सप्तश्लोकी व अष्टादश श्लोकी गीता

सप्तश्लोकी व अष्टादश श्लोकी गीता

भगवद् गीता में १८ अध्याय है जिसका एक-एक श्लोक महत्वपूर्ण मंत्र है जिसका विशेष कामनाओं के लिए जप किया जा सकता है। यहाँ प्रत्येक अध्याय से १-१ श्लोक लेकर अष्टादश श्लोकी गीता दिया जा रहा है। सम्पूर्ण भगवद् गीता को ही नित्य पढ़ना व सुनना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण ने खुद अर्जुन को इस ब्रह्माविद्या का ज्ञान दिया है। मुक्ति के लिए गीता जी का सोलहवां और अठहरवां अध्याय सुनाने के लिए कहा जाता है। इस अध्याय में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को मोक्ष प्राप्त करने के मार्ग के बारे में बताया है। इसके अलावा मरते हुए व्यक्ति को ८ वां अध्याय सुनाना चाहिए क्योंकि इसमें आत्मा को सद्गति कैसे मिलेगी, इसके बारे में बताया गया है। मरते वक्त व्यक्ति जो सोचता है, उसकी आत्मा को वैसी ही सद्गति प्राप्त होती है। इस अध्याय में आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध के बारे में बात की गयी है और इस अध्याय को सुनने के बाद व्यक्ति को मरते समय परमात्मा को ठीक से याद करने का मौक़ा मिल जाता है। पाठकों के लाभार्थ यहाँ सप्तश्लोकी गीता व अष्टादश श्लोकी गीता दिया जा रहा है। यहाँ केवल अष्टादश श्लोकी गीता दिया जा रहा है आगे सप्तश्लोकी दिया जाएगा।

सप्तश्लोकी व अष्टादश श्लोकी गीता

सप्तश्लोकी व अष्टादश श्लोकी गीता

Sapta shloki & Ashtadash shloki geeta

सप्तश्लोकी व अष्टादशश्लोकी गीता

सप्तश्लोकी व अष्टादश श्लोकी गीता

अष्टादश श्लोकी गीता

भूमिका- कुरुक्षेत्र पवित्र भूमि थी। शतपथ ब्राह्मण में इसका वर्णन 'कुरुक्षेत्र देव यजनम्' के रूप में किया गया है अर्थात 'कुरुक्षेत्र स्वर्ग की देवताओं की तपोभूमि है।' इसलिए इस भूमि पर धर्म फलीभूत होता है। धृतराष्ट्र आशंकित था कि कुरुक्षेत्र की पावन धर्म भूमि के प्रभाव के परिणामस्वरूप उसके पुत्रों में कहीं उचित और अनुचित में भेद करने का ऐसा विवेक जागृत न हो जाए कि वे यह सोचने लगें कि अपने स्वजन पाण्डवों का संहार करना अनुचित और धर्म विरूद्ध होगा और कहीं ऐसा विचार कर वे शांति के लिए समझौता करने को तैयार न हो जाएं। इस प्रकार की संभावित आशंकाओं के कारण धृतराष्ट्र के मन में अत्यंत निराशा उत्पन्न हुई। वह सोचने लगा कि यदि उसके पुत्रों ने युद्ध विराम या संधि का प्रस्ताव स्वीकार किया तो पाण्डव निरन्तर उनकी उन्नति के मार्ग में बाधा उत्पन्न करेंगे। साथ ही साथ वह युद्ध के परिणामों के प्रति भी संदिग्ध था और अपने पुत्रों के उज्ज्वल भविष्य के प्रति सुनिश्चित होना चाहता था। इसलिए उसने संजय से कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में हो रही गतिविधियों के संबंध में पूछा। जहाँ दोनों पक्षों की सेनाएं एकत्रित हुई थीं।

