रघुवंशम् सर्ग १७
इससे पूर्व
महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् सर्ग १६ में उत्तराधिकारी कुश की कथा पढ़ा
। अब इससे आगे की कथा रघुवंशम् सर्ग १७ में कुशपुत्र अतिथि के पराक्रम एवं यशोगाथा
का वर्णन है। यहाँ पहले इस सर्ग का मूलपाठ भावार्थ सहित और पश्चात् हिन्दी में
संक्षिप्त कथासार नीचे दिया गया है।
रघुवंशमहाकाव्यम् सप्तदशः सर्गः
रघुवंशं सर्ग १७ कालिदासकृतम्
रघुवंशम् सत्रहवां
सर्ग
रघुवंश
महाकाव्य
सप्तदशः सर्गः
रघुवंश महाकाव्य सर्ग १७
॥ रघुवंशं सर्ग १७ कालिदासकृतम्
॥
अतिथिं
नाम काकुत्स्थात्पुत्रं प्राप कुमुद्वती ।
पश्चिमाद्यामिनीयामात्प्रसादमिव
चेतना॥ १७ -१॥
भा०-कुमुद्वनी ने काकुत्स्थ (कुश)
से अतिथि नामक पुत्र को मानों बुद्धि ने रात के पिछले पहर से प्रकाश के समान पाया
॥ १॥
स पितुः पितृमान्वंशं
मातुश्चानुपमद्युतिः ।
अपुनात्सेवितेवोभौ
मार्गावुत्तरदक्षिणौ॥ १७ -२॥
भा०-पितावाला,
सुशिक्षित, अनुपम कान्तिमान वह पिता और माता के
वंश को उत्तर और दक्षिण के दोनों मार्गों को सूर्य के समान पवित्र करता हुआ ॥२॥
तमादौ कुलविद्यानामर्थमर्थविदां वरः
।
पश्चात्पार्थिवकन्यानां पाणिमग्राहयत्पिता॥
१७ -३॥
भा०-अर्थ जाननेवालों में श्रेष्ठ
पिता ने उसको प्रथम कुलविद्याओं का अर्थ ग्रहण कराया पीछे राजकन्याओं का पाणिग्रहण
कराया ॥३॥
जात्यस्तेनाभिजातेन शूरः शौर्यवता
कुशः ।
अमन्यैतकमात्मानमनेकं वशिना वशी॥ १७
-४॥
भा०-कुलीन शूर जितेन्द्रिय कुश ने,
कुलीन शूर और जितेन्द्रिय उस पुत्र से एक आत्मा को अनेक माना ॥४॥
स कुलोचितमिन्द्रस्य
साहायकमुपेयिवान् ।
जघान समरे दैत्यं दुर्जयं तेन
चावधि॥ १७ -५॥
भा०-वह कुश कुल की रीति के अनुसार
इन्द्र की सहायता को जाकर समर में दुर्जय दैत्य को मारकर उसी से आप भी मरा ॥५॥
तं स्वसा नागराजस्य कुमुदस्य
कुमुद्वती ।
अन्वगात्कुमुदानन्दं शशाङ्कमिव
कौमुदी॥ १७ -६॥
भा०-कुमुद नागराज की बहन कुमुद्वती
कुमुद के आनन्द देनेवाले चन्द्रमा के पीछे चांदनी की समान उसके पीछे गई ।। ६॥
तयोर्दिवस्पतेरासीदेकः
सिंहासनार्धभाक् ।
द्वितीयापि सखी शच्याः
पारिजातांशभागिनी॥ १७ -७॥
भा०--उन दोनों में एक तो इन्द्र के
सिंहासन का अर्द्धभागी हुआ और दूसरी पारिजात की अंश में भाग लेनेवाली इन्द्राणी की
सखी हुई॥७॥
तदात्मसंभवं राज्ये मन्त्रिवृद्धाः
समादधुः ।
स्मरन्तः पश्चिमामाज्ञां भर्तुः
सङ्ग्रामयायिनः॥ १७ -८॥
भा०-संग्राम में जानेवाले स्वामी की
पिछली आज्ञा स्मरण करते हुए वृद्धमंत्री उसके पुत्र को राज्य पर बैठाते हुए ॥ ८ ॥
ते तस्य कल्पयामासुरभिषेकाय
शिल्पिभिः ।
विमानं नवमुद्वेदि
चतुःस्तम्भप्रतिष्ठितम्॥ १७ -९॥
भा०-वे उसके अभिषेक के निमित्त
कारीगरों से ऊँची वेदीवाला चारों ओर चार खम्भोंसहित नया मंडप वनवाते हुए ॥९॥
तत्रैनं हेमकुम्भेषु
संभृतैस्तीर्थवारिभिः ।
उपतस्थुः प्रकृतयो
भद्रपीठोपवेशितम्॥ १७ -१०॥
भा०-तहां उस भद्रपीठ पर बैठे हुए
इसके सोने के कलशों में भरे हुए तीर्थजल ले ले कर वृद्धमंत्री सन्मुख गये ॥१०॥
नदद्भिः स्निग्धगंभीरं
तूर्यैराहतपुष्करैः ।
अन्वमीयत कल्याणं
तस्याविच्छिन्नसंतति॥ १७ -११॥
भा०-मुखों द्वारा मधुर गम्भीर ध्वनि
से बजती हुई तुरहियों से उस अतिथि का अखण्ड कल्याण समझा गया ॥ ११॥
दूर्वायवाङ्कुरप्लक्षत्वगभिन्नपुटोत्तरान्
।
ज्ञातिवृद्धैः प्रयुक्तान्स भेजे
नीराजनाविधीन्॥ १७ -१२॥
भा०-दूव यवाङ्कुर बट की छाल और महुए
के पुष्प सहित जाति के वृद्धों की की हुई आर्ती उसने पाई ॥ १२ ॥
पुरोहितपुरोगास्तं जिष्णुं
जैत्रैरथर्वभिः ।
उपचक्रमिरे पूर्वमभिषेक्तुं
द्विजातयः॥ १७ -१३॥
भा०-पुरोहित को आगे लिये ब्राह्मणों
ने जयशील उस राजा के जीत के स्वभाव वाले अथर्ववेद के मंत्रों से प्रथम अभिषेक करना
प्रारंभ किया ॥ १३ ॥
तस्यौघमहती मूर्ध्नि निपतन्ती
व्यरोचत ।
सशब्दमभिषेकश्रीर्गङ्गेव
त्रिपुरद्विषः॥ १७ -१४॥
भा०-उसके शिर पर शब्दपूर्वक गिरती
हुई अभिषेक की बडी धारा शिवजी के शिर पर गंगा की नाई शोभित हुई ॥ १४॥
स्तूयमानः क्षणे तस्मिन्नलक्ष्यत स
बन्दिभिः ।
