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कर्मकाण्ड

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श्रीराधा सप्तशती

श्रीराधा सप्तशती

श्रीराधा सप्तशती –

राधा साध्यम साधनं यस्य राधा

मंत्रो राधा मन्त्र दात्री च राधा l

सर्वं राधा जीवनम् यस्य राधा

राधा राधा वाचि किम तस्य शेषम l l

भावार्थ - "राधा साध्य है उनको पाने का साधन भी राधा नाम ही है । मन्त्र भी राधा है और मन्त्र देने वाली गुरु भी स्वयं राधा जी ही है। सब कुछ राधा नाम में ही समाया हुआ है। और सबका जीवन प्राण भी राधा ही है। राधा नाम के अतिरिक्त ब्रह्माण्ड में शेष बचता क्या है ?

श्रीराधा पूर्ण शक्ति है --श्रीकृष्ण पूर्ण शक्तिमान्‌ हैं; श्रीराधा दाहिका शक्ति है,---श्री कृष्ण साक्षात्‌ अग्नि है; श्रीराधा प्रकाश है --श्रीकृष्ण भुवन-भास्कर है; श्रीराधा ज्योत्स्ना हैं--श्रीकृष्ण पूर्ण चन्द्र है। इस प्रकार दोनों नित्य एक-स्वरूप हैं। एक होते हुए ही श्रीराधा समस्त कृष्णकान्ताओं की शिरोमणि ह्लादिनी शक्ति हैं। वे स्वमन-मोहन-मनोमोहिनी हैं, भुवनमोहन-मनोमोहिनी है, मदन-मोहन-मनोमोहिनी हैं। वे पूर्णचन्द्र श्रीकृष्णचन्द्र के पूर्णतम विकास की आधारमूर्ति हैं और वे हैं अपने विचित्र विभिन्न भावतरंग-रूप अनन्त सुख-समुद्र में श्रीकृष्ण को नित्य निमग्न रखनेवाली महाशक्ति । ऐसी इन राधा की महिमा राधाभावद्युति-सुवलित-तनु श्रीकृष्णचन्द्र के अतिरिक्त और कौन कह सकता है ? पर वे भी नहीं कह सकते; क्योकि राधागुण-स्मृति मात्र से ही वे इतने विह्ल तथा मुग्ध, गद्गद्‌-कंठ हो जाते हैं कि उनके द्वारा शब्दोच्चारण ही संभव नहीं होता ! इन्हीं श्यामसुन्दर की एकांत आराधिका एवं परम आराध्या श्रीराधा की मधुरतम दिव्यतम निकुञ्जविहार-लीला का बड़ा ही सुललित  वर्णन सुबोध संस्कृत पद्मों में श्रीराधासप्तशती में किया गया है और साथ ही इस परम साध्य तक पहुँचने के सुन्दर सरल साधन भी इसमें बतलाये गये हैं।

श्रीराधा सप्तशती अध्याय-१

श्रीराधा सप्तशती अध्याय-१  

श्री राधा-कृष्णाभ्यां नमः

श्री राधा सप्तशती

प्रथमोऽध्याय

बरसाने में प्रवेश

कीर्त्तियशोदयोर्निजमहावात्सल्यसिन्धूद्भवं

मामृतसिन्धुमग्नमनिशं दिव्याद्भुतक्रीडनम् ।

श्चर्यमयं महारसमयं गोप्येकभावाश्रयं

राध्यं हृदि पीतनीलकमलद्वन्द्वं महामोहनम्‌ ॥१॥

राधा और यक्षोदा--इन दोनों देवियों के अपने-अपने वात्सल्य- हुए है, निरन्तर अपने ही पारस्परिक प्रेस-सुधा-सागर में निमग्न अद्भुत लीलाओं के आलम्बन है, जिनका स्वरूप सर्वाश्चर्यमय, महामोहन है, जो गोपीभावमयी मधुर उपासना के एकमात्र भक्‍तजन अपने हृदय में ही जिनकी सुखपूर्वक आराधना करते नील कमलों (के सदृश कान्तिवाले प्रिया-प्रियतम) की मैं वन्दना करता हूँ ।।१।।

श्रीसुकण्ठ उवाच

बृहत्सानुकथां पुण्यां श्यामाश्यामकृपामयीम् ।

सर्वात्मतर्पणी मित्र श्रावयाद्यानुकम्पया ॥२॥

श्रीसुकण्ठजी बोलें--- मित्र ! आज कृपा करके श्रीश्यामा-श्याम की करुणा से भरी हुई श्रीबरसाने की कोई ऐसी पृण्यकथा सुनाओ, जो सभी आत्माओं (आत्मा, मन, और इन्द्रियों) को तृप्त करनेवाली हो ॥२॥

श्रीमधुकण्ठ उवाच

सखे श्रृणु कथां पुण्यां मधुरामृतवर्षिणीम्‌ ।

वसन्तदेवो विप्रोऽभूत् कश्चिच्छीजाह्नवीतटे ॥॥३।।

कदाचित्तस्य वासाय श्रीवृन्दाविपिने व्रजे ।

समुत्कण्ठा समुत्पन्ना सहसा मानसेऽनघे ।४।।

श्रीमधुकण्ठजी ने कहा-- सखे ! (मैं तुमसे) मधुर अमृत की वर्षा करनेवाली एक पुण्यमयी कथा (कहता हूँ, उसे) तुम सुनो । श्रीगङ्गाजी के तट पर वसन्तदेव नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण थे। उनके निर्मल मन में किसी समय एकाएक श्रीव्नजधाम एवं श्रीवृन्दावन में वास करने की बड़ी प्रबल उत्कण्ठा उत्पन्न हुई ।३-४।

सोऽतीय विस्मितो विप्रः श्रीकृष्णकृतधीः सुधीः ।

विचारमाचरत् कस्मादाविर्भूता रुचिर्मम ॥५॥            

जिसका चित्त सदा श्रीकृष्ण के ही चिन्तन में लगा रहता था, वह सुन्दर बुद्धिवाला ब्राह्मण अत्यन्त विस्मित होकर सोचने लगा कि मुझमें ऐसी इच्छा अकस्मात्‌ कैसे उत्पन्न हो गयी ? ।५॥। 

व्रजे वृन्दाबने वापि ब्रह्माद्यैरपि दुर्लभे ।

वासे मनोरथोऽयं मे स्वप्नमायेव लक्ष्यते ॥६॥

श्रीव्रज अथवा श्रीवृन्दाबन तो ब्रह्मा आदि देवताओं के लिये भी दुर्लभ है, उसमें वास करने के निमित्त यह मेरा मनोरथ स्वप्न और माया के समान लक्षित होता है ॥॥६।।

