आनन्दलहरी

आनन्दलहरी

आनन्दलहरी आद्य शंकराचार्य की कृति कहा जाता है। इसका 'सौंदर्यलहरी' नाम विशेष प्रसिद्ध है। इसमें भगवती भुवनेश्वरी (पार्वती) के स्तुतिरूप में कहे गए 103 श्लोक है। आनंदलहरी के ११ वें श्लोक में श्रीचक्र का वर्णन है। श्री ललिता त्रिपुराम्बा के मंत्र का निर्देश श्लोक ३२ व ३३ में हैं, सौन्दर्य लहरी को दो भागों में विभाजित किया गया है। प्रथम भाग में ४१ श्लोक आनन्द लहरी के नाम से प्रसिद्ध हैं, और उत्तरार्द्धखंड सौन्दर्य लहरी है।

आनन्दलहरी

आनन्द लहरी

सौन्दर्यलहरी

             आनन्दलहरी

शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुं

   न चेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि ।

अतस्त्वामाराध्यां हरिहरविरिञ्चादिभिरपि

   प्रणन्तुं स्तोतुं वा कथमकृतपुण्यः प्रभवति ॥ १॥

टीका-शक्ति से युक्त होकर ही शिव प्रपञ्च की सृष्टि कर सकता है अन्यथा वह हिल भी नहीं सकता। ऐसी दशा में विष्णु, महादेव और ब्रह्मादि तक से पूजित तुझको भला मुझ जैसा पुण्यहीन कैसे स्तुति और नमस्कार से प्रसन्न करे ?

तनीयांसं पांसुं तव चरणपङ्केरुहभवं

   विरिञ्चिस्सञ्चिन्वन् विरचयति लोकानविकलम् ।

वहत्येनं शौरिः कथमपि सहस्रेण शिरसां

   हरस्संक्षुद्यैनं भजति भसितोद्धूलनविधिम् ॥ २॥

टीका-ब्रह्मा ने तुम्हारे चरणकमल के धूलिकणों से ही लोकों की सृष्टि की है। विष्णु इन लोकों को किसी प्रकार अर्थात् अपने सम्पूर्ण सामर्थ्य से अपने हजार शिरों पर रखे हैं। और शिव ने इनको भस्मसात् कर उसकी भस्म से अपने शरीर को धूसरित कर रखा है।

अविद्यानामन्त-स्तिमिर-मिहिरद्वीपनगरी

   जडानां चैतन्य-स्तबक-मकरन्द-स्रुतिझरी ।

दरिद्राणां चिन्तामणिगुणनिका जन्मजलधौ

   निमग्नानां दंष्ट्रा मुररिपु-वराहस्य भवति ॥ ३॥

टीका-तुम अज्ञानियों के अज्ञानरूपी अन्धकार के नाश करनेवाले ज्ञानरूपी सूर्य हो । तुम बुद्धिहीनों की चैतन्यतारूपी मधु, बहानेवाली धारा हो । तुम दरिद्रों की चिन्तामणि की माला की मणि और भवसागर में डूबे हुए मुर राक्षस के शत्रु वराह भगवान् की दंष्ट्रा (दाँत) हो।

त्वदन्यः पाणिभ्यामभयवरदो दैवतगणः

   त्वमेका नैवासि प्रकटितवराभीत्यभिनया ।

भयात् त्रातुं दातुं फलमपि च वाञ्छासमधिकं

   शरण्ये लोकानां तव हि चरणावेव निपुणौ ॥ ४॥

टीका-तेरे सिवा और सभी देवतागण हाथों से रक्षा करते हैं और वर देते हैं। तुम्ही एक प्रकाश्य रूप से अभय और वर देने की चेष्टा दिखानेवाली नहीं हो, कारण हे जीवों की शरणदायिनी, तुम्हारे दोनों चरण ही भय से रक्षा और कामनाओं की अधिक मात्रा में पूर्ति करने में समर्थ हैं।