अष्टादश श्लोकी गीता

अपने व पराये में भेद

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ।।१.१।।

शब्दार्थ- धृतराष्ट्रः उवाच= धृतराष्ट्र ने कहा; धर्म-क्षेत्र=  धर्मभूमिः कुरू-क्षेत्र= कुरुक्षेत्र, समवेता= एकत्रित होने के पश्चात; युयुत्सवः=  युद्ध करने को इच्छुक; मामकाः= मेरे पुत्रों; पाण्डवाः= पाण्डु के पुत्रों ने; च=  तथा; एव= निश्चय ही; किम्= क्या; अकुर्वत= उन्होंने किया; संजय= हे संजय।

भावार्थ- धृतराष्ट्र ने कहाः हे संजय! कुरुक्षेत्र की पवित्र भूमि पर युद्ध करने की इच्छा से एकत्रित होने के पश्चात, मेरे और पाण्डु पुत्रों ने क्या किया?

कर्म को धर्म समझकर करने की शिक्षा

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।२.४७।।

शब्दार्थ: कर्मणि=निर्धारित कर्मः एव= केवल; अधिकारः=अधिकार; ते= तुम्हारा; मा=नहीं; फलेषु= कर्मफल मे; कदाचन=किसी भी समय; मा= कभी नहीं; कर्म-फल=कर्म के परिणामस्वरूप फल; हेतुः=कारण; भू:=होना; मा=नहीं; ते= तुम्हारी; सङ्गः=आसक्ति; अस्तु=हो; अकर्मणि=अकर्मा रहने में।

भावार्थ: तुम्हें अपने निश्चित कर्मों का पालन करने का अधिकार है लेकिन तुम अपने कर्मों का फल प्राप्त करने के अधिकारी नहीं हो, तुम स्वयं को अपने कर्मों के फलों का कारण मत मानो और न ही अकर्मा रहने में आसक्ति रखो।

कर्त्तव्यों का पालन

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।

लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ।।३.२०।।

शब्दार्थ: कर्मणा=निर्धारित कर्त्तव्यों का पालन करना; एव=केवल; हि=निश्चय ही; संसिद्धिम्= पूर्णता; आस्थिताः=प्राप्त करना; जनक-आदयः=राजा जनक तथा अन्य राजा; लोक-संङ्ग्रहम्= सामान्य लोगों के कल्याण के लिए; एव अपि= केवल; सम्पश्यत्=विचार करते हुए; कर्तुम्= निष्पादन करना; अर्हसि=तुम्हें चाहिए।

भावार्थ: राजा जनक और अन्य महापुरुषों ने अपने नियत कर्मों का पालन करते हुए सिद्धि प्राप्त की थी इसलिए तुम्हें भी अपने कर्तव्यों का निर्वाहन करते हुए समाज के कल्याण के लिए अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए।

कर्तव्य का पालन

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।

कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ।।४.१५।।

शब्दार्थ:  एवम्= इस प्रकार; ज्ञात्वा=जानकर; कृतम्=सम्पादन करना; कर्म=कर्म; पूर्वेः= प्राचीन काल का; अपि= वास्तव में; मुमक्षुभिः= मोक्ष का इच्छुक; कुरु=करना चाहिए; कर्म=कर्त्तव्य; एव=निश्चय ही; तस्मात्=अतः; त्वम्=तुम; पूर्वेः=प्राचीनकाल की मुक्त आत्माओं का; पूर्वतरम्=प्राचीन काल में; कृतम्=सम्पन्न किए।

भावार्थ: इस सत्य को जानकर प्राचीन काल में मुक्ति की अभिलाषा करने वाली आत्माओं ने भी कर्म किए इसलिए तुम्हे भी उन मनीषियों के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।

आसक्ति रहित कर्म

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।।५.१०।।

शब्दार्थ: ब्रह्मण=भगवान् को; आधाय=समर्पित; कर्माणि= समस्त कार्यों को; सङ्गगम्=-आसक्ति; त्यक्त्वा= त्यागकर; करोति=करना यः=जो; लिप्यते=प्रभावित होता है; न कभी नहीं; स:=वह; पापेन=पाप से; पद्म-पत्रम्=कमल पत्र; इव=के समान; अम्भसा=जल द्वारा।