कोटिजन्मसमुत्थेन पुण्येनापि सुदुर्लभा ।

वृन्दाटवी महापुण्या राधामाधववल्लभा ॥७॥

श्रीराधा-मांधव की परम प्यारी महापुण्यमयी श्रीवृन्दावन-स्थली कोटि जन्मों में उपार्जित पुण्यों से भी अत्यन्त दुर्लभ है! ।।७।

एवं चिन्तयतस्तस्य व्यतीतं माससप्तकम् ।

द्विगुणा च तदुत्कण्ठा जाता वृन्दावनं प्रति ॥८॥

इस प्रकार चिन्ता करते-करते ब्राह्मण के सात मास बीत गये और वृन्दावन के लिये उनके मन में दूनी उत्कण्ठा हो गयी ।।८॥।

प्रत्यहं स्वेष्टदेवस्य गोपालस्य पदाब्जयोः ।

प्रार्थयन्नपि न प्राप सान्त्वनां वा सदुत्तरम् ॥९॥

इसके लिये वे प्रतिदिन अपने इष्टदेव श्रीगोपाल के पादपद्मों में प्रार्थना करते थे; परंतु उन्हें कोई सान्त्वना या संतोषजनक उत्तर नहीं मिला ।९।॥

तदा चिन्तापरीतात्मा गङ्गातटमुपागतः ।

बृन्दाटवीनिवासाय किमत्र क्रियतामिति ॥१०॥

तब वे ब्राह्मण (घर छोड़कर) गङ्गाजी के तट पर आये और विचार करने लगे कि 'मुझे श्रीवृन्दाबन की प्राप्ति के लिये इस समय कौन-सा साधन करना चाहिये? ”' इस चिन्ता से वे अत्यन्त व्याकुल हो गये ॥१०॥।

गोपाललीला काप्येषा प्रलुब्धं मानसं यया ।

एवं चिन्तयता तेन श्रीमद्भागवतं तदा ॥११॥

पठता दिवसा नीताः गोपालप्रियकाम्यया ।

गङ्गातीरकृतावासान् विरक्तान् साधुसत्तमान् ॥१२॥

प्रणिपत्यातिदैन्येन पप्रच्छात्ममनोरथम् ।

किं करोमि यतो वृन्दाटवीवासमवाप्नुयाम् ॥१३॥

यह तो कोई श्रीगोपाल की लीला है, जिसने मेरे मन में श्रीवृन्दावन के लिये प्रबल लोभ उत्पन्न कर दिया है। यह सोचकर उन्होंने गोपाल की प्रसन्नता के लिये श्रीभागवत का पाठ आरम्भ कर दिया। पाठ करते हुए जब उन्हें कई दिन बीत गये, तब (वे अधीर होकर) एक दिन श्रीगङ्गातीरवासी बडे-बडे विरक्त साधुओं के पास गये और अतिदीन भाव से प्रणाम करके उन्होंने उनसे अपने मनोरथ (की सफलता) के लिये प्रश्न किया--महात्माओं ! मुझे कौन-सा साधन करना चाहिये, जिससे श्रीवृन्दावनवास की प्राप्ति हो जाय ? ॥११, १२, १३।'

भवन्तः शरणं सर्वे मज्जतो नौरिवार्णवे ।

उपायं कृपयामोघं प्रबतामोघदर्शनाः ॥१४॥

जैसे समुद्र में डूबनेवाले मनुष्य को बचाने के लिये नौका ही सबसे बड़ा सहारा है, उसी प्रकार आप सब लोग (इस भवसागर से उबारने के लिए) मेरे महान आश्रय हैं। (मुझ शरणागत पर) कृपा करके कोई अमोघ (अवश्य  फल देने वाला) उपाय बतायें ; क्योंकि आप-जैसे महात्माओं का दर्शन कभी निरर्थक नहीं होता (उससे मनोवाञ्छित फल की सिद्धि अवश्य होती है) ।॥॥१४।॥

सर्वेऽपि तमिदं प्रोचुग हे तिष्ठ गृहाश्रमी ।

भज तत्रैव गोपालं पालयस्व गृहाश्रमम् ॥१५॥

वृन्दाटव्यास्तु गेहे त्वं भावनां कुरु सर्वदा ।

तेषां वचनमाकर्ण्य कर्णशूलकरं द्विजः ॥१६॥

पार्श्वतोऽपासरत्तेषां मृगो व्याधभयादिव ।

ततो ययौ कर्णवासं तीर्थ सिद्धनिषेवितम् ॥१७॥

(यह सुनकर) सभी महात्मा उसे यह कहने लगे--अरे ! तू गृहस्थ है, घर में ही रहकर गृहाश्रम का पालन तथा गोपाल का भजन किया कर और अपने घर में ही वृन्दावन की नित्य भावना कर लिया कर।' ब्राह्मण को उनकी यह बात कानों में शूल के समान असह्य पीड़ा देनेवाली लगी। उसे सुनकर ब्याधों के भय से डरे हुए मृग के समान वे उन सबके पास से भाग चले और सिद्ध-सेवित (परम पावन) कर्णवास नामक तीर्थ में जा पहुँचे ॥१ ५-१७॥।

तत्र साधून विरक्ताश्च भक्तान् दृष्ट्वा मुदं ययौ ।

तेषां च परमाराध्यं गुरुं शंकररूपिणम् ॥१८॥

यतिराजमथावोचन्निपत्य पदकंजयोः ।

भगवन्मे परोत्कण्ठा वृन्दारण्यसुखाप्तये ॥१९॥

जाता तत्रैव वासाय प्राणा व्याकुलिता यया ।

तत्ते शरणमायातः कृपयाऽऽज्ञां प्रदेहि मे ॥२०॥

वहाँ साधुओं, विरक्तों, और भक्‍तों को देखकर वे (बहुत) प्रसन्न हुए। वहाँ उन सबके परमपुज्य गुरु शिवस्वरूप एक यतिराज विराजमान थे। उनके श्रीचरणों में प्रणाम करके ब्राह्मण कहने लगे--भगवन्‌ ! मेरे मन से श्रीवृन्दा-वन-वास-जनित सुख की प्राप्ति के लिये बड़ी उत्कण्ठा उत्पन्न हो गयी है, जिसने उसी वृन्दावन में निवास करने के लिये मेरे प्राणों को व्याकुल कर दिया है । इसलिये मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप कृपा करके मुझे वृन्दावन में जाने की आज्ञा दे दीजिये ॥१८, १९, २०॥।

तेनापि सहसा प्रोक्तं तत्र वासोऽतिदुष्करः ।

ये दोषदशिनो धाम्नि वासादपि पतन्ति ते ॥२१॥

यह सुनकर यतिराज ने भी सहसा यही उत्तर दिया कि—श्रीवृन्दावन में वास करता बहुत कठिन कार्य है। धाम में रहने पर भी जो उसके दोष देखने लगते है, वे पतित हो जाते है! ॥॥२१॥