हरिस्त्वामाराध्य प्रणतजनसौभाग्यजननीं

   पुरा नारी भूत्वा पुररिपुमपि क्षोभमनयत् ।

स्मरोऽपि त्वां नत्वा रतिनयनलेह्येन वपुषा

   मुनीनामप्यन्तः प्रभवति हि मोहाय महताम् ॥ ५॥ 

टीका-शरणागतों को सौभाग्य देनेवाली तुझको पूर्वकाल में हरि ने आराधना से सन्तुष्ट कर स्त्री का रूप धारण कर त्रिपुरनाशक शिव को भी मोहित कर लिया था। स्मर अर्थात् कामदेव भी तुमको नमस्कार कर रति को लुभानेवाले रूप से मुनियों के भी मन को मोह लेता है।

धनुः पौष्पं मौर्वी मधुकरमयी पञ्च विशिखाः

   वसन्तः सामन्तो मलयमरुदायोधनरथः ।

तथाप्येकः सर्वं हिमगिरिसुते कामपि कृपाम्

   अपाङ्गात्ते लब्ध्वा जगदिद-मनङ्गो विजयते ॥ ६॥

टीका-हे हिमालयकन्थे ! भ्रमरों की ताँतवाला पुष्प-धनुष और पाँच कुसुम-शर लिये बसन्त-द्वारा चालित मलयवायु के रथ पर बैठा अशरीरवान् कामदेव तुम्हारे कृपाकटाक्ष के प्रताप से ही इस संसार को विजय करता है।

क्वणत्काञ्चीदामा करिकलभकुम्भस्तननता

   परिक्षीणा मध्ये परिणतशरच्चन्द्रवदना ।

धनुर्बाणान् पाशं सृणिमपि दधाना करतलैः

   पुरस्तादास्तां नः पुरमथितुराहोपुरुषिका ॥ ७॥

टीका-शिव की पुरुषार्थस्वरूपा नन्हीं घण्टिकाओं से भूषित पतली कमरवाली, हाथी के बच्चे के पुष्ट ललाट के समान सुपुष्ट, स्तनवाली और शरद ऋतु के पूर्णचन्द्र-समान कान्तिवाली, हाथों में धनुष, वाण, पाश और अंकुश लिये भगवती हम लोगों के सामने आवे।

सुधासिन्धोर्मध्ये सुरविटपिवाटीपरिवृते

   मणिद्वीपे नीपोपवनवति चिन्तामणिगृहे ।

शिवाकारे मञ्चे परमशिवपर्यङ्कनिलयां

   भजन्ति त्वां धन्याः कतिचन चिदानन्दलहरीम् ॥ ८॥

टीका-थोड़े से ही भाग्यवान् हैं, जो चित और आनन्द की धारारूपिणी, अमृत-सागर के मध्य में मणि द्वीप में अलौकिक वृक्षों के उद्यान से वेष्टित और नीपवृक्षों के उपवन से युक्त चिन्तामणि गृह में परम शिवरूपी पलंग पर (जिसके चार शिव आधारस्वरूप हैं) बैठी हुई तुमको भजते हैं।

महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं

   स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि ।

मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्वा कुलपथं

   सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसि ॥ ९॥  

टीका-(हे देवि ) तुम मूलाधार में पृथ्वी को, स्वाधिष्ठान में अग्नि को, मणिपुर में जल को, हृदय (अनाहत ) में वायु को, इसके ऊपर ( विशुद्धि में ) आकाश को, भ्रूमध्य (आज्ञाचक्र) में मन को-इस प्रकार सम्पूर्ण कुलमार्ग को भेदकर सहस्रार में सूक्ष्मभाव से अपने पति के साथ रमण करती हो।

सुधाधारासारैश्चरणयुगलान्तर्विगलितैः

   प्रपञ्चं सिञ्चन्ती पुनरपि रसाम्नायमहसः ।

अवाप्य स्वां भूमिं भुजगनिभमध्युष्टवलयं

   स्वमात्मानं कृत्वा स्वपिषि कुलकुण्डे कुहरिणि ॥ १०॥

टीका-तब तुम पुनः अपने पदयुगल से बहती अमृतधारा से शरीर को सींचती हुई वलयाकार सर्प के समान अपने वास्तविक रूप को धारण कर अपने मूल निवासस्थान कुल-कुण्ड में सोती हो।

