रघुवंशम् सर्ग १६
इससे पूर्व महाकवि कालिदास जी की
महाकाव्य रघुवंशम् सर्ग १५ में राम का शरीर-त्याग तक की कथा पढ़ा । अब इससे आगे की
कथा रघुवंशम् सर्ग १६ से राम के वंशजों लव-कुश इत्यादि भ्राताओं का राज्य-शासन, परिणय, अयोध्या की नगरदेवी द्वारा याचना किये जाने
पर कुश का अयोध्या में शासनसूत्र संभालना, कुश का रानियों के
साथ जल-क्रीड़ा का सुन्दर चित्रण उपलब्ध होता है। यहाँ पहले इस सर्ग का मूलपाठ भावार्थ
सहित और पश्चात् हिन्दी में संक्षिप्त कथासार नीचे दिया गया है।
रघुवंशमहाकाव्यम् षोडशः सर्गः
रघुवंशं सर्ग १६ कालिदासकृतम्
रघुवंशम् सोलहवां
सर्ग
रघुवंश
महाकाव्य
षोडशः
सर्गः
॥ रघुवंशं सर्ग १६ कालिदासकृतम् ॥
अथेतरे सप्तरघुप्रवीरा ज्येष्ठं
पुरोजन्मतया गुणैश्च ।
चक्रुः कुशं रत्नविशेषभाजं
सौभ्रात्रमेषां हि कुलानुकारि ॥ १६ -१॥
भा०-इसके उपरान्त उन सातों वीर
रघुवंशियों ने बडेपन के कारण और गुणों के कारण कुश को भाग में सुन्दर वस्तु
लेनेवाला किया कारण कि सुन्दर भाईपना उनके कुल की रीति ही है ॥१॥
ते
सेतुवार्तागजबन्धमुखैरभ्युच्छ्रिताः कर्मभिरप्यवन्ध्यैः ।
अन्योन्यदेशप्रविभागसीमां वेलां
समुद्रा इव न व्यतीयुः ॥ १६ -२॥
भा०- उन्होंने सेतु (पुल) बांधना,
खेती, व्यापार की रक्षा, हाथी का पकडना इन मुख्य गुणवाले सकल कार्यों में कुशल होकर भी एक दूसरे की
विभाग की हुई सीमा को समुद्र वेला के समान उलंघन न किया ॥२॥
चतुर्भुजांशप्रभवः स तेषां
दानप्रवृत्तेरनुपारतानाम् ।
सुरद्विपानामिव
सामयोनिर्भिन्नोऽष्टधा विप्रससार वंशः ॥ १६ -३॥
भा०-विष्णु के अंश (रामादि) से
उत्पन्न हुआ उन निरन्तर स्वाभाविक दान करनेवालों का वह वंश साम (वेद) से उत्पन्न
हुए देवगजों के समान आठ प्रकार विभक्त होकर फैला ॥३॥ '(हाथी की उपमा का तात्पर्य यह है कि दानप्रवृत्ति के अर्थ मद बहना और दान
देना दो हैं, जिसमें दान देने का अर्थ कुशादिकों में घटता
है)
अथार्धरात्रे स्तिमितप्रदीपे
शय्यागृहे सुप्तजने प्रबुद्धः ।
कुशः
प्रवासस्थकलत्रवेषामदृष्टपूर्वां वनितामपश्यत् ॥ १६ -४॥
भा०-इसके उपरान्त आधी रात में
दीपकों के निश्चल होने और मनुष्यों के सोने पर शय्यावाले घर में जागते हुए कुश ने
परदेशपतिबाली स्त्री का वेषधारे प्रथम न देखी हुई स्त्री को देखा ॥ ४॥
सा साधुसाधारणपार्थिवर्द्धेः
स्थित्वा पुरस्तात्पुरहूतभासः ।
जेतुः परेषां जयशब्दपूर्वं
तस्याञ्जलिं बन्धुमतो बबन्ध ॥ १६ -५॥
भा०-वह (स्त्री) उस महात्मा साधारण
राज्यलक्ष्मीवाले, इन्द्र के समान
तेजस्वी शत्रुओं के जीतनेवाले, कुटुम्बी कुश के सन्मुख खडी