परं विप्रप्रतोषाय पद्यमेकं जगौ मुदा ।

शाकपत्रावने तुष्टा ये वृन्दावनवासिनः ॥२२॥

तेषां भाग्यमहो दृष्ट्वा स्पहयन्ति हजादयः ।

श्रुत्वतद् गन्तुकामाय वृन्दारण्यं द्विजाय सः ॥२३॥

एलालवङ्गपूग्यादिप्रसादं प्रददौ स्वयम् ।

त्वरावानथ विप्रोऽसौ निशायामेव प्रस्थितः॥२४॥

परंतु ब्राह्मण के संतोषार्थ उन्होंने (बड़े) हर्ष से एक श्लोक का गान' किया, जिसका भाव यह है-- जो साग-पात के आाहार ले संतुष्ट रहते हुए श्रीवृन्दावन में वास करते है, उनके आश्चर्यमय भाग्य को देखकर ब्रह्मा आदि देवेन्द्र भी ललचाते है। यह सुनकर ब्राह्मण के मन में श्रीवृन्दावन में जाने की इच्छा जाग उठी । तब श्रीयतिराज ने स्वयं प्रसाद के रूप में उन्हें इलायची, लौंग और पुंगीफल (सुपारी) आदि दिये। ब्राह्मण वहाँ जाने के लिये उतावले हो उठे थे। अतः उन्होंने रात्रि में ही प्रस्थान कर दिया ॥२२, २३, २४।।

याचे श्रीनन्दगोपालं स्वयं वृन्दावनस्थितिम् ।

एवं संकल्प्य वेगेन तमेवानुस्मरन्ययौ ॥२५॥

वे मन-ही-मन यह संकल्प करके कि अब स्वयं श्रीनन्दगोपाल से श्रीवृन्दावन-वास के लिये प्रार्थना करुंगा' श्रीगोपाल का ही स्मरण करते हुए बड़े वेग से आगे बढे ॥२५॥।  

अथ गङ्गातटाद्विप्रः प्राप्तः श्रीयमुनातटम् ।

तत्र स्नात्वा, च देवर्षीन् पितृन् संतl सत्वरम् ॥२६॥

गमनाय मतिं चक्रे श्रीमद्वृन्दावनं प्रति ।

व्योमवाणी तदैवासीद् बृहत्सानुमितो व्रज ॥२७॥

भविता कार्यसंसिद्धिः श्रीराधाचरणान्तिके ।

गोपालो नानुकूलस्तेऽधुना विप्रेति चिन्त्यताम् ॥२८॥

अब ब्राह्मण श्रीगङ्गा-तट से श्री यमुना-तट पर जा पहुँचे । वहाँ स्नान करके उन्होंने शीघ्रतापूर्वक देवताओं, ऋषियों और पितरों का तर्पण किया। फिर श्रीवृन्दावन में जाने का विचार किया। इतने में ही आकाशवाणी हुई--ब्राह्मण ! यहाँ से बरसाने जाओ। वहाँ श्रीराधा के चरणों के निकट (जाने पर) तुम्हारे कार्य की सिद्धि होगी! श्रीगोपालजी इस समय तुम्हारे अनुकूल नहीं हैं। इस बात पर विचार करो॥२६, २७, २८।।

श्रुत्वैतद्विस्मितो विप्रो वाण्या अर्थमचिन्तयत् ।

नूनं मां प्रत्युदासीनो गोपालो मम भाग्यतः ॥२९॥

महाकारुणिको वा मे परिहासं करोत्यसौ ।

सदा कौतुकिनस्तस्य कर्तव्यं केन ज्ञायताम् ॥३०॥

यह सुनकर ब्राह्मण विस्मित हो उस आकाशवाणी के अर्थ पर विचार करने लगे (और मन-ही-मन बोले )--निश्चय ही मेरे दुर्भाग्य से श्रीगोपालजी मेरे प्रति उदासीन हो गये हैं। अथवा वे तो परम दयालु हैं। सम्भव है मुझसे परिहास करते हों। सदा के कौतुकी श्रीकृष्ण कौन कार्य किस अभिप्राय से करते हैं--बह कौन समझ सकता है ।२९-३०॥॥।

व्यतीताः कतिचिन्मासा नाशृणोन्मम प्राथितम् ।

निवेद्यमेतद् गत्वैव वृषभानुसुतान्तिके ॥३१॥

तदाज्ञया तु गोपालो मां दीनं कृपयिष्यति ।

इति संचिन्तयन्दिप्रो वृषभानुपुरं ययौ ॥३२॥

'कई मास बीत गये, मेरी प्रार्थना उन्होंने नहीं सुनी--यह बात तो मुझे श्रीवृषभानुनन्दिनी के (परमोदार)दरबार में जाकर निवेदन करनी ही चाहिये; उनकी आज्ञासे श्रीगोपालजी मुझ दीन पर अवश्य कृपा करेंगे । यह सोचते-विचारते हुए वें ब्राह्मण चल दिये ।। ३१-३२।।  

सुकण्ठ उवाच

स्वतन्त्रो ब्रजकार्येषु स्वयं व्रजपनन्दनः।

कथं श्रीराधिकादेवी श्रीकृष्णस्य प्रयोजिका ॥३३॥

श्रीसुकण्ठजी ने पुछा--श्रीकृष्णचन्द्र तो ब्रजेन्द्रनन्दन होने के कारण स्वयं ही ब्रज के समस्त कार्यो में स्वतन्त्र हैं। उनके ऊपर श्रीराधिकादेवी का शासन है--वे ही उनकी प्रयोजिका है, यह बात कैसे सम्भव है ? ॥॥३३॥।

तदाज्ञावशतित्वं विप्रवाचोपणितम् ।

कथं तद्धटते मित्र ब्रूहि मे सोपपत्तिकम् ॥३४॥

मित्र ! श्रीकृष्ण श्रीराधिका देवी की आज्ञा के वशवर्ती हैं--यह बात, जो ब्राह्मण की वाणी के द्वारा कही गयी है, कैसे संगत हो सकती है ? तुम प्रमाण और युक्तियों से मुझे समझाओं ।।३४।।

मधुकण्ठ उवाच

शृणु तेऽहं प्रवक्ष्यामि रहस्यं श्रीब्रजक्षितेः।

राधाकृष्णस्वरूपं च तथा सम्बन्धमेतयोः॥३५॥

श्रोमधुकण्डजी ने उत्तर दिया-- (सुकण्ठ) सुनो, मैं तुम्हें व्रजभूमि का रहस्य समझाकर कहता हूँ । साथ ही श्रीराधाकृष्ण के स्वरूप का तथा इन दोनों के (पारस्परिक) सम्बन्ध का भी वर्णन करता हूँ ॥३५॥।

वजनं व्याप्तिरित्युक्ता व्यापनाद्वज उच्यते ।

गुणातीतं परं ब्रह्म व्यापकं वजरूपधृक् ॥३६॥

व्रज धातु का अर्थ है--व्याप्ति; व्यापक होने से ही प्रिया-प्रियतम के इस धाम को 'व्रज' कहते हैं। जो सर्वव्यापी, त्रिगुणातीत परब्रह्म है, उसी ने व्रज का रूप घारण किया है ॥३६।।