चतुर्भिः श्रीकण्ठैः शिवयुवतिभिः पञ्चभिरपि

   प्रभिन्नाभिः शम्भोर्नवभिरपि मूलप्रकृतिभिः ।

त्रयश्चत्वारिंशद्वसुदलकलाश्रत्रिवलय

   त्रिरेखाभिः सार्धं तव शरणकोणाः परिणताः ॥ ११॥

टीका-चार श्रीकण्ठों (शिव) शम्भु नौ प्रकृति रूप से पाँच युवतियों (शिव) तेरा बासस्थान से बना है। कोणों की संख्य तेंतालिस(४३) है। इसकी तीन वृत्तियाँ, तीन रेखायें और आठ सोलह तथा दल वाले क्रमश: दो कमल (चक्र) हैं।

त्वदीयं सौन्दर्यं तुहिनगिरिकन्ये तुलयितुं

   कवीन्द्राः कल्पन्ते कथमपि विरिञ्चिप्रभृतयः ।

यदालोकौत्सुक्यादमरललना यान्ति मनसा

   तपोभिर्दुष्प्रापामपि गिरिशसायुज्यपदवीम् ॥ १२॥

टीका-हे हिमगिरिसुते ! ब्रह्मादि देव तुम्हारी सुन्दरता का पूर्ण अनुभव न कर पा किसी प्रकार कल्पना कर लेते हैं। देवस्त्रियाँ तुम्हारी अलौकिक सुन्दरता के ध्यान से अज्ञानियों को दुष्प्राप्य शिव-सामरस्यावस्था को प्राप्त करती हैं।

नरं वर्षीयांसं नयनविरसं नर्मसु जडं

   तवापाङ्गालोके पतितमनुधावन्ति शतशः ।

गलद्वेणीबन्धाः कुचकलशविस्रस्तसिचया

   हठात् त्रुट्यत्काञ्च्यो विगलितदुकूला युवतयः ॥ १३॥

टीका-जिनके केश खुले हैं, कुम्भ-सदृश जिनके बड़े-बड़े स्तनों पर से ऊर्ध्ववस्त्र हट गया है और काञ्ची टूट जाने से जिनका अधोवस्त्र गिर गया है, ऐसी सैकड़ों युवतियां उस बूढ़े के पीछे दौड़ती हैं, जिस पर तुम्हारा एक कटाक्ष भी पड़ जाता है यद्यपि आयुवृद्धि-वश वह आँख से रहित और प्रेमरस के अयोग्य हो गया है।

क्षितौ षट्पञ्चाशद् द्विसमधिकपञ्चाशदुदके

   हुताशे द्वाषष्टिश्चतुरधिकपञ्चाशदनिले ।

दिवि द्विष्षट्त्रिंशन्मनसि च चतुष्षष्टिरिति ये

   मयूखास्तेषामप्युपरि तव पादाम्बुजयुगम् ॥ १४॥  

टीका-हे माता ! पृथ्वी की छप्पन, जल की बावन, अग्नि की बासठ, वायु की चौवन, आकाश की बहत्तर और मन की चौंसठ किरणे हैं परन्तु तुम्हारे दोनों पद-कमल इन सबके ऊपर हैं।

शरज्ज्योत्स्नाशुद्धां शशियुतजटाजूटमकुटां

   वरत्रासत्राणस्फटिकघटिकापुस्तककराम् ।

सकृन्न त्वा नत्वा कथमिव सतां संन्निदधते

   मधुक्षीरद्राक्षामधुरिमधुरीणाः भणितयः ॥ १५॥ 

टीका-कविगण यदि शरदऋतु की चाँदनी-जैसी निर्मला, जटाजूट पर चन्द्रवाली, चारों हाथों में वर, अभय, स्फटिकमाला और पुस्तक लिए तुम्हारा अभिवादन और मनन न कर लिया करें तो उनकी रचना मधु, दुग्ध और द्राक्षा (अंगूर) के समान मधुर कैसे हो?