होकर जय शब्द कहकर हाय जोडती हुई ॥५॥
अथानपोढार्गलमप्यगारं
छायामिवादर्शतलं प्रविष्टाम् ।
सविस्मयो दाशरथेस्तनूजः प्रोवाच पूर्वार्धविसृष्टतल्पः
॥ १६ -६॥
भा०-तब आश्चर्य से अगले आधे शरीर को
सेज से उठाकर दशरथसुत के पुत्र (कुश) ने अर्गला लगे हुए मन्दिर में आदर्श (दर्पण)
में प्रविष्ट हुई छाया की समान प्राप्त हुई से कहा ॥ ६॥
लब्धान्तरा सावरणेऽपि गेहे
योगप्रभावो न च लक्ष्यते ते ।
बिभर्षि चाकारमनिर्वृतानां मृणालिनी
हैममिवोपरागम् ॥ १६ -७॥
भा०-गुप्तस्थान में भी तू प्रवेश कर
आई है और तेरा माहात्म्य योग के समान नहीं है क्योंकि तूने दुखियों के समान रूप
धारण किया है, जिस प्रकार से शीत के विघ्न से
कमलिनी होती है ॥ ७॥
का त्वं शुभे कस्य परिग्रहो वा किं
वा मदभ्यागमकारणं ते ।
आचक्ष्व मत्वा वशिनां रघूणां मनः
परस्त्रीविमुखप्रवृत्तिः ॥ १६ -८॥
भा०-हे शोभने ! तु कौन है किसकी
स्त्री है और मेरे निकट आने का तेरा कारण क्या है यूँ जितेन्द्री रघुवंशियों के मन
को दूसरे की स्त्रियों के व्यवहार में विमुख जानकर बता ॥८॥
तमब्रवीत्सा गुरुणानवद्या या
नीतपौरा स्वपदोन्मुखेन ।
तस्याः पुरः संप्रति वीतनाथां
जानीहि राजन्नधिदेवतां माम् ॥ १६ -९॥
भा०- वह उससे बोली,
जिस दोषरहित पुरी के निवासियों को अपने पुर जाने के उत्साही
तुम्हारे पिता ले गये हे राजन् ! मुझे इस समय अनाथ उस (अयोध्या) पुरी को अधिदेवता
जानो ॥९॥
वस्वौकसारामभिभूय
साहं सौराज्यबद्धोत्सवया विभूत्या ।
समग्रशक्तौ त्वयि सूर्यवंश्ये सति
प्रपन्ना करुणामवस्थाम् ॥ १६ -१०॥
भा०-सो मैं श्रेष्ठ राज्य के प्रभाव
से नित्य उत्सवों के ऐश्वर्य के द्वारा अलकापुरी को निरादर करके,
सम्पूर्ण शक्तिमान् तुम सूर्यवंशी के विद्यमान रहते भी इस दीन दशा को
प्राप्त हुई हूं ॥ १०॥
विशीर्णतल्पाट्टशतो निवेशः
पर्यस्तसालः प्रभुणा विना मे ।
विडम्बयत्यस्तनिमग्नसूर्यं
दिनान्तमुग्रानिलभिन्नमेघम् ॥ १६ -११॥
भा०-टूटे हुए सैकड़ों अटे अटारी,
और टूटे परकोटेवाली, स्वामी के बिना मेरी वसती
अस्त में निमग्न सूर्य और कठोर पवन के बखेरे हुए मेघोंवाली संध्या की होड़ करती है
॥ ११ ॥
निशासु भास्वत्कलनूपुराणां यः
संचरोऽभूदभिसारिकाणाम् ।
नदन्मुखोल्काविचितामिषाभिः स
वाह्यते राजपथः शिवाभिः ॥ १६ -१२॥
भा०- रात्रि में प्रकाशमान मधुरशब्द
करते हुए नूपुरवाली अभिसारिकाओं के विचरने का जो राजमार्ग था,
अब चिल्लाते हुए मुख की चिनगारियों से मांस ढूंढती हुई शृंगाली उस
राजमार्ग में फिरती हैं ॥१२॥
आस्फालितं
यत्प्रमदाकराग्रैर्मृदङ्गधीरध्वनिमन्वगच्छत् ।
वन्यैरिदानीं महिषैस्तदम्भः शृङ्गाहतं