यतोऽयं सच्चिदानन्दरूप एव न संशयः।

वनान्युपवनान्यस्मिन् यमुना गिरयस्तथा ॥३७॥

सच्चिदानन्दरूपत्वात् सर्वे श्रीकृष्णविग्रहाः।

गीत घद पुराणऽपि श्रीकृ स्फुटम ॥३८ ॥

यह ब्रज सच्चिदानन्दस्वरूप ही है, इसमें संशय नहीं है। सुतरां इसमें जो बन-उपवन, और यमुनाजी तथा पर्वतमालाएँ हैं, वे सब-के-सब सच्चिदानन्दरूप होने के कारण श्रीकृष्ण के ही विग्रह हैं। पुराणों में भी स्वयं श्रीकृष्ण की वाणी-द्वारा यह बात इन शब्दों में स्पष्टरुप से प्रतिपादित हुई है--।॥।३७-३८॥॥

'पञ्चयोजनविस्तीर्ण बनं मे देहरूपकम् ।

महावृन्दावनं तत्र केलिवृन्दावनानि च ॥३९॥

यह पञ्चयोजन-विस्तृत बन मेरा शरीर है। इसमें ही महावृन्दावन तथा अनेक केलि-वृन्दावन भी हैं ॥३९॥

स कृष्णो राधिकाधीनः सैव सर्वव्रजेश्वरी ।

वृषभानुसुता देवी महाप्रेमस्वरूपिणी ॥४०॥

वे बृन्दावन-देहधारी श्रीकृष्ण श्रीराधिका देवी के अधीन हैं। अतः महा-प्रेम (भाव)-स्वरूपिणी श्रीवृषभानुनन्दिनी ही सम्पूर्ण व्रज की अधीश्वरी है ।।४०।।

प्रेमवश्यः सदा कृष्ण इति सर्वत्र वर्णितम् ।

तेन राधाप्रयोज्यत्वान्न स्वतन्त्रो व्रजक्षितौ ॥४१॥

श्रीकृष्ण सदा प्रेम के अधीन रहते हैं, इस बात का प्रायः सभी ग्रंथों में वर्णन है। अतएव श्रीराधा के आज्ञापालक होने के कारण वे श्रीव्रजभूमि में स्वतन्त्र नहीं हैं !।४१॥

'कृष्णप्राणाधिदेवो सा तदधीनो विभुर्यतः।

रासेश्वरी तस्य नित्यं तया होनो न तिष्ठति ॥४२॥

श्रीराधा श्रीकृष्ण के प्राणों की अविष्ठात्री देवि है --उनके अन्त:करण, इन्द्रिय तथा प्राणोंकी स्वामिनी हैं, आत्मा हैं; अतएव श्रीकृष्ण उसके अधीन रहते है। श्रीकृष्ण की रासकीडा की प्रयोजिका सदा श्रीराधा ही है। उनके बिना श्रीकृष्ण कभी नहीं रहते! ॥४२॥)

देवीभागवते तत् कथितं व्याससूरिणा ।

राधाधीनाः क्रियाः सर्वाः श्रीकृष्णस्य न केवलाः॥४३॥

यह बात सर्वज्ञ महर्षि श्रीव्यास ने श्रीदेवीभागवत में कही है। श्रीकृष्ण की सभी क़ियाएँ श्रीराघा के ही अधीन हैं।  

राधाधीनः सदा ब्रूते पश्यत्यथ शृणोति च ।

राधाधीनश्च हसति गायत्यपि च नृत्यति ॥४४॥

वे सदा श्रीराधा के अधीन होकर ही बोलते, देखते और सुनते है। श्रीराधा के अधीन होकर ही हँसते, गाते और नाचते हैं ॥४४॥

नादत्तेऽर्पितवस्तूनि राधासंकेतमन्तरा ।

केवलस्य च कृष्णस्य दोषायाराधनं मतम् ॥४५॥

उन्हें अर्पित की हुई वस्तुओं को भी वे श्रीराधा के संकेत के बिना स्वीकार नहीं करते। श्रीराधा के बिना केवल श्रीकृष्ण की आराधना दोषकारक मानी गयी है ।।४५।।

श्रीशंकरवचश्चात्र प्रमाणं साधुसम्मतम् ।

'गौरतेजो विना यस्तु श्यामतेजः समर्चयेत् ॥४६॥

जपेद्वा ध्यायते वापि स भवेत्पातको शिवे ।'

इति तेऽभिहितं पृष्टं शास्त्राणां हृदयं परम् ॥४७॥   

इस विषय में श्रीशंकरजी का वचन प्रमाण है, जो सभी साधुजनों द्वारा सम्मानित एवं स्वीकृत है। वे कहते है-'पार्वती! जो श्रीगौरतेज (श्रीराधा) के बिना केवल श्यामतेज (श्रीकृष्ण) का पूजन, जप अथवा ध्यान करता है, वह पातकी हो जाता है।' सुकण्ठ ! तुम्हारे पूछने से मैंने यह शास्त्रों के हृदय का परम रहस्य उद्घाटन किया है ।।४६-४७।।

अथाने शृणु विप्रस्य व्रजयात्रां मनोरमाम् ।

व्रजन् भानुपुर मार्गे मनस्येतदचिन्तयत् ।।४८।।

अब तुम आगे की बात—ब्राह्मण की मनोरम व्रज-यात्रा का वृत्तान्त सुनो। श्रीवृषभानुपुर को जाते हुए वे ब्राह्मण मार्ग में मन-ही-मन इस प्रकार विचार करने लगे-॥४८॥

गोपालवल्लभां गत्वा गोपालं ज्ञपयाम्यहम् ।

कथं निरपराधेऽयं मयि ते प्राणवल्लभः ॥४९॥

उदासीनोऽत्र देवि त्वं प्रमाणं स्वामिनी तथा ।

एवं चिन्तयतस्तस्य रुष्टोऽभून्नन्दनन्दनः ॥५०॥     

'मैं श्री गोपालवल्लभा के पास जाकर श्रीगोपाल की शिकायत करूं कि देवि आप मुझ ऊपर क्यो उदासीन हो रहे है। इस विषय में आप न्याय करनेवाली स्वामिनी है।' उनके ऐसा विचार करते ही श्रीनन्दजी के लाडले श्रीलालजी रूठ गये ॥४९-५०॥

राधार्य ज्ञपयित्वा मां किं मे विप्रः करिष्यति ।

इति मार्गे स विप्रस्य छत्रपात्रे अचूचुरत् ॥५१॥

(श्रीलालजी क्रोध के मारे लाल हो गये।) वे मन-ही-मन कहने लगे कि 'श्रीराधा से मेरी शिकायत करके यह ब्राह्मण क्या कर लेगा।' मार्ग में ही श्रीलालजी ने उनका छाता और लोटा चुरा लिया ।।५।।