प्रवृद्ध इव पर्जन्यः
सारङ्गैरभिनन्दितः॥ १७ -१५॥
भा०-उस समय वन्दियों से स्तुति को
प्राप्त होता हुआ वह प्रसन्न हो चातकों के सराहना किये मेघ की समान दिखाई दिया ॥
१५ ॥
तस्य सन्मन्त्रपूताभिः स्नानमद्भिः
प्रतीच्छतः ।
ववृधे
वैद्युतश्चाग्नेर्वृष्टिसेकादिव द्युतिः॥ १७ -१६॥
भा०-मंत्रों से पवित्र हुए जलों से
स्नान करते हुए उसकी मेंध के सींचने से विजली की अग्नि की समान कान्ति बढ़ी ॥ १६॥
स तावदभिषेकान्ते स्नातकेभ्यो ददौ
वसु ।
यावतैषां समाप्येरन्यज्ञाः
पर्याप्तदक्षिणाः॥ १७ -१७॥
भा०-वह अभिषेक के अन्त में यज्ञ
करानेवाले गृहस्थ ब्राह्मणों को इतना धन देता हुआ, जिससे उनकी पूरी दक्षिणावाले यज्ञ पूर्ण हुए ॥ १७॥
ते प्रीतमनसस्तस्मै यामाशिषमुदैरयन्
।
सा तस्य कर्मनिर्वृत्तैर्दूरं
पश्चात्कृता फलैः॥ १७ -१८॥
भा०-प्रसन्न मन हो उन्होंने जो अशीश
उनको दी,
वह उसके कर्मों से प्राप्त किये यज्ञों ने बहुत पीछे कर दी॥ १८॥
बन्धच्छेदं स बद्धानां
वधार्हाणामवध्यताम् ।
धुर्याणां च धुरो मोक्षमदोहं
चादिशद्गवाम्॥ १७ -१९॥
भा०-उसने बँधुओं के बन्धन काटने को,
वध योग्यों के अवध्य करने को और बोझ उठानेवालों के बोझ छुडाने को और
गैयों का दूध न दूहने को आज्ञा दी । १९ ।।
क्रीडापतत्रिणोप्यस्य पञ्जरस्थाः
शुकादयः ।
लब्धमोक्षास्तदादेशाद्यथेष्टगतयोऽभवन्॥
१७ -२०॥
भा०-पिंजरों के रहनेवाले तोते आदि
इसके क्रीडा पक्षी भी उसकी आज्ञा से मुक्ति पाकर यथेच्छ विचरण करने लगे ॥२०॥
ततः कक्ष्यान्तरन्यस्तं गजदन्तासनं
शुचि ।
सूत्तरच्छदमध्यास्त नेपथ्यग्रहणाय
सः॥ १७ -२१॥
भा०-तब वह वस्त्र आभूषण पहरने को
राजभवन में धरे निर्मल और बिछौने विछे हाथीदांत के सिंहासन पर बैठा ॥ २१ ॥
तं धूपाश्यानकेशान्तं
तोयनिर्णिक्तपाणयः ।
आकल्पसाधनैस्तैस्तैरुपसेदुः
प्रसाधकाः॥ १७ -२२॥
भा०-जल से हाथ धोकर श्रृंगार
करानेवालों ने धूप से सुवासित केशवाले को भांति २ के सिंगारों से सज्जित किया ॥२२॥
तेऽस्य मुक्तागुणोन्नद्धं
मौलिमन्तर्गतस्रजम् ।
प्रत्यूपुः पद्मरागेण
प्रभामण्डलशोभिना॥ १७ -२३॥
भा०-उन्होंने मोतीमाला से खिचे
फूलमाला से गुंथे इसके जूडे पर कान्तिमण्डल से शोभित करनेवाले पद्मरागमणि को बांधा
॥२३॥
चन्दनेनाङ्गरागं च मृगनाभिसुगन्धिना
।
समापय्य ततश्चक्रुः पत्रं
विन्यस्तरोचनम्॥ १७ -२४॥
भा०-कस्तूरी की गन्धवाले चन्दन से
अंगराग समाप्त कर पीछे गोरोचन से पत्ररचना करते हुए ॥२४॥
आमुक्ताभरणः स्रग्वी
हंसचिह्नदुकूलवान् ।
आसीदतिशयप्रेक्ष्यः स
राज्यश्रीवधूवरः॥ १७ -२५॥
भा०-गहने पहरे माला धारे हंस चिह्न का
दुपट्टा ओढे राजलक्ष्मीरूपी वधू का पति वह अत्यन्त दर्शनीय हुआ ॥२५॥
नेपथ्यदर्शिनश्छाया तस्यादर्शे
हिरण्मये ।
विरराजोदिते सूर्ये मरौ कल्पतरोरिव॥
१७ -२६॥
भा०-सोने के दर्पण में सिंगार
देखनेवाले उसकी छाया उदित होते हुए सूर्य के समय सुमेरु में कल्पवृक्ष की समान
शोभित हुई ॥ २६ ॥
स राजककुदव्यग्रपाणिभिः
पार्श्ववर्तिभिः ।
ययावुदीरितालोकः सुधर्मानवमां
सभाम्॥ १७ -२७॥
भा०-वह हाथों में राजचिह्न (छत्र चमर)
धारण किये, निकटवर्ती सेवकों से जय जय
उच्चारित होता हुआ देवताओं की सभा समान सभा में गया ॥ २७ ॥
वितानसहितं तत्र भेजे पैतृकमासनम् ।
चूडामणिभिरुद्धृष्टं पादपीठं
महीक्षिताम्॥ १७ -२८॥
भा०-तहां चंदोवायुक्त और राजाओं के
शिर की मणियों से घिसी हुई चरण चौकी वाले पिता पितामह के सिंहासन पर बैठा ॥ २८॥
शुशुभे तेन चाक्रान्तं मङ्गलायतनं
महत् ।
श्रीवत्सलक्षणं वक्षः कौस्तुभेनेव
कैशवम्॥ १७ -२९॥
भा०-उस राजा के बैठने से वह वडे
मंगल का स्थान सभागृह कौस्तुभमणि से युक्त श्रीवत्स लक्षणवाले विष्णु के हृदय के
समान शोभित हुआ ॥२९॥
बभौ भूयः कुमारत्वादाधिराज्यमवाप्य
सः ।
रेखाभावादुपारूढः सामग्र्यमिव
चन्द्रमाः॥ १७ -३०॥
भा०-कुमारपन के अनन्तर वह अधिराजता को
प्राप्त होकर रेखापन से पूर्णता पाकर चन्द्रमा के समान शोभित हुआ ॥ ३०॥
प्रसन्नमुखरागं तं
स्मितपूर्वाभिभाषिणम् ।
मूर्तिमन्तममन्यन्त
विश्वासमनुजीविनः॥ १७ -३१॥
भा०-उस उज्ज्वल कान्तिमान् मुखवाले,
