गंगा लहरी
श्री गंगा लहरी- कहा जाता है
कि शाहजहां के शासनकाल में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच धार्मिक श्रेष्ठता को लेकर
एक शास्त्रार्थ हुआ। इस शास्त्रार्थ में विजयी को पुरस्कार और पराजित होने वाले को
कारागार में डालने का विधान था। यह शास्त्रार्थ कई दिनों तक चला,
जिसमें पंडितों को हर बार हार का सामना करना पड़ा। जिसके
परिणामस्वरूप उन सभी को सजा के तौर पर जेल भेजा गया। उस समय काशी में महापंडित,
महाज्ञानी जगन्नाथ मिश्र रहा करते थे। पंडितों की पराजय की खबर
सुनकर वह शाहजहां के महल पहुंचे और उनसे शास्त्रार्थ को आगे बढ़ाने को कहा।
शास्त्रार्थ निरंतर 3 दिन और 3 रातों तक चला और देखते ही देखते सभी मुसलमान
विद्वान इसमें परास्त होते चले गए। इस शास्त्रार्थ को झरोखे में बैठी शाहजहां की
बेटी ‘लवंगी’ भी देख रही थी। बादशाह
जगन्नाथ मिश्र की विद्वता से काफी प्रसन्न थे, उन्हें विजेता
घोषित कर दिया गया। शाहजहां ने मिश्र से कहा कि वह जो चाहे मांग सकते हैं, वही उनका पुरस्कार होगा। जगन्नाथ मिश्र ने कहा कि जितने भी पंडितों को
शाहजहां द्वारा बंदी बनाया गया है, उन्हें मुक्त कर दिया
जाए। बादशाह ने उन्हें अपने लिए कुछ
मांगने को कहा। इस पर जगन्नाथ ने लवंगी का हाथ मांग लिया और लवंगी के साथ काशी आ
गए। मिश्र ने शास्त्रीय विधि के साथ से लवंगी को संस्कारित कर पाणिग्रहण कर लिया।
ब्राह्मण इस बात से बहुत कुपित हुए और उन्होंने जगन्नाथ को जाति से बहिष्कृत कर
दिया। इस अपमान से जगन्नाथ मिश्र बहुत दुःखी हुए। इस दुख से छुटकारा पाने के लिए
एक दिन उन्होंने ऐसा निर्णय किया, जिसके बाद रचना हुई गंगा
के श्रेष्ठतम काव्य गंगा लहरी की। लेकिन इस ग्रंथ की रचना करने के लिए उन्हें अपने
और लवंगी के प्राणों की आहुति देनी पड़ी।
एक दिन पंडित जगन्नाथ मिश्र लवंगी को लेकर काशी के दश्वाश्वमेध घाट पर जा
बैठे जहां 52 सीढि़यां हैं। लवंगी को अपने साथ बैठाकर वे गंगा की स्तुति करने लगे।
ऐसा कहा जाता है कि जैसे ही जगन्नाथ मिश्र एक पद रचते, गंगा
का पानी और ऊपर होने लगा। 52वें पद का गान करते ही गंगा ने उन्हें अपनी गोद में
समा लिया। लवंगी और जगन्नाथ मिश्र दोनों ही जलधार में बहने लगे और उसी में जलसमाधि
ले ली। पंडित जगन्नाथ मिश्र द्वारा उस समय की गई गंगा की स्तुति को गंगा लहरी के
नाम से जाना जाता है। इसे मां गंगा की श्रेष्ठतम स्तुति मानी जाती है।
श्री गङ्गा लहरी
श्री गंगा लहरी अर्थ सहित
समृद्धं सौभाग्यं सकल वसुधायाः
किमपि तत्-
महैश्वर्यं लीला जनित जगतः
खण्डपरशोः ।
श्रुतीनां सर्वस्वं सुकृतमथ मूर्तं
सुमनसां
सुधासौन्दर्यं ते सलिलमशिवं नः
शमयतु॥१॥
(हे माँ!) महेश्वर शिव की लीला जनित
इस सम्पूर्ण वसुधा की आप ही समृद्धि और सौभाग्य हो, वेदो का सर्वस्व सारतत्व भी आप ही हो। मूर्तिमान दिव्यता की
सौंदर्य-सुधायुक्त आपका जल, हमारे सारे अमंगल का शमनकारी हो।
दरिद्राणां दैन्यं दुरितमथ
दुर्वासनहृदाम्
द्रुतं दूरीकुर्वन् सकृदपि गतो
दृष्टिसरणिम् ।
अपि द्रागाविद्याद्रुमदलन
दीक्षागुरुरिह
प्रवाहस्ते वारां श्रियमयमऽपारां
दिशतु नः॥२॥
आपकी दृष्टि मात्र से ही ह्रदय की
दुर्वासनाएं और दरिद्रों के दैन्य शीघ्र दूर हो जाते हैं। राग और अविद्या के गुल्म
आपके गुरुसम अपार प्रवाह की दीक्षा से समूल नष्ट हो जाएँ और हमें अतुलनीय श्रेय की
प्राप्ति हो।
उदञ्चन्मार्तण्ड स्फुट कपट हेरम्ब
जननी
कटाक्ष व्याक्षेप क्षण
जनितसंक्षोभनिवहाः ।
भवन्तु त्वंगंतो हरशिरसि
गङ्गातनुभुवः
तरङ्गाः प्रोत्तुङ्गा दुरितभव
भङ्गाय भवताम्॥३॥
गणेशजननी की बालार्क कटाक्षदृष्टि
से शिव जटाओं में बद्ध गंगा की संक्षोभित उत्ताल तरंगें,
कठिन अघयुक्त-भुवनभय भंगकारी हों।
तवालम्बादम्ब स्फुरद्ऽलघुगर्वेण
सहसा
मया सर्वेऽवज्ञा सरणिमथ नीताः
सुरगणाः ।
इदानीमौदास्यं भजसि यदि भागीरथि तदा
निराधारो हा रोदिमि कथय केषामिह
पुरः॥४॥
आपके अवलंबन के आश्रय से सहसा अति
गर्वित हो मैंने सभी अन्य देवों की अवज्ञा करली, ऐसे में यदि आप मुझसे उदासीन हो गयी तो मैं निराधार किसके आगे अपना रोना
रोऊँ?
