recent

Slide show

[people][slideshow]

Ad Code

Responsive Advertisement

JSON Variables

Total Pageviews

Blog Archive

Search This Blog

Fashion

3/Fashion/grid-small

Text Widget

Bonjour & Welcome

Tags

Contact Form






Contact Form

Name

Email *

Message *

Followers

Ticker

6/recent/ticker-posts

Slider

5/random/slider

Labels Cloud

Translate

Lorem Ipsum is simply dummy text of the printing and typesetting industry. Lorem Ipsum has been the industry's.

Pages

कर्मकाण्ड

Popular Posts

बह्वृचोपनिषत्

बह्वृचोपनिषत्

बह्वृचोपनिषत् या बह्वृच उपनिषद्  ऋग् वेद का शाक्त उपनिषद् है। जिसमें बतलाया गया है कि श्रीमहात्रिपुरसुन्दरी जिन्हें की षोडशी श्रीविद्या भी कहा जाता है,इन्ही से ही यह सारी सृष्टि  की उत्पत्ति यहाँ तक की ब्रह्मा, भगवान् विष्णु एवं रुद्र भी उन्हीं जगन्मयी देवी से हुई है।

बह्वृचोपनिषत्

बह्वृचोपनिषत्


॥ शान्तिपाठ ॥


बह्वृचाख्यब्रह्मविद्यामहाखण्डार्थवैभवम् ।

अखण्डानन्दसाम्राज्यं रामचन्द्रपदं भजे ॥


ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता । मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम् ।

आविरावीर्म एधि । वेदस्य म आणीस्थः । श्रुतं मे मा प्रहासीः ।

अनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधामि । ऋतं वदिष्यामि ।

सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम् ।

अवतु वक्तारम् । अवतु वक्तारम् ।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

हे सच्चिदानंद परमात्मन ! मेरी वाणी मन में प्रतिष्ठित हो जाए। मेरा मन मेरी वाणी में प्रतिष्ठित हो जाए। हे प्रकाशस्वरूप परमेश्वर! मेरे सामने आप प्रकट हो जाएँ।

हे मन और वाणी! तुम दोनों मेरे लिए वेद विषयक ज्ञान को लानेवाले बनो। मेरा सुना हुआ ज्ञान कभी मेरा त्याग न करे। मैं अपनी वाणी से सदा ऐसे शब्दों का उच्चारण करूंगा, जो सर्वथा उत्तम हों तथा सर्वदा सत्य ही बोलूँगा। वह ब्रह्म मेरी रक्षा करे, मेरे आचार्य की रक्षा करे।

भगवान शांति स्वरुप हैं अत: वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें।


॥ अथ बह्वृचोपनिषत्॥


देवी ह्येकाग्र एवासीत् । सैव जगदण्डमसृजत् ।

कामकलेति विज्ञायते । श्रृंगारकलेति विज्ञायते ॥ १॥  

सृष्टि रचना के पहले एक मात्र देवी ही विद्यमान थीं। उन्हीं के द्वारा ब्रह्माण्ड की सृष्टि-संरचना सम्पन्न हुई। वे देवी कामकला और श्रृंगारकला के नाम से प्रख्यात हैं॥१॥


तस्या एव ब्रह्मा अजीजनत् । विष्णुरजीजनत् ।

रुद्रोऽजीजनत् । सर्वे मरुद्गणा अजीजनत् ।

गन्धर्वाप्सरसः किन्नरा वादित्रवादिनः समन्तादजीजनत् ।

भोग्यमजीजनत्। सर्वमजीजनत् । सर्वं शाक्तमजीजनत् ।

अण्डजं स्वेदजमुद्भिज्जं जरायुजम् यत्किंचैतत् प्राणि

स्थावरजंगमं मनुष्यमजीजनत् ॥ २॥

उन देवी के द्वारा ही ब्रह्मा, भगवान् विष्णु एवं रुद्र प्रकट हुए। उन्हीं से सभी मरुद्गण तथा  गायन करने वाले गन्धर्व, नर्तन करने वाली अप्सराएँ एवं वाद्ययन्त्रों को झंकृत करने वाले किन्नर प्रकट हुए। उन्हीं से उपभोग सामग्री भी उत्पन्न हुई, सभी कुछ उन्हीं के द्वारा प्रादुर्भूत हुआ है। अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज एवं जरायुज आदि जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी हैं, उनकी एवं मनुष्य की सृष्टि भी उन्हीं जगन्मयी देवी से हुई है॥२॥