क्रोशति दीर्घिकाणाम् ॥ १६ -१३॥
भा०-जो स्त्रियों की हथेलियों से
ताडित होकर मृदंग की गंभीर ध्वनि की होड़ करता था, वह वावडियों का जल अब वन के भैंसों के सींगों से झकोला हुआ कठोर शब्द करता
है ॥ १३ ॥
वृक्षेशया
यष्टिनिवासभङ्गान्मृदङ्गशब्दापगमादलास्याः ।
प्राप्ता दवोल्काहतशेषबर्ह्याः
क्रीडामयूरा वनबर्हिणत्वम् ॥ १६ -१४॥
भा०-बैठने की लकडी के टूटने से
वृक्षों पर रहनेवाले मृदंग शब्द के न होने से नृत्य त्यागे हुए दावाग्नि की
चिनगारियों से जली पूंछवाले क्रीडा के मोर जंगली मोर हो गये हैं ॥ १४॥
सूपानमार्गेषु च येषु रामा
निक्षिप्तवत्यश्चरणान्सरागान् ।
सद्योहतन्यङ्कुभिरस्रदिग्धं
व्याघ्रैः पदं तेषु निधीयते मे ॥ १६ -१५॥
भा०-जिन सीढियों के मार्ग में
रमणशीला युवती महावर लगे चरणों को रखती थीं, उनमें तत्काल हिरण मारकर सिंह रुधिर भरे
चरण धरते हैं ॥ १५॥
चित्रद्विपाः पद्मवनावतीर्णाः
करेणुभिर्दत्तमृणालभङ्गाः ।
नखाङ्कुशाघातविभिन्नकुम्भाः
संरब्धसिंहप्रहृतं वहन्ति ॥ १६ -१६॥
भा०-कमल के बन में प्रवेश किये
हथिनियों से मृणाल के खण्ड लेते हुए चित्र के हाथी नखरूपी अंकुश के आघात से मस्तक
छिदे हुए रोष भरे सिंहों का प्रहार सहते हैं ॥ १६ ॥
स्तम्भेषु
योषित्प्रतियातनानामुत्क्रान्तवर्णक्रमधूसराणाम् ।
स्तनोत्तरीयाणि भवन्ति
सङ्गान्निर्मोकपट्टाः फणिभिर्विमुक्ताः ॥ १६ -१७॥
भा०-रंग का क्रम नष्ट हो जाने से
धूसरित खम्बों में स्त्रियों की मूर्ति को सर्प की त्यागी हुई केंचली लिपट कर चोली
बनती हैं ॥ १७ ॥
कालान्तरश्यामसुधेषु नक्तमितस्ततो
रूढतृणाङ्कुरेषु ।
त एव मुक्तागुणशुद्धयोऽपि हर्म्येषु
मूर्च्छन्ति न चन्द्रपादाः ॥ १६ -१८॥
भा०-समय के फेर से काले हुए
चूनेवाले,
इधर उधर घास के अंकुर जमे हुए मंदिरों में रात्रि में मोती माला की
समान वे चन्द्रकिरण प्रकाश नहीं करती हैं ॥ १८॥
आवर्ज्य शाखां सदयं च यासां
पुष्पाण्युपात्तानि विलासिनीभिः ।
वन्यैः पुलिन्दैरिव वानरैस्ताः
क्लिश्यन्त उद्यानलता मदीयाः ॥ १६ -१९॥
भा०-विलासीनी स्त्रियों ने दया से
जिनकी शाखा झुकाकर फूल तोडे थे, मेरी उन
बगीचों की वेलों को पुलिन्दों की समान वन के बन्दर दुःख देते हैं ॥ १९॥
रात्रावनाविष्कृतदीपभासः
कान्तामुखश्रीवियुता दिवापि ।
तिरस्क्रियन्ते
कृमितन्तुजालैर्विच्छन्नधूमप्रसरा गवाक्षाः ॥ १६ -२०॥
भा०-रात्रि में दीपक के प्रकाश से
रहित और दिन में भी स्त्रियों के मुखों की कान्ति से शून्य,
धुएँ का निकलना मिटे हुए झरोखे, मकडियों के
जालों से ढक गये हैं ॥२०॥
बलिक्रियावर्जितसैकतानि
स्नानीयसंसर्गमनाप्नुवन्ति ।
