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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
गंगा दशहरा स्तोत्र
ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को मां गंगा का
अवतरण पृथ्वी पर हुआ था। अतः इस दिन को गंगा दशहरा कहा जाता है। जो हिन्दुओं का एक
प्रमुख त्योहार है। गंगा दशहरा स्तोत्र को जो श्रद्धापूर्वक पढ़ता और सुनता
है;
वह मन, वाणी और शरीर द्वारा होनेवाले दस प्रकार
के पापों से मुक्त हो जाता है। रोगी रोग से तथा विपत्तिग्रस्त विपत्तियों से मुक्त
हो जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ बन्धनमुक्त हो जाता है और
भयभीत व्यक्ति भय से विमुक्त हो जाता है । वह इहलोक में सभी कामनाओं को प्राप्त कर अंत में स्वर्गलोक को जाता है।
गङ्गादशहरास्तोत्रम्
Ganga Dussehra Stotra
गंगा दशहरा स्तोत्र
गङ्गादशहरास्तोत्रम्
दशहरा गंगा स्तोत्र
ॐ नमः शिवायै गङ्गायै शिवदायै नमो
नमः ।
नमस्ते विष्णुरूपिण्यै
ब्रह्ममूर्त्यै नमोऽस्तु ते ॥ १ ॥
नमस्ते रुद्ररूपिण्यै शाङ्कर्यै ते
नमो नमः ।
सर्वदेवस्वरूपिण्यै नमो भेषजमूर्तये
॥ २ ॥
ॐ शिवस्वरूपा श्रीगंगाजी को नमस्कार
है। कल्याणदायिनी गंगाजी को नमस्कार है । हे देवि गंगे ! आप विष्णुरूपिणी हैं,
आपको नमस्कार है । ब्रह्मस्वरूपा ! आपको नमस्कार है, रुद्ररूपिणी! आपको नमस्कार है । शंकरप्रिया ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है । देवस्वरूपिणी ! आपको नमस्कार है। ओषधिरूपा ! आपको नमस्कार है
॥ १-२॥
सर्वस्य सर्वव्याधीनां
भिषक्छ्रेष्ठ्यै नमोऽस्तु ते ।
स्थास्नुजङ्गमसम्भूतविषहन्त्र्यै
नमोऽस्तु ते ॥ ३ ॥
संसारविषनाशिन्यै जीवनायै नमोऽस्तु
ते ।
तापत्रितयसंहन्त्र्यै प्राणेश्यै ते
नमो नमः ॥ ४ ॥
आप सबके सम्पूर्ण रोगों की श्रेष्ठ
वैद्या हैं, आपको नमस्कार है । स्थावर और
जंगम प्राणियों से प्रकट होनेवाले विष का आप नाश करनेवाली हैं, आपको नमस्कार है । संसाररूपी विष का नाश करनेवाली जीवनरूपा आपको नमस्कार है
। आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक-तीनों प्रकार के क्लेशों
का संहार करनेवाली आपको नमस्कार है। प्राणों की स्वामिनी आपको नमस्कार है, नमस्कार है ॥ ३-४ ॥
शान्तिसन्तानकारिण्यै नमस्ते
शुद्धमूर्तये ।
सर्वसंशुद्धिकारिण्यै नमः
पापारिमूर्तये ॥ ५ ॥
भुक्तिमुक्तिप्रदायिन्यै भद्रदायै
नमो नमः ।
भोगोपभोगदायिन्यै भोगवत्यै नमोऽस्तु
ते ॥६॥
शान्ति का विस्तार करनेवाली
शुद्धस्वरूपा आपको नमस्कार है। सबको शुद्ध करनेवाली तथा पापों की शत्रुस्वरूपा
आपको नमस्कार है। भोग, मोक्ष तथा कल्याण
प्रदान करनेवाली आपको बार-बार नमस्कार है। भोग और उपभोग देनेवाली भोगवती नाम से
प्रसिद्ध आप पातालगंगा को नमस्कार है ॥५-६ ॥
मन्दाकिन्यै नमस्तेऽस्तु स्वर्गदायै
नमो नमः ।
नमस्त्रैलोक्यभूषायै त्रिपथायै नमो नमः
॥ ७ ॥
नमस्त्रिशुक्लसंस्थायै क्षमावत्यै
नमो नमः ।
त्रिहुताशनसंस्थायै तेजोवत्यै नमो
नमः ॥ ८ ॥
मन्दाकिनी नाम से प्रसिद्ध तथा
स्वर्ग प्रदान करनेवाली आप आकाशगंगा को बार-बार नमस्कार है । आप भूतल,
आकाश और पाताल- तीन मार्गों से जानेवाली और तीनों लोकों की
आभूषणस्वरूपा हैं, आपको बार- बार नमस्कार है। गंगाद्वार,
