सप्तश्लोकी व अष्टादश श्लोकी गीता
सप्तश्लोकी व अष्टादश श्लोकी गीता
सप्तश्लोकी गीता
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म
व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां
गतिम् ॥१॥
'ओम्' इस एक
अक्षररूप ब्रह्म के नाम का उच्चारण करता हुआ और ओङ्कार के अर्थस्वरूप मुझको स्मरण
करता हुआ, जो मनुष्य शरीर को छोड़ता (मरता) है, वह परम गति को प्राप्त हो जाता है॥१॥
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या
जगत्प्रहष्यत्यनुरज्यते च ।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति
सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः ॥२॥
हे हृषीकेश ! आपके गुणों के कीर्तन से
जो जगत् प्रसन्न और प्रेमान्वित हो रहा है, यह
उचित ही है, ये राक्षसलोग भयभीत होकर सब दिशाओं में भाग रहे
हैं और सब सिद्धगण आपको नमस्कार कर रहे हैं यह भी युक्त ही है॥२॥
सर्वतःपाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्
।
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य
तिष्ठति ॥ ३ ॥
'वह' सब ओर
रहनेवाले हाथों और चरणों से युक्त है तथा सब ओर रहनेवाले आँखों, सिरों और मुखों से युक्त है एवं सब ओर व्यापकरूप से रहनेवाली
श्रवणेन्द्रियों से भी युक्त है और समस्त जगत्को व्याप्त कर स्थित है॥३॥
कविं
पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्य
धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ॥४॥
जो सर्वज्ञ है और सबसे प्राचीन,
जगत्का शासन करनेवाला सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, सबका धाता (सब प्राणियों को कर्मानुसार पृथक्-पृथक् फल देनेवाला) है,
जिसके रूप का चिन्तन अशक्य है, जो सूर्य
के समान प्रकाशमय वर्णवाला है और जो अज्ञान से अतीत है, उसको
जो स्मरण करता है [वह उस परमपुरुष को प्राप्त होता है] ॥४॥
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहरव्ययम्
।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स
वेदवित् ॥५॥
जिसका ऊर्ध्व (ब्रह्म* (*काल से भी सूक्ष्म, जगत्का कारण नित्य और महान् होने से ब्रह्म को ही
ऊर्ध्व कहा गया है।) )
ही मूल है और नीचे शाखाएँ (अहङ्कार*
(* महत् अहङ्कार, तन्मात्रा आदि इसके शाखा के समान नीचे होने
से शाखा है।) तन्मात्रा आदि रूपवाली) हैं,
ऐसे इस संसाररूप अश्वस्थवृक्ष को अव्यय*
(* संसारवृक्ष अनादिकाल से चला आता है
इससे अव्यय है।) (अविनाशी) कहते हैं, ऋक्, यजु और सामवेद जिसके पत्र* (* वेदों से
इस वृक्ष की रक्षा है अतः इन (वेदों) को पत्ररूप से कहा गया ।) हैं;
जो संसार-वृक्ष को इस रूप से जानता है, वह
वेदों के अर्थो का जाननेवाला है ॥ ५॥
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव
चाहम् ॥६॥
मैं सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मा
होकर उनके हृदयों में प्रविष्ट हूँ, उनके
स्मृति, ज्ञान और इन दोनों का लोप भी मुझसे ही हुआ करते हैं,
सम्पूर्ण वेदों से मैं ही जाननेयोग्य हूँ और वेदान्त का कर्ता तथा
वेदार्थ को जाननेवाला भी मैं ही हूँ॥६॥
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां
नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि
युक्त्वैवमात्मानंमत्परायणः ॥७॥
तू मेरे में ही मन लगानेवाला,
मेरा ही भक्त, मेरी ही पूजा करनेवाला हो और
मुझको ही नमस्कार कर । इस प्रकार चित्त को मुझमें युक्त कर मत्परायण हुआ मुझे ही
प्राप्त करेगा ॥७॥
अष्टादश श्लोकी गीता
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता
युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत
सञ्जय ।।१.१।।
इसका भावार्थ श्रीमद्भगवद्गीता के
अध्याय-१ के श्लोक १ में देखें ।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु
कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते
सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।२.४७।।