कवीन्द्राणां चेतःकमलवनबालातपरुचिं

   भजन्ते ये सन्तः कतिचिदरुणामेव भवतीम् ।

विरिञ्चिप्रेयस्यास्तरुणतरश्रृङ्गारलहरी-

   गभीराभिर्वाग्भिर्विदधति सतां रञ्जनममी ॥ १६॥

टीका-बड़े-बड़े कवियों के हृदय-कमल को विकसित करती हुई उदयकालिक सूर्य के समान सुन्दर लाल वर्णवाली तुम्हारा जो विद्वान् भजन करते हैं, वे अपने गम्भीर शब्दरूपी सरस्वती की शृङ्गारलहरी से सबके मन प्रसन्न करते हैं।

सवित्रीभिर्वाचां शशिमणिशिलाभङ्गरुचिभिः

   वशिन्याद्याभिस्त्वां सह जननि संचिन्तयति यः ।

स कर्ता काव्यानां भवति महतां भङ्गिरुचिभिः

   वचोभिर्वाग्देवीवदनकमलामोदमधुरैः ॥ १७॥

टीका-हे जननि ! चन्द्रमणि के समान सुन्दर और वाक्शक्ति की देनेवाली वशिनी आदि शक्तियों-सहित तुम्हारा जो सम्यक् चिन्तन करता है, वह सरस्वती के मुख-कमल की सुगन्ध से मधुर वाक्यवाले काव्यों का रचयिता होता है।

तनुच्छायाभिस्ते तरुणतरणिश्रीसरणिभिः

   दिवं सर्वामुर्वीमरुणिमनि मग्नां स्मरति यः ।

भवन्त्यस्य त्रस्यद्वनहरिणशालीननयनाः

   सहोर्वश्या वश्याः कति कति न गीर्वाणगणिकाः ॥ १८॥

टीका-उदयकालीन सूर्य के वर्ण के समान लाल रंग के तुम्हारे पृथ्वी-स्वर्गमय शरीर का जो स्मरण करता है, वह जंगली हरिण के चञ्चल नेत्रवत् चपल नेत्रवाली उर्वशी आदि स्वर्गीय अप्सराओं को भी वश में कर लेता है।

मुखं बिन्दुं कृत्वा कुचयुगमधस्तस्य तदधो

   हरार्धं ध्यायेद्यो हरमहिषि ते मन्मथकलाम् ।

स सद्यः संक्षोभं नयति वनिता इत्यतिलघु

   त्रिलोकीमप्याशु भ्रमयति रवीन्दुस्तनयुगाम् ॥ १९॥

टीका-हे हरमहिषि ! विन्दु से मुख, उसके नीचे स्तनद्वय और हकार के अर्द्ध से निग्न अंग इस प्रकार कल्पना कर जो तुम्हारी काम-कला का चिन्तन करता है, वह तुरन्त स्त्रियों को चंचल कर देता है। परन्तु यह उसके हेतु अति तुच्छ है कारण वह चन्द्र और सूर्यरूप स्तन-युगल वाले त्रिलोकों को भी अपनी इच्छा पर ही विचलित कर सकता है।

किरन्तीमङ्गेभ्यः किरणनिकुरम्बामृतरसं

   हृदि त्वामाधत्ते हिमकरशिलामूर्तिमिव यः ।

स सर्पाणां दर्पं शमयति शकुन्ताधिप इव

   ज्वरप्लुष्टान् दृष्ट्या सुखयति सुधाधारसिरया ॥ २०॥

टीका-अमृतधारारूपी किरणों को फैलाते हुए हिमालय पर्वत के सदृश तुम्हारे रूप का जो हृदय में ध्यान करता है, वह सर्पों का अभिमान गरुड़वत् दूर करता है और अपनी शीतल सुधादृष्टि से ज्वरपीड़ित को सुख देता है।

तटिल्लेखातन्वीं तपनशशिवैश्वानरमयीं

   निषण्णां षण्णामप्युपरि कमलानां तव कलाम् ।

महापद्माटव्यां मृदितमलमायेन मनसा

   महान्तः पश्यन्तो दधति परमाह्लादलहरीम् ॥ २१॥

टीका-विद्युत्-रेखा के सदृश सूक्ष्म रूप से छहों कमलों (चक्रों) के ऊपर बड़े कमलों (सहस्रदल) के वन में स्थित सूर्य, चन्द्र और अग्निमयी तुम्हारी कला को अनायास देखते हुए मायारहित महान् पुरुष सर्वोत्कृष्ट आनन्द-लहरी में अवगाहन करते हैं।

