कथं पश्येन्मां विभुं ह्यजमव्ययम् ॥४ ॥

मैं अपने प्रभाव से तुमको ज्ञाननेत्र देता हूँ, क्योंकि मुझ सर्वव्यापक, अजन्मा और अव्यय को चर्मचक्षु नहीं देख सकते॥४॥

ब्रह्मोवाच

ततो राजा वरेण्यः स दिव्यचक्षुरवैक्षत ।

ईशितुः परमं रूपं गजास्यस्य महाद्भुतम् ॥५ ॥

ब्रह्माजी बोले- तब वे राजा वरेण्य दिव्य दृष्टि को प्राप्त होकर भगवान् गणेशजी के महान् अद्भुत परमरूप को देखने में समर्थ हुए ॥ ५ ॥

असंख्यवक्त्रं ललितमसंख्यांघ्रिकरं महत् ।

अनुलिप्तं सुगन्धेन दिव्यभूषाम्बरस्रजम् ॥६ ॥

असंख्यनयनं कोटिसूर्यरश्मिधृतायुधम् ।

तद्वर्ष्मणि त्रयो लोका दृष्टास्तेन पृथग्विधाः ॥७ ॥

असंख्य शोभायमान मुख, असंख्य सूँड एवं हाथ और सुगन्धि से लिप्त, दिव्य भूषण, वसन और माला से शोभित, असंख्य नेत्र, करोड़ों सूर्य की किरणों के समान प्रकाशित आयुध धारण किये उनके शरीर में राजा ने अलग-अलग तीनों लोक देखे ॥ ६-७ ॥

वरेण्य उवाच

दृष्ट्वैश्वरं परं रूपं प्रणम्य स नृपोऽब्रवीत् ।

वीक्षेऽहं तव देहेऽस्मिन्देवानृषिगणान्पितॄन् ॥८ ॥

यह ईश्वर का परम रूप देख प्रणाम करके राजा ( वरेण्य) बोले- हे भगवन्! मैं आपकी इस देह में देवता - ऋषिगण और पितरों को देख रहा हूँ ॥ ८ ॥

पातालानां समुद्राणां द्वीपानां चैव भूभृताम् ।

महर्षीणां सप्तकं च नानार्थैः संकुलं विभो ॥९ ॥

हे विभो ! मैं सात पाताल, सात समुद्र, सात द्वीप, सात पर्वत, सात महर्षि और अनेक पदार्थों के समूह देख रहा हूँ ॥ ९ ॥

भुवोऽन्तरिक्षस्वर्गांश्च मनुष्योरगराक्षसान् ।

ब्रह्माविष्णुमहेशेन्द्रान्देवान्जन्तूननेकधा ॥१० ॥

मैं पृथ्वी, अन्तरिक्ष, स्वर्ग, मनुष्य, सर्प, राक्षस, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, देवता और अनेक प्रकार के जन्तुओं को देख रहा हूँ ॥ १० ॥

अनाद्यनन्तं लोकादिमनन्तभुजशीर्षकम् ।

प्रदीप्तानलसंकाशमप्रमेयं पुरातनम् ॥११ ॥

मैं अनादि, अनन्त, लोकादि, अनन्त भुजा और सिरों से युक्त तथा जलती हुई अग्नि समान प्रकाशमान अप्रमेय पुरातन आपको देख रहा हूँ ॥ ११ ॥

किरीटकुण्डलधरं दुर्निरीक्ष्यं मुदावहम् ।

एतादृशं च वीक्षे त्वां विशालवक्षसं प्रभुम् ॥१२ ॥

मैं किरीट-कुण्डल धारण किये, कठिनाई से देखनेयोग्य, आनन्ददायक तथा विशाल वक्षःस्थलयुक्त आप प्रभु का दर्शन कर रहा हूँ ॥ १२ ॥

सुरविद्याधरैर्यक्षैः किन्नरैर्मुनिमानुषैः ।

नृत्यद्भिरप्सरोभिश्च गन्धर्वैर्गानतत्परैः ॥१३ ॥

देवता, विद्याधर, यक्ष, किन्नर, मुनि, मनुष्य, नृत्य करती हुई अप्सराओं और गान करते हुए गन्धर्वों से आपका स्वरूप सेवित है ॥ १३ ॥

वसुरुद्रादित्यगणैः सिद्धैः साध्यैर्मुदा युतैः ।

सेव्यमानं महाभक्त्या वीक्ष्यमाणं सुविस्मितैः ॥१४ ॥

आठ वसु, बारह आदित्यों के गण, सिद्ध, साध्य - ये सब प्रसन्नतापूर्वक आपकी सेवा करते और महाभक्ति से विस्मय को प्राप्त होकर आपको देखते हैं ॥ १४ ॥

वेत्तारमक्षरं वेद्यं धर्मगोप्तारमीश्वरम् ।

पातालानि दिशः स्वर्गान्भुवं व्याप्याऽखिलं स्थितम् ॥१५ ॥

ये आपको ज्ञाता, अक्षर, वेद्य, धर्म के रक्षक, पाताल, दिशा, स्वर्ग और पृथ्वी में व्यापक और ईश्वर जानते हैं ॥ १५ ॥