उभाभ्यां रहितो विप्रः पिपासातपपीडितः।

नन्दग्राम जगामाशु ज्ञात्वा तस्यैव चेष्टितम् ॥५२॥

गोपराजाय पुत्रस्य धाष्टर्यं सर्वं निवेदये।

नन्दान्तिकमथायान्तं दृष्ट्वा विप्रं त्वरण सः॥५३॥

गोपालः पिदधे द्वारं मन्दिरस्य विचक्षणः।

अथोपविष्टो विप्रोऽपि द्वारमाक्रम्य दीनधीः॥५४॥

उक्त दोनो वस्तुओं के खो जाने से ब्राह्मण को प्यास और धूप सताने लगी। वे समझ गये कि 'यह काम श्रीलालजी का ही है। मैं श्रीव्रजराज से उनके पुत्र की सब ढिठाई कहूंगा।' ऐसा विचार करके वे ब्राह्मण शीघ्रता से नन्दग्राम जा पहुँचे। ब्राह्मण को श्रीनन्दजी के पास आते देखकर परम चतुर श्रीगोपाल ने शीघ्रता से घर के द्वार के किवाड़ बंद कर लिये। वह दीनबुद्धि ब्राह्मण भी द्वार को घेरकर (वहीं) बैठ गया ।।५२-५४।।

दृष्ट्वाऽऽग्रहपरं वित्रं श्रान्तं चातिबुभुक्षितम् ।

पायसं प्रेषयामास भुक्त्वायं व्रजतादिति ॥५५॥

उस आग्रह-परायण ब्राह्मण को थका और अत्यन्त भूखा देख श्रीगोपालजी ने प्रसादी खीर भेजी कि वह इसे खाकर चला जाय ।।५५।।

गृहीत्वा पायसं विप्रो गोपालस्य पितुर्ग हात् ।

ग्रामतश्चापि निस्सृत्य सरोषं बहिरागतः॥५६॥

ब्राह्मण उस खीर को लेकर श्रीगोपालजी के पिता नन्दरायजी के घर और ग्राम से भी रोषपूर्वक निकलकर बाहर आ गये ।

चिन्तयामास राधाय निजदैन्याधिबोधिकाम् ।

प्रार्थनापत्रिकामद्य लिखित्वाहं निवेदये ॥५७॥

उन्होंने सोचा कि 'अपनी दीनता-हीनता और चिन्ता का बोध करानेवाली एक पत्रिका लिखकर आज ही श्रीराधिकादेवी को समर्पण करूं' ।।५७।।

इति रोषपरीतात्मा पत्रीमेवालिखत्तदा ॥५८॥

ऐसा विचार करके क्रोधाविष्ट हो वे पत्री लिखने में ही संलग्न हो गये ॥५८।।

सुकण्ठ उवाच

रोषो न युज्यते स्वेष्टदेवे श्रीनन्दनन्दने ।

प्रातिकूल्येऽपि प्रेष्ठस्य प्रेष्ठत्वं न विहन्यते ॥५९॥

श्रीसुकण्ठजी बोले- अपने इष्टदेव श्रीनन्दनन्दन के ऊपर तो क्रोध करना उचित नहीं जान पड़ता। प्रियतम प्रतिकूल हो जायें, तो भी उनका प्रियतमपना नष्ट नहीं होता ॥५९।।

ब्रह्मण्यो भगवान्कृष्णः प्रेष्ठोऽयं प्रेयसामपि ।

लीलया परिहासादि भक्तैः सह करोत्यसौ ॥६०॥

भगवान् श्रीकृष्ण तो ब्राह्मणों के सहज हितकारी हैं। वे समस्त प्रियतम वस्तुओं से भी अधिक प्यारे हैं, प्रियतमों के भी प्रियतम हैं। क्रीड़ा के निमित्त से ही वे भक्तों के साथ परिहास आदि करते रहते हैं ॥६०।।

मधुकण्ठ उवाच

रहस्यातिरहस्यं मे स्मारितं मित्र यत्त्वया ।

तदहं तेऽभिधास्यामि श्रीगोष्ठप्रेमप्रक्रियाम् ॥६१॥

श्रीमधुकण्ठजी ने कहा-- मित्र ! तुमने मुझे गुप्त से भी अतिगुप्त विषय का स्मरण करा दिया है। अतः अव मै तुम्हें श्रीव्रज के प्रेम की प्रक्रिया बताता हूँ (सुनो) ॥६१।।

रोषोऽयं ब्राह्मणस्यास्ति भाग्यातिशयबोधकः।

रोष प्रमैव कथ्यते ६२

यह क्रोध ब्राह्मण के महान् सौभाग्य का सूचक है। अपने इष्टदेव के अनुकूल होकर जो क्रोध किया जाता है, वह तो प्रेम का ही अनुभव है ; अतः उसे प्रेम ही समझना चाहिये ॥६२॥

श्रीकृष्णाभिन्नतद्धामश्रीवृन्दावनकारणात् ।

तत्प्रार्थनाविघातेन रोषो विप्रस्य युज्यते ॥६३॥

श्रीकृष्ण से अभिन्न जो उनका श्रीवृन्दावनधाम है, उसमें निवास के लिये की गयी प्रार्थना की अवहेलना हो जाने के कारण ब्राह्मण के मन में क्रोध का उदय होना उचित ही है ।।६३॥

वृन्दावननिवासस्तु कृष्णसांनिध्यहेतवे ।

अपेक्षितो हि विप्रस्य त्यक्त्वा संसारवासनाम् ॥६४॥

संसार-वासना को छोड़कर श्रीकृष्ण का सामीप्य प्राप्त करने के लिये ही ब्राह्मण को श्रीवृन्दावन में निवास अपेक्षित है ।।६४॥

केवलं कृष्णलीलानामपूर्वा रसमाधुरीम् ।

कर्णाञ्जलिपुटैः पीत्वा वाचा तामेव कीर्तयन् ॥६५॥

देहगेहादि विस्मृत्य यमुनाकुञ्जगह्वरे।

विमुञ्चन्नश्रुपुञ्जानि विचरिष्ये मुदा भृतः ॥६६॥

इति संकल्प्य मनसा गोपालं शरणं गतः।

उपेक्षितो यदा तेन प्रणयात्कुपितोऽभवत् ॥६७॥

'केवल श्रीकृष्ण-लीलाओं की अपूर्व रस-माधुरी का कर्णाञ्जलिपुटों से पान करके वाणी द्वारा उसी का कीर्तन करता हुआ मैं देह-गेह आदि को भूलकर नेत्रों से अश्रुधारा बहाता हुआ श्रीयमुना-तटवर्ती कुञ्जों के गहन वन में आनन्द से उन्मत्त होकर कब विचरण करूँगा?' इसी संकल्प को मन में रखकर ब्राह्मण श्रीगोपालचन्द्र के चरणों के शरणागत हुए थे। जब उन्होने उनकी उपेक्षा की, तब वे प्रणयवश कुपित हो गये ॥६५-६७।।