भवानि त्वं दासे मयि वितर दृष्टिं सकरुणा-

   मिति स्तोतुं वाञ्छन् कथयति भवानि त्वमिति यः ।

तदैव त्वं तस्मै दिशसि निजसायुज्यपदवीं

   मुकुन्दब्रह्मेन्द्रस्फुटमकुटनीराजितपदाम् ॥ २२॥ 

टीका-हे भवानि ! तू मुझ दास पर कृपादृष्टि दान कर । तुम्हारे चरणों का नीराजन विष्णु, ब्रह्मा और इन्द्र के तेजोमय मुकुटों से होता है और जो तुझे भवानी कहकर पुकारता है, उसको तुम तत्काल अपने में मिला लेती हो।

त्वया हृत्वा वामं वपुरपरितृप्तेन मनसा

   शरीरार्धं शम्भोरपरमपि शङ्के हृतमभूत् ।

यदेतत्त्वद्रूपं सकलमरुणाभं त्रिनयनं

   कुचाभ्यामानम्रं कुटिलशशिचूडालमकुटम् ॥ २३॥

टीका-ऐसी शंका होती है कि शम्भु के आधे शरीर का हरण करने से सन्तुष्ट न होकर तुमने बचे हुए आधे हिस्से को भी ले लिया है, जिससे तुम्हारा शरीर लाल है, आँखें तीन हैं, कुचयुगल से झुकी हो और टेढ़ा चन्द्र तुम्हारा मुकुट है।

जगत्सूते धाता हरिरवति रुद्रः क्षपयते

   तिरस्कुर्वन्नेतत्स्वमपि वपुरीशस्तिरयति ।

सदापूर्वः सर्वं तदिदमनुगृह्णाति च शिव-

   स्तवाज्ञामालम्ब्य क्षणचलितयोर्भ्रूलतिकयोः ॥ २४॥

टीका-तुम्हारे क्षणकालिक कटाक्षरूपी आशावश ब्रह्मा विश्व की सृष्टि, विष्णु इसका पालन और रुद्र इसका संहार करते हैं। ईश (ईश्वर) हन (क्रियाओं को) को तुच्छ समझकर निश्चल है और सदाशिव सबको अपने में लय कर लेता है।

त्रयाणां देवानां त्रिगुणजनितानां तव शिवे

   भवेत् पूजा पूजा तव चरणयोर्या विरचिता ।

तथा हि त्वत्पादोद्वहनमणिपीठस्य निकटे

   स्थिता ह्येते शश्वन्मुकुलितकरोत्तंसमकुटाः ॥ २५॥

टीका-हे शिवे ! तुम्हारे चरण-युगल की पूजा ही सत्व, रज और तमोगुणों से सृष्ट तीनों देवों की पूजा है। (कारण) ये उच्च मुकुटवाले (देव) हाथ जोड़े तुम्हारे पाँव रखने की मणियों की बनी चौकी के समीप खड़े हैं।

विरिञ्चिः पञ्चत्वं व्रजति हरिराप्नोति विरतिं

   विनाशं कीनाशो भजति धनदो याति निधनम् ।

वितन्द्री माहेन्द्री विततिरपि संमीलितदृशा

   महासंहारेऽस्मिन् विहरति सति त्वत्पतिरसौ ॥ २६॥        

टीका-हे सती ! तुम्हारे पति मात्र महाप्रलय के समय में रहते हैं, जिनके साथ तुम विहार करती हो और सभी ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर आदि मर जाते हैं । निरालस्य आँखोंवाले इन्द्र भी अपनी आँखें बन्द कर लेते हैं अर्थात् मर जाते हैं।

सुधामप्यास्वाद्य प्रतिभयजरामृत्युहरिणीं

   विपद्यन्ते विश्वे विधिशतमखाद्या दिविषदः ।

करालं यत्क्ष्वेलं कबलितवतः कालकलना      

   न शम्भोस्तन्मूलं तव जननि ताटङ्कमहिमा ॥ २७॥

टीका-हे माता! इस संसार में ब्रह्मा और सौ यज्ञ करनेवाले इन्द्र आदि स्वर्ग के रहनेवाले देवगण बुढ़ापे और मरण को हरनेवाली सुधा (अमृत) को पीकर भी मर जाते हैं। परन्तु शिव कालकूट विष पीकर भी नहीं मरे, इसका कारण तुम्हारे कर्णाभूषणों की महिमा है।

