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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
रघुवंशम् सर्ग १८
इससे पूर्व महाकवि कालिदास जी की
महाकाव्य रघुवंशम् सर्ग १७ में राजा अतिथि की कथा पढ़ा । अब इससे आगे की कथा
रघुवंशम् सर्ग १८ में अतिथिपुत्र निषध, निषधपुत्र
नल, नल पुत्र पुण्डरीक, पुण्डरीक पुत्र
क्षेमधंवा, क्षेमधंवा पुत्र देवानीक, देवानीक
पुत्र अहीनग, अहीनग पुत्र पारियात्र, परियात्र
पुत्र शिल, शिल पुत्र उन्नाभ, उन्नाभ
पुत्र वज्रनाभ, वज्रनाभ पुत्र शंखण, शंखण
पुत्र व्युषिताश्व, व्युषिताश्व पुत्र विश्वसह, विश्वसह पुत्र हिरण्यनाभ, हिरण्यनाभ पुत्र कौशल्य,
कौशल्य पुत्र पुष्य, पुष्य पुत्र ध्रुवसन्धि,
ध्रुवसन्धि पुत्र सुदर्शन समग्र वंशावली राजाओं के गुण परिचय को भी
प्रस्तुत करती है। यहाँ पहले इस सर्ग का मूलपाठ भावार्थ सहित और पश्चात् हिन्दी
में संक्षिप्त कथासार नीचे दिया गया है।
रघुवंशमहाकाव्यम् अष्टादशः सर्गः
रघुवंशं सर्ग १८ कालिदासकृतम्
रघुवंशम् अठारहवां
सर्ग
रघुवंश
महाकाव्य
अष्टादशः
सर्गः
रघुवंश महाकाव्य सर्ग १८
॥ रघुवंशं सर्ग १८ वंशानुक्रम
कालिदासकृतम् ॥
स नैषधस्यार्थपतेः
सुतायामुत्पादयामास निषिद्धशत्रुः ।
अनूनसारं निषधान्नगेन्द्रात्पुत्रं
यमाहुर्निषधाख्यमेव ॥ १८ -१॥
भा०-शत्रुओं को निवारण करनेवाले
उसने निषधदेश के राजा की पुत्री में पर्वत के समान बलवाले पुत्र को उत्पन्न किया,
जिसको निषध नामवाला कहते हैं ॥१॥
तेनोनुवीर्येण पिता प्रजायै
कल्पिष्यमाणेन ननन्द यूना ।
सुवृष्टियोगादिव जीवलोकः सस्येन
संपत्तिफलोन्मुखेन ॥ १८ -२॥
भा०-बड़े पराक्रमी लोक रक्षा के
निमित्त युवराज पदवी पाये हुए उस युवा से पिता अच्छी वर्षा के योग से पकने को
प्राप्त हुए धान से प्रजा के समान प्रसन्न हुआ ॥ २॥
शब्दादि निर्विश्य सुखं चिराय
तस्मिन्प्रतिष्ठापितराजशब्दः ।
कौमुद्वतेयः
कुमुदावदातैर्द्यामर्जितां कर्मभिरारुरोह ॥ १८ -३॥
भा०-कुमुद्वती का पुत्र शब्दादि सुख
बहुत काल तक भोगकर बडे उस कुमार में राजशब्द स्थापित करके कुमुद की तुल्य कर्मो से
पाये हुए स्वर्ग को गया ॥३॥
पौत्रः कुशस्यापि कुशेशयाक्षः
ससागरां सागरधीरचेताः ।
एकातपत्रां भुवमेकवीरः
पुरार्गलादीर्घभुजो बुभोज ॥ १८ -४॥
भा०-कमल के समान नेत्रवाले,
सागर के समान गंभीरचित्त, एकवीर, नगर की अर्गला की समान दीर्घ भुजावाले कुश के पोते ने भी सागरपर्यन्त
पृथ्वी भोगी ।। ४ ॥
तस्यानलौजास्तनयस्तदन्ते वंशश्रियं
प्राप नलाभिधानः ।
यो नड्वलानीव गजः परेषां बलान्यमृद्गान्नलिनाभवक्त्रः
॥ १८ -५॥
भा०- अग्नि की समान तेजस्वी नल नामक
राजा उसके पीछे वंश की लक्ष्मी को प्राप्त हुआ, जिस
कमल की शोभा के समान मुखवाले ने मानों हाथी ने नरसल की समान शत्रुओं की सेना तोडी
॥५॥
नभश्चरैर्गीतयशाः स लेभे
नभस्तलश्यामतनुं तनूजम् ।
ख्यातं नभःशब्दमयेन नाम्ना कान्तं
नभोमासमिव प्रजानाम् ॥ १८ -६॥
भा०-गन्धर्वों के गाये हुए यशवाले
उसने आकाश के समान श्याम शरीर, श्रावणमास के
समान प्रजाओं का प्यारा नभ नामक पुत्र पाया ॥६॥
तस्मै विसृज्योत्तरकोसलानां
धर्मोत्तरस्तत्प्रभवे प्रभुत्वम् ।
मृगैरजर्यं जरसोपदिष्टमदेहबन्धाय
पुनर्बबन्ध ॥ १८ -७॥
भा०-धर्मवाले ( नल ने ) उस समर्थ