प्रयाग और गंगासागर-संगम- इन तीन विशुद्ध तीर्थस्थानों में विराजमान
आपको नमस्कार है। क्षमावती आपको नमस्कार है । गार्हपत्य, आहवनीय
और दक्षिणाग्निरूप त्रिविध अग्नियों में स्थित रहनेवाली तेजोमयी आपको बार-बार
नमस्कार है ॥ ७-८ ॥
नन्दायै लिङ्गधारिण्यै
सुधाधारात्मने नमः ।
नमस्ते विश्वमुख्यायै रेवत्यै ते
नमो नमः ॥९॥
बृहत्यै ते नमस्तेऽस्तु लोकधात्र्यै
नमोऽस्तु ते ।
नमस्ते विश्वमित्रायै नन्दिन्यै ते
नमो नमः ॥ १० ॥
आप ही अलकनन्दा हैं,
आपको नमस्कार है। शिवलिंग धारण करनेवाली आपको नमस्कार है । सुधाधारामयी
आपको नमस्कार है। जगत् में मुख्य सरितारूप आपको नमस्कार है। रेवतीनक्षत्ररूपा आपको
नमस्कार है। बृहती नाम से प्रसिद्ध आपको नमस्कार है। लोकों को धारण करनेवाली आपको
नमस्कार है । सम्पूर्ण विश्व के लिये मित्ररूपा आपको नमस्कार है। सबको समृद्धि
देकर आनन्दित करनेवाली आपको बारम्बार नमस्कार है ॥९-१०॥
पृथ्व्यै शिवामृतायै च सुवृषायै नमो
नमः ।
परापरशताढ्यायै तारायै ते नमो नमः ॥
११ ॥
पाशजालनिकृन्तिन्यै अभिन्नायै
नमोऽस्तु ते ।
शान्तायै च वरिष्ठायै वरदायै नमो
नमः ॥ १२ ॥
आप पृथ्वीरूपा हैं,
आपको नमस्कार है। आपका जल कल्याणमय है और आप उत्तम धर्मस्वरूपा हैं,
आपको नमस्कार है, नमस्कार है। बड़े-छोटे
सैकड़ों प्राणियों से सेवित आपको नमस्कार है। सबको तारनेवाली आपको नमस्कार है,
नमस्कार है । संसार-बन्धन का उच्छेद करनेवाली अद्वैतरूपा आपको
नमस्कार है। आप परम शान्त, सर्वश्रेष्ठ तथा मनोवांछित वर
देनेवाली हैं, आपको बारम्बार नमस्कार है ॥ ११-१२ ॥
उग्रायै सुखजग्ध्यै च सञ्जीवन्यै
नमोऽस्तु ते ।
ब्रह्मिष्ठायै ब्रह्मदायै
दुरितघ्न्यै नमो नमः ॥ १३ ॥
प्रणतार्तिप्रभञ्जिन्यै जगन्मात्रे
नमोऽस्तु ते ।
सर्वापत्प्रतिपक्षायै मङ्गलायै नमो
नमः ॥ १४ ॥
आप प्रलयकाल में उग्ररूपा हैं,
अन्य समय में सदा सुख का भोग करानेवाली हैं तथा उत्तम जीवन प्रदान
करनेवाली हैं, आपको नमस्कार है । आप ब्रह्मनिष्ठ, ब्रह्मज्ञान देनेवाली तथा पापों का नाश करनेवाली हैं, आपको बार-बार नमस्कार है। प्रणतजनों की पीड़ा का नाश करनेवाली जगन्माता
आपको नमस्कार है। आप समस्त विपत्तियों की शत्रुभूता तथा सबके लिये मंगलस्वरूपा हैं,
आपके लिये बार-बार नमस्कार है ॥ १३-१४॥
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि
नमोऽस्तु ते ॥ १५॥
निर्लेपायै दुर्गहन्त्र्यै दक्षायै
ते नमो नमः ।
परापरपरायै च गङ्गे निर्वाणदायिनि ॥
१६ ॥
शरणागतों,
दीनों तथा पीड़ितों की रक्षा में संलग्न रहनेवाली और सबकी पीड़ा दूर
करनेवाली देवि नारायणि! आपको नमस्कार है। आप पाप-ताप अथवा अविद्यारूपी मल से
निर्लिप्त, दुर्गम दुःख का नाश करनेवाली तथा दक्ष हैं,
आपको बारम्बार नमस्कार है। आप पर और अपर सबसे परे हैं। मोक्षदायिनी
गंगे ! आपको नमस्कार है ॥ १५-१६॥
गङ्गे ममाग्रतो भूया गङ्गे मे तिष्ठ
पृष्ठतः ।
गङ्गे मे पार्श्वयोरेधि गङ्गे
त्वय्यस्तु मे स्थितिः ॥ १७ ॥
आदौ त्वमन्ते मध्ये च सर्वं त्वं
गाङ्गते शिवे ।
त्वमेव मूलप्रकृतिस्त्वं पुमान् पर
एव हि ।
गङ्गे त्वं परमात्मा च शिवस्तुभ्यं
नमः शिवे ॥ १८ ॥
गंगे ! आप मेरे आगे हों,
गंगे ! आप मेरे पीछे रहें, गंगे! आप मेरे