सैषा परा शक्तिः । सैषा शांभवीविद्या

कादिविद्येति वा हादिविद्येति वा सादिविद्येति वा ।

रहस्यमोमों वाचि प्रतिष्ठा ॥ ३॥

वे (देवी) ही अपरा शक्ति कहलाती हैं। वे ही शाम्भवीविद्या, कादिविद्या, हादिविद्या एवं सादिविद्या कहलाती हैं। वे (देवी) रहस्यमयी हैं। वे ही प्रणववाची अक्षर तत्त्वरूपा हैं। ॐ अर्थात् सत्चित् आनन्दमयी वे देवी समस्त प्राणियों की वागिन्द्रिय में अवस्थित हैं॥३॥


सैव पुरत्रयं शरीरत्रयं व्याप्य बहिरन्तरवभासयन्ती

देशकालवस्त्वन्तरसंगान्महात्रिपुरसुन्दरी वै प्रत्यक्चितिः ॥ ४॥

वे (देवी) ही इन तीनों (जाग्रत्, स्वप्न एवं सुषुप्ति) पुरों और इन तीनों प्रकार के (स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण) शरीरों को विस्तीर्ण करके बाह एवं अन्तः में आलोक फैला रही हैं। वे महात्रिपुर सुन्दरी प्रत्यक् चेतना के रूप में देश, काल एवं पात्र के अन्दर संगरहित होकर निवास करती हैं॥४॥


सैवात्मा ततोऽन्यमसत्यमनात्मा । अत एषा

ब्रह्मासंवित्तिर्भावभावकलाविनिर्मुक्ता

चिद्विद्याऽद्वितीयब्रह्मसंवित्तिः सच्चिदानन्दलहरी

महात्रिपुरसुन्दरी बहिरन्तरनुप्रविश्य स्वयमेकैव विभाति ।

यदस्ति सन्मात्रम् । यद्विभाति चिन्मात्रम् ।

यत्प्रियमानन्दं तदेतत् पूर्वाकारा महात्रिपुरसुन्दरी ।

त्वं चाहं च सर्वं विश्वं सर्वदेवता इतरत्

सर्वं महात्रिपुरसुन्दरी । सत्यमेकं ललिताख्यं वस्तु

तदद्वितीयमखण्डार्थं परं ब्रह्म ॥ ५॥

वे (देवी) ही आत्मस्वरूपा हैं, उनके अतिरिक्त और सभी कुछ सत्यरहित, आत्मविहीन है। ये ब्रह्मविद्या रूपा हैं, भाव एवं अभाव आदि कला से विनिर्मुक्त चिन्मयीरूपा विद्या शक्ति हैं तथा वे ही अद्वितीय ब्रह्म का साक्षात्कार कराने वाली हैं। वे सच्चिदानन्दरूपी लहरों (तरंग) वाली श्रीमहात्रिपुरसुन्दरी बाह्य एवं अन्त: में प्रविष्ट होकर स्वयमेव अकेली ही सुशोभित हो रही हैं। (उन देवी के अस्ति, भाति एवं प्रिय इन तीनों रूपों में) जो अस्ति है-वह सन्मात्र का बोध कराने वाला है, जो भाति है-वह चिन्मात्र का बोध कराने वाला है तथा जो प्रिय (आत्मीय) है- वही आनन्दमय है। इस तरह से समस्त आकारों में श्रीमहात्रिपुरसुन्दरी ही विद्यमान हैं। तुम और मैं, यह सारा जगत् एवं समस्त देवगण और अन्य सभी कुछ श्रीमहात्रिपुरसुन्दरी ही हैं। 'ललिता' नामक एक मात्र वस्तु (शक्ति) ही शाश्वत सत्य है। वही अद्वितीय, अखण्ड, अविनाशी परमात्म तत्त्व है॥५॥


पञ्चरूपपरित्यागा दर्वरूपप्रहाणतः ।

अधिष्ठानं परं तत्त्वमेकं सच्छिष्यते महत् ॥ इति ॥ ६॥

(उन देवी के) पाँचों रूप अर्थात् अस्ति, भाति, प्रिय, नाम तथा रूप के परित्याग कर देने से एवं अपने स्वरूप के त्याग न करने से अधिष्ठान स्वरूप जो एक सत्ता शेष रह जाती है, वही परम अविनाशी तत्त्व है॥६॥