पुत्र के निमित्त उत्तरकोसल देश का राज्य देकर वृद्धावस्था की दिखाई हुई संगति फिर
देहवंधन न होने के निमित्त मृगों से बांधी ॥७॥
तेन द्विपानामिव पुण्डरीको
राज्ञामजय्योऽजनि पुण्डरीकः ।
शान्ते पितर्याहृतपुण्डरीका यं
पुण्डरीकाक्षमिव श्रिता श्रीः ॥ १८ -८॥
भा०-उसने हाथियों में पुण्डरीक के
समान राजाओं में अजित पुण्डरीक नाम पुत्र उत्पन्न किया,
पिता के शान्त होने पर कमल हाथ में लिये लक्ष्मी जिसको पुण्डरीकाक्ष
(विष्णु) के समान सेवन करती हुई ॥ ८॥
स क्षेमधन्वानममोघधन्वा पुत्रं
प्रजाक्षेमविधानदक्षम् ।
क्ष्मां लम्भयित्वा क्षमयोपपन्नं
वने तपः क्षान्ततरश्चचार ॥ १८ -९॥
भा०-सफल धनुषधारी उसने प्रजा की
कुशल विधान करने में समर्थ, क्षान्तियुक्त,
क्षेमधन्वा नाम पुत्र को पृथ्वी प्राप्त कराकर आप अधिक शान्त होकर
वन में तप आचरण किया ॥९॥
अनीकिनीनां समरेऽग्रयायी तस्यापि
देवप्रतिमः सुतोऽभूत् ।
व्यश्रूयतानीकपदावसानं देवादि नाम
त्रिदिवेऽपि यस्य ॥ १८ -१०॥
भा०-उसके भी युद्ध में सेनाओं के
आगे चलनेवाला, इन्द्र के समान पुत्र हुआ,
जिसका अन्त में अनीक पद आदि में देव शब्द (देवानीक) वाला नाम स्वर्ग
में भी सुना गया है ॥१०॥
पिता समाराधनतत्परेण पुत्रेण पुत्री
स यथैव तेन ।
पुत्रस्तथैवात्मजवत्सलेन स तेन
पित्रा पितृमान्बभूव ॥ १८ -११॥
भा०-वह शुश्रूषा करने में तत्पर
जैसा उस पुत्र से पुत्रवाला हुआ, वैसा ही वह
पुत्र भी उस पुत्रवत्सल पिता से पितावाला हुआ ॥ ११ ॥
पूर्वस्तयोरात्मसमे चिरोढामात्मोभवे
वर्णचतुष्टयस्य ।
धुरं निधायैकनिधिर्गुणानां जगाम
यज्वा यजमानलोकम् ॥ १८ -१२॥
भा०-गुणों का एक सागर यज्ञ का
करनेवाला उनमें से पहला अपने समान पुत्र में बहुत काल से धारण किया हुआ चारों वर्णों
का भार रख कर यजमान लोक को गया ॥ १२ ॥(यज्ञ
करनेवालों का लोक स्वर्ग)
वशी सुतस्तस्य
वशंवदत्वात्स्वेषामिवासीद्विषतामपीष्टः ।
सकृद्विविग्नानपि हि प्रयुक्तं
माधुर्यमीष्टे हरिणान्ग्रहीतुम् ॥ १८ -१३॥
भा०-उसका वशी पुत्र मनोहर बोलने के
कारण शत्रुओं को भी अपनों की नाई प्रिय हुआ, कारण
कि मनोहर वचन एकार भयभीत हुए मृगों के भी पकडने में समर्थ होता है । १३ ।।
अहीनगुर्नाम स गां
समग्रामहीनबाहुद्रविणः शशास ।
यो
हीनसंसर्गपराङ्मुखत्वाद्युवाप्यनर्थैर्व्यसनैर्विहीनः ॥ १८ -१४॥
भा०-लम्बीभुजावाला पराक्रमी
हीनसंसर्गरहित होने से युवा होकर भी अनर्थ करनेवाले व्यसनों से हीन हो अहीनगु नाम
उस राजा ने समस्त पृथ्वी पालन की॥१४॥
गुरोः स चानन्तरमन्तरज्ञः पुंसां
पुमानाद्य इवावतीर्णः ।
उपक्रमैरस्खलितैश्चतुर्भिश्चतुर्दिगीशश्चतुरो
बभूव ॥ १८ -१५॥
भा०-मनुष्यों के अन्तर की जाननेवाला
चतुर वह पिता के पीछे अवतार लिये आदिपुरुष विष्णु की समान फलयुक्त चारों उपायों से
चारों दिशाओं का स्वामी हुआ ॥ १५ ॥
तस्मिन्प्रयाते परलोकयात्रां
जेतर्यरीणां तनयं तदीयम् ।
उच्चैःशिरस्त्वाज्जितपारियात्रं
लक्ष्मीः सिषेवे किल पारियात्रम् ॥ १८ -१६॥
भा०-शत्रुओं के जीतनेवाले उसके
परलोक जाने पर ऊंचे शिर के कारण पारियात्र (पर्वत) को तिरस्कार करनेवाले उसके
पुत्र को लक्ष्मी सेवन करती भई ॥ १६ ॥
तस्याभवत्सूनुरुदारशीलः शिलः
शिलापट्टविशालवक्षाः ।
जितारिपक्षोऽपि शिलीमुखैर्यः
शालीनतामव्रजदीड्यमानः ॥ १८ -१७॥
भा०-उसका उदारशील पत्थर की शिला की