हास्य सहित बोलनेवाले को सेवकजन मूर्तिमान विश्वास ही मान्ते हुए ॥
३१॥
स पुरं पुरहूतश्रीः
कल्पद्रुमनिभध्वजाम् ।
क्रममाणश्चकार द्यां
नागेनैरावतौजसा॥ १७ -३२॥
भा०-इन्द्र की समान लक्ष्मीवाला वह
कल्पवृक्ष की समान ध्वजावाली पुरी को ऐरावत के समान बली हाथी पर चढकर स्वर्ग करता
हुआ ॥३२॥
तस्यैकस्योच्छ्रितं छत्रं मूर्ध्नि
तेनामलत्विषा ।
पूर्वराजवियोगौष्म्यं कृत्स्नस्य
जगतो हृतम्॥ १७ -३३॥
भा०-तिस एक ही के शिर पर लगे ऊंचे
और निर्मल कान्तिवाले छत्र ने फिर कर सम्पूर्ण जगत्की पहले राजा के वियोगरूपी
ऊष्मा शान्त की ॥ ३३ ॥
धूमादग्नेः शिखाः पश्चादुदयादंशवो
रवेः ।
सोऽतीत्य तेजसां वृत्तिं
सममेवोत्थितो गुणैः॥ १७ -३४॥
भा०-अग्नि के धूम से पीछे शिखा और
सूर्य के उदय होने से पीछे किरण होती हैं, परन्तु
वह तेज से अग्न्यादिकों की वृत्ति को उल्लंघन कर गुणों के साथ ही प्रगट हुआ ॥३४॥
तं प्रीतिविशदैर्नेत्रैरन्वयुः
पौरयोषितः ।
शरत्प्रसन्नैर्ज्योतिर्भिर्विभावर्य
इव ध्रुवम्॥ १७ -३५॥
भा०-नगर की स्त्रियें प्रेम की
उज्ज्वल दृष्टि से उसके पीछे गई जिस प्रकार शरद में निर्मल तारोंवाली रात्रि ध्रुव
के पीछे जाती हैं ॥ ३५ ॥
अयोध्यादेवताश्चैनं
प्रशस्तायतनार्चिताः ।
अनुदध्युरनुध्येयं सांनिध्यैः
प्रतिमागतैः॥ १७ -३६॥
भा०-श्रेष्ठ मंदिरों में पूजित हुए
अयोध्या के देवता अनुग्रह करने के योग्य इस पर प्रतिमा प्राप्त होकर समीपता से
अनुग्रह करते हुए ॥ ३६ ॥
यावन्नाश्यायते वेदिरभिषेकजलाप्लुता
।
तावदेवास्य वेलान्तं प्रतापः प्राप
दुःसहः॥ १७ -३७॥
भा०-अभिषेक के जल से सींची हुई वेदी
जब तक नहीं सूखती है, तब तक इसका दुस्सह प्रताप
सागर के तट पर पहुंच गया ॥ ३७॥
वसिष्ठस्य गुरोर्मन्त्राः
सायकास्तस्य धन्विनः ।
किं तत्साध्यं यदुभये साधयेयुर्न
संगताः॥ १७ -३८॥
भा०-गुरु वशिष्ठ के मंत्र और इस
धनुषधारी के वाण यह दोनों मिलकर जिस, साध्य
को न सिद्ध कर सकें वह क्या है ॥३८॥
स धर्मस्थसखः शश्वदर्थिप्रत्यर्थिनां
स्वयम् ।
ददर्श
संशयच्छेद्यान्व्यवहारानतन्द्रितः॥ १७ -३९॥
भा०-धर्मात्माओं के मित्र आलस्यरहित
उसने सदैव अर्थी और प्रत्यर्थीयों के विचार के योग्य व्यवहारों को स्वयं देखा ॥३९॥
ततः परमभिव्यक्तसौमनस्यनिवेदितैः ।
युयोज पाकाभिमुखैर्भृत्यान्विज्ञापनाफलैः॥
१७ -४०॥
भा०-इसके उपरान्त (उसने) अनुचरों को
प्रगट प्रसन्नता जनाने से पकने के निकट प्राप्त हुए मन इच्छित फलों से मिलाया ॥ ४०
॥
प्रजास्तद्गुरुणा नद्यो नभसेव
विवर्धिताः ।
तस्मिंस्तु भूयसीं वृद्धिं नभस्ये
ता इवाययुः॥ १७ -४१॥
भा०-प्रजा उसके पिता से श्रावण की
नदियों की समान वढाई हुई भादों की नदियों की समान उसमे अधिक ही वृद्धि को पहुंचीं
॥४१॥
यदुवाच न तन्मिथ्या यद्ददौ न जहार
तत् ।
सोऽभूद्भग्नव्रतः शत्रूनुद्धृत्य
प्रतिरोपयन्॥ १७ -४२॥
भा०-उसने जो कहा वह मिथ्या न हुआ,
जो दिया वह फिर न लिया, किन्तु शत्रुओं को
उखाडकर फिर आरोपण करने में वह भग्नव्रतवाला हुआ ॥ ४२ ॥
वयोरूपविभूतीनामेकैकं मदकारणम् ।
तानि तस्मिन्समस्तानि न
तस्योत्सिचिषे मनः॥ १७ -४३॥
भा०-अवस्था,
रूप, ऐश्वर्य, यह एक एक
मद के कारण हैं, उसमें ये सब थे तो भी उसका मन उन्मत्त न हुआ
॥४३॥
इत्थं जनितरागासु
प्रकृतिष्वनुवासरम् ।
अक्षोभ्यः स नवोऽप्यासीद्दृढमूल इव
द्रुमः॥ १७ -४४॥
भा०-इस प्रकार प्रतिदिन प्रजा के
प्रेम बढने पर वह नया राजा भी पक्की जडवाले वृक्ष के समान स्थिर हुवा ॥४४॥
अनित्याः शत्रवो बाह्या
विप्रकृष्टाश्च ते यतः ।
अतः सोऽभ्यन्तरान्नित्याञ्षट्पूर्वमजयद्रिपून्॥
१७ -४५॥
भा०-जिस कारण कि वाह्य शत्रु अनित्य
और दूर हैं, इस कारण उसने भीतर रहनेवाले और
नित्य छःशत्रुओं को प्रथम जीता ॥४५॥
प्रसादाभिमुखे तस्मिंश्चपलापि
स्वभावतः ।
निकषे हेमरेखेव श्रीरासीदनपायिनी॥
१७ -४६॥
भा०-स्वभाव से चंचल भी लक्ष्मी
प्रसन्न मुखवाले उस राजा में कसौटी में सुवर्णरेखा की समान अचल रही ॥४६॥
कातर्यं केवला नीतिः शौर्यं
श्वापदचेष्टितम् ।
अतः सिद्धिं
समेताभ्यामुभाभ्यामन्वियेष सः॥ १७ -४७॥
भा०-केवल नीति कायरता है और केवल