भावार्थ: वे जो अपने कर्मफल भगवान को समर्पित कर सभी प्रकार से आसक्ति रहित होकर कर्म करते हैं, वे पापकर्म से उसी प्रकार से अछूते रहते हैं जिस प्रकार से कमल के पत्ते को जल स्पर्श नहीं कर पाता।

समदर्शन

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।

सुखं वा यदि वा दुःखं सः योगी परमो मतः।।६.३२।।

शब्दार्थ: आत्म-औपम्येन=अपने समान; सर्वत्र= सभी जगह; समम्=समान रूप से; पश्यति=देखता है; यः=जो; अर्जुन=अर्जुनः सुखम्=आनन्द; वा=अथवा; यदि= यदि; वा=अथवा; दुःखम्=दुख; सः=ऐसा; योगी=योगी; परमः=परम सिद्ध; मत:=माना जाता है।

भावार्थ: मैं उन पूर्ण सिद्ध योगियों का सम्मान करता हूँ जो सभी जीवों में वास्तविक समानता के दर्शन करते हैं और दूसरों के सुखों और दुखों के प्रति ऐसी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं, जैसे कि वे उनके अपने हों।

अंतिम परम सत्य

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।

मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।।७.७।।

शब्दार्थ: मत्तः=मुझसे; पर-तरम्=श्रेष्ठ; न=नहीं; अन्यत्-किञ्चित्=अन्य कुछ भी; अस्ति=है; धनञ्जय=धन और वैभव का स्वामी, अर्जुन,; मयि=मुझमें; सर्वम्=सब कुछ; इदम्= जो हम देखते हैं; प्रोतम्=गुंथा हुआ; सूत्रे=धागे में; मणि-गणा:=मोतियों के मनके; इव=समान।

भावार्थ:  हे अर्जुन! मुझसे श्रेष्ठ कोई नहीं है। सब कुछ मुझ पर उसी प्रकार से आश्रित है, जिस प्रकार से धागे में गुंथे मोती।

कर्मयोग

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ।।८.७।।

शब्दार्थ: तस्मात्= इसलिए; सर्वेषु=सब में; कालेषु=कालों में; माम्=मुझको; अनुस्मर=स्मरण करना; युध्य= युद्ध करना; च=भी; मयि=मुझमें; अर्पित=समर्पित; मनः=मन, बुद्धि:=बुद्धि; माम्=मुझको; एव=निश्चय ही; एष्यसि=प्राप्त करोगे; असंशयः=सन्देह रहित।

भावार्थ:  इसलिए सदा मेरा स्मरण करो और युद्ध लड़ने के अपने कर्त्तव्य का भी पालन करो, अपना मन और बुद्धि मुझे समर्पित करो तब तुम निचित रूप से मुझे पा लोगे, इसमें कोई संदेह नहीं है।

सृजनकर्ता 

मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।

हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ।।९.१०।।

शब्दार्थ: मया= मेरे द्वारा; अध्यक्षेण=अध्यक्ष होने के कारण; प्रकृति:=प्राकृत शक्ति; सूयते=प्रकट होती है; स=दोनों; चर-अचरम्=व्यक्त और अव्यक्त; हेतुना=कारण; अनेन=इस; कौन्तेय=कुन्तीपुत्र, अर्जुन; जगत्=भौतिक जगत; विपरिवर्तते=परिवर्तनशील।

भावार्थ:  हे कुन्ती पुत्र! यह प्राकृत शक्ति मेरी आज्ञा से चर और अचर प्राणियों को उत्पन्न करती है। इसी कारण भौतिक जगत में परिवर्तन होते रहते हैं।