यदा हि प्रणयाद्रोषः प्रेमोद्दीपनकारकः।

यथा नीलाम्बुदे विद्युद् भवेत्तस्यैव दीपिका ॥६८॥

जब प्रेम के कारण रोष होता है, तब वह प्रेम का ही उद्दीपन करनेवाला होता है जैसे नील मेघ में विजली उस मेघ की ही शोभा बढाती है ।

प्रेमण एवानुभावत्वाद् रोषो हि रतिवर्धनः।

रोषः स्वार्थविधाते यः प्राकृतो रोष उच्यते ॥६९॥

वह रोष प्रेम का ही अनुभाव (संचारी भाव) होने के कारण प्रीति को बढ़ानेवाला होता है। अपने शरीर-इन्द्रिय आदि के पोषक पदार्थ का विधात होने पर जो क्रोध होता है, वह प्राकृत क्रोध कहलाता है ॥६९॥

स एव हि महापाप्मा महावैरी विनाशनः ।

श्रीकृष्णार्थविधाते यो रोषो प्राकृतः स्मृतः ॥७०॥

वही क्रोध महान् पाप है, महावैरी है और सर्वनाश करनेवाला है। श्रीकृष्ण सम्बन्धी प्रयोजन का विघात होने पर जो क्रोध होता है, वह अप्राकृत माना गया है ।।७।।

प्रेम्णि कृष्णार्थ एवार्थः स्वस्य नान्यस्ततो बहिः।

तन्नामरूपलीलानां धाम्नोऽथ परिसेवनम् ॥७१॥

प्रेम की अवस्था में श्रीकृष्ण का प्रयोजन ही अपना प्रयोजन है, उससे भिन्न कोई बाह्य प्रयोजन नहीं रहता। श्रीकृष्ण के नाम, रूप, लीला और धाम का आश्रयण ही परम प्रयोजन है ॥७१।।

कृष्णार्थोऽभिमतो भक्तस्तन्मयत्वादभेदतः ।

शृणु मित्र कथामग्रे लिखित्वा पत्रिका द्विजः ॥७२॥

श्रीराधायै स्वयं दातुं तरसा गन्तुमुद्यतः।

तदेवास्यान्तिके कश्चित् कृष्णस्यागतवान्सखा ॥७३॥

भक्तों ने इसे ही श्रीकृष्णार्थं स्वीकार किया है; क्योकि ये नाम-रूप आदि श्रीकृष्णरूप है, श्रीकृष्ण से अभिन्न हैं। मित्र! अब तुम आगे की कथा को सुनो। ब्राह्मण पत्रिका लिखकर स्वयं ही श्रीराधा देवी को अर्पण करने के लिये शीघ्र जाने को तैयार हुए। उसी समय इनके पास एक श्रीकृष्ण का सखा आया ॥७२-७३॥

ब्राह्मणोऽकथयत्सर्व वृत्तं स्वस्य तथा हरेः।

श्रुत्वा दयालुविप्राय मन्त्रमेतमुवाच सः॥७४॥

ब्राह्मण ने अपना छाता-लोटा चुरानेवाले श्रीकृष्ण का सारा वृत्तान्त उससे कहा। सुनकर उस दयालू सखा ने ब्राह्मण को यह सलाह दी '७४।।

श्रीकृष्णसखा उवाच

गच्छ विष बृहत्सानु श्रीराधाचरणान्तिके।

तन्मन्दिर प्रतोहारी नाम्ना भावनिरीक्षकः ॥७५॥

श्रीकृष्णसखा बोला- ब्राह्मण ! तुम यहाँ से श्रीबरसाने श्रीराधाजी के चरणों के निकट जाओ उनके मन्दिर (महल) में 'भाव-निरीक्षक' नाम का एक द्वारपाल है ।।७५।।

मत्सखस्तस्य साहाय्यात् प्रवेशस्ते भविष्यति ।

मन्दिरे राधिका देवी सखीभिः परिसेविता ॥७६।।

राजते कोटिचन्द्राभा श्यामा श्रीश्यामवल्लभा।

सखीनामनुमत्या त्वं तस्यै पत्रीं समर्पय ॥७७॥

वह मेरा सखा है, उसकी सहायता से वहाँ तुम्हारा प्रवेश हो जायेगा मन्दिर में सखियों द्वारा सर्वतोभाव से सेवित श्रीराधा देवी विराजमान हैं। उन श्यामवल्लभा श्यामा की कोटि-कोटि चन्द्रमाओं से भी अधिक उज्ज्वल कान्ति है सखियों की अनुमति से तुम उन्हें पत्रिका समर्पित कर देना ।।७६-७७॥

ततस्त्वं गह्वरं गत्वा सदा गहरवासिनीम् ।

श्रीचन्द्रां श्रीसखों भक्त्या शरण्यां शरणं व्रज ।।७८॥

फिर गहवरवन मे जाकर सदा वही निवास करनेवाली श्रीराधा सखी श्रीचन्द्र देवी की भक्तिभाव से शरण लेना। वे बड़ी ही शरणागतवत्सला है ।।७८।।

तस्या दास्यप्रभावेण कार्यसिद्धिर्भविष्यति ।

प्रियाप्रियतमौ तस्या वशगौ क्रीडतः सदा ॥७९॥

आगत्य प्रत्यहं विप्र गह्वरं प्रेमगह्वरम् ।

श्रीचन्द्राकृपया. तुभ्यमनुकूलौ भविष्यतः।

श्रीचन्द्रायाः स्वरूपं तु भयोक्तं त्वं सदा स्मरः ॥८०॥

उनकी सेवा के प्रभाव से तुम्हारे कार्य की सिद्धि हो जायगी। प्रिया-प्रियातम दोनों उनके प्रेम के वश में रहते हैं। ब्रह्मन् ! वे दोनो प्रतिदिन प्रेमपूर्ण गहवरवन में आकर क्रीड़ा करते हैं। श्रीचन्द्रादेवी की कृपा से वे दोनो अब तुम्हारे अनुकूल हो जायेंगे। श्रीचन्द्रादेवी के स्वरूप का मैं जैसा निर्देश करता उसे तुम सदा ध्यान रखना ।७९-८०।