स्मृतिं याता पुंसामकृतसुकृतानामपि
च या
हरत्यन्तस्तन्द्रां तिमिरमिव
चण्डांशु सरणिः ।
इयं सा ते मूर्तिः
सकलसुरसंसेव्यसलिला
ममान्तःसन्तापं त्रिविधमपि पापं च
हरताम्॥५॥
सूर्य रश्मियों की उपस्थिति मात्र से
ही जैसे तम का नाश हो जाता है, आपके स्मरण
मात्र से ही पुण्यहीनों की भी कुंठाओं का शमन हो जाता है। दिव्यात्माओं द्वारा भी
अभिलाषित आपका पावन जल मेरे भी त्रिविध पाप संताप को दूर कर दे।
अपि प्राज्यं राज्यं तृणमिव
परित्यज्य सहसा
विलोलद्वानीरं तव जननि तीरं श्रितवताम्
।
सुधातः स्वादीयः सलिलभरमातृप्ति
पिबताम्
जनानामानन्दः परिहसति
निर्वाणपदवीम्॥६॥
बड़े बड़े साम्राज्यों का तृणवत
त्याग करके, आपके तीर का आश्रय ले कर तृण
विलोलित आपके जल के आतृप्त अमृतपान के आनंद की तुलना में तो निर्वाणपद भी हेय है।
प्रभाते स्नान्तीनां नृपति रमणीनां
कुचतटी-
गतो यावन् मातः मिलति तव
तोयैर्मृगमदः ।
मृगास्तावद्वैमानिक शतसहस्रैः
परिवृता
विशन्ति स्वच्छन्दं विमल वपुषो
नन्दनवनम्॥७॥
राजमहिषियों द्वारा प्रातःकाल आप
में स्नान से कस्तूरीलेपित वक्षों से आपके जल में मृगमद अर्पित हो जाने के पुण्य से
वे मृग अनायास ही सहस्रशत विमानों से परिवृत हो दिव्यरूप प्राप्त कर नंदनवन में
स्वच्छंद प्रवेश और विचरण करते हैं।
स्मृतं सद्यः स्वान्तं विरचयति
शान्तं सकृदपि
प्रगीतं यत्पापं झटिति भवतापं च
हरति ।
इदं तद्गङ्गेति श्रवण रमणीयं खलु
पदम्
मम प्राण प्रान्त: वदन कमलान्तर्विलसतु॥८॥
स्मरण करते ही जो तुरंत मन में
प्रशांति रच देता है, गान करने से जो
अविलम्ब भवताप हर लेता है, श्रवण मात्र से “गंगा” यह नाम मेरे मन के कमलवन में और मुख में
प्राणांत तक विलास करता रहे।
यदन्तः खेलन्तो बहुलतर सन्तोष भरिता
न काका नाकाधीश्वर नगर साकाङ्क्ष
मनसः ।
निवासाल्लोकानां जनि मरण शोकापहरणम्
तदेतत्ते तीरं श्रम शमन धीरं भवतु
नः॥९॥
और तो और,
आपकी सन्निधि में कौवे भी इतने संतोष से भरे रमते हैं कि उनको अब
स्वर्ग की भी चाहना नहीं। आपके तीर का निवास जन्म मरण के शोक का तो हरण करता ही है,
इसका नैकट्य भी निष्ठावानों का श्रमहारी हो।
न यत्साक्षाद्वेदैरपि
गलितभेदैरवसितम्
न यस्मिञ्जीवानां प्रसरति
मनोवागवसरः ।
निराकारं नित्यं निजमहिम निर्वासित
तमो-
विशुद्धं यत्तत्त्वं सुरतटि नि
तत्त्वं न विषयः॥१०॥
आप नित्य निराकार तमोहारी विशुद्ध
दिव्य तत्त्व हो, जीवों के मन वाणी
के विषयों से परे, अगोचर हो। सारे भेदों को पार करके साक्षात
वेद भी आपका निरूपण नहीं कर सकते।
महादानैः ध्यानैर्बहुविध वितानैरपि
च यत्
न लभ्यं घोराभिः सुविमल
तपोराजिभिरपि ।
अचिन्त्यं तद्विष्णोःपदमखिल
साधारणतया
ददाना केनासि त्वमिह तुलनीया कथय
नः॥११॥
बहुविधियों से दान,
ध्यान बलिदान और घोर ताप से भी जो अचिन्त्य विष्णु पद अप्राप्य रहता
है, वो भी आप सहजता से प्रदान कर देती हो तो भला आप किससे
तुलनीय हैं?