शूरता सिंहादिपशुओं का स्वभाव है, इस कारण उसने
इन दोनों के मेल से सिद्धि को देखा ॥ ४७॥
न तस्य मण्डले राज्ञो
न्यस्तप्रणिधिदीधितेः ।
अदृष्टमभवत्किंचिद्व्यभ्रस्येव
विवस्वतः॥ १७ -४८॥
भा०-चारों ओर दूतरूपी किरण
भेजनेवाले उस राजा को मेघरहित सूर्य के समान मण्डल में कुछ भी अदृष्ट न रहा ॥४८॥
रात्रिंदिवविभागेषु यदादिष्टं
महीक्षिताम् ।
तत्सिषेवे नियोगेन स
विकल्पपराङ्मुखः॥ १७ -४९॥
भा०-रात दिन के विभागों में राजाओं को
जो कार्य कहा है, उसे वह संशयरहित
होकर नियमपूर्वक करता हुआ॥४९ ॥
मन्त्रः प्रतिदिनं तस्य बभूव सह
मन्त्रिभिः ।
स जातु सेव्यमानोऽपि गुप्तद्वारो न
सूच्यते॥ १७ -५०॥
भा०-उसकी सम्मति मंत्रियों के साथ
प्रतिदिन हुई, परन्तु वह गुप्तद्वारमंत्र
प्रतिदिन होने पर भी कभी प्रगट न हुआ ।। ५०॥
परेषु स्वेषु च
क्षिप्तैरविज्ञातपरस्परैः ।
सोऽपसर्पैर्जजागार यथाकालं
स्वपन्नपि॥ १७ -५१॥
भा०-यथा काल में सोता हुआ भी वह
अपने और दूसरों दूसरे से न जाने हुए दूतों से जागता ही था ॥५१॥
दुर्गाणि दुर्ग्रहाण्यासंस्तस्य
रोद्धुरपि द्विषाम् ।
न हि सिंहो गजास्कन्दी
भयाद्गिरिगुहाशयः॥ १७ -५२॥
भा०-शत्रुओं के रोकनेवाले भी उसके
दुस्तर कोट थे, कारण कि गज का मारनेवाला'
सिंह भय से ही पर्वत की गुफा में शयन नहीं करता है ॥५२॥
भव्यमुख्याः समारम्भाः
प्रत्यवेक्ष्यानिरत्ययाः ।
गर्भशलिसधर्माणस्तस्य गूढं
विपेचिरे॥ १७ -५३॥
भा०-कल्याणयुक्त और बाधाहीन,
विचार कर किये हुए, गर्भ में पकनेवाले धान की
प्रकृतिवाले उसके उद्योग गुप्त ही पकते हुए॥ ५३॥
अपथेन प्रववृते न जातूपचितोऽपि सः ।
वृद्धौ नदीमुखेनैव प्रस्थानं
लवणाम्भसः॥ १७ -५४॥
भा०-वह वृद्धि को प्राप्त होकर भी
कुमार्ग में प्रवृत्त न हुआ, कारण कि सागर का
प्रस्थान वृद्धि में नदी मुख से ही होता है ॥ ५४॥
कामं प्रकृतिवैराग्यं सद्यः शमयितुं
क्षमः ।
यस्य कार्यः प्रतीकारः स
तन्नैवोदपादयत्॥ १७ -५५॥
भा०-प्रजा की अरुचि वह तत्काल ही
मिटाने को समर्थ था, परन्तु जिस अरुचि का
- मिटना योग्य है वह उसने होने ही न दी ॥ ५५॥
शक्येष्वेवाभवद्यात्रा तस्य
शक्तिमतः सतः ।
समीरणसहायोऽपि नाम्भःप्रार्थी
दवानलः॥ १७ -५६॥
भा०-शक्तिमान होने पर भी उसकी समर्थ
पर ही चढाई होती हुई, कारण कि पवन सहायक
होने पर भी दावाग्निं जल की इच्छा नहीं करती ॥५६॥
(अर्थात् बलवान होकर भी अग्नि जल को
जलाने नहीं जाती)
न धर्ममर्थकामाभ्यां बबाधे न च तेन
तौ ।
नार्थं कामेन कामं व सोऽर्थेन
सदृशस्त्रिषु॥ १७ -५७॥
भा०-उसने अर्थ और काम से न धर्म को
और न धर्म से उन दोनों को, न काम से अर्थ को,
न अर्थ से काम को बाधा पहुंचाई, किन्तु तीनों में
समान रहा ॥५७ ॥
हीनान्यनृपकर्तॄणि प्रवृद्धानि
विकुर्वते ।
तेन मध्यमशक्तीनि मित्राणि
स्थापितान्यतः॥ १७ -५८॥
भा०-मित्र हीन हों तो अनुपकारी होते
हैं और समृद्ध विघ्न करते हैं, इस कारण उसने
मध्यम बलवाले सुहृद बनाये ॥५८॥
परात्मनोः परिच्छिद्य शक्त्यादीनां
बलाबलम् ।
ययावेभिर्बलिष्ठश्चेत्परस्मादास्त
सोऽन्यथा॥ १७ -५९॥
भा०-उसने शत्रु और अपनी शक्ति का
बलावल विचार कर जो इन बातों में अपने को उस्से बली पाया तो यात्रा की,
नहीं तो बैठ रहा ॥ ५९॥
कोशेनाश्रयणीयत्वमिति
तस्यार्थसंग्रहः ।
अम्बुगर्भो हि
जीमूतश्चातकैरभिनन्द्यते॥ १७ -६०॥
भा०-कोश से ही आश्रय होता है,
इस कारण उसने धन संग्रह किया, क्योंकि पानी भरे
मेघों को ही चातक सराहता है ॥ ६० ॥
परकर्मापहः सोऽभूदुद्युतः स्वेषु
कर्मसु ।
आवृणोदात्मनो रन्ध्रं रन्ध्रेषु
प्रहरन्रिपून्॥ १७ -६१॥
भा०-वह शत्रुओं का उद्योग नष्ट
करनेवाला होकर भी अपने कार्यों में प्रवृत्त हुआ और शत्रुओं के छिद्र देखने पर
प्रहार करता हुआ, अपने छिद्र को
छिपाता हुआ॥६॥
पित्रा संवर्धितो नित्यं कृतास्त्रः
सांपरायिकः ।
तस्य दण्डवतो दण्डः स्वदेहान्न
व्यशिष्यत॥ १७ -६२॥
भा०-उस सेनावाले की पिता से नित्य
बढाई हुई,
अस्त्र सीखी हुई, युद्ध करने में समर्थ सेना
उसके देह से पृथक् न थी, ( अर्थात् अपनी देह की समान सेना को
रखता था) ॥ ६२॥
सर्पस्येव शिरोरत्नं नास्य
शक्तित्रयं परः ।