समान चौडी छातीवाला शिल नाम पुत्र हुआ जो शिलीमुखों(वाणों) से शत्रुओं को जीत
स्तुति को प्राप्त होकर भी नम्रता को प्राप्त हुआ ॥१७॥
तमात्मसंपन्नमनिन्दितात्मा कृत्वा
युवानं युवराजमेव ।
सुखानि सोऽभुङ्क्त सुखोपरोधि वृत्तं
हि राज्ञामुपरुद्धवृत्तम् ॥ १८ -१८॥
भा०-अनिन्दितस्वभाववाला वह बुद्धि सम्पन्न
युवा उस कुमार को युवराज कर सुख भोगता हुआ कारण कि राजाओं के कार्य कैदियों के
समान सुख रोकनेवाले होते हैं ॥१८॥
तं रागबन्धिष्ववितृप्तमेव भोगेषु
सौभाग्यविशेषभोग्यम् ।
विलासिनीनामरतिक्षमाऽपि जरा वृथा
मत्सरिणी जहार ॥ १८ -१९॥
भा०-राग बांधनेवाले भोगों में विना
तृप्त हुए ही स्त्रियों के अधिक सुन्दरता के विशेष भोगवाले उस राजा को स्त्री व्यवहार
में असमर्थ होकर भी वृथा मत्सर करनेवाली जरा ने हरा दिया ॥ १९ ॥
उन्नाभ
इत्युद्गतनामधेयस्तस्यायथार्थोन्नतनाभिरन्ध्रः ।
सुतोऽभवत्पङ्कजनाभकल्पः कृत्स्नस्य
नाभिर्नृपमण्डलस्य ॥ १८ -२०॥
भा०-उसका उन्नाभ प्रसिद्ध नामवाला
पुत्र उन्नत से विरुद्ध (गहरी) नाभिवाला कमलनाभ की समान सब नृपमण्डल की नाभि हुआ ॥
२० ॥
ततः परं वज्रधरप्रभावस्तदात्मजः
संयति वज्रघोषः ।
बभूव वज्राकरभूषणायाः पतिः पृथिव्याः
किल वज्रणाभः ॥ १८ -२१॥
भा०-इसके उपरान्त इन्द्र की समान
प्रभाववाला, संग्राम में वज्र की समान शब्द वाला,
वज्रनाभ नामवाला उसका वेटा हीरे की खानरूपी आभरणवाली पृथ्वी का पति
हुआ ॥ २१॥
तस्मिन्गते द्यां सुकृतोपलब्धां
तत्संभवं शङ्खणमर्णवान्ता ।
उत्खातशत्रुं वसुधोपतस्थे
रत्नोपहारैरुदितैः खनिभ्यः ॥ १८ -२२॥
भा०-उसके पुण्य से प्राप्त हुए
स्वर्ग के जाने पर शत्रुओं के उखाडनेवाले शंखण नाम उसके पुत्र को सागरपर्यन्त
पृथ्वी खानों से निकले हुए रत्नों की भेंट से सेवन करती हुई ॥ २२॥
तस्यावसाने हरिदश्वधामा पित्र्यं प्रपेदे
पदमश्विरूपः ।
वेलातटेषूषितसैनिकाश्वं पुराविदो यं
व्युषिताश्वमाहुः ॥ १८ -२३॥
भा०--उसके अन्त में सूर्य समान
तेजस्वी,
अश्विनीकुमार की समान रूपवान उसका पुत्र पिता की पदवी को प्राप्त
हुआ, जिस सागर तट पर वास करते हुए वीरों और घोडोंवाले का
वृद्धों ने व्युषिताश्व नाम कहा है ॥ २३ ॥
आराध्य विश्वेश्वरमीश्वरेण तेन
क्षितेर्विश्वसहो विजज्ञे ।
पातुं सहो विश्वसखः समग्रां
विश्वंभरामात्मजमूर्तिरात्मा ॥ १८ -२४॥
भा०-उस पृथ्वीपति ने विश्वेश्वर की
आराधना करके विश्व के प्रिय सम्पूर्ण विश्वम्भरा (पृथ्वी) की रक्षा करने में समर्थ
विश्वसह नामक पुत्ररूप में आप जन्म लिया ॥ २४॥
अंशे हिरण्याक्षरिपोः स जाते
हिरण्यनाभे तनये नयज्ञः ।
द्विषामसह्यः सुतरां तरूणां
हिरण्यरेता इव सानिलोऽभूत् ॥ १८ -२५॥
भा०-नीति का जाननेवाला वह
हिरण्याक्ष के शत्रू विष्णु के अंश से हिरण्यनाभ पुत्र उत्पन्न होने पर वृक्षों को
पवन का संग पाकर अग्नि के समान शत्रुओं को असह्य हुआ ॥२५॥
पिता पितॄणामनृणस्तमन्ते
वयस्यनन्तानि सुखानि लिप्सुः ।
राजानमाजानुविलम्बिबाहुं कृत्वा
कृती वल्कलवान्बभूव ॥ १८ -२६॥
भा०-पितरों से अनृण कृतकृत्य पिता
वृद्धावस्था में अनन्त सुखों की इच्छा करनेवाला जंघापर्यन्त लम्बी वाहोंवाले
हिरण्यनाभ को राजा करके वृक्षों की छाल धारण करनेवाला हुआ ॥२६॥
कौसल्य इत्त्युत्तरकोसलानां पत्युः
पतङ्गान्वयभूषणस्य ।
तस्यौरसः सोमसुतः
सुतोऽभून्नेत्रोत्सवः सोम इव द्वितीयः ॥ १८ -२७॥