नृणामीक्षामात्रादपि परिहरन्त्या
भवभयम्
शिवायास्ते मूर्तेः क इह महिमानं
निगदतु ।
अमर्षम्लानायाः परममनुरोधं गिरिभुवो
विहाय श्रीकण्ठः शिरसि नियतं धारयति
याम्॥१२॥
कोई मनुष्य आपको देख भर ले तो भवभय
से निर्भय हो जाता है,ऐसी आपकी महिमा की
कौन प्रशस्ति कर सकता है? इसी कारण,अमर्ष
से अम्लान हुई पार्वतीजी की भी अनदेखी करते हुए सदाशिव आपको सदा अपने मस्तक पर धारण
किये रहते हैं।
विनिन्द्यान्युन्मत्तैरपि च
परिहार्याणि पतितैः
अवाच्यानि व्रात्यैः सपुलकमपास्यानि
पिशुनैः ।
हरन्ती लोकानामनवरतमेनांसि कियताम्
कदाप्यश्रान्ता त्वं जगति पुनरेका
विजयसे॥१३॥
निन्दितों द्वारा भी निंदनीय
पापियों को भी आप तार देती हो, जो पतितों द्वारा
भी घृणित और नीचों द्वारा भी त्याज्य हैं, ऐसों को भी आप
निरंतर आश्रय देते हुए भी श्रमित न होकर इस विश्व में सदैव एकमात्र विजयमान रहती
हो।
स्खलन्ती स्वर्लोकादवनितलशोकापहृतये
जटाजूटग्रन्थौ यदसि विनिबद्धा
पुरभिदा ।
अये निर्लोभानामपि मनसि लोभं
जनयताम्
गुणानामेवायं तव जननि दोषः
परिणतः॥१४॥
माँ! शोकग्रस्तों को तारने के लिए
आपके स्वयं को अपने दिव्यलोक से पत्तन करती हुई को निर्लोभी शिव ने अपनी जटाजूट
ग्रंथियों में आबद्ध करके मानो स्वयं में लोभ का दोष आरोपित कर आपकी महिमा को
निरुपित किया।
जडानन्धान्पङ्गून् प्रकृतिबधिरानुक्तिविकलान्
ग्रहग्रस्तानस्ताखिलदुरितनिस्तारसरणीन्
।
निलिम्पैर्निर्मुक्तानपि च
निरयान्तर्निपततो
नरानम्ब त्रातुं त्वमिह परमं
भेषजमसि॥१५॥
मूर्खों,
अन्धों, पंगुओं, मूक
बधिर और ग्रहादि दोषों से ग्रस्त, जिनका पाप से निस्तारण का
कोई मार्ग न हो, देवताओं द्वारा परित्यक्त उन नर्कगामियों की,
हे माँ, आप ही परम उद्धारक औषधि हो।
स्वभावस्वच्छानां
सहजशिशिराणामयमपाम्
अपारस्ते मातर्जयति महिमा कोऽपि
जगति।
मुदा यं गायन्ति
द्युतलमनवद्यद्युतिभृतः
समासाद्याद्यापि स्पुटपुलकसान्द्राः
सगरजाः॥१६॥
माँ! आपके स्वच्छ शीतल जल की इस जगत
में अपार महिमा अवर्णनीय है। निष्कलंक कीर्ति से स्वर्ग प्राप्त किये सगरपुत्र आज
भी पुलकित रोमावलीयुक्त हो आज भी आपकी महिमा का गान करते हैं।
कृतक्षुद्रैनस्कानथ झटिति
सन्तप्तमनसः
समुद्धर्तुं सन्ति त्रिभुवनतले
तीर्थनिवहाः ।
अपि प्रायश्चित्तप्रसरणपथातीतचरितान्
नरान् दूरीकर्तुं त्वमिव जननि त्वं
विजयसे॥१७॥
छोटे मोटे पापों से शीघ्र क्षुब्ध
मन वालों के परित्राण के लिए तो हे माँ! इस विश्व में अनेको पवित्र तीर्थ व
सरिताएँ हैं, परन्तु जघन्य पापों और पापियों
के उद्धार के लिए तो एक मात्र आप ही हैं।
निधानं धर्माणां किमपि च विधानं
नवमुदाम्
प्रधानं तीर्थानाममलपरिधानं
त्रिजगतः।
समाधानं बुद्धेरथ खलु
तिरोधानमधियाम्
श्रियामाधानं नः परिहरतु तापं तव
वपुः॥१८॥
सर्व धर्मों की निधान,
नव प्रसन्नता की विधान,त्रिभुवन में