भीता लोकास्तथा चाहमेवं त्वां वीक्ष्य रूपिणम् ।

नानादंष्ट्राकरालं च नानाविद्याविशारदम् ॥१६ ॥

आपके रूप को देखकर सम्पूर्ण लोक तथा मैं भी डर गया हूँ, यह आपका मुख अनेक तीक्ष्ण दाढ़ों से भयंकर है तथा आप अनेक विद्याओं के पारगामी हैं ॥ १६ ॥

प्रलयानलदीप्तास्यं जटिलं च नभःस्पृशम् ।

दृष्ट्वा गणेश ते रूपमहं भ्रान्त इवाभवम् ॥१७ ॥

प्रलय की अग्नि के समान दीप्तिमान् आपका मुख है, जिसकी जटाएँ आकाश को छूती हैं, हे गणेशजी ! आपका यह रूप देखकर मैं भ्रान्त हो गया हूँ ॥ १७ ॥

देवा मनुष्यनागाद्याः खलास्त्वदुदरेशयाः ।

नानायोनिभुजश्चान्ते त्वय्येव प्रविशन्ति च ॥१८ ॥

देवता, मनुष्य, नागादि और खग तुम्हारे उदर में शयन करते हैं, वे अनेक योनियों को भोगकर अन्त में आप में ही उसी प्रकार प्रवेश करते हैं, जैसे सागर से उत्पन्न हुए मेघ के जलबिन्दु फिर उसी में लीन होते हैं ॥ १८ ॥

अब्धेरुत्पद्यमानास्ते यथाजीमूतबिन्दवः ।

त्वमिन्द्रोऽग्निर्यमश्चैव निरृतिर्वरुणो मरुत् ॥१९ ॥

गुह्यकेशस्तथेशानः सोमः सूर्योऽखिलं जगत् ।

नमामि त्वामतः स्वामिन्प्रसादं कुरु मेऽधुना ॥२० ॥

इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, सोम, सूर्य और सम्पूर्ण जगत्- यह सब आप ही हैं, हे स्वामिन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ, आप मेरे ऊपर अब कृपा करें ॥। १९-२० ॥

दर्शयस्व निजं रूपं सौम्यं यत्पूर्वमीक्षितम् ।

को वेद लीलास्ते भूमन् क्रियमाणा निजेच्छया ॥२१ ॥

आप मेरे द्वारा पूर्व में देखा हुआ अपना सौम्य रूप मुझे दिखाइये, हे भूमन्! अपनी इच्छा से क्रीडा करनेवाले आपकी लीला को कौन जान सकता है ? ॥ २१ ॥

अनुग्रहान्मया दृष्टमैश्वरं रूपमीदृशम् ।

ज्ञानचक्षुर्यतो दत्तं प्रसन्नेन त्वया मम ॥२२ ॥

आपकी कृपा से मैंने इस प्रकार का ऐश्वर्यशाली रूप देखा ; क्योंकि आपने प्रसन्न होकर मुझे ज्ञानचक्षु दिये थे ॥ २२ ॥

श्रीगजानन उवाच

नेदं रूपं महाबाहो मम पश्यन्त्ययोगिनः ।

सनकाद्या नारदाद्याः पश्यन्ति मदनुग्रहात् ॥ २३ ॥

श्रीगणेशजी बोले- हे महाबाहु ! योग न करनेवाले इस मेरे रूप का कभी भी दर्शन नहीं पाते, सनकादि तथा नारदादि मेरे अनुग्रह से इस रूप का दर्शन करते हैं ॥ २३ ॥

चतुर्वेदार्थतत्त्वज्ञाः सर्वशास्त्रविशारदाः ।

यज्ञदानतपोनिष्ठा न मे रूपं विदन्ति ते ॥२४ ॥

चारों वेदों के अर्थ के तत्त्व को जाननेवाले, सम्पूर्ण शास्त्रों में कुशल, यज्ञ, दान और तप करनेवाले भी मेरे रूप को [यथार्थत:] नहीं जानते ॥ २४ ॥

शक्योऽहं वीक्षितुं ज्ञातुं प्रवेष्टुं भक्तिभावतः ।

त्यज भीतिं च मोहं च पश्य मां सौम्यरूपिणम् ॥२५ ॥

मैं भक्तिभाव से जानने, दीखने, प्राप्त होने के योग्य हूँ, अब तुम भय और मोह को त्यागकर मेरे सौम्य रूप को देखो॥२५॥

मद्भक्तो मत्परः सर्वसंगहीनो मदर्थकृत् ।

निष्क्रोधः सर्वभूतेषु समो मामेति भूभुज ॥२६ ॥

हे राजन्! जो भक्त मेरे परायण एवं सर्व संगत्यागी होकर सब कर्म मुझमें ही समर्पित करते हैं और क्रोध त्यागकर सर्व प्राणियों में समान दृष्टि रखते हैं, वे मुझको ही प्राप्त होते हैं ॥ २६ ॥

॥ इति श्रीगणेशपुराणे गजाननवरेण्यसंवादे गणेशगीतायां विश्वरूपदर्शनो नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

आगे जारी........गणेशगीता अध्याय 9

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