भा०-उत्तरकोशल देशों के स्वामी,
सूर्यकुल के भूषण, यज्ञ करनेवाले उस राजा को
दूसरे चन्द्रमा की समान नेत्रों को आनंद देनेवाला कौशल्य नामवाला औरस पुत्र हुआ ॥
२७ ॥
यशोभिराब्रह्मसभं प्रकाशः स
ब्रह्मभूयं गतिमाजगाम ।
ब्रह्मिष्ठमाधाय निजेऽधिकारे
ब्रह्मिष्ठमेव स्वतनुप्रसूतम् ॥ १८ -२८॥
भा०-वह ब्रह्मासभा तक यश से
प्रकाशमान् ब्रह्मज्ञानी ब्रह्मिष्ठ नाम अपने पुत्र को अपने अधिकार पर स्थापित कर
ब्रह्मगति को गया ॥२८॥
तस्मिन्कुलापीडनिभे विपीडं
सम्यङ्महीं शासति शासनाङ्काम् ।
प्रजाश्चिरं सुप्रजसि प्रजेशे
ननन्दुरानन्दजलाविलाक्ष्यः ॥ १८ -२९॥
भा०-कुल के शिरोमणि प्रजावान् उस
प्रजापति से शासन के चिह्नवाली पृथ्वी की रक्षा विघ्नरहित भली प्रकार होने से
प्रसन्नता के आंसू भरे नेत्रवाली प्रजा बहुत काल तक प्रसन्न रही ॥ २९ ॥
पात्रीकृतात्मा गुरुसेवनेन
स्पष्टाकृतिः पत्ररथेन्द्रकेतोः ।
तं पुत्रिणां पुष्करपत्रनेत्रः
पुत्रः समारोपयदग्रसंख्याम् ॥ १८ -३०॥
भा०-पितादिक की सेवा से योग्यता
पाये हुए,
गरुडध्वज की समान रूपवाले, कम ललोचन पुत्र
नामक (पुत्र) ने उसको पुत्रवानों की संख्या में अग्रणी किया ॥३०
वंशस्थितिं वंशकरेण तेन संभाव्य
भावी स सखा मघोनः ।
उपस्पृशन्स्पर्शनिवृत्तलौल्यस्त्रिपुष्करेषु
त्रिदशत्वमाप ॥ १८ -३१॥
भा०-विषयों से निवृत्त तृष्णावाला,
इन्द्र का मित्र होनेवाला वह वंश प्रवृत्त करनेवाले से वंश की
स्थिति जानकर त्रिपुष्करतीर्थ में स्नान कर स्वर्ग को गया ॥ ३१॥
तस्य प्रभानिर्जितपुष्परागं पौष्यां
तिथौ पुष्यमसूत पत्नी ।
तस्मिन्नपुष्यन्नुदिते समग्रां
पुष्टिं जनाः पुष्य इव द्वितीये ॥ १८ -३२॥
भा०-उसकी स्त्री पृस की पौर्णमासी की
तिथि में कान्ति से पझरागमणि के जीतनेवाली पुण्यनाम पुत्र को उत्पन्न करती हुई,
दूसरे पुष्य की समान उसके उदय होने पर प्रजा सब प्रकार पुष्ट हुई ॥
३२॥
महीं महेच्छः परिकीर्य सूनौ मनीषिणे
जैमिनयेऽर्पितात्मा ।
तस्मात्सयोगादधिगम्य
योगमजन्मनेऽकल्पत जन्मभीरुः ॥ १८ -३३॥
भा०-महाशय,
संसार से डरनेवाला, वह पुत्र को पृथ्वी सोंप
विद्वान् जैमिनि का शिष्य हो उस योगी से योग सीख मुक्त हो गया ॥ ३३ ॥
ततः परं तत्प्रभवः प्रपेदे
ध्रुवोपमेयो ध्रुवसंधिरुर्वीम् ।
यस्मिन्नभूज्ज्यायसि सत्यसंधे
संधिर्ध्रुवः संनमतामरीणाम् ॥ १८ -३४॥
भा०-इसके उपरान्त उससे उत्पन्न हुआ
ध्रुव की समान ध्रुवसन्धि नाम पुत्र पृथ्वी को प्राप्त हुआ,
जिस अधिक सत्यवादी में दबे हुए शत्रुओं की संधि ध्रुव (दृढ)हुई ॥ ३४
॥
सुते शिशावेव सुदर्शनाख्ये
दर्शात्ययेन्दुप्रियदर्शने सः ।
मृगायताक्षो मृगयाविहारी
सिंहादवापद्विपदं नृसिंहः ॥ १८ -३५॥
भा०-मृग की समान नेत्रवाले
पुरुषसिंह द्वितीया के चन्द्रमा की समान प्रिया दर्शन सुदर्शन नामक पुत्र की वाल अवस्था
में ही,
उसने मृगया विहार करते सिंह से मृत्यु पाई ॥ ३५॥
स्वर्गामिनस्तस्य
तमैकमत्यादमात्यवर्गः कुलतन्तुमेकम् ।
अनाथदीनाः प्रकृतीरवेक्ष्य
साकेतनाथं विधिवच्चकार ॥ १८ -३६॥
भा०-स्वर्ग में जानेवाले उस राजा के
मंत्री समूह अनाथ होने से दीन प्रजा को देखकर कुल के इकले डोरे उस कुमार को एकमति
कर अयोध्या का स्वामी करते हुए ॥ ३६॥
नवेन्दुना तन्नभसोपमेयं शावैकसिंहेन
च काननेन ।
रघोः कुलं कुड्मलपुष्करेण तोयेन
चाप्रौढनरेन्द्रमासीत् ॥ १८ -३७॥