उपान्तवानीरगृहाणि दृष्ट्वा
शून्यानि दूये सरयूजलानि ॥ १६ -२१॥
भा०-पूजा की क्रिया से शून्य घाट और
स्नान के चूर्ण का सत्संग प्राप्त न होनेवाले किनारों पर नरसलों की शून्य
झोपडियोंवाले सरयू के जलों को देखकर मैं दु:ख पाती हूं ॥२१॥
तदर्हसीमां
वसतिं विसृज्य मामभ्युपेतुं कुलराजधानीम् ।
हित्वा तनुं कारणमानुषीं तां यथा
गुरुस्ते परमात्ममूर्तिम् ॥ १६ -२२॥
भा०-इस कारण इस कुशावती को छोडकर
कुल की राजधानी में चलने को योग्य हो, जिस
प्रकार तुम्हारे पिता उस कारण मात्र मनुष्य देह को त्याग कर विष्णुमूर्ति को
प्राप्त हुए ॥ २२॥
तथेति तस्याः प्रणयं प्रतीतः
प्रत्यग्रहीत्प्राग्रहरो रघूणाम् ।
पूरप्यभिव्यक्तमुखप्रसादा
शरीरबन्धेन तिरोबभूव ॥ १६ -२३॥
भा०-रघुवंशियों में श्रेष्ठ (कुश)
ने उसकी इस प्रकार विनय सुन प्रसन्न हो “ऐसा
ही होगा" (कहकर उसकी विनय) स्वीकार की और पुरी भी मुख से प्रसन्नता प्रगट
करती हुई अन्तर्धान हुई ॥ २३ ॥
तदद्भुतं संसदि रात्रिवृत्तं
प्रातर्द्विजेभ्यो नृपतिः शशंस ।
श्रुत्वा त एनं कुलराजधान्या साक्षात्पतित्वे
वृतमभ्यनन्दन् ॥ १६ -२४॥
भा०-राजा ने वह अद्भुत रात्रि का
वृत्तान्त प्रातःकाल सभा में ब्राह्मणों से कहा वे सनकर साक्षात् कुल की राजधानी का
पति माना हुआ उसको सराहते हुए ॥२४॥
कुशावतीं श्रोत्रियसात्स कृत्वा
यात्रानुकूलेऽहनि सावरोधः ।
अनुद्रुतो वायुरिवाभ्रवृन्दैः
सैन्यैरयोध्याभिमुखः प्रतस्थे ॥ १६ -२५॥
भा०-वह कुशावती को वेद जान्नेवाले
ब्राह्मणों को दे यात्रानुकूल दिन में रणवास सहित, बादल संग लिये पवन के समान सेनासहित अयोध्या को चला ॥ २५ ॥
सा
केतुमालोपवना बृहद्भिर्विहारशैलानुगतेव नागैः ।
सेना रथोदारगृहा प्रयाणे
तस्याभवज्जंगमराजधानी ॥ १६ -२६॥
भा०-ध्वजाओं की मालारूपी उपवनोंवाली,
बडे हाथीरूपी क्रीडापर्वतों को पीछे लिये, रथरूपी
ऊंचे मंदिरोंवाली वह सेना उसके चलने पर चलती हुई राजधानी सी दीखी ॥२६॥
तेनातपत्रामलमण्डलेन प्रस्थापितः
पूर्वनिवासभूमिम् ।
बभौ बलौघः शशिनोदितेन
वेलामुदन्वानिव नीयमानः ॥ १६ -२७॥
भा०-निर्मल छत्र मण्डलवाले उसने
पहली निवास भूमि की ओर चलाई हुई सेना उदित हुए चन्द्रमा से तट की ओर चलाये हुए
समुद्र की समान देखी ॥ २७ ॥
तस्य प्रयातस्य वरूथिनीनां
पीडामपर्याप्तवतीव सोढुम् ।
वसुंधरा विष्णुपदं द्वितीयमध्यारुरोहेव
रजश्छलेन ॥ १६ -२८॥
भा०-प्रस्थान करते हुए उसकी सेनाओं का
कष्ट सहने को अशक्त सी होकर पृथ्वी मानों धूर के छल से विष्णु के दूसरे पद आकाश को
चढ़ी ।। २८॥
उद्यच्छमाना गमनाय पश्चात्पुरो
निवेशे पथि च व्रजन्ती ।