पवित्रवारि तीर्थों में प्रधान और कुविचारों का तिरोधान कर बुद्धि को समग्र समाधान
प्रदान करने वाली माँ, आप ऐश्वर्यों का भंडार हो. आपका वपु
हमारे सब तापों का शमन करे।
पुरो धावं धावं द्रविण मदिरा
घूर्णित दृशाम्
महीपानां नाना तरुणतर खेदस्य नियतम्
।
ममैवायं मन्तुः स्वहित शत
हन्तुर्जडधियो
वियोगस्ते मातः यदिह करुणातः क्षणमपि॥१९॥
मदोन्मत्त शासकों के सामने
चाटुकारिता करते करते मुझमे नाना भांति के विकार आ गए हैं और जड़ बुद्धि हो मैं
स्वयं का ही हितनाशक हो गया, क्योंकि क्षण
भर का भी आपकी करुणा से वियोग मेरी ही भूल है।
मरुल्लीला लोलल्लहरि लुलिताम्भोज
पटली-
स्खलत्पां-सुव्रातच्छुरण
विसरत्कौंकुम रुचि।
सुर स्त्री वक्षोज क्षरद् अगरु
जम्बाल जटिलम्
जलं ते जम्बालं मम जनन जालं
जरयतु॥२०॥
वायु की लीला से दोलित पंकजों की
पतित केसर से केसरिया और सुर ललनाओं के वक्षो से क्षरित अगरु से प्रगाढ़ हुआ आपका
जल मेरे जन्म-मृत्यु जाल का निवारक हो।
समुत्पत्तिः पद्मारमण पद पद्मामल
नखात्
निवासः कन्दर्प प्रतिभट जटाजूट भवने
।
अथायं व्यासङ्गो हतपतित निस्तारण
विधौ
न कस्मादुत्कर्षस्तव जननि जागर्तु
जगतः॥२१॥
रमारमण विष्णु के पदकंजों के अमल
श्रीनखों से निसरित, मदनारी महादेव के
जटाजूट-भवन निवासिनी माँ, आप दुखियों और पतितों के उद्धार
में निरत हैं। तो फिर इस जगत की जाग्रति और उन्नति कैसे न होगी।
नगेभ्यो यान्तीनां कथय तटिनीनां
कतमया
पुराणां संहर्तुः सुरधुनि
कपर्दोऽधिरुरुहे ।
कया च श्री भर्तुः पद कमलमक्षालि
सलिलैः
तुलालेशो यस्यां तव जननि दीयेत
कविभिः॥२२॥
हे देवसरिता! और कौन नदी नगेन्द्र
से निकल कर त्रिपुरारी की अलकों पे चढ़ी है? या
जिसने रमापति के चरण कमलों का प्रक्षालन किया है?और हो भी तो
क्या कोई कवि उसकी आपसे लेश मात्र भी तुलना कर सकता है?
विधत्तां निःशङ्कं निरवधि समाधिं
विधिरहो
सुखं शेषे शेतां हरि: अविरतं
नृत्यतु हरः ।
कृतं प्रायश्चित्तैरलमथ तपोदानयजनैः
सवित्री कामानां यदि जगति जागर्ति
भवती॥२३॥
जगत में जब आप जाग्रत हो कम्नापूर्ण
कर ही रही हैं, तो भले ब्रह्मा निरवधि समाधिस्थ
हो जाएँ, विष्णु सुख से शेष शयन करें या शिव अविरत लास्य
करें, तप दान बलि यज्ञादि युक्त प्रायश्चित्त परिष्कार की भी
कोई आवश्यकता नहीं है।
अनाथः स्नेहार्द्रां विगलितगतिः
पुण्यगतिदाम्
पतन् विश्वोद्भर्त्री गदविदलितः
सिद्धभिषजम् ।
सुधासिन्धुं तृष्णाऽकुलितहृदयो
मातरमयम्
शिशुः संप्राप्तस्त्वामहमिह
विदध्याः समुचितम्॥२४॥
मुझ पथभ्रष्ट अनाथ पर आप स्नेहाद्र
हो कर पुन्यगति प्रदायिनी हों। आप पतित को विश्व में अभ्यूदयी बनाने वाली,
रुग्ण को सिद्धौषधिदायी,तृष्णातुर ह्रदय के
लिए सुधासिंधु रूपा हैं, हे माँ,मैं
बाल रूप से आपके पास आया हूँ, आप जैसा उचित समझें, वैसा करें।
विलीनो वै वैवस्वतनगर कोलाहल भरः
गता दूता दूरं क्वचिदपि परेतान्
मृगयितुम् ।