भा०-बालक राजावाला वह रघु का कुल,
नवीन चन्द्रमावाले आकाश के संग और बालक सिंहपुत्रवाले वन के साथ तथा
कमलकलीवाले जल के साथ उपमा देने योग्य हुआ ॥ ३७॥
लोकेन भावी पितुरेव तुल्यः संभावितो
मौलिपरिग्रहात्सः ।
दृष्टो हि
वृण्वन्कलभप्रमाणोऽप्याशाः पुरोवातमवाप्य मेघः ॥ १८ -३८॥
भा०-उसे किरीट धारण करने से पिता की
तुल्य होनेवाला प्रजा ने जाना, कारण कि हाथी के
बच्चे के समान भी मेघ पूर्व की वायु लगने से दिशाओं को घेरता देखा गया है ॥ ३८॥
तं राजवीथ्यामधिहस्ति
यातमाधोरणालम्बितमग्र्यवेशम् ।
षड्वर्षदेशीयमपि
प्रभुत्वात्प्रैक्षन्त पौराः पितृगौरवेण ॥ १८ -३९॥
भा०-राजमार्ग में हाथी पर स्थित हो
जाते हुए महावत के थामे हुए सुन्दर वेषधारी छः वर्ष के बालक को पुरवासी स्वामी
होने से पिता के गौरव से देखते भये ॥ ३९ ॥
कामं न सोऽकल्पत पैतृकस्य
सिंहासनस्य प्रतिपूरणाय ।
तेजोमहिम्ना पुनरावृतात्मा तद्व्याप
चामीकरपिञ्जरेण ॥ १८ -४०॥
भा०-वह पिता के सिंहासन को पूर्ण
करने योग्य न था, तथापि सुवर्ण की
समान निर्मल तेज के प्रभाव से बढे हुए शरीरवाले ने वह पूर्ण कर दिया ॥४०॥
तस्मादधः
किंचिदिवावतीर्णावसंस्पृशन्तौ तपनीयपीठम् ।
सालक्तकौ भूपतयः
प्रसिद्धैर्ववन्दिरे मौलिभिरस्य पादौ ॥ १८ -४१॥
भा०-उस सिंहासन से कुछेक लटकते हुए
सुवर्ण के पीठ को न छूते हुए, महावर लगे हुए
उसके चरणों को राजाओं ने प्रसिद्ध मुकुटों से वन्दित किया ।। ४१॥
मणौ महानील
इति प्रभावादल्पप्रमाणेऽपि यथा न मिथ्या ।
शब्दो महाराज इति प्रतीतस्तथैव
तस्मिन्युयुजेऽर्भकेऽपि ॥ १८ -४२॥
भा०-थोडे प्रमाणवाली भी मणि में
प्रभाव से महानील यह नाम जैसे मिथ्या नहीं है, इसी
प्रकार इस वालक में प्राप्त हुआ महाराज शब्द योग्य ही था ॥ ४२ ॥
पर्यन्तसंचारितचामरस्य
कपोललोलोभयकाकपक्षात् ।
तस्याननादुच्चरितो विवादश्चचाल
वेलास्वपि नार्णवानाम् ॥ १८ -४३॥
भा०-दोनों ओर दुलते हुए चामरवाले,
कपोलों पर चलायमान अलकोंवाले उसके मुख से निकला हुआ वचन समुद्र के तटों
पर भी वृथा न गया ॥४३॥
निर्वृत्तजाम्बूनदपट्टशोभे न्यस्तं
ललाटे तिलकं दधानः ।
तेनैव शून्यान्यरिसुन्दरीणां मुखानि
स स्मेरमुखश्चकार ॥ १८ -४४॥
भा०-सुवर्ण का पटका बंधे मस्तक में
तिलक लगाये हँसमुखवाले उसने शत्रु नारियों के मुख उस (तिलक) से शून्य किये ॥ ४४ ॥
शिरीषपुष्पाधिकसौकुमार्यः खेदं न
यायादपि भूषणेन ।
नितान्तगुर्वीमपि सोऽनुभावाद्धुरं
धरित्र्या बिभरांबभूव ॥ १८ -४५॥
भा०-शिरस के फूल से भी अधिक कोमल शरीरवाला
यह भूषण से भी खेद को प्राप्त होता था और वही अत्यन्त भारी पृथ्वी के भार को भी
प्रभाव से धारण करता भया ॥ ४५ ॥
न्यस्ताक्षरामक्षरभूमिकायां
कार्त्स्न्येन गृह्णाति लिपिं न यावद् ।
सर्वाणि
तावच्छ्रुतवृद्धयोगात्फलान्युपायुङ्क्त स दण्डनीतेः ॥ १८ -४६॥
भा०-लिखने के स्थल में पट्टी पर
लिखे अक्षरों को जव तक उसने पूर्ण न ग्रहण किया तव तक विद्यावृद्धों की संगति से
वह सम्पूर्ण दंडनीति के फलों से युक्त हो गया ।। ४६ ॥
उरस्यपर्याप्तनिवेशभागा
प्रौढीभविष्यन्तमुदीक्षमाणा ।
संजातलज्जेव
तमालपत्रच्छायाछलेनोपजुगूह लक्ष्मीः ॥ १८ -४७॥
भा०-हृदय पर निवास स्थान न पाई हुई,
युवा होने की आशा करनेवाली लक्ष्मी ने लाजवाली स्त्री की समान उसको
छत्र छाया के व्याज से आलिंगन किया ॥ ४७॥