इसका भावार्थ श्रीमद्भगवद्गीता के
अध्याय-२ के श्लोक ४७ में देखें ।
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता
जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि
संपश्यन्कर्तुमर्हसि ।।३.२०।।
इसका भावार्थ श्रीमद्भगवद्गीता के
अध्याय-३ के श्लोक २० में देखें ।
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि
मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः
पूर्वतरं कृतम् ।।४.१५।।
इसका भावार्थ श्रीमद्भगवद्गीता के
अध्याय-४ के श्लोक १५ में देखें ।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं
त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन
पद्मपत्रमिवाम्भसा ।।५.१०।।
इसका भावार्थ श्रीमद्भगवद्गीता के
अध्याय-५ के श्लोक १० में देखें ।
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति
योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं सः योगी परमो
मतः।।६.३२।।
इसका भावार्थ श्रीमद्भगवद्गीता के
अध्याय-६ के श्लोक ३२ में देखें ।
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति
धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा
इव ।।७.७।।
इसका भावार्थ श्रीमद्भगवद्गीता के
अध्याय-७ के श्लोक ७ में देखें ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर
युध्य च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्
।।८.७।।
इसका भावार्थ श्रीमद्भगवद्गीता के
अध्याय-८ के श्लोक ७ में देखें ।
मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते
सचराचरम् ।
हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते
।।९.१०।।
इसका भावार्थ श्रीमद्भगवद्गीता के
अध्याय-९ के श्लोक १० में देखें ।
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो
मनवस्तथा ।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः
प्रजाः।।१०.६।।
इसका भावार्थ श्रीमद्भगवद्गीता के
अध्याय-१० के श्लोक ६ में देखें ।
दिवि सूर्यसहस्रस्य
भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य
महात्मनः।।११.१२।।
इसका भावार्थ श्रीमद्भगवद्गीता के
अध्याय-११ के श्लोक १२ में देखें ।
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र
समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते
रताः।।१२.४।।
इसका भावार्थ श्रीमद्भगवद्गीता के
अध्याय-१२ के श्लोक ४ में देखें ।
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं
चान्तिके च तत् ॥१३.१५॥
इसका भावार्थ श्रीमद्भगवद्गीता के
अध्याय-१३ के श्लोक १५में देखें ।
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं
निर्मलं फलम् ।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ।।१४.१६।।
इसका भावार्थ श्रीमद्भगवद्गीता के
अध्याय-१४ के श्लोक १६ में देखें ।
शरीरं यदवाप्नोति
यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति
वायुर्गन्धानिवाशयात् ।।१५.८।।
इसका भावार्थ श्रीमद्भगवद्गीता के
अध्याय-१५ के श्लोक ८ में देखें ।
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी
मता ।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि
पाण्डव ।।१६.५।।
इसका भावार्थ श्रीमद्भगवद्गीता के
अध्याय-१६ के श्लोक ५ में देखें ।
सद्भावे साधुभावे च
सदित्येतत्प्रयुज्यते ।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ
युज्यते ।।१७.२६।।
इसका भावार्थ श्रीमद्भगवद्गीता के
अध्याय-१७ के श्लोक २६ में देखें ।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो
धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा
नीतिर्मतिर्मम ।।१८.७८।।
इसका भावार्थ श्रीमद्भगवद्गीता के
अध्याय-१८ के श्लोक ७८ में देखें ।
श्रीमद्भगवदीतायां अष्टादश श्लोकी
भगवत गीता समाप्त ।
इति: सप्तश्लोकी व अष्टादश श्लोकी
गीता समाप्त ।
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