जपो जल्पः शिल्पं सकलमपि मुद्राविरचना

   गतिः प्रादक्षिण्यक्रमणमशनाद्याहुतिविधिः ।

प्रणामस्संवेशस्सुखमखिलमात्मार्पणदृशा

   सपर्यापर्यायस्तव भवतु यन्मे विलसितम् ॥ २८॥

टीका-हे माता! मेरे सभी वाक्य जप हों; मेरे हाथों की सभी क्रियायें मुद्रायें हों; मेरे चरणों की सारी गतियाँ प्रदक्षिणा हों; मेरे भोजनादि हवन की आहुतियाँ हों; मेरी नमस्कार-क्रियायें तुममें तादात्म्यखरूप (ऐक्यसूचक) हों; मेरे सभी सुख अखिल आत्मा में समर्पित हों और जो कुछ भी मैं करूँ, सब तुम्हारी पूजा में ही परिगणित हो।

किरीटं वैरिञ्चं परिहर पुरः कैटभभिदः

   कठोरे कोटीरे स्खलसि जहि जम्भारिमुकुटम् ।

प्रणम्रेष्वेतेषु प्रसभमुपयातस्य भवनं 

   भवस्याभ्युत्थाने तव परिजनोक्तिर्विजयते ॥ २९॥

टीका-जब कि ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्र दंडवत् पृथ्वी पर साष्टांग प्रणाम कर रहे हैं, भव अर्थात् शिव के तुम्हारे निकट हठात् आने पर उनके स्वागतार्थ तुम्हारे खड़े होने के समय सखियाँ तुम्हें सचेत करने को इन तीनों की विजय का बखान करती हुई कहती हैं कि ब्रह्मा और जम्भ राक्षस के मारनेवाले इन्द्र के मुकुटों से बचना और देखो कहीं कैटभ के मारनेवाले विष्णु के कठोर मुकुट पर न गिर पड़ो।

स्वदेहोद्भूताभिर्घृणिभिरणिमाद्याभिरभितो

   निषेव्ये नित्ये त्वामहमिति सदा भावयति यः ।

किमाश्चर्यं तस्य त्रिनयनसमृद्धिं तृणयतो

   महासंवर्ताग्निर्विरचयति नीराजनविधिम् ॥ ३०॥

टीका - हे सेवा करने के योग्य वरेण्ये नित्ये! अपने देह से निकलने वाली अणिमादि सिद्धियों रूपी किरणों से घिरा हुआ तेरा भक्त जो त्वां अहम् अर्थात् तुझकों अपना ही रूप मानकर सदा भावना करता है, त्रिनयन की समृद्धि को भी तृणवत् तुच्छ समझने वाले उस साधक की संवर्ताग्नि आरती उतारता है, इसमें क्या आश्चर्य है?

चतुष्षष्ट्या तन्त्रैः सकलमतिसंधाय भुवनं

   स्थितस्तत्तत्सिद्धिप्रसवपरतन्त्रैः पशुपतिः ।

पुनस्त्वन्निर्बन्धादखिलपुरुषार्थैकघटना-

   स्वतन्त्रं ते तन्त्रं क्षितितलमवातीतरदिदम् ॥ ३१॥

टीका-पशुपति वा शिव चौंसठ तन्त्रों का अनुसन्धान अर्थात् मनन कर प्रत्येक तन्त्र से प्रतिपादित तत्तत् सिद्धियाँ प्राप्त कर स्वाधीन हो गये, परन्तु तुम्हारी आज्ञावश वह पृथ्वी पर पुनः पुरुषार्थ-चतुष्टय के एकमात्र प्रतिपादक 'स्वतन्त्र' तन्त्र को ले आये।

शिवः शक्तिः कामः क्षितिरथ रविः शीतकिरणः

   स्मरो हंसः शक्रस्तदनु च परामारहरयः ।

अमी हृल्लेखाभिस्तिसृभिरवसानेषु घटिता

   भजन्ते वर्णास्ते तव जननि नामावयवताम् ॥ ३२॥

टीका-हे माता! प्रत्येक कूट के अन्तःस्थित हृल्लेखा अर्थात् 'ह्रीं के ये वर्ण तुम्हारे नाम और रूप हैं। ये हैं शिव, शक्ति और काम; तब रवि, शीतकिरण, स्मर, हंस और शक्र; तब परा, मार और हरि ।