अनश्नुवानेन
युगोपमानमबद्धमौर्वीकिणलाञ्छनेन ।
अस्पृष्टखड्गत्सरुणापि
चासीद्रक्षावती तस्य भुजेन भूमिः ॥ १८ -४८॥
भा०-जुए की उपमा को न प्राप्त हुई,
प्रत्यञ्चा के चिह्न से रहित, तल्वार की मूठ न
छुई हुई उसकी भुजा से पृथ्वी रक्षावती हुई ॥४८॥
न केवलं गच्छति तस्य काले ययुः
शरीरावयवा विवृद्धिम् ।
वंश्या गुणाः खल्वपि लोककान्ताः
प्रारम्भसूक्ष्माः प्रथिमानमापुः ॥ १८ -४९॥
भा०-समय बीतने पर केवल उसके शरीर के
अंग ही वृद्धि को न प्राप्त हुए, किन्तु वंश के
प्रजा के प्यारे आदि में सूक्ष्म गुण भी पूर्ण हुए ॥ ४९ ॥
स पूर्वजन्मान्तरदृष्टपाराः
स्मरन्निवाक्लेशकरो गुरूणाम् ।
तिस्रस्त्रिवर्गाधिगमस्य मूलं
जग्राह विद्याः प्रकृतीश्च पित्र्याः ॥ १८ -५०॥
भा०-वह प्रथम जन्म में पार देखी हुई
सी स्मृति करता हुआ गुरुजनों की विना क्लेश दिये हुए ही त्रिवर्ग प्राप्ति का मूल
तीनों विद्या और पिता की प्रजा को भी ग्रहण करता भया ॥ ५० ॥
(त्रयी, वार्ता
और दंडनीति यह तीन विद्या हैं तीन वेदों का नाम त्रयी है, वार्ता
खेती व्यापारादि को कहते हैं, दंडनीति न्याय करना और
त्रिवर्ग धर्म अर्थ काम- को कहते हैं)
व्यूह्यः स्थितः
किंचिदिवोत्तरार्धमुन्नद्धचूडोऽञ्चितसव्यजानुः ।
आकर्णमाकृष्टसबाणधन्वा
व्यरोचतास्त्रे स विनीयमानः ॥ १८ -५१॥
भा०-अस्त्रों से शिक्षित अगले आधे
शरीर को कुछ वढाकर स्थित होता हुआ, ऊंचे
जडेवाला, झुकी हुई बाईं जांघवाला, कर्णपर्यन्त
वाण-चढे धनुष को खेंचे हुए वह शोभित हुआ ॥५१॥
अथ मधु वनितानां नेत्रनिर्वेशनीय -
मनसिजतरुपुष्पं रागबन्धप्रवालम् ।
अकृतकविधि सर्वाङ्गीणमाकल्पजातं
विलसितपदमाद्यं यौवनं स प्रपेदे ॥ १८ -५२॥
भा०-इसके उपरान्त उसने स्त्रियों के
नेत्रों का प्रिय मधु, अनुराग के बढाने का
पल्लववाला कामरूपी वृक्ष का फूल, विना ही निर्माण किया हुआ
सब अंगो का भूषण, आनन्द के उत्तम साधन का स्थान यौवन प्राप्त
किया ॥ ५२॥
प्रतिकृतिरचनाभ्यो
दूतिसंदर्शिताभ्यः समधिकतररूपाः शुद्धसंतानकामैः ।
अधिविविदुरमात्यैराहृतास्तस्य यूनः
प्रथमपरिगृहीते श्रीभुवौ राजकन्याः ॥ १८ -५३॥
भा०-दूतियों की दिखाई हुई चित्र रचनाओं
से अधिक रूपवान्, पवित्र सन्तान की
इच्छा करनेवाले मंत्रियों से लाई हुई राजकन्याओं ने उस युवा की पहले ग्रहण की हुई
लक्ष्मी और पृथ्वी वडी सौत की ॥ ५३॥
॥ इति श्रीरघुवंशे महाकाव्ये
कविश्रीकालिदास - कृतौ वंशानुक्रमो नामाष्टदशः सर्गः ॥१८॥
इस प्रकार श्रीमहाकविकालिदास द्वारा
रचित रघुवंश महाकाव्य का सर्ग १८ सम्पूर्ण हुआ॥
रघुवंश
रघुवंशमहाकाव्यम्
अष्टादशः सर्गः
रघुवंश सर्ग १८ कालिदासकृतम्
रघुवंशम् अठारहवां
सर्ग
रघुवंश
महाकाव्य
अष्टादशः
सर्गः
रघुवंश महाकाव्य सर्ग १८ संक्षिप्त
कथासार
अतिथि के वंशज
अतिथि का निषध देश की राजकन्या से
विवाह हुआ । उससे जो पुत्र-रत्न उत्पन्न हुआ, उसका
नाम निषध ही रखा गया । जैसे समय पर अच्छी वृष्टि हो जाने के कारण अन्न की सफल फसल
की आशा से जीवलोक आनन्द -विभोर हो जाता है, वैसे ही बलिष्ठ
उत्तराधिकारी के जन्म के कारण प्रजा के कल्याण की आशा हो जाने से राजा अत्यन्त
प्रबल हो गया । चिरकाल तक राज्य के सुखों का उपभोग करके, अतिथि
ने निषद् को गद्दी पर बिठा दिया और स्वयं अपने श्रेष्ठ कर्मों से प्राप्त किए