उभयपार्श्व में स्थित हों तथा गंगे ! मेरी आप में ही स्थिति हो । आकाशगामिनी
कल्याणमयी गंगे! आदि, मध्य और अन्त में सर्वत्र आप हैं।
गंगे! आप ही मूलप्रकृति हैं, आप ही परम पुरुष हैं तथा आप ही
परमात्मा शिव हैं; शिवे ! आपको नमस्कार है ॥१७-१८॥
गङ्गादशहरास्तोत्रम् फलश्रुति:
य इदं पठते स्तोत्रं
शृणुयाच्छ्रद्धयाऽपि यः ।
दशधा मुच्यते पापै:* कायवाक्चित्तसम्भवैः ॥१९॥
रोगस्थो रोगतो मुच्येद्विपद्भ्यश्च
विपद्यतः ।
मुच्यते बन्धनाद् बद्धो भीतो भीतेः
प्रमुच्यते ॥ २० ॥
सर्वान्कामानवाप्नोति प्रेत्य च
त्रिदिवं व्रजेत् ।
दिव्यं विमानमारुह्य
दिव्यस्त्रीपरिवीजितः ॥ २१ ॥
जो श्रद्धापूर्वक इस स्तोत्र को
पढ़ता और सुनता है; वह मन, वाणी और शरीर द्वारा होनेवाले दस प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है।
रोगी रोग से तथा विपत्तिग्रस्त विपत्तियों से मुक्त हो जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ बन्धनमुक्त हो जाता है और भयभीत व्यक्ति भय से विमुक्त
हो जाता है । वह इहलोक में सभी कामनाओं की प्राप्ति कर लेता है और मृत्यु के
अनन्तर दिव्यांगनाओं से सेवित होता हुआ दिव्य विमान में आरूढ़ होकर स्वर्गलोक को
जाता है ॥ १९ - २१ ॥
*अदत्तानामुपादानं हिंसा
चैवाविधानतः ॥
परदारोपसेवा च कायिकं
त्रिविधं स्मृतम् ।
पारुष्यमनृतं चैव
पैशुन्यं चैव सर्वशः ॥
असम्बद्धप्रलापश्च
वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम् ।
परद्रव्येष्वभिध्यानं
मनसानिष्टचिन्तनम् ॥
वितथाभिनिवेशश्च मानसं
त्रिविधं स्मृतम् ।
बिना दी हुई वस्तु को
लेना, निषिद्ध हिंसा,
परस्त्रीसंगम - यह तीन प्रकार का दैहिक पाप माना गया है। कठोर वचन
निकालना, झूठ बोलना, सब ओर चुगली करना
और अंट-संट बातें बकना- ये वाणी से होनेवाले चार प्रकार के पाप हैं। दूसरे के धन को
लेने का विचार करना, मन से दूसरों का बुरा सोचना और असत्य
वस्तुओं में आग्रह रखना- ये तीन प्रकार के मानसिक पाप कहे गये हैं I
गृहेऽपि लिखितं यस्य सदा तिष्ठति
धारितम् ।
नाग्निचौरभयं तस्य न सर्पादिभयं
क्वचित् ॥ २२ ॥
यह स्तोत्र जिसके घर में लिखकर रखा
हुआ हो,
उसे कभी अग्नि, चोर और सर्प आदि का भय नहीं
होता ॥२२॥
ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे
दशमीहस्तसंयुता ।
संहरेत् त्रिविधं पापं बुधवारेण
संयुता ॥ २३ ॥
तस्यां दशम्यामेतच्च स्तोत्रं
गङ्गाजले स्थितः ।
यः पठेद्दशकृत्वस्तु दरिद्रो वापि
चाक्षमः ॥ २४ ॥
सोऽपि तत्फलमाप्नोति गङ्गा सम्पूज्य
यत्नतः ॥ २५ ॥
ज्येष्ठमास के शुक्लपक्ष में हस्त
नक्षत्रसहित दशमी तिथि का यदि बुधवार से योग हो, तो उस दिन गंगाजी के जल में खड़े होकर जो दस बार इस स्तोत्र का पाठ करता
है, वह दरिद्र हो या असमर्थ, वह भी उसी
फल को प्राप्त होता है, जो यथोक्त विधि से यत्नपूर्वक गंगाजी
की पूजा करने पर उपलब्ध होनेवाला बताया गया है ॥२३–२५॥
॥ इति श्रीस्कन्दमहापुराणे
काशीखण्डे ईश्वरकथितं गङ्गादशहरास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दमहापुराणके अन्तर्गत काशीखण्ड में ईश्वर कथित गंगादशहरास्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ॥
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