पच्चीस सिद्ध महानुभावों का वर्णन

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।

मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः।।१०.६।।

शब्दार्थ: महा-ऋषयः=महर्षिः सप्त=सात; पूर्वे=पहले; चत्वारः=चार; मनवः=मनुः तथा=भी; मत्-भावाः=मुझसे उत्पन्न; मानसाः=मन से; जाता:=उत्पन्न; येषाम्=जिनकी; लोके=संसार में; इमा:=ये सब; प्रजाः=लोग।

भावार्थ:  सप्त महर्षिगण और उनसे पूर्व चार महर्षि और चौदह मनु सब मेरे मन से उत्पन्न हुए हैं तथा संसार में निवास करने वाले सभी जीव उनसे उत्पन्न हुए हैं।

विश्वरूप वर्णन

दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।

यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः।।११.१२।।

शब्दार्थ: दिवि=आकाश में; सूर्य=सूर्य; सहस्त्रस्य= हजारों; भवेत्=थे; युगपत्=एक साथ; उत्थिता=उदय; यदि=यदि; भाः=प्रकाश; सदृशी=के तुल्य; सा=वह; स्यात्=हो; भासः=तेज; तस्य=उनका; महात्म्नः =परम पुरुष का।

भावार्थ:  यदि आकाश में हजारों सूर्य एक साथ उदय होते हैं तो भी उन सबका प्रकाश भगवान के दिव्य तेजस्वी रूप की समानता नहीं कर सकता।

सर्वव्यापक ब्रह्म

संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।१२.४।।

शब्दार्थ:  सकियम्य=वश में करके; इन्द्रियग्रामम्= समस्त इन्द्रियों को; सर्वत्र= सभी स्थानों में; सम-बुद्धयः=समदर्शी; ते=वे; प्राप्नुवन्ति=प्राप्त करते हैं; माम्=मुझको; एव=निश्चय ही; सर्व-भूत-हिते=समस्त जीवों के कल्याण के लिए; रताः=तल्लीन।

भावार्थ:  लेकिन जो लोग अपनी इन्द्रियों को निग्रह करके सर्वत्र समभाव से मेरे परम सत्य, निराकार, अविनाशी, निर्वचनीय, अव्यक्त, सर्वव्यापक, अकल्पनीय, अपरिवर्तनीय, शाश्वत और अचल रूप की पूजा करते हैं, वे सभी जीवों के कल्याण में संलग्न रहकर मुझे प्राप्त करते हैं।

विशिष्ट रूप का वर्णन

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।

सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत्‌ ॥१३.१५॥

शब्दार्थ:  बहिः=बाहर; अनतः=भीतरः च= और; भूतानाम्=सभी जीवों का; अचरम्=जड़ा चरम्-=जंगम; एव=भी; च=और; सूक्ष्मत्वात्=सूक्ष्म होने के कारण; तत्=वह; अविज्ञेयम्=अज्ञेय; दूर-स्थम्=दूर स्थित; च=भी; अन्तिके=अति समीप; च=तथा; तत्=वह।

भावार्थ:: भगवान सभी के भीतर एवं बाहर स्थित हैं चाहे वे चर हों या अचर। वे सूक्ष्म हैं और इसलिए वे हमारी समझ से परे हैं। वे अत्यंत दूर हैं लेकिन वे सबके निकट भी हैं।

सत्-रज-तम गुणों का प्रभाव

कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।

रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ।।१४.१६।।

शब्दार्थ:  कर्मण:=कर्म का; सु-कृतस्य=शुद्ध; आहुः=कहा गया है; सात्त्विकम्= सत्वगुण; निर्मलम्=विशुद्ध; फलम्=फल; रजसः=रजोगुण का; तु=लेकिन; फलम्= परिणाम; दुःखम्=दुख; अज्ञानम्=अज्ञानता; तमसः=तमोगुण का; फलम्=फल।

भावार्थ: ऐसा कहा जाता है कि सत्वगुण में सम्पन्न किए गये कार्य शुभ फल प्रदान करते हैं, रजोगुण के प्रभाव में किए गये कर्मों का परिणाम पीड़ादायक होता है तथा तमोगुण से सम्पन्न किए गए कार्यों का परिणाम अंधकार है।

