आरुण्युपनिषद्

आरुण्युपनिषद्

आरुण्युपनिषद्-यह उपनिषद् सामवेदीय मानी जाती है। इसे आरुणिकोपनिषद् के नाम से भी जाना जाता है। इसमें ऋषि आरुणि की वैराग्य जिज्ञासा के उत्तर में ब्रह्मा जी ने संन्यास में दीक्षित होने के सूत्र समझाये हैं। संन्यास में प्रवेश के लिए ब्रह्मचारी, गृहस्थ एवं वानप्रस्थ तीनों को ही अधिकृत किया गया है। संन्यासी के यज्ञ यज्ञोपवीत आदि कर्मकाण्ड के प्रतीकों के त्याग का बड़ा मार्मिक स्वरूप समझाया गया है। संन्यासी यज्ञ का त्याग नहीं करता, स्वयं यज्ञरूप बन जाता है, वह ब्रह्मसूत्र त्यागता नहीं, उसका जीवन ही ब्रह्मसूत्र हो जाता है। वह मंत्र त्यागता नहीं, उसकी वाणी ही मंत्र रूप हो जाती है। इन सब महत्त्वपूर्ण सूत्रों को अंतरंग जीवन में ही धारण करने के कारण उसे संन्यासी अर्थात् सम्यक् रूप से धारण करने वाला कहा गया है। संन्यास ग्रहण करने के स्थूल कर्मकाण्ड का भी उल्लेख किया गया है।

आरुण्युपनिषद्


॥आरुण्युपनिषद् ॥


॥शान्तिपाठः॥


ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक् प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि सर्वं । 

ब्रौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु । 

तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु॥ 

ॐ शान्तिःशान्तिः शान्तिः ॥

मेरे समस्त अंग-अवयव वृद्धि को प्राप्त करें। वाणी, प्राण, नेत्र, कान, बल एवं सभी इन्द्रियाँ विकसित हों। समस्त उपनिषदें ब्रह्महै। मुझसे ब्रह्म का त्याग न हो तथा ब्रह्म हमारा परित्याग न करे, मेरा परित्याग न हो न हो। इस प्रकार ब्रह्म में निरत (लगे हुए) हमें उपनिषद्-प्रतिपादित धर्म की प्राप्ति हो। हमारे त्रिविध तापों का शमन हो तथा हमें शान्ति प्राप्त हो।।


॥अथ आरुण्युपनिषद् ॥


ॐ आरुणिः प्रजापतेर्लोकं जगाम। तं गत्वोवाच। 

केन भगवन्कर्माण्यशेषतो विसृजनीति । 

तं होवाच प्रजापतिस्तव पुत्रान्भ्रातृन्बन्ध्वादीञ्छिखां यज्ञोपवीतं 

यागं सूत्रं स्वाध्यायं च 

भूर्लोकभुवर्लोकस्वर्लोकमहर्लोकजनोलोकतपोलोकसत्यलोकं

चातलतलातलवितलसुतलरसातलमहातलपातालं ब्रह्माण्डं च विसृजेत्। 

दण्डमाच्छादनं चैव कौपीनं च परिग्रहेत्। शेषं विसृजेदिति ॥१॥

प्रजापति की उपासना करने वाले अरुण के पुत्र आरुणि ब्रह्मलोक में भगवान् ब्रह्माजी के समक्ष उपस्थित हुए तथा प्रार्थना करते हुए पूछा-हे भगवन्! मैं सभी कर्मों का किस तरह से परित्याग कर सकता हूँ। तब ब्रह्माजी ने उनसे कहा-हे ऋषे! अपने पुत्र, स्वजन-सम्बन्धी, बन्धु-बान्धव आदि को यज्ञोपवीत, यज्ञ, शिखा और स्वाध्याय को तथा भू लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, महः लोक, जन:लोक, तप:लोक, सत्यलोक और अतल, तलातल, वितल, सुतल, रसातल, महातल तथा पाताल आदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का परित्याग कर देना चाहिए। मात्र दण्ड, आच्छादन के लिए वस्त्र एवं कौपीन (लँगोटी) को धारण करना चाहिए। शेष अन्य सभी वस्तुओं का परित्याग कर देना चाहिए।