श्रीचन्द्रा कलौतकान्तिरुचिरा नीलाम्बरैरावृता

नानारत्नविभूषिता विधुमुखी प्रेयःप्रियां राधिकाम् ।

गङ्गां श्रीयुतगोमती निजनदीयूथैर्यथा संगता

संगम्य स्वसखीगणः प्रियतमं कृष्णाब्धिसाप्ता तथा ॥८१॥

श्रीचन्द्रादेवी की अङ्गकान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान रुचिर (मनोहर) है। वे सदा नीला वस्त्र धारण करती हैं, नाना प्रकार के दिव्यरत्नमय आभूषणों से विभूषित रहती है। उनका श्रीमुख चन्द्रमा से भी अधिक उज्ज्वल है। जैसे गोमती नदी अपने नदी-यूथों के साथ श्रीगङ्गा में मिलकर समुद्र में पहुँचती है, उसी प्रकार श्रीचन्द्रा अपने सखी-समूहों के साथ प्यारे की परम प्यारी श्रीराधा के साथ मिलकर प्रियतम श्रीकृष्णरूपी समुद्र में प्रवेश करती हैं॥८१।।

मधुकण्ठ उवाच

हरेः सख्युरिदं पथ्यं निशम्य वचनं मुदा।

तं प्रणम्य बृहत्सानुं विप्रः सत्वरमागमत् ॥८२॥

श्रीमधुकण्ठजी कहते हैं- सुकण्ठ ! श्रीकृष्ण-सखा के इस हितकर वचन को सुनकर वे ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुए और उसे प्रणाम करके शीघ्र ही श्रीबृहत्सानपुर (बरसाने) आये ॥८२॥

दूरतः श्रीपुरं रम्यं दृष्ट्वा भुवि ननाम ह।

प्रविश्य परमप्रीतो वासार्थमनुचिन्तयन् ॥८३॥

दूर से ही उस (परम) सुन्दर श्रीजी के पुर को देखकर ब्राह्मण ने पृथ्वी पर लोटकर (साष्टाङ्ग) प्रणाम किया। उस नगर मे प्रवेश करके वे बहुत संतुष्ट हुए और सोचने लगे कि 'इस नगर में कहाँ निवास करूँ ?' ॥८३॥

तावद् गोपकुमारेण केननापि सुदयालुना।

प्रेम्णा प्रशितो विप्रो भानुवंशगुरोगृहे ॥८४॥

उसी समय किसी परम दयालु गोपकुमार ने बड़े प्रेम से ब्राह्मण को श्रीभानुवंश के रुके घर में पहुंचा दिया ।८४।

कृतातिथ्योऽथ गुरवे स्वाभिप्रायं न्यवेदयत् ।

भगवन् केन पुण्येन भवतो गेहमागतः ॥८५॥

उनके द्वारा आतिथ्य-सत्कार हो जाने के पश्चात् ब्राह्मण ने श्रीगुरुजी से अपना अभिप्राय निवेदन किया, 'भगवन् ! न जाने किस पुण्य से मैं आपके घर में आया हूँ॥८॥

पश्यामि दुर्लभं चार्थ हस्तप्राप्तमिवात्मनः।

स्वामेव शरणं यातोऽभीष्टं मेऽद्य प्रपूरय ॥८६॥

'अब मुझे (परम) दुर्लभ वस्तु अपने हाथ में आयी हुई-सी दीख रही है। मैं आपकी ही शरण में आया हूँ। आज आप मेरे अभीष्ट (मनोरथ) को पूर्ण करने की कृपा करें॥८६॥

यथा भानुसुताराधामन्दिराभ्यन्तरे मम ।

दोनस्यापि प्रवेशः स्यात् तं विधि प्रतिपादय ॥८७॥

'श्रीबृपभानुनन्दिनी श्रीराधा के मन्दिर में मुझ दीन का भी जिस प्रकार प्रवेश हो जाय, उस विधि को वताइये ।८७।

श्रुत्वा गुरुरिदं वाक्यमुवाचैनं दयाधीः ।

श्रीराधामन्दिरे विप्र गोपीभावेन गम्यते ॥८८॥

ब्राह्मण के इस वचन को सुनकर गुरुजी का चित्त दया से द्रवित हो गया। वे बोले----'विप्रवर! श्रीराधा-मन्दिर में तो गोपीभाव से ही प्रवेश किया जाता है ।।८८।।

स्वात्मभावविशेषो हि गोपीभावो निगद्यते ।

स्तानात्ते भानुसरसि गोपीभावो भविष्यति ॥८९ ॥

'आत्मा का भाव-विशेष ही गोपीभाव कहलाता है। श्रीभानु सरोवर में स्नान करने पर तुम्हे गोपीभाव प्राप्त हो जायेगा ॥८६॥

तदा श्रीदामसाहाय्यात् सुखं राधागृहं धज ।

गुरुवाक्यमिदं श्रुत्वा मुमुदे सुभृशं द्विजः ॥९०॥

'फिर तुम सुखपूर्वक श्रीदामा की सहायता से श्रीराधामन्दिर में चले जाना।' श्रीगुरु के इस वचन को सुनकर ब्राह्मण बहुत अधिक प्रसन्न हुआ ।९०।

सुकण्ठ उवाच

अहो भावविशेषस्य गोपीत्वं यत्त्वयोदितम् ।

कृपया सुखबोधाय लक्षणं तस्य वर्णय ॥९१॥

श्रीसुकण्ठजी बोले- मधुकण्ठजी! आपने भाव विशेष को गोपीभाव या गोपी का स्वरूप बताया, यह सुनकर मुझे बहुत आश्चर्य है। कृपा करके आप उसका लक्षण बतायें, जिससे मैं भी इस विषय को सुखपूर्वक समझ सकूँ ।।१।।

मधुकण्ठ उवाच

सर्वात्मभावतः कृष्णे स्वात्मानं याभिरक्षति ।

गोपायतीति गोपी सा प्रोक्तमुखवसूरिभिः ॥९२॥  

श्रीमधुकण्ठजी ने कहा- सुनो! समस्त मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा श्रीकृष्ण में भाव (अनुराग) करके जो अपने आत्मा की रक्षा (गोपन) करती है, वही 'गोपायतीति गोपी' इस व्युत्पत्ति के अनुसार गोपी है। महापण्डित श्रीउद्धवजी ने (श्रीमद्भागवत में) इस प्रकार प्रतिपादन किया है -।९२।।

'सर्वात्मभावोऽधिकृतो भवतीनामधोक्षजे'

देहेन्द्रियप्राणधियां गतिर्गोविन्दपादयोः ॥९३॥

'गोपाङ्गनाओं ! जिन श्रीकृष्ण तक मन-वाणी को पहुँच नहीं हो पाती, आप लोगों ने उन्हीं की सम्पूर्ण इन्द्रियों द्वारा भावना (अनुरागपूर्ण चिन्तन) की है-इस सर्वात्मभाव पर आपने अधिकार प्राप्त कर लिया है।' गोपीभाव की अवस्था में देह, इन्द्रिय, प्राण, बुद्धि, और मन-इन सबकी गति श्रीगोविन्द के चरणारविन्दों में ही होती है ।।९३।।