आत्मा के देहांतरण प्रक्रिया का वर्णन

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।

गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ।।१५.८।।

शब्दार्थ:  शरीरम्=शरीर; यत्=जैसे; अवाप्नोति=प्राप्त करता है; यत्=जैसे; च=और; अपि=भी; उत्क्रामति=छोड़ता है; ईश्वरः=भौतिक शरीर का स्वामी; गृहीत्वा=ग्रहण करके; एतानि=इन्हें; संयाति=चला जाता है; वायुः=वायुः गन्धान्=सुगंध; इव=सदृश; आशयात्=धारण करना।

भावार्थ: जिस प्रकार से वायु सुगंध को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है उसी प्रकार से देहधारी आत्मा जब पुराने शरीर का त्याग करती है और नये शरीर में प्रवेश करती है उस समय वह अपने साथ मन और इन्द्रियों को भी ले जाती है।

दैवीय और आसुरी गुण का वर्णन

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।

मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ।।१६.५।।

शब्दार्थ:  दैवी=दिव्य; सम्पत्=गुण; विमोक्षाय=मुक्ति की ओर; निबन्धाय=बन्धन; आसुरी=आसुरी गुण; मता=माने जाते हैं; मा=नहीं; शुचः=शोक; सम्पदम्=गुणों; दैवीम्= दैवीय; अभिजात:=जन्मे; असि=तुम हो; पाण्डव=पाण्डुपुत्र, अर्जुन।

भावार्थ:  दैवीय गुण मुक्ति की ओर ले जाते हैं जबकि आसुरी गुण निरन्तर बंधन की नियति का कारण होते हैं। हे अर्जुन! शोक मत करो क्योंकि तुम दैवीय गुणों के साथ जन्मे हो।

शाश्वत सत्य

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते ।

प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ।।१७.२६।।

शब्दार्थ:  सत्-भावे= शाश्वत अस्तित्व तथा कल्याण की भावना से; साधु-भावे= शुभ भावना से; च= भी; सत् = सत् अक्षर; इति= इस प्रकार; एतत्= यह; प्रयुज्यते= प्रयोग किया जाता है; प्रशस्ते= शुभ; कर्माणि= कार्य; तथा= भी; सत्-शब्दः= सत् शब्द; पार्थ= पृथापुत्र अर्जुन; युज्यते= प्रयोग किया जाता है ।

भावार्थ: "सत्" शब्द का अर्थ है शाश्वत अस्तित्व और अच्छाई। हे अर्जुन! इसका प्रयोग शुभ कर्म का वर्णन करने के लिए भी किया जाता है। यज्ञ, तप और दान के प्रदर्शन में स्थित होना भी "सत्" शब्द द्वारा वर्णित है। इसलिए ऐसे उद्देश्यों के लिए किए गए किसी भी कार्य को "सत्" नाम दिया गया है।

श्रीभगवद्गीता का निष्कर्ष  

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ।।१८.७८।।

शब्दार्थ:  यत्र= जहाँ; योग-ईश्वर:=योग के स्वामी श्रीकृष्ण; यत्र=जहाँ; पार्थः=पृथापुत्र अर्जुन; धनु:-धरः=धनुर्धर; तत्र=वहाँ; श्री:=ऐश्वर्य; विजयः=विजय; भूति:=समृद्धि; ध्रुवा=अनन्त; नीतिः=नीति; मतिः-मम=मेरा मत ।

भावार्थ: जहाँ योग के स्वामी श्रीकृष्ण और श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन हैं वहाँ निश्चित रूप से अनन्त ऐश्वर्य, विजय, समृद्धि और नीति होती है, ऐसा मेरा निश्चित मत है।

श्रीमद्भगवदीतायां अष्टादश श्लोकी भगवत गीता समाप्त ।

इति: सप्तश्लोकी व अष्टादश श्लोकी गीता समाप्त ।

आगे पढ़ें.............. सप्तश्लोकी गीता

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