प्रज्ञानं ब्रह्मेति वा अहं ब्रह्मास्मीति वा भाष्यते ।

तत्त्वमसीत्येव संभाष्यते ।

अयमात्मा ब्रह्मेति वा ब्रह्मैवाहमस्मीति वा ॥ ७॥

उसी परमात्म तत्त्व को 'प्रज्ञान ब्रह्म' है या 'मैं ब्रह्म हूँ', 'वह तू है"यह आत्मा ब्रह्म है' या 'मैं ही ब्रह्म हूँ' या 'ब्रह्म ही मैं हूँ' आदि वाक्यों से अभिव्यक्त किया जाता है॥७॥


योऽहमस्मीति वा सोहमस्मीति वा योऽसौ सोऽहमस्मीति वा

या भाव्यते सैषा षोडशी श्रीविद्या पञ्चदशाक्षरी

श्रीमहात्रिपुरसुन्दरी बालांबिकेति बगलेति वा मातंगीति

स्वयंवरकल्याणीति भुवनेश्वरीति चामुण्डेति चण्डेति

वाराहीति तिरस्करिणीति राजमातंगीति वा शुकश्यामलेति वा

लघुश्यामलेति वा अश्वारूढेति वा प्रत्यंगिरा धूमावती

सावित्री गायत्री सरस्वती ब्रह्मानन्दकलेति ॥ ८॥

'जो मैं हूँ, "वह मैं हूँ, जो वह है, "सो भी मैं हूँ' इत्यादि श्रुति वचनों के द्वारा जिनका निरूपण होता है, वे ही यही षोडशी श्रीविद्या हैं। वही पञ्चदशाक्षर मंत्र से युक्त श्रीमहात्रिपुरसुन्दरी, बाला, अम्बिका, बगला, मातङ्गी, स्वयंवर-कल्याणी, भुवनेश्वरी, चामुण्डा, चण्डा, वाराही, तिरस्करिणी, राजमातङ्गी, शुकश्यामला, लघुश्यामला, अश्वारूढ़ा, प्रत्यङ्गिरा, धूमावती, सावित्री, सरस्वती, गायत्री, ब्रह्मानन्दकला आदि नामों के द्वारा जानी जाती हैं॥८॥


ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् । यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः ।

यस्तन्न वेद किं ऋचा करिष्यति।

य इत्तद्विदुस्त इमे समासते।

इत्युपनिषत्  ॥ ९॥

ऋचाएँ, अक्षर-अविनाशी परमाकाश में स्थित रहती हैं, उसी में समस्त देवगण सम्यक् रूप से निवास करते हैं। उस (श्रेष्ठ-शाश्वत ज्ञान) को जानने का प्रयास जिसने नहीं किया, ऐसा वह (मनुष्य) ऋचाओं के पठनमात्र से क्या प्राप्त कर सकता है? जो पुरुष उस परम आकाश को पूर्ण दृढनिश्चयी होकर जान लेते हैं, वे ही पुरुष उस परमाकाश में हमेशा के लिए प्रतिष्ठित हो जाते हैं। इस प्रकार यह उपनिषद् पूर्ण हुई॥९॥


बह्वृचोपनिषत्


॥ शान्तिपाठ ॥


ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता । मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम् ।

आविरावीर्म एधि । वेदस्य म आणीस्थः । श्रुतं मे मा प्रहासीः ।

अनेनाधीतेनाहोरात्रान् संदधामि । ऋतं वदिष्यामि ।

सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम् ।

अवतु वक्तारम् । अवतु वक्तारम् ।

हे सच्चिदानंद परमात्मन ! मेरी वाणी मन में प्रतिष्ठित हो जाए। मेरा मन मेरी वाणी में प्रतिष्ठित हो जाए। हे प्रकाशस्वरूप परमेश्वर! मेरे सामने आप प्रकट हो जाएँ।

हे मन और वाणी! तुम दोनों मेरे लिए वेद विषयक ज्ञान को लानेवाले बनो। मेरा सुना हआ ज्ञान कभी मेरा त्याग न करे। मैं अपनी वाणी से सदा ऐसे शब्दों का उच्चारण करूंगा, जो सर्वथा उत्तम हों तथा सर्वदा सत्य ही बोलूँगा। वह ब्रह्म मेरी रक्षा करे, मेरे आचार्य की रक्षा करे।

॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

भगवान् शांति स्वरुप हैं अत: वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें।

॥ इति  बह्वृचोपनिषत् 

No comments:

vehicles

[cars][stack]

business

[business][grids]

health

[health][btop]