स्वर्गलोक को प्रस्थान किया । शतपत्र के समान आंखों वाले, कुश
के पौत्र, वीर निषध ने बहुत काल तक समुद्र-मेखला पृथ्वी पर
निर्विघ्न शासन किया । तत्पश्चात् उसका पुत्र नल सिंहासन पर बैठा। उसने शत्रुओं का
ऐसे मर्दन कर दिया जैसे गज वन के झुरमुटों को मसल देता है । उससे शुद्ध नभ की
भांति नीले रंग वाला पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम नभ रखा
गया । पुत्र के वयस्क होने पर नल ने उत्तर कोसल देश के राज्य का अधिकार उसे दे
दिया और अपने आप संसार के बन्धन से मुक्ति पाने के लिए तपोवन को चला गया । नभ के पुत्र
का नाम पुण्डरीक रखा गया और पुण्डरीक का पुत्र क्षेमधन्वा कहलाया । क्षेमधन्वा के
पुत्र ने अपने शौर्य आदि गुणों के कारण यशस्वी होकर देवताओं की सेना के नेता बनने
की योग्यता प्राप्त कर ली थी । उसके पुत्र का नाम देवानीक था । जैसा वीर पिता था,
वैसा ही वीर पुत्र हुआ । दोनों एक - दूसरे के सर्वथा अनुरूप और एक -
दूसरे के योग्य थे। क्षेमधन्वा भी अपनी कुलप्रथा के अनुसार चारों वर्णों की रक्षा
का भार देवानीक पर डालकर स्वयं मोक्ष के मार्ग पर चला गया । देवानीक के पुत्र का
नाम अहीनगु रखा गया । क्योंकि वह सारी पृथ्वी का एकछत्र राज्य करने वाला था ।
अहीनगु बहुत मधुर प्रकृति का नृप था । शत्रु भी उससे प्रेम करते थे। वह व्यसनियों
से बिल्कुल अलग रहता था, इसीलिए उसे कोई भी व्यसन नहीं छू
गया था । वह अपने पूर्वपुरुष राम की भांति मनुष्यों की प्रकृतियों का विशेषज्ञ और
चतुर शासक था । वह साम, दाम, दण्ड और
भेद इन चारों उपायों का सफल प्रयोग करके चिरकाल तक दिशाओं का शासन करता रहा । अहीनगु
के परलोक चले जाने पर राज्यलक्ष्मी ने, महानता में पारियात्र
पर्वत को जीतनेवाले उसके पारियात्र नाम के पुत्र को वर लिया । पारियात्र का पुत्र
उदारशील बालक था, उसकी शिला के समान विशाल दृढ़ छाती थी । वह
अपने भयंकर बाणों से शत्रुओं का विनाश कर देता था । उसकी शालीनता इतनी बढ़ी हुई थी
कि वह अपनी प्रशंसा सुनकर लज्जित हो जाता था । अत: उसका ‘शिल
नाम गुणों के अनुरूप ही था । पारियात्र ने वयस्क होने पर शिल को युवराज बनाकर सारा
राज - काज उसे सौंप दिया और स्वयं स्वच्छन्द होकर सांसारिक सुखों का उपभोग करने
लगा । विषाय - भोग में अत्यन्त आसक्ति का परिणाम यह हुआ कि रागरंग से पूरी तरह
तृप्त होने से पहले ही पारियात्र की रानी को बुढ़ापे ने घेर लिया। शिल के नाभि नाम
का पुत्र उत्पन्न हुआ । अत्यन्त गम्भीर नाभि होने से उसका नाभि नाम रखा गया था और
उसके पिता की भावना थी कि वह सम्पूर्ण राजमण्डल की नाभि अर्थात् केन्द्र हो । नाभि
के पुत्र का नाम वज्रनाभ रखा गया । वह वज्रधर इन्द्र के समान ओजस्वी हुआ । संग्राम
में वज्र के समान उसकी ललकार गूंजती थी, वह हीरकों की खान,
पृथ्वी का योग्य पात्र था । वज्रनाभ की मृत्यु पर खनिज रत्नों से परिपूर्ण
सागरात्मा पृथ्वी उसके शंखण नाम के पुत्र की सेवा में उपस्थित हो गई। शंखण के पीछे
उसका पुत्र हरिदश्व सिंहासन पर बैठा । हरि के पुत्र का नाम विश्वसह रखा गया । विश्वसह
के हिरण्यनाभ नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ । वृद्धावस्था आने पर पितृऋण से उऋण हुए
विश्वसह ने आजानुबाहु वीर पुत्र हिरण्यनाभ को राज्य का अधिकार दे दिया और स्वयं