गृहस्थो ब्रह्मचारी वा वानप्रस्थो वा उपवीतं भूमावप्सु वा विसृजेत्। 

अलौकिकाग्रीनुदराग्नौ समारोपयेत् । 

गायत्रीं च स्ववाच्यग्नौ समारोपयेत् । 

कुटीचरो ब्रह्मचारी कुटुम्बं विसृजेत् । 

पात्रं विसृजेत् । 

पवित्रं विसृजेत्।

दण्डाँल्लोकाग्नीन विसृजेदिति होवाच। 

अत ऊर्ध्वममन्त्रवदाचरेत् । ऊर्ध्वगमनं विसृजेत् । 

औषधवदशनमाचरेत् । त्रिसंध्यादौ स्नानमाचरेत्। 

संधिं समाधावात्म - न्याचरेत् । 

सर्वेषु वेदेष्वारण्यकमावर्तयेदुपनिषदमावर्तयेदुपनिषदमावर्तयेदिति ॥२॥ 

ब्रह्मचारी हो, गृहस्थ हो या वानप्रस्थी सभी को (अपने-अपने आश्रमों में विहित) दिव्य अग्नियों को अपने जठराग्नि में आरोपित कर लेना चाहिए। गायत्री को अपनी वाणी रूपी अग्नि में प्रतिष्ठित करे। यज्ञोपवीत को पृथ्वी पर अथवा जल में विसर्जित कर देना चाहिए। कुटी में निवास करने वाले ब्रह्मचारी को अपने परिवार (कुटुम्ब) का परित्याग कर देना चाहिए, पात्र का त्याग करे एवं पवित्री (कुशा) को भी त्याग दे। दण्ड और लौकिक अग्नि का भी त्याग करे, ऐसा ब्रह्माजी ने आरुणि से कहा। आगे उन्होंने कहा कि वह मंत्रहीन की तरह आचरण करे। ऊर्ध्व (स्वर्गादि) लोकों में जाने की इच्छा भी न करे । औषधि की भाँति अन्न ग्रहण करे तथा त्रिकाल संध्या-स्नान करे। संध्या काल में समाधिस्थ होकर परब्रह्म परमात्मा का अनुसंधान करे, सभी वेदों में आरण्यकों की आवृत्ति करे अर्थात् पढ़े और मनन करे तथा उपनिषदों का बार-बार अध्ययन करें।


खल्वहं ब्रह्मसूत्रं सूचनात्सूत्रं ब्रह्मसूत्रमहमेव 

विद्वांस्त्रिवृत्सूत्रं त्यजेद्विद्वान्य एवं वेद संन्यस्तं 

मया संन्यस्तं मया संन्यस्तं मयेति त्रिरुक्त्वाऽभयं 

सर्वभूतेभ्यो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। 

सखा मा गोपायोजःसखायोऽसीन्द्रस्य वज्रोऽसि 

वार्त्रुघ्न शर्म में भव यत्पापं तन्निवारयेति । 

अनेन मन्त्रेण कृतं वैणवं दण्डं कौपीनं 

परिग्रहेदौषधवदशनमाचरेदौषधवदशनं प्राश्नीयाद्यथालाभमश्नीयात्। 

ब्रह्मचर्यमहिंसां चापरिग्रहं च सत्यं च यत्नेन 

हे रक्षतो३ हे रक्षतो३ हे रक्षत इति ॥ ३॥

निश्चय ही ब्रह्म का बोध कराने वाला सूत्र ब्रह्मसूत्र मैं स्वयं ही हूँ, ऐसा जानकर त्रिवृत्सूत्र (उपवीत) का भी परित्याग कर दे। ऐसा जानने वाला विद्वान् मया संन्यस्तंमअर्थात् मैंने संन्यास ले लिया, मैंने सर्वस्व का त्याग कर दिया, सब कुछ छोड़ दिया, ऐमा तीन बार कहे। इसके पश्चात् अभयं सर्वभूतेभ्यो मत्तः सर्वं प्रवर्तत’ ( अर्थात् सभी हिंस्त्र और अहिंस्त्र प्राणियों को अभय प्राप्त हो, सम्पूर्ण जगत् मुझमें ही विद्यमान है।) इत्यादि मन्त्र से हे दण्ड । आप मेरे मित्र हैं, आप मेरे ओज की रक्षा करें। आप मेरे मित्र तथा आप ही वृत्रासुर का विनाश करने वाले देवराज इन्द्र के वज्र हैं। हे वज़ ! आप हमें सुख प्राप्त करायें तथा हमें संन्यास धर्म से पथभ्रष्ट! करने वाला जो भी पाप हो, उसका निवारण करें; यह कहते हुए अभिमंत्रित बाँस का दण्ड और कौपीन (लँगोटी) धारण करे। औषधि की तरह से भोजन ग्रहण करे, जो कुछ भी मिल जाए, उसे अल्पमात्रा में औषधि समझ का खाए । हे आरुणि ! संन्यास धर्म को ग्रहण करने के उपरान्त ब्रह्मचर्य, अहिंसा, अपरिग्रह और सत्य का निष्ठापूर्वक पालन करना चाहिए। हे वत्स! उन (संन्यास के सभी अनुशासनों) की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करो, रक्षा करो, रक्षा करो।