विमानानां व्रातो विदलयति
वीथीर्दिविषदाम्
कथा ते कल्याणी यदवधि
महीमण्डलमगात्॥२५॥
हे शुभे! जिस दिन से आपकी कथा धरती
पर पहुंची है, यमपुरी का कोलाहल शांत हो गया
है,दूतों को उन्हें प्राप्य मृतकों की खोज में दूर दूर जाना
पड़ता है। दिव्यों के नगर की गलियाँ यानों की घर्घराहट से व्याप्त हो गई हैं।
स्फुरत्काम क्रोध प्रबलतर
सञ्जातजटिल-
ज्वरज्वाला जाल ज्वलित वपुषां नः
प्रति दिनम् ।
हरन्तां सन्तापं कमपि
मरुदुल्लासलहरी-
छटाश्चञ्चत्पाथः,कणसरणयो दिव्यसरितः॥२६॥
हे दिव्यसरित! उल्लसित मारुत द्वारा
आपकी लहरों से विसरित जल कण, काम और क्रोध
की प्रबल ज्वालाओं से प्रतिदिन दग्ध हमारे तन के अवर्णनीय ताप को दूर करे।
इदं हि ब्रह्माण्डं सकल
भुवनाभोगभवनम्
तरङ्गैर्यस्यान्तर्लुठति
परितस्तिन्दुकमिव ।
स एष श्रीकण्ठ प्रवितत जटाजूट जटिलः
जलानां सङ्घातस्तव जननि तापं हरतु
नः॥२७॥
माँ! आपका जल,
जिसने पूरे ब्रह्माण्ड को तिन्दुक फल की भांति प्लावित कर दिया था,परन्तु शिव की खोली हुई जटाओं के जाल में आबद्ध हो के रह गया, हमारे लिए तापहारी हो।
त्रपन्ते तीर्थानि त्वरितमिह
यस्योद्धृतिविधौ
करं कर्णे कुर्वन्त्यपि किल कपालिप्रभृतयः।
इमं तं मामम्ब
त्वमियमनुकम्पार्द्रहृदये
पुनाना सर्वेषां अघमथन दर्पं
दलयसि॥२८॥
मुझ जैसे पतित को,
जिसे तारने में शिव जैसे देव ने भी कानों पर हाथ रख कर और अनेक
तीर्थों ने लज्जित हो कर अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी, अपनी
अनुकम्पा से तार कर, हे दयार्द्र हृदया माँ! आपने तो जैसे
सभी तारकों के पापहारिता के दर्प का दलन कर दिया।
श्वपाकानां
व्रातैरमितविचिकित्साविचलितैः
विमुक्तानामेकं किल सदनमेनः
परिषदाम् ।
अहो मामुद्धर्तुं जननि घटयन्त्याः
परिकरम्
तव श्लाघां कर्तुं कथमिव समर्थो
नरपशुः॥२९॥
मैं तो दुश्चिंताओं से भरे चांडालों
से भी त्यक्त पापों का भण्डार हूँ, फिर
भी आप मेरे उद्धार तत्पर हैं। आपकी स्तुति करने में मुझ जैसा नर पशु कैसे समर्थ
होगा?
न कोऽप्येतावन्तं खलु समयमारभ्य
मिलितो
मदुद्धारादाराद्भवति जगतो विस्मयभरः
।
इतीमामीहां ते मनसि चिरकालं
स्थितवतीम्
अयं संप्राप्तोऽहं सफलयितुमम्ब
प्रथमतः॥३०॥
अनादि काल से हे माँ,
आप सोचती रही हैं की क्या कोई ऐसा पतित भी मिलेगा जिसके उद्धार से
सम्पूर्ण विश्व विस्मित हो जाय। अंततः आपकी इस इच्छापूर्ती हेतु प्रथम व्यक्ति के
रूप में आपको मैं प्राप्त हो ही गया।
श्ववृत्तिव्यासङ्गो नियतमथ
मिथ्याप्रलपनम्
कुतर्केष्वभ्यासः सततपरपैशून्यमननम्
।
अपि श्रावं श्रावं मम तु पुनरेवं
गुणगणान्
ऋते त्वां को नाम क्षणमपि निरीक्षेत
वदनम् ॥ ३१ ॥
कुतर्की की भांति हर समय मिथ्या
प्रलापों में दूसरों की निंदा करते हुए मैंने श्वान वत जीवन जिया है। मेरे इन
गुणों को जान कर, आपके सिवा कौन है
जो क्षण मात्र के लिए भी मेरी और देखे?