सा यत्र सेना ददृशे नृपस्य तत्रैव सामग्र्यमतिं
चकार ॥ १६ -२९॥
भा०-पीछे जाने के निमित्त और आगे
पडाव में उतरने के निमित्त उद्योग करती मार्ग में जाती हुई राजा की वह सेना जहां
देखी गई वहां ही समस्त दीखी ॥ २९ ॥
तस्य द्विपानां
मदवारिसेकात्खुराभिघाताच्च तुरंगमाणाम् ।
रेणुः प्रपेदे प्रथि पङ्कभावं पङ्कोऽपि
रेणुत्वमियाय नेतुः ॥ १६ -३०॥
भा०-उस नायक के हाथियों के मदजल के
छिडकाने से घोडों के खुरों से उठी हुई मार्ग में धूरि कीचपन को प्राप्त हुई और कीच
धरिपन को प्राप्त हुई ॥ ३०॥
मार्गैषिणी सा कटकान्तरेषु
वैन्ध्येषु सेना बहुधा विभिन्ना ।
चकार रेवेव महाविरावा
बद्धप्रतिश्रुन्ति गुहामुखानि ॥ १६ -३१॥
भा०-विंध्यपर्वत की तलैटी में मार्ग
खोजती हुई वहुत भागों में बटी हुई वह सेना रेवा की समान गुहाओं के मुख गुंजार करती
हुई ॥ ३१ ॥
स धातुभेदारुणयाननेमिः प्रभुः
प्रयाणध्वनिमिश्रतूर्यः ।
व्यलङ्घयद्विन्ध्यमुपायनानि
पश्यन्पुलिन्दैरुपपादितानि ॥ १६ -३२॥
भा०-गेरुआदि धातुओं से रथ के लाल
पहियेवाला, प्रस्थान की ध्वनि से मिले तुरह
कि शब्दवाला वह स्वामी, किरातों की लाई हुई भेंटों को देखता
हुआ विन्ध्याचल के पार हुआ ॥ ३२॥
तीर्थे तदीये
गजसेतुबन्धात्प्रतीपगामुत्तरतोस्य गङ्गाम् ।
अयत्नबालव्यजनीबभूवुर्हंसा
नभोलङ्घनलोलपक्षाः ॥ १६ -३३॥
भा०-उस (विन्ध्य) के घाट पर हाथियों
का सेतु बंधने से पश्चिमवाहिनी गंगा को उतरते हुए इसके आकाश की ओर उडते हुए
चलायमान पंखवाले हंस बिना यत्न ही चमर बने ॥३३॥
स पूर्वजानां कपिलेन
रोषाद्भस्मावशेषीकृतविग्रहाणाम् ।
सुरालयप्राप्तिनिमित्तमम्भस्त्रैस्रोतसं
नौलुलितं ववन्दे ॥ १६ -३४॥
भा०-वह कपिलदेवजी के रोष से देह की
भस्म शेष रहे पुरुषों को स्वर्ग प्राप्त करानेवाले नावों से हिलते हुए तीन
स्रोतवाली (गंगा) के जल को प्रणाम करता हुआ॥३४॥
इत्यध्वनः केचिदहोभिरन्ते कूलं समासाद्य
कुशः सरय्वाः ।
वेदिप्रतिष्ठान्वितताधराणां
यूपानपश्यच्छतशो रघूणाम् ॥ १६ -३५॥
भा०-इस प्रकार कुछेक दिनों में
मार्ग के अन्त पर सरयू का तीर प्राप्त करके कुश ने महायज्ञ करनेवाले रघुवंशियों के
वेदियों में खडे हुए स्तम्भों के सैकडे देखे ॥ ३५॥
आधूय शाखाः कुसुमद्रुमाणां
स्पृष्ट्वा च शीतान्सरयूतरंगान् ।
तं क्लान्तसैन्यं कुलराजधान्याः
प्रत्युज्जगामोपवनान्तवायुः ॥ १६ -३६॥
भा०-कुलराजधानी के बगीचों की पवन
फूलवाले वृक्षों की शाखा को कंपाकर और शीतल सरयू की तरंगों को छूकर उस थकी हुई
सेनावाले को आगे मिली ॥३६॥
अथोपशल्ये रिपुमग्नशल्यस्तस्याः
पुरः पौरसखा स राजा ।
कुलध्वजस्तानि