सर्वत्रैवात्मनस्तस्य स्फूतिः सर्वात्मभावना ।

नात्र स्त्रीभावगन्धोऽपि गोपीभावे कदाचन ॥९४॥

चिन्तनीयो ह्यनिर्वाच्ये देहासक्तिविजिते ।

वस्तुतः सर्वजीवानां गोपीत्वं स्वस्वरूपता ॥९५॥

पुरीषु शयनादेकः श्रीकृष्णः पुरुषः परः।

अनन्याहस्वरूपाणामात्मायं निखिलात्मनाम् ॥९६॥

अथवा सर्वत्र सर्वात्मा श्रीकृष्ण का स्मरण-स्फुरण हो, यही सर्वात्मभाव गोपी का स्वरूप है। देहासक्तिरहित इस अनिर्वचनीय गोपीभाव में 'मैं पाञ्चभौतिकदेह वाली स्त्री हूँ' इस भाव को गन्ध भी कभी मन में नहीं लानी चाहिये। वास्तव में गोपीत्व या गोपीभाव ही सब जीवों का अपना यथार्थ रूप है तथा सब पुरियों (शरीरों) मे शयन करनेवाले एकमात्र (सर्वात्मा) श्रीकृष्ण ही परम पुरुष है। जिनका स्वरूप श्रीकृष्ण के सिवा और किसी के उपयोग में आने योग्य नहीं है, उन सभी आत्माओं के ये श्रीकृष्ण ही आत्मा हैं ॥९४-९६।।

'स एव वासुदेवोऽयं साक्षात्पुरुष उच्यते ।

स्त्रीप्रायमितरत् सर्व जगद् ब्रह्मपुरस्सरम् ॥९७॥

पुराणों में कहा गया है कि 'ये (सर्वव्यापक) श्रीवासुदेव ही साक्षात् पुरुष है। ब्रह्मा से लेकर अन्य सारा जगत् प्रायः स्त्रीरूप ही है ।।९७।।

गीतायामपि जीवानां प्रकृतित्वं निरूपितम् ।

'अपरेय मतस्त्वन्यां प्रकृति विद्धि मे पराम् ।

जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥९८॥

श्रीमद्भगवद्गीता में भी जीवों का प्रकृति-नाम से निरूपण किया गया है। 'महाबाहु अर्जुन ! यह जड प्रकृति अपरा है। इससे भिन्न जीवरूपा मेरी परा प्रकृति है, इस प्रकार जानो, जिसने इस जगत्को धारण कर रखा है'-ऐसा स्वयं श्रीभगवान् कहते हैं ।

अहं योषित्पुमान्षण्ठ इति भावो भ्रमात्तनौ ।

तावत्तु गोपीभावस्य कथमभ्युदयो भवेत् ॥९९॥

इस शरीर में रहता हुआ जीव जब तक भ्रमवश उसी में अभिमान करके 'मैं स्त्री हूँ, पुरुष हूँ या नपुंसक हूँ ऐसी भावना रखता है, तब तक गोपीभाब का उदय कैसे हो सकता है

महाभावरवेरेव किरणत्वेन कल्पिताः।

गोप्यः सहस्रशः प्रोक्ता भावानां तारतम्यतः ॥१००॥

महाभाव (महान् प्रेम)-रूपी सूर्य को किरणों के रूप में ही पुराणों में गोपियों का वर्णन किया गया है। भावों के तारतम्य से ही उनके सहस्रों भेद किये गये हैं ।।१००।।

गोपीभिरेव लोकेषु कृष्ण भक्तिरनुत्तमा ।

प्रचारिता महाप्रेमलक्षणा याऽऽदृतोद्धवैः ॥१०१॥

श्रीगोपीजनों ने ही श्रीकृष्ण विषयक सर्वश्रेष्ठ महाप्रेमलक्षणा भक्ति का लोक में प्रचार किया है, जिसका श्रीउद्धवजी ने वड़ा आदर किया है ॥१०१॥

'दिष्टया पुत्रान्पतीन् देहान् स्वजनान्भवनानि च ।

हित्वावृणीत यूयं यत् कृष्णाख्यं पुरुष परम्' ।।१०२॥

श्रीउद्धवजी कहते हैं-'गोपियो! तुमने पति, पुत्र, देह स्वजन और भवनों का परित्याग करके परम पुरुष श्रीकृष्ण को ही (अपने प्रेष्ठरूप में) वरण किया है---यह बडे सौभाग्य की बात है ।।१०२।।

महाभावस्वरूपा तु स्वयं श्रीभानुनन्दिनी ।

महानिर्वाच्यमाहात्म्या ह्लादिनी परमेश्वरी ॥१०३॥

स्वयं श्रीवृषभानुनन्दिनी तो महाभाव की साक्षात् मूर्ति ही है। श्रीभगवान्की (परम स्वतन्त्र) आह्लादिनी शक्ति हैं, परमेश्वरी है। उनकी महामहिमा अनिर्वचनीय है ।।१०३।।

यस्याः स्ववशगः कृष्णो रसात्मा रसवर्धनः।

सदाक्षिभूविलासेन पुत्तलीवाभिनृत्यति ॥१०४॥

रसस्वरूप श्रीकृष्ण सदा श्रीराधारानी के अधीन रहकर उनके रस की वृद्धि करते रहते हैं, उनके नेत्रों के कटाक्ष और भृकुटि-विलास के अनुसार सदा कठपुतली की भांति नृत्य करते है ।।१०४।।

सखे गोपीपदाम्भोजरजोभिरमलात्मनाम् ।

आराध्यौ राधिकाकृष्णौ सदामृतरसार्णवौ ॥१०५॥

मित्र ! अमृतरस के सागरस्वरूप श्रीराधा-कृष्ण की वे ही आराधना कर सकते हैं, जिन्होंने श्रीगोपियों के पुनीत पादपद्मों की पावन रज में स्नान करके अपने आत्मा को निर्मल बना लिया है॥१०५॥

यदुद्धवादयोऽप्यासां पादरेणोरभीषणशः।

वन्दनादेव कृष्णस्य सामीप्यमभिपेदिरे ॥१०६॥

क्योंकि श्रीउद्धव आदि ने बारंबार इन श्रीगोपीजनों के पादरेणुवन्दन के द्वारा ही श्रीकृष्ण का सांनिध्य प्राप्त किया है ।१०६।

तत्ते समासतः प्रोक्तं गोपीनां लक्षणं परम् ।

यज्ज्ञात्वा कृतकृत्योऽभूटिनो गुरुप्रसादतः ॥१०७॥

सुकण्ठ ! यह श्रीगोपियों के स्वरूप का उत्तम लक्षण तुम्हें मैने संक्षेप से बताया। श्रीगुरुजी की कृपा से इसे जानकर ब्राह्मण वसन्तदेव कृतकृत्य हो गये ।।१०७।।

इति: श्रीराधा-सप्तशती श्रीबृहत्सानुपुरप्रवेशो नाम प्रथमोऽध्यायः।

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