विशालाभ्यामाभ्यां किमिह नयनाभ्यां
खलु फलम्
न याभ्यामालीढा परमरमणीया तव तनुः ।
अयं हि न्यक्कारो जननि मनुजस्य
श्रवणयोः
ययोर्नान्तर्यातस्तव लहरिलीलाकलकलः
॥ ३२ ॥
चाहे कितनी ही आभा से व्याप्त विशाल
क्यों न हो, वो नेत्र ही क्या जिन्होंने
आपके परम रमणीय स्वरुप को ना देखा! धिक् उन मनुष्यों के कानों को जिनमे आपकी लीला
लहरी की कलकल न पड़ी।
विमानैः स्वच्छन्दं सुरपुरमयन्ते
सुकृतिनः
पतन्ति द्राक्पापा जननि नरकान्तः
परवशाः ।
विभागोऽयं तस्मिन्नुभयविध मूर्तिः
जनपदे
न यत्र त्वं लीला शमित
मनुजाशेषकलुषा ॥ ३३ ॥
ये तो आप से हीन जनपदों की रीत है
कि पुण्यवान सुरपुर जाते और पापी परवश हो शीघ्र नारकीय हो जाते हैं। आपकी
लीलास्थली में ऐसा नहीं है क्योंकि यहाँ किसी में भी कोई कलुष बचता ही नहीं।
अपि घ्नन्तो विप्रानविरतमुषन्तो
गुरुसतीः
पिबन्तो मैरेयं पुनरपि हरन्तश्च
कनकम् ।
विहाय त्वय्यन्ते
तनुमतनुदानाध्वरजुषाम्
उपर्यम्ब
क्रीडन्त्यखिलसुरसंभावितपदाः॥३४॥
ब्रह्महत्या,
गुरुतिय गमन, सुरापान, और
तो और स्वर्ण चोरी जैसे जघन्य पाप करने वाले भी यदि आपकी सन्निधि में देहत्याग
करते हैं तो वे भी दान बलि आदि सत्कर्म कर स्वर्गादि प्राप्त करने वालों से भी
ऊँचे सुर सम्मानित दिव्य पद प्राप्त कर लेते हैं।
अलभ्यं सौरभ्यं हरति सततं यः
सुमनसाम्
क्षणादेव प्राणानपि विरह शस्त्रक्षत
भृताम् ।
त्वदीयानां लीलाचलित लहरीणां
व्यतिकरात्
पुनीते सोऽपि द्रागहह पवमानस्त्रिभुवनम्॥३५॥
अहो, पुष्प सौरभयुक्त दुर्लभ पवन भी वियोगपीड़ा और शस्त्राघात पीड़ितों के
प्राण क्षण में हर लेती है, वह भी आपकी अठखेलियाँ करती लहरों
का स्पर्श पा तत्क्षण त्रिभुवन पावनी हो जाती है।
कियन्तः सन्त्येके नियतमिह
लोकार्थघटकाः
परे पूतात्मानः कति च परलोकप्रणयिनः
।
सुखं शेते मातस्तव खलु कृपातः
पुनरयम्
जगन्नाथः शश्वत्त्त्वयि
निहितलोकत्रयभरः॥३६॥
माँ, कितने हैं जो सामान्य जन का कल्याण करने को तत्पर हैं? कितनी पुण्यात्माएं परलोकाभिलाषा में हैं. ये तो आपकी करुणा है जिस पर
शाश्वत त्रिभुवनतारण का भार जान कर ये जगन्नाथ निश्चिन्तता से सुख से सो रहा है।
भवत्या हि व्रात्याऽधम पतित
पाषण्डपरिषत्
परित्राणस्नेहः श्लथयितुमशक्यः खलु
यथा ।
ममाप्येवं प्रेमा दुरितनिवहेष्वम्ब
जगति
स्वभावोऽयं सर्वैरपि खलु यतो
दुष्परिहरः॥३७॥
जैसे आप पतित,
अधम और पाखंडियों के उद्धार का बिरद नहीं छोड़ सकती, ऐसे ही मैं भी दुष्कर्म और अधमता का त्याग नहीं कर सकता। अरे माँ, कोई कैसे अपने स्वाभाव का परित्याग कर सकता है?