अथातः परमहंसपरिव्राजकानामासनशयनादिकं भूमौ 

ब्रह्मचारिणां मृत्पात्रं वाऽलापात्रं दारुपात्रं वा।

कामक्रोधहर्षरोषलोभमोहदम्भदच्छासूयाममत्वाहंकारादीनपि परित्यजेत्। 

वर्षासु ध्रुवशीलोऽष्टौ मासानेकाकी यतिश्चरेद् द्वावे वा चरेद् द्वावे वा चरेदिति ॥४॥

तदनन्तर (ब्रह्माजी ने पुनः कहा) ब्रह्मभाव को प्राप्त परमहंस परिव्राजकों के लिए पृथ्वी पर ही आसन और शयन आदि का नियम है। मिट्टी के पात्र को या फिर तूँबी अथवा काष्ठ के कमण्डलु को अपने पास रखे। संन्यासियों को काम, क्रोध, हर्ष, शोक, रोष, लोभ मोह, दम्भ, ईर्ष्या, इच्छा, परनिन्दा एवं ममता और अहंकार आदि का भी परित्याग पूर्ण रूप से कर देना चाहिए। उन्हें वर्षा ऋतु के चार माह तक एक ही स्थान पर स्थिर होकर रहना चाहिए, इसके अतिरिक्त शेष आठ माह एकाको भ्रमण करे अथवा कम से कम दो माह तक एक ही स्थान में रहे।


स खल्वेवं यो विद्वान्सोपनयनादुर्ध्वमेवानि प्राग्वा त्यजेत्। 

पितरं पत्रमग्निमुपवीतं कर्म कलत्रं चान्यदपीह। 

यतयो भिक्षार्थं ग्रामं प्रविशन्ति पाणिपात्रमुदरपात्रं वा । 

ॐहि ॐहि ॐ हीत्येतदुपनिषदं विन्यसेत् । 

खल्वेतदुपनिषदं विद्वान्य एवं वेद पालाशं 

बैल्वमाश्वत्थमौदुम्बरं दण्डं मौञ्ज्जीं मेखलां 

यज्ञोपवीतं च त्यक्त्वा शूरो य एवं वेद । 

तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । 

दिवीव चक्षुराततम्। 

तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते विष्णोर्यत्परमं पदमिति। 

एवं निर्वाणानुशासनं वेदानुशासनं वेदानुशासनम्। 

इत्युपनिषद् ॥५॥

इसके समस्त नियम-उपनियम की पूर्ण जानकारी रखने वाला विद्वान् यदि संन्यास धर्म को ग्रहण करना चाहे, तो उसे उपनयन के पश्चात् अथवा पूर्व में भी अपने माता-पिता, पुत्र, अग्नि, उपवीत, कर्म, पत्नी अथवा अन्य और जो भी कुछ हो उन समस्त वस्तुओं-पदार्थों का त्याग कर देना चाहिए। संन्यास धर्म ग्रहण करने वाले को चाहिए कि वह अपने हाथों को ही पात्र बना ले या फिर अपने उदर (पेट) को ही पात्र रूप में उपयोग कर भिक्षार्थ गाँव में गमन करे । ॐ हि इस उपनिषद् मन्त्र का तीन बार उच्चारण करते हुए (भिक्षार्थ गाँव में) प्रवेश करे। यह उपनिषद् है। जो (विद्वान्) इस उपनिषद् को पूर्णरूप से जानता है, वही विद्वान् है। पलाश (छिउल), बेल, पीपल या गूलर आदि में से किसी को दण्ड, मुँज की मेखला धारण कर एवं यज्ञोपवीत आदि का परित्याग कर जो इस (उपनिषद्) को भली प्रकार जान लेता है, वही श्रेष्ठ है, यही शूरवीर है। जो (परमात्मा) आकाश में प्रकाश युक्त सूर्य मण्डल की तरह परम व्योम में चिन्मय तेज के द्वारा सभी और संव्याप्त है, ऐसे भगवान् विष्णु के उस परमधाम का विद्वान् उपासक सदैव दर्शन करते हैं। साधना में सतत लगे रहने वाले निष्काम उपासक ब्राह्मण वहाँ पहुँच कर उस परमधाम को और भी प्रदीप्त किए रहते हैं, ऐसे उस पद को विष्णु का परमधाम कहते हैं। इस प्रकार यह निर्वाण (मुक्ति प्राप्ति) का अनुशासन है, वेद का अनुशासन है, यही उपनिषद् है।

इति: आरुण्युपनिषद्॥

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