स चकर्ष परस्मात्तदयस्कान्त
इवायसम्॥ १७ -६३॥
भा०-सर्प के शिरोरत्न की समान इसकी
तीन शक्तियों को शत्रु न बैंच सके किन्तु वह तो शत्रुओं से उस शक्तित्रय को लोहे को
चुम्बक के समान बैंचता हुआ ॥ ६३ ॥ (प्रभावशक्ति, मंत्रशक्ति और उत्साहशक्ति, यह तीन शक्ति हैं)
वापीष्विव स्रवन्तीषु
वनेषूपवनेष्विव ।
सार्थाः स्वैरं स्वकीयेषु
चेरुर्वेश्मस्विवाद्रिषु ॥ १७ -६४॥
भा०-नदियों में बावडियों की नाई
वनों में उपवनों के समान, पहाडों में अपने
घरों के समान, वणिक् यथेच्छ विचरे ॥ ६४॥
तपो रक्षन्स
विघ्नेभ्यस्तस्करेभ्यश्च संपदः ।
यथास्वमाश्रमैश्चक्रे वर्णैरपि
षडंशभाक्॥ १७ -६५॥
भा०-विघ्नों से तप को,
चोरों से धन को रक्षा करते हुए उसको आश्रमों ने और वर्णों ने चित्त के
अनुसार छठा भाग पानेवाला किया ॥६५॥ (चार आश्रम-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ,
वानप्रस्थ, संन्यास,चार
वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य शूद्र)
खनिभिः सुषुवे रत्नं क्षेत्रैः
सस्यं वनैर्गजान् ।
दिदेश वेतनं तस्मै रक्षासदृशमेव
भूः॥ १७ -६६॥
भा०—पृथ्वी ने भी उसको रक्षा के
समान धन दिया खानों ने रत्न, खेतों ने धान
और वनों ने हाथी उत्पन्न कर दिये ।। ६६ ॥
स गुणानां बलानां च षण्णां
षण्मुखविक्रमः ।
बभूव विनियोगज्ञः साधनीयेषु
वस्तुषु॥ १७ -६७॥
भा० स्कंद के समान पराक्रमी वह छः
गुण और बलों (भृत्यों) का सिद्ध होने योग्य वस्तुओं में बर्ताव जानता था ॥६७॥
इति क्रमात्प्रयुञ्जानो राजनीतिं
चतुर्विधाम् ।
आ तीर्थादप्रतीघातं स तस्याः
फलमानशे ॥ १७ -६८॥
भा०-इस प्रकार चार प्रकार की
राजनीति का क्रम से प्रयोग करते हुए उसने मंत्री आदि में उसका फल विघ्नरहित पाया ॥
६८॥
कूटयुद्धविधिज्ञेऽपि
तस्मिन्सन्मार्गयोधिनि ।
भेजेऽभिसारिकावृत्तिं
जयश्रीर्वीरगामिनी॥ १७ -६९॥
भा०- कपट युद्ध जानकर भी सत्मार्ग से
युद्ध करनेवाले उस राजा में वीरों में जानेवाली जयलक्ष्मी ने अभिसारिका की रीति वरती
॥ ६९॥
(अभिसारिका वृत्ति यह है कि जो
स्त्री संकेत से स्वयं पति के पास जाती है)
प्रायः प्रतापभग्नत्वादरीणां तस्य
दुर्लभः ।
रणो गन्धद्विपस्येव गन्धभिन्नान्यदन्तिनः॥
१७ -७०॥
भा०-शत्रुओं को प्रताप ही से नष्ट
हो जाने के कारण मद की गन्धि से दूसरे गजों को भगानेवाले मदगन्धिवाले हाथी की समान
उसको संग्राम दुर्लभ हो गया ॥७०॥
प्रवृद्धौ ह्रीयते चन्द्रः
समुद्रोऽपि तथाविधः ।
स तु तत्समवृद्धिश्च न चाभूत्ताविव
क्षयी॥ १७ -७१॥
भा०-वृद्धि को प्राप्त होकर
चन्द्रमा क्षीण होता है, इसी प्रकार समुद्र भी,
परन्तु वह उनकी समान बढा तो, पर उनकी समान
क्षीण न हुआ।। ७१॥
सन्तस्तस्याभिगमनादत्यर्थं महतः
कृशाः ।
उदधेरिव जीमूताः
प्रापुर्दातृत्वमर्थिनः॥ १७ -७२॥
भा०-अतिदरिद्र मांगनेवाले विद्वान
उस ऐश्वर्यवान्के समीप जाने से सागर के समीप मेघों की समान दाता हो गये ।। ७२ ॥
स्तूयमानः स जिह्राय स्तुत्यमेव
समाचरन् ।
तथापि ववृधे तस्य तत्कारिद्वेषिणो
यशः॥ १७ -७३॥
भा०-स्तुति योग्य ही काम करता हुआ
वह प्रशंसा को प्राप्त हो लज्जित हुआ, तथापि
स्तुति करनेवालों के द्वेषी उस राजा की कीर्ति वढी ॥७३॥
दुरितं दर्शनेन घ्नंस्तत्त्वार्थेन
नुदंस्तमः ।
प्रजाः स्वतन्त्रयांचक्रे
शश्वत्सूर्य इवोदितः॥ १७ -७४॥
भा०-वह उदय होते हुए सूर्य की समान
दर्शन से पाप को, तत्त्वज्ञान से
अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करता हुआ निरन्तर प्रजा को अपने अधीन करता भया ॥७४॥
इन्दोरगतयः पद्मे सूर्यस्य
कुमुदेंऽशवः ।
गुणास्तस्य विपक्षेऽपि गुणिनो
लेभिरेऽन्तरम्॥ १७ -७५॥
भा०–चन्द्रमा की किरणें कमल में नहीं जाती, सूर्य की
किरणें कुमुद में नहीं जाती परन्तु उस गुणी के गुणों ने शत्रुपक्ष में भी स्थान
पाया ॥७५ ।।
पराभिसंधानपरं यद्यप्यस्य
विचेष्टितम् ।
जिगीषोरश्वमेधाय धर्म्यमेव बभूव
तत्॥ १७ -७६॥
भा०-अश्वमेध के निमित्त जय की इच्छा
करनेवाले के कार्य में यद्यपि शत्रुओं को वंचित करना मुख्य था तथापि वह कार्य
धर्मपूर्वक ही हुआ ॥७६ ॥
एवमुद्यन्प्रभावेण शास्त्रनिर्दिष्टवर्त्मना