स्मरं योनिं लक्ष्मीं त्रितयमिदमादौ तव मनो-

   र्निधायैके नित्ये निरवधिमहाभोगरसिकाः ।

भजन्ति त्वां चिन्तामणिगुननिबद्धाक्षवलयाः

   शिवाग्नौ जुह्वन्तः सुरभिघृतधाराहुतिशतैः ॥ ३३॥

टीका-हे नित्ये ! हे अद्वितीये ! मोक्ष और भोग अर्थात् ऐहिक तथा परम सुख के चाहनेवाले जो साधक स्मर, योनि और लक्ष्मीवीजों को तुम्हारे मन्त्र में योजित करके जपते हैं और शिवाग्नि अर्थात् सम्बिदग्नि वा कुण्डली-विमुक्त (मूलाधार-स्थित) स्वयम्भूलिंग में सुगन्धित घृत-धारा की सौ बार आहुति देते हैं, वे शब्दब्रह्म में लय होते हैं अर्थात् जीवन्मुक्त हो जाते हैं।

शरीरं त्वं शम्भोः शशिमिहिरवक्षोरुहयुगं

   तवात्मानं मन्ये भगवति नवात्मानमनघम् ।

अतश्शेषश्शेषीत्ययमुभयसाधारणतया

   स्थितः संबन्धो वां समरसपरानन्दपरयोः ॥ ३४॥

टीका-तुम सूर्य और चन्द्ररूपी स्तनद्वय से युक्त शम्भु की शरीर हो। हे भगवती! तुम निष्पाप अर्थात् निर्विकार हो; इस हेतु तुम्हारी निःशेषता वा सर्वांशता और शेषता वा असम्पूर्णता वा अंशता में परस्पर-सम्बन्ध का युक्तानन्द कैवल्यानन्दरूप से है।

मनस्त्वं व्योम त्वं मरुदसि मरुत्सारथिरसि

   त्वमापस्त्वं भूमिस्त्वयि परिणतायां न हि परम् ।

त्वमेव स्वात्मानं परिणमयितुं विश्ववपुषा

   चिदानन्दाकारं शिवयुवति भावेन बिभृषे ॥ ३५॥

टीका-हे शिवयुवती ! तुम मन, आकाश, वायु की सारथी अर्थात् अग्नि, जल और पृथ्वी हो। इस प्रकार तुम अपने को विश्वरूप में परिणत करती हो। तुमसे पर अर्थात् अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। अपनी लीला से तुम अपने विश्वरूप में चैतन्यता एवं आनन्द का विकाश करती हो।

तवाधारे मूले सह समयया लास्यपरया

   नवात्मानं मन्ये नवरसमहाताण्डवनटम् ।

उभाभ्यामेताभ्यामुदयविधिमुद्दिश्य दयया

   सनाथाभ्यां जज्ञे जनकजननीमज्जगदिदम् ॥ ३६ ॥

टीका-मैं तुम्हारी नृत्य-निपुणा समया शक्ति (सावित्री) के सङ्ग शिवरूप ब्रह्मा की मूलाधार में वन्दना करता हूँ। यह शिव नवरस के प्रकाशक महानृत्य में कुशल हैं। इन दोनों से माता-पितामय यह संसार अपने विभव-सहित उन दोनों के संयुक्त उद्देश्य की संयुक्त सहायता से पूर्त होने के निमित्त तुम्हारी दया से सृष्ट हुआ है।

तव स्वाधिष्ठाने हुतवहमधिष्ठाय निरतं

   तमीडे संवर्तं जननि महतीं तां च समयाम् ।

यदालोके लोकान् दहति महति क्रोधकलिते

   दयार्द्रा या दृष्टिः शिशिरमुपचारं रचयति ॥ ३७ ॥

टीका-हे माता! मैं उनकी (रुद्र की) वन्दना करता हूँ, जो स्वाधिष्ठान (चक्र) सम्वर्तरूपी अग्नि के रूप में सर्वदा रहते हैं। मैं महतीशक्ति समया की भी स्तुति करता हूँ। जब (रुद्र) अपने क्रोधयुक्त नेत्रों की अग्निज्वाला से संसार को दग्ध करते हैं तब तुम्हीं अपनी दयादृष्टि से इसको शीतल करती हो।