वल्कल धारण करके तपोवन में चला गया । हिरण्यनाभ के शान्त प्रकृति वाला और सुन्दर
पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका कौसल्य नाम रखा गया । गुणों द्वारा
सारे ब्रह्मांड में यश फैलाकर कौसल्य ने सिंहासन पर ब्रह्मिष्ठ नाम के पुत्र को
बिठाकर स्वयं ब्रह्मधाम की यात्रा की । कुलशिरोमणि ब्रह्मिष्ठ के उत्तम शासन-काल
में सुखी प्रजाएं आंखों से आनंद के आंसू बरसाती थीं । गुरुओं की सेवा करने वाले,
विष्णु के सदृश तेजस्वी पुत्र नाम के आत्मज को प्राप्त करके राजा
ब्रह्मिष्ठ सन्तान वालों में अत्यन्त आदरणीय बन गया । पुत्र के प्रजा की रक्षा के
योग्य होने पर वंश की स्थिति से निश्चिन्त होकर, वह इन्द्र
का मित्र अपने शुभ कर्मों से स्वर्ग को सिधार गया । पुत्र के यहां पौष पूर्णिमा के
दिन पुष्य नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ । पुष्य के शासन- योग्य होने पर पुत्र महर्षि
जैमिनी का शिष्य बन योग- साधना में निरत होकर मोक्ष का अधिकारी बन गया । पिता के
अकस्मात् मर जाने पर अमात्य लोगों ने प्रजा को अनाथता से बचाने के लिए बालक
सुदर्शन को ही साकेत का स्वामी घोषित कर दिया । लोगों ने उस बालक को भी मुकुट धारण
करने के कारण पिता के समान ही तेजस्वी होने वाला राजा मानकर प्रणाम किया । हाथी के
बच्चे के समान छोटा - सा बादल का टुकड़ा पुरवा हुवा के संयोग से शीघ्र ही दिशाओं
में व्याप्त हो जाता है । वह केवल छह वर्ष का था । उसे हाथी पर आरूढ़ होकर
राजमार्ग पर जाते हुए देखकर प्रजाओं ने उसका ध्रुवसन्धि के सदृश ही आदर किया ।
बालक होने के कारण वह पूरे सिंहासन को नहीं भर सकता था, पर
उसके सुनहरे तेज मण्डल से सिंहासन भरा हुआ प्रतीत होता था । उसके पांव सिंहासन की
पाद- पीठ को नहीं छूते थे, तो भी अन्य नरेशों ने उस रघुवंश
के अंकुर के सामने अपने उन्नत मुकुट झुकाकर प्रणाम किया । नीलमणि छोटा हो तो भी वह
मणि ही कहलाता है । सुदर्शन की आयु कम थी, तो भी उसमें
महाराज पद का प्रयोग उपयुक्त ही प्रतीत होता था । अभी उसके कपोलों पर काक पक्ष झूम
रहे थे,परन्तु उसकी आज्ञाओं का पालन समुद्र की वेलाओं तक
अबाधित रूप से होता था।अभी उसने पूरी तरह अक्षरों का लिखना भी नहीं सीखा था कि
विद्वान् गुरुओं की कृपा से दण्डनीति का सांगोपांग प्रयोग जान गया था । पूर्व-
पुरुषों के प्रताप और उसकी अपनी असाधारण तेजस्विता के कारण तलवार की मूठ पर हाथ
रखे बिना ही उसकी भुजाएं पृथ्वी की रक्षा करती थीं । समय के साथ - साथ केवल
सुदर्शन का शरीर ही नहीं, रघु के वंशजों के योग्य गुण भी
पूर्णता को प्राप्त होते गए । पूर्वजन्म के संस्कारों की सहायता से उसने गुरुओं से
धर्म, अर्थ और काम तीनों के लिए उपयुक्त वार्ता, दण्डनीति और आन्वीक्षिकी, इन तीनों विद्याओं को और
राज्य की प्रजाओं को अनायास ही वश में कर लिया । शरीर भर आया, वह शास्त्र तथा शस्त्रास्त्र-विद्या में प्रवीण हो गया । इस प्रकार उसमें
लक्ष्मी और पृथ्वी दोनों सत्पत्नी भाव रखती हुई भी अनुकूलता से निवास करने लगीं ।
रघुवंश
महाकाव्य अठारहवां सर्ग का संक्षिप्त कथासार सम्पूर्ण हुआ॥ १८ ॥
शेष जारी..............आगे रघुवंशमहाकाव्यम् अंतिम सर्ग
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