।
वृषेव देवो देवानां राज्ञां राजा
बभूव सः॥ १७ -७७॥
भा०-इस प्रकार शास्त्र के दिखाये
मार्ग के प्रभाव से वृद्धि को प्राप्त हो वह देवताओं के देवता इन्द्र के समान
राजों का राजा हुआ ॥ ७७॥
पञ्चमं लोकपालानां तमूचुः
साम्ययोगतः ।
भूतानां महतां षष्ठमष्टमं
कुलभूभृताम्॥ १७ -७८॥
भा०-उस राजा को समान धर्म होने के
कारण लोकपालों का पांचवां महाभूतों का छठा और पर्वतों का अठवां कहते हैं ॥ ७८॥
(चार दिशाओं के लोकपाल इन्द्र,
यम, वरुण, कुवेर हैं ।
पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, यह पंच महाभूत है,
महेन्द्र, मालय, सह्य,
शुक्तिमत्, ऋश, विन्ध्य,
पारियात्र यह सात मुख्य पर्वत है)
दूरापवर्जितच्छत्रैस्तस्याज्ञां
शासनार्पिताम् ।
दधुः शिरोभिर्भूपाला देवाः
पौरंदरीमिव॥ १७ -७९॥
भा०-राजा मर्यादा के निमित्त दी हुई
उसकी आज्ञा को मानों देवता इन्द्र की (आज्ञा को) दूर किये हुए छत्रवाले शिरों से
मान्ते हुए ॥ ७९ ॥
ऋत्विजः स तथानर्च
दक्षिणाभिर्महाक्रतौ ।
यथा साधारणीभूतं नामास्य धनदस्य च॥
१७ -८०॥
भा०-उसने अश्वमेध में ऋत्विजों का
दक्षिणा से ऐसा सत्कार किया कि, उसका और कुवेर
का नाम तुल्य ही हो गया (अर्थात् उसे भी कुवेर कहने लगे) ॥८० ॥
इन्द्राद्वृष्टिर्नियमितगदोद्रेकवृत्तिर्यमोऽभू
–
द्यादोनाथः शिवजलपथः कर्मणे
नौचराणाम् ।
पूर्वापेक्षी तदनु विदधे कोषवृद्धिं
कुबेर –
स्तस्मिन्दण्डोपनतचरितं भेजिरे
लोकपालाः॥ १७ -८१॥
भा०-इन्द्र से वर्षा हुई,
यम रोग की वृद्धि को रोकनेवाले हुए, वरुण नाव चलाने
के कर्म में जल का मार्ग सुगम करनेवाला हुआ, इसके पीछे
पुरुषाओं का माहात्म्य जाननेवाले कुबेर ने कोष बढाया, इस
प्रकार लोकनाथों ने उसमें दण्ड से वशीभूत किये हुओं की रीति की॥ ८१॥
॥ इति
श्रीरघुवंशे महाकाव्ये कविश्रीकालिदास - कृतावतिथिवर्णनं नाम सप्तदशः सर्गः ॥ १७ ॥
इस प्रकार श्रीमहाकविकालिदास द्वारा
रचित रघुवंश महाकाव्य का सर्ग १७ सम्पूर्ण हुआ॥
रघुवंश
रघुवंशमहाकाव्यम्
सप्तदशः सर्गः
रघुवंशं सर्ग १७ कालिदासकृतम्
रघुवंशम् सत्रहवां
सर्ग
रघुवंश
महाकाव्य
सप्तदशः सर्गः
रघुवंश महाकाव्य सर्ग १७ संक्षिप्त कथासार
राजा अतिथि
जैसे रात के अन्तिम प्रहर से प्रकाश
का जन्म होता है, कुमुद्वती से
काकुत्स्थ वंश को बढ़ानेवाला अतिथि नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ । सूर्य उत्तर-दक्षिण
दोनों दिशाओं को पवित्र कर देता है, अतिथि ने भी अपने गुणों
की गरिमा से पितृवंश और मातृवंश दोनों को पवित्र कर दिया । पिता ने उसे पहले कुल
के योग्य शास्त्र तथा शस्त्रविद्या का अध्ययन करवाया और उसके पश्चात् उसका
राजकन्याओं से विवाह कर दिया । अतिथि अपने पिता के समान ही कुलीन, शूर और संयमी था इस कारण एक होता हुआ भी अपने अनेक होने का अनुभव कराने
लगा। जब स्वर्ग पर संकट आया, तब इन्द्र के निमन्त्रण पर कुश
वहां गया जहां उसने दुर्जय नाम के दैत्य को मार दिया और स्वयं भी दैत्य द्वारा
मारा गया । जैसे चन्द्रमा के साथ चांदनी विलीन हो जाती है, कुमुद्वती
ने भी राजा के पश्चात् प्राण छोड़ दिए। संग्राम के लिए जाते हुए कुश ने आज्ञा दी
थी कि यदि मेरी मृत्यु हो जाए तो मेरे पुत्र अतिथि को राजगद्दी पर बिठा देना ।
तदनुसार मन्त्रियों ने राजकुमार का राज्याभिषेक कर दिया । उसके अभिषेक के लिए कुशल
-कारीगरों द्वारा, ऊंची वेदी से युक्त, चार खम्भों पर खड़ा हुआ नया मण्डप तैयार करवाया गया । वहां सुन्दर आसन पर
बिठाकर सोने के घड़ों में लाए गए विविध तीर्थों के जलों द्वारा, मन्त्रियों ने अतिथि का अभिषेक किया । उस समय मधुर और गम्भीर नाद करने
वाले तूर्यों की ध्वनि ने संसार को अतिथि के भावी अक्षय कल्याण की सूचना दी । पहले
पुरोहित और उनके अनुगामी ब्राह्मणों ने अथर्ववेद के मन्त्रों से अभिषेक किया ।
जैसे शिव के सिर पर गंगा का प्रवाह धारावाही रूप से अवतीर्ण होता है, अभिषेक की लक्ष्मी मंगल - ध्वनि के साथ उसके मस्तक पर बह गई। उस समय बन्दी
लोग ऊंचे स्वर से स्तुति - गान गा रहे थे। जैसे वर्षा के जल में बादलों में चमकने