तडित्त्वन्तं शक्त्या तिमिरपरिपन्थिस्फुरणया

   स्फुरन्नानारत्नाभरणपरिणद्धेन्द्रधनुषम् ।

तव श्यामं मेघं कमपि मणिपूरैकशरणं

   निषेवे वर्षन्तं हरमिहिरतप्तं त्रिभुवनम् ॥ ३८ ॥

टीका-मणिपुरवासी और कामरूपी सूर्य-द्वारा तप्त तीनों लोकों पर अमृत वर्षा करनेवाले, कृष्ण मेघ के सदृश काले, अकथनीय विष्णु की मैं उनकी शक्ति (नारायणी) सहित भक्ति करता हूँ, जो उनको अपनी अन्धकारनाशक ज्योति से उसी प्रकार विभूषित करती है, जिस प्रकार विद्युल्लता से मेघ शोभित होता है।

समुन्मीलत् संवित् कमलमकरन्दैकरसिकं

   भजे हंसद्वन्द्वं किमपि महतां मानसचरम् ।

यदालापादष्टादशगुणितविद्यापरिणति-

   र्यदादत्ते दोषाद् गुणमखिलमद्भ्यः पय इव ॥ ३९ ॥

टीका-अनाहत कमल में मैं महत्पुरुषों के मनों में फिरनेवाले और विकसित कमल के ज्ञानरूपी पराग के रस को चखनेवाले हं-स: की जोड़ी का भजन करता हूँ। इस मनन से साधक अठारहों विद्याओं का ज्ञाता होता है और नीर-क्षीर-विवेक के सदृश दोष और गुण की पहचान की सामर्थ्य पा जाता है।

विशुद्धौ ते शुद्धस्फटिकविशदं व्योमजनकं

   शिवं सेवे देवीमपि शिवसमानव्यवसिताम् ।

ययोः कान्त्या यान्त्याः शशिकिरणसारूप्यसरणे-

   विधूतान्तर्ध्वान्ता विलसति चकोरीव जगती ॥ ४० ॥

टीका-मैं आकाश-सदृश विशुद्धिचक्र में स्वच्छ स्फटिक पत्थर के समान विशुद्ध शिव और साथ ही उन्हीं के समान कार्यशालिनी देवी को नमस्कार करता हूँ। संसार उनकी कान्ति से अन्धकार वा अज्ञान के दूर हो जाने से चन्द्र की ज्योत्स्ना से आनन्दित चकोरी पक्षी के सदृश आनन्दित होता है।

तवाज्ञाचक्रस्थं तपनशशिकोटिद्युतिधरं

   परं शम्भुं वन्दे परिमिलितपार्श्वं परचिता ।

यमाराध्यन् भक्त्या रविशशिशुचीनामविषये

   निरालोकेऽलोके निवसति हि भालोकभवने ॥ ४१ ॥

टीका-मैं तुम्हारे आज्ञाचक्रस्थित पराचित्शक्ति से युक्त और कोटि चन्द्रमाओं और सूर्यों के सदृश ज्योतिवाले पर-शम्भु की वन्दना करता हूँ। सूर्य, चन्द्र और अग्नि के प्रकाशों से बहुत परे प्रकाशस्थान के रहनेवाले लोग इनकी भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं। प्रकाश के उस स्थान में प्रकाश की आवश्यकता नहीं है।

इति पूज्यपादश्रीमच्छंकराचार्यविरचित आनन्दलहरी सम्पूर्णा॥

॥ ॐ शान्तिः । ॐ जगदम्बार्पणमस्तु ।।

इसी पद्य तक आनन्दलहरी का वर्णन है। इसके बाद के पद्यों में 'आनन्दमयी' की सौन्दर्य-महिमा का वर्णन है, जिससे वे 'सौन्दर्यलहरी' नाम से कहे जाते हैं। कुछ लोग आनन्दलहरी के पद्यों को भी सौन्दर्यलहरी के अन्तर्गत मानकर सम्पूर्ण स्तुति को सौन्दर्यलहरी मानते हैं। युक्त मत कौन सा है, यह पाठक की विवेचना पर निर्भर है।

शेष जारी....आगे पढ़े- सौन्दर्यलहरी

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