प्रदोषान्तर्नृत्यत्पुरमथनलीलोद्धृतजटा-
तटाभोगप्रेङ्खल्लहरिभुजसन्तानविधुतिः
।
गलक्रोड क्रीडज्जल डमरु टङ्कार
सुभगः
तिरोधत्तां तापं त्रिदश तटिनी
ताण्डव विधिः॥३८॥
सांध्य तांडव करते भगवान शिव की
झूलती जटाओं में से निराबद्ध हो कर, डमरू
की टंकारवत क्रीडा करता और हरकंठ को आबद्ध करता हुआ गंगाजल, मानो
स्वयं भी ताण्डव रत हो, मेरे ताप का शमन करे।
सदैव त्वय्येवार्पित कुशल
चिन्ताभरमिमं
यदि त्वं मामम्ब त्यजसि समयेऽस्मिन्
सुविषमे ।
तदा विश्वासोऽयं त्रिभुवन
तलादस्तमयते
निराधारा चेयं भवति
निर्व्याजकरुणा॥३९॥
माँ, मैंने तो अपनी कुशल की सारी चिंताओं का भार सदैव आप पर ही छोड़ा हुआ है।
यदि ऐसे विषम समय में आप मेरा त्याग करोगी तो त्रिभुवन में आपकी अहैतुकि करुणा का
विश्वास और आधार ही उठ जायेगा।
कपर्दादुल्लस्य
प्रणयमिलदर्धाङ्गयुवतेः
मुरारेः प्रेङ्खन्त्यो मृदुलतर
सीमन्त सरणौ ।
भवान्या सापत्न्या स्फुरितनयनं
कोमलरुचा
करेणाक्षिप्तास्ते जननि विजयन्तां
लहरयः॥४०॥
भगवान अर्धनारीश्वर की जटाओं से
निसृत आपकी लहरों का जल लगने पर किंचित झुंझलाहट दृष्टि से देखते हुए माँ पारवती
ने अपने कोमल करों से हटाया, ऐसी आपकी धन्य
लहरें विजयशाली हों।
प्रपद्यन्ते लोकाः कति न
भवतीमत्रभवतीम्
उपाधिस्तत्रायं स्फुरति यदभीष्टं
वितरसि ।
अये तुभ्यं मातर्मम तु पुनरात्मा
सुरधुनि
स्वभावादेव त्वय्यमितमनुरागं
विधृतवान्॥४१॥
अभीष्ट की पूर्ती हो जाने के कारण
असंख्य लोग आपका आश्रय लेते हैं. जहाँ तक मेरा प्रश्न है,
हे माँ, मैं तो स्वभावतः ही आपका अमित अनुरागी
हूँ।
ललाटे या लोकैरिह खलु सलीलं तिलकिता
तमो हन्तुं धत्ते
तरुणतरमार्तण्डतुलनाम् ।
विलुम्पन्ती सद्यो
विधिलिखितदुर्वर्णसरणिं
त्वदीया सा मृत्स्ना मम हरतु
कृत्स्नामपि शुचम्॥४२
लोग आपके जल की मृत्तिका का अपने
ललाट पर तिलक लगाते हैं जो तमोहारि बालार्क की भांति शोभा पाता है,
क्योंकि विधि द्वारा लिखित दुर्भाग्य-तम का इससे तुरंत नाश हो जाता
है. ऐसी सद्य मृत्तिका मुझे शुचिता प्रदान करे।
नरान्मूढांस्तत्तज्जनपदसमासक्तमनसः
हसन्तः सोल्लासं विकच कुसुम
व्रातमिषतः ।
पुनानाः सौरभ्यैः सतत मलिनो
नित्यमलिनान्
सखायो नः सन्तु
त्रिदशतटिनीतीरतरवः॥४३॥
देवसरित के तट पर अवस्थित डोलते
पुष्पद्रुमों से लदे वृक्ष मानो उन हत्भागियों पर हँसते हैं तो इससे विमुख हो अपनी
ही विषम दुनिया में आसक्त रहते हैं. नित्य मलीन मधुमक्खियों को भी अपनी सुवास से
सतत पवित्र करते पुष्पों वाले ये वृक्ष हमारे सखा हों।
भजन्त्येके देवान् कठिनतर
सेवांस्तदपरे
वितानव्यासक्ता यमनियमारक्ताः
कतिपये ।
अहं तु त्वन्नामस्मरणहितकामस्त्रिपथगे
जगज्जालं जाने जननि तृणजालेन
सदृशम्॥४४॥
कोई देवताओं को भजते तो कोई कठिन
सेवा में लगते, कोई बलि देते, कुछ यम नियम में रत रहते या कठोर तपसाधन और ध्यान करते हैं। पर हे
त्रिपथगामिनी, मैं तो आराम से मात्र आपका नाम स्मरण मात्र ही
करता हुआ इस जगत्जाल को तृणजालवत अनुभव करता हूँ।
अविश्रान्तं जन्मावधि
सुकृतकर्मार्जनकृताम्
सतां श्रेयः कर्तुं कति न कृतिनः
सन्ति विबुधाः ।
निरस्तालम्बानाम.ऽकृतसुकृतानां तु
भवतीम्
विनामुष्मिन् लोके न परमवलोके
हितकरम्॥४५॥
जन्म से ही सतत सत्कर्मियों के लिए
श्रेयस्कर तो कई विद्वान और सुकृती होंगे। परन्तु सुकर्म ना करने वाले और
अवलम्बनहीनों के उद्धार के लिए मुझे तो आपके अतिरिक्त और कोई नहीं दिखता है।
पयः पीत्वा मातस्तव सपदि यातः
सहचरैः
विमूढैः संरन्तुं क्वचिदपि न