वाली बिजली का तेज निखर उठता है, उसी प्रकार तीर्थों के
पवित्र जल से अभिषिक्त होने पर अतिथि की ज्योति भी दस गुना हो गई । यज्ञ के अन्त
में राजा ने स्नातकों को इतना पर्याप्त दान दिया कि वे अपने - अपने यज्ञों को
सुविधा से पूरा कर सकें । प्रसन्न होकर स्नातकों ने उसे जो आशीर्वाद दिया, उसे राजा के पहले से किए हए कर्मों ने दूर से ही व्यर्थ करके रोक दिया ।
अभिषेक की प्रसन्नता से अतिथि ने कैदियों को मुक्त कर दिया, मृत्युदण्ड
वालों का दण्ड माफ कर दिया, बैलों पर अधिक बोझ न लादने की
आज्ञा दे दी और यह भी आदेश दिया कि इस अवसर पर गौओं को न दुहकर उनका सारा दूध
बछड़ों को पीने दिया जाए। राजा की आज्ञा से पिंजरों में बन्द शुक आदि पक्षी छोड़
दिए गए । तब अतिथि राजसी वस्त्र पहनने के लिए भवन के दूसरे भाग में गया, वह वहां हाथी दांत के ऐसे आसन पर आसीन हुआ, जिस पर
बहुमूल्य चादर बिछी हुई थी । प्रसाधक लोगों ने पहले जल से हाथ धोए, फिर उसके केशों के अग्रभागों को धूप से सुगन्धित करके वेश विन्यास की
सामग्री लेकर उपस्थित हुए । उन्होंने मोतियों की लड़ी में पद्मराग मणि को सजा दिया
। कस्तूरी की गन्ध से सुगन्धित चन्दन के लेप से शरीर के प्रसाधन को समाप्त करके उस
पर गोरोचन द्वारा पत्र -रचना की । उस समय आभूषण और हंस के चिहवाले दुकूल को धारण
करके वह राज्यश्री - रूपी बहू का वर अत्यन्त शोभायमान प्रतीत होता था । जब अतिथि
ने राजवेश से सुसज्जित होकर अपनी आकृति दर्पण में देखी तो वह ऐसी तेजस्विनी प्रतीत
हुई जैसे सूर्य के उदित हो जाने पर मेरु पर्वत पर कल्पतरु की छाया । इस प्रकार
वेशभूषा से सर्वथा तैयार होकर, राजपद के छत्र - चामर आदि
चिह्नों को वहन करने वाले जयकारी राजपुरुषों के साथ वह देवसभा के समान सुशोभित
राजसभा में प्रविष्ट हुआ। वहां जाकर नरेशों के राजमुकुटों के संघर्ष से घिसे हुए
पादपीठ और वितान से शोभित पितृ -पितामहों के आसन पर आरूढ़ हुआ । वह श्रीवत्स
लक्षणों से युक्त उस सभा में इस प्रकार सुशोभित था मानो विष्णु के वक्ष पर
कौस्तुभमणि हो । अतिथि विधिपूर्वक युवराज पद पर नियुक्त न होकर भी बाल्यावस्था में
ही सम्राट - पद को प्राप्त हो गया । मानो दूज का चांद अर्धचन्द्र हुए बिना ही
पूर्ण चन्द्र बन गया । अतिथि का मुखड़ा सदा प्रसन्न रहता था । वह बात करता था तो
मुस्कराकर। वह प्रजाजनों के विश्वास की साक्षात् मूर्ति के सदृश था । जब ऐरावत के
समान भव्य हाथी पर आरूढ़ होकर उसने ध्वजाओं और तोरणों से सजी हुई अयोध्यापुरी में
भ्रमण किया, तब वह स्वर्गपुरी के समान दिखाई देती थी । छत्र
केवल अतिथि के सिर पर छाया हुआ था, परन्तु उससे सारी प्रजा
के मन में पुराने राजाओं के वियोग से उत्पन्न हुई सारी गर्मी दूर हो गई । अतिथि
रूप, वीरता और दूरदर्शिता आदि गुणों में रघुकुल के सर्वथा
अनुरूप था । अभिषेक - जल में गीली वेदी भी अभी सूखने न पाई थी कि उस का दु:सह
प्रताप समुद्रतट के अन्त तक पहुंच गया । वसिष्ठ की नीति और धनुर्धारी अतिथि के तीर
- दोनों की सम्मिलित शक्ति के लिए कुछ भी असाध्य नहीं था । दण्डशास्त्र के जानने
वाले अधिकारियों की सहायता से अतिथि शत्रुओं के अभियोगों का निर्णय करता था ।
उत्तम कार्य करने वाले भृत्यों के प्रति चेहरे की मुद्रा से प्रसन्नता प्रकट करके
वह उन्हें अभीष्ट पारितोषिक देता था। कुशरूपी श्रावण मास ने जिन प्रजारूपी नदियों
को बढ़ा दिया था, अतिथिरूपी भाद्रपद मास ने अपनी प्रजावत्सलता
से उनमें बाढ़- सी ला दी । वह जो बात कहता था, वह कभी मिथ्या
नहीं होती थी । जो दे देता था, उसे वापिस नहीं लेता था । हां,
एक नियम भंग करता था, कि शत्रुओं को उखाड़ कर
फिर उसी देश में लगा देता था । जवानी, रूप और ऐश्वर्य तीनों
में से एक भी हो, तो मद उत्पन्न करने के लिए काफी है । उसमें
तीनों थे, फिर भी उसके मन में अभिमान नहीं था । इस प्रकार
प्रजा के प्रेम से सिंचित वह नया वृक्ष भी पुराने वृक्षों की भांति दृढ़मूल हो गया
। बाहर के समस्त शत्रुओं को जीतने से पूर्व उसने अन्दर के काम, क्रोध आदि सब शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली । जैसे पत्थर पर पड़ी हुई
स्वर्ण की रेखा अमिट होती है, वैसे ही उसके पास आकर चंचला
लक्ष्मी भी स्थिर हो गई थी । केवल नीति कायरता का चिह्न है और केवल शौर्य
पशुवृत्ति का सूचक है, अत: कार्य-सिद्धि के लिए अतिथि दोनों
का ही उपयोग करता था । जैसे मेघों से शून्य आकाश में सब कुछ सूर्य की रश्मियों के
सामने रहता है, वैसे ही उसके ज्ञान से दूर कुछ नहीं था ।
शास्त्रों और गुरुओं के आदेश के अनुसार वह दिन और रात का निश्चित समय -विभाग बनाकर
उसके अनुसार कार्य करता था उसमें विकल्प नहीं होने देता था । वह मन्त्रियों से
प्रतिदिन मन्त्रणा किया करता था, परन्तु भेद सुरक्षित होने
के कारण उसकी मन्त्रणा गुप्त ही रहती थी । मित्रों और शत्रुओं में उसके दूत ऐसे
प्रच्छन्न रूप में घूमते थे कि वे एक - दूसरे को भी नहीं जानते थे। उसके कारण वह
सोता हुआ भी जागता था । वह शत्रुओं के देशों पर आक्रमण करके उन्हें जीत लेता था,
तो भी अपने देश के दुर्गों को निर्बल नहीं होने देता था । केसरी
हाथियों के झुंडों का ध्वंस कर देता है, परन्तु स्वयं पर्वत
की गुफा में सुरक्षित होकर जो सोता है, उसका कारण डर नहीं,
अपितु आत्मरक्षा की सामयिक भावना है । जैसे धान के दाने बालों में
रहकर ही परिपक्व होते हैं, वैसे ही उसकी कल्याणकारिणी योजनाएं
भी परामर्श और उद्योग की दशा में अत्यन्त गुप्त रहने के कारण तभी प्रकट होती थीं
जब सफल हो जाती थीं । अत्यन्त बढ़कर भी वह मार्गभ्रष्ट नहीं होता था । ज्वारभाटे
के समय भी समुद्र का जल नदी के मुखों से ही बाहर निकलता है - तट की मर्यादा को
नहीं तोड़ता यद्यपि उसमें प्रजा में उत्पन्न हुए असन्तोष को दबाने की पर्याप्त
शक्ति थी, तो भी वह असन्तोष उत्पन्न करने वाले कार्यों से
बचता था । रोग का इलाज करने की अपेक्षा रोग को रोकना उचित समझता था । वह धर्म,
अर्थ और काम तीनों को परस्पर एक - दूसरे का सहायक बनाकर निष्काम भाव
से उनका प्रयोग करता था । यदि मित्र निर्बल रहें तो कुछ भला नहीं कर सकते और यदि
अत्यन्त प्रबल हो जाएं तो विरोधी बन जाते हैं । इस कारण वह मित्रों को मध्यम दशा
में रखता था । उसके राज्य में महिलाएं तथा व्यापारी जैसे रक्षणीय व्यक्ति भी
नदियों में विहार करते थे, बगियों में, वनों में घूमते थे। वे वाटिकाओं और पहाड़ों में ऐसे विचरण करते थे,
जैसे घरों में । सब लोग आततायियों से निश्चिन्त होकर अपने - अपने
कार्यों में लगे रहते थे। वह पृथ्वी की रक्षा करता था और इसके बदले में पृथ्वी उसे
भरपूर पारितोषिक देती थी । वह खानों से रत्न, खेती से अन्न
और जंगलों से हाथी देती थी । चन्द्र बढ़कर क्षीण हो जाता है, परन्तु वह जो एक बार बढ़ने लगा तो अपने शासन काल में उतार पर नहीं आया ।
समुद्र से जल पाकर बादलों में पानी बरसाने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार उसके दिए हुए दान से समृद्ध होकर विद्वान और दरिद्र लोग दानी
बन गए थे। मुंह पर की गई स्तुति से अतिथि लज्जित होता था और स्तोता को बुरा समझता
था, तो भी उसका यश निरन्तर बढ़ता ही जाता था । साधारण रूप
में अन्य देश पर आक्रमण करना निंदा के योग्य है, परन्तु
क्योंकि उसने अश्वमेध यज्ञ की पूर्ति के लिए दिग्विजय किया था, अतः वह धर्मानुकूल ही था । इस प्रकार शास्त्रों द्वारा विधि से अश्वमेध
यज्ञ करके, कोश और सैन्य की शक्ति के कारण उसने देवताओं के
राजा इन्द्र के समान राजाधिराज पदवी को प्राप्त कर लिया । दूर से दूर देश के
रहनेवाले राजाओं ने भी सम्राट अतिथि के भेजे हुए आज्ञापत्रों को सुनने के समय अपने
राज्यक्षत्रों को हटाकर, आज्ञाओं को शिरोधार्य किया । अतिथि
ने अश्वमेध यज्ञ में ऋत्विजों को इतनी दक्षिणा दी कि उसे जनता कुबेर के समान मानने
लगी ।
रघुवंश
महाकाव्य सत्रहवां सर्ग का संक्षिप्त कथासार सम्पूर्ण हुआ॥ १७ ॥
शेष जारी..............आगे रघुवंशमहाकाव्यम् सर्ग १८
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