विश्रान्तिमगमम् ।
इदानीमुत्सङ्गे मृदुपवनसञ्चारशिशिरे
चिरादुन्निद्रं मां सदयहृदये स्थापय
चिरम्॥४६॥
अरे माँ,
तेरा पय-जल पान करके भी मैं तुरंत विमूढ़ों के साहचर्य में चला गया,
और कहीं भी विश्रांति न पाई। अब तो हे सदय हृदया माँ, मुझे सदा के लिए मृदु शीतल पवन युक्ता अपनी पावन गोद में चिर विश्राम देदे,
काफी देर बाद मेरे जीवन में आपकी प्रेम के प्रति जागृति आयी है।
बधान द्रागेव द्रढिम रमणीयं परिकरम्
किरीटे बालेन्दुं नियमय पुनः पन्नग
गणैः ।
न कुर्यास्त्वं हेलामितर जनसाधारण
धिया
जगन्नाथस्य अयं सुरधुनि समुद्धार
समयः॥४७॥
हे दिव्य सरिता! अपनी दृढ रमणिक कटि
कसकर बालचंद्र के मुकुट को सर्पों के द्वारा सुस्थिर कर लो। ये किसी साधारण अधम जन
का प्रकरण नहीं है। इस जगन्नाथ के समुद्धार का समय आ गया है।
शरच्चन्द्रश्वेतां शशिशकल शोभाल
मुकुटाम्
करैः कुम्भाम्भोजे वराभय निरासौ
विदधतीम् ।
सुधासाराकाराभरणवसनां शुभ्रमकर-
स्थितां त्वां ध्यायन्त्युदयति न
तेषां परिभवः॥४८॥
आप शिशिरचन्द्र की धवलता लिए हैं और
वक्रचन्द्र शोभित किरीट आपको शोभित कर रहा है। हाथों में अभयमुद्रा युक्त हाथों
में कुम्भ्सम कुमुद हैं, सुधासार रूप वसन और
अलंकार धारण किये हुए आप शुभ्र मकर पर आरूढ़ हैं। ऐसे आपके रूप का जो ध्यान धरता
है, उसका कभी परिभव नहीं, अभ्युदय ही
शोता है।
दरस्मित
समुल्लसद्वदनकान्तिपूरामृतैः
भवज्वलन भर्जिताननिशमूर्जयन्ती
नरान् ।
विवेकमय चन्द्रिका चयचमत्कृतिं
तन्वती
तनोतु मम शं तनोः सपदि
शन्तनोरङ्गना॥४९॥
शांतनु अन्गिनी गंगा! तीन ताप के
भवजाल से निरंतर विदग्धित जीवों को अपने स्मितमुस्कान युक्त मुख,
कांतिपूरित वदनामृत और विवेक चन्द्रिका प्रसाद से शीतलता प्रदान
करने वाली आप, मेरे भी पाप ताप का शमन कर शांति प्रदान करें।
मंत्रैर्मीलितमौषधैर्मुकुलितं
त्रस्तं सुराणां गणैः
स्रस्तं सान्द्रसुधा रसैर्विदलितं
गारुत्मतैर्ग्रावभिः।
वीचिक्षालित कालिया हित पदे
स्वर्लोक कल्लोलिनि
त्वं तापं निरयाधुना मम
भवव्यालावलीढात्मनः॥५०॥
स्वर्गलोक कल्लोलिनी गंगे! आपकी
लहरों के स्पर्श से तो कलि बह ही गया। अब मेरी इस त्रस्त आत्मा का भी उद्धार करो।
भाव भुजंग से ग्रसित इसका न मन्त्र, न
औषधि, न सुरसमूह, न गरिष्ठ सुधा और न
ही गरुत्मान मणि उपचार है।
द्यूते नागेन्द्रकृत्ति प्रमथगण
मणिश्रेणि नन्दीन्दुमुख्यं
सर्वस्वं हारयित्वा
स्वमथपुरभिदिद्राक्पणी कर्तुकामे ।
साकूतं हैमवत्या मृदुलहसितया
वीक्षितायास्तवाम्ब
व्यालो लोल्लासि वल्गल्लहरि नटघटी
ताण्डवं नः पुनातु॥५१॥
चौसर की द्यूत क्रीडा में दांव पर
अपने प्रमथगण,नंदी, ईंदु,
गलहार नाग, गजचर्म सहित सब कुछ हारने के बाद
जब शिव स्वयं को दांव पर लगाने को तत्पर हुए, तब अकूत
जलभंडार युक्त स्वर्णकलश लिए तांडव नर्तक की भांति आपके जिस नर्तन को मृदुल हास्य
के साथ पार्वतीजी ने देखा, वो हमारा पवित्र प्रोक्षण करे।
विभूषितानङ्ग रिपूत्तमाङ्गा,
सद्यः कृतानेकजनार्तिभङ्गा ।
मनोहरोत्तुङ्गचलत्तरङ्गा,
गङ्गा ममाङ्गान्यमली करोतु॥५२॥
अनंग-रिपु शिव के उत्तम भाल को
विभूषित करने वाली गंगा असंख्य जनों के कष्टों का क्षण में शमन करती है। मनोहर
उत्तंग तरंगों से हे माँ,मेरे अंगों को पवित्र
कर दो।
इमां पीयूषलहरीं जगन्नाथेन
निर्मिताम् ।
यः पठेत्तस्य सर्वत्र जायन्ते
सुखसम्पदः ॥ ५३॥
पंडित जगन्नाथ द्वारा रची इस गंगालहरी
(पीयूषलहरी) को जो पढ़ते हैं उन्हें सब सुख-संपत्ति मिलाता है।
इति श्रीगंगालहरी स्तोत्रम् ॥
0 Comments