चलध्वजानि निवेशयामास बली बलानि ॥ १६ -३७॥
भा०-तब शत्रुओं में वाण मारनेवाले,
पुरवासियों के सखा, कुल के ध्वजा, वली, उस राजा ने चलायमान ध्वजावाली सेना उस पुरी के
आसपास की भूमि में ठहराई ॥
तं शिल्पिसंघाः प्रभुणा
नियुक्तास्तथागतां संभृतसाधनत्वात् ।
पुरं नवीचक्रुरपां विसर्गान्मेघा
निदाघग्लपितामिवोर्वीम् ॥ १६ -३८॥
भा०-स्वामी के नियुक्त किये
कारीगरों के समूह ने सामग्री संग्रह करके उस दशा को प्राप्त हुई,
मेघों के जल बर्षाने से गरमी की तपाई हुई भूमि की समान वह पुरी नई
कर दी ॥ ३८॥
ततः सपर्यां सपशूपहारां पुरः
परार्घ्यप्रतिमागृहायाः ।
उपोषितैर्वास्तुविधानविद्भिर्निर्वर्तयामास
रघुप्रवीरः ॥ १६ -३९॥
भा०-तब रघुप्रवीर (कुश) ने महामोल की
मूर्तियुक्त मंदिरोंवाली पुरी का उपासे व्रतधारे वास्तुविधि (नये मन्दिर की पूजा)
जानेवालों से पशुओं के बलिदान सहित पूजन कराया॥ ३९ ॥
तस्याः स राजोपपदं निशान्तं कामीव
कान्ताहृदयं प्रविश्य ।
यथार्हमन्यैरनुजीविलोकं संभावयामास
यथाप्रधानम् ॥ १६ -४०॥
भा०-उसने उस पुरी के राजभवन में
स्त्री के मन में कामी के समान प्रवेश करके 'दूसरे
मंत्री आदि को योग्यता के अनुसार स्थान देकर सन्मान किया ।। ४०॥
सा
मन्दुरासंश्रयिभिस्तुरंगैः शालाविधिस्तम्भगतैश्च नागैः ।
पूराबभासे विपणिस्थपण्या
सर्वाङ्गनद्धाभरणेव नारी ॥ १६ -४१॥
भा०-बजार में धरी हुई बेचने की
वस्तुवाली वह पुरी, घुडसाल में बंधे हुए
घोड़ों और हाथी शाला में विधिपूर्वक गडे स्तंभों में बंधे हाथियों से सर्वांग गहना
पहरे स्त्री की समान शोभित हुई॥४१॥
वसन्स तस्यां वसतौ रघूणां
पुराणशोभामभिरोपितायाम् ।
न मैथिलेयः स्पृहयांबभूव भर्त्रे
दिवो नाप्यलकेश्वराय ॥ १६ -४२॥
भा०-उस जानकी के पुत्रने पहली शोभा को
प्राप्त की हुई रघुवंशियों की पुरी में वास करते हुए स्वर्ग का और अलका पुरी का
स्वामी होना भी न चाहा ।। ४२।।
अथास्य
रत्नग्रथितोत्तरीयमेकान्तपाण्डुस्तनलम्बिहारम् ।
निःश्वासहार्यांशुकमाजगाम घर्मः
प्रियावेशमिवोपदेष्टुम् ॥ १६ -४३॥
भा०-तब इसको रत्नजडी ओढनीवाली,
अधिक गौर स्तनों पर लटकते हारोंवाली, स्वांस से
चलायमान वस्त्रोंवाली मानों प्रिया का वेश दिखाने को ग्रीष्म ऋतु आई॥४३॥
अगस्त्यचिह्नादयनात्समीपं दिगुत्तरा
भास्वति संनिवृत्ते ।
आनन्दशीतामिव बाष्पवृष्टिं
हिमस्रुतिं हैमवतीं ससर्ज ॥ १६ -४४॥
भा०-अगस्त्य के चिह्नवाले (दक्षिण)
अयन से सूर्य के निकट लौटकर आने से उत्तर दिशा ने आनन्द के शीतल आंसुओं की वर्षा की
समान हिमालय की शीतल धारा छोडी ॥ ४४ ॥
प्रवृद्धतापो
दिवसोऽतिमात्रमत्यर्थमेव क्षणदा च तन्वी ।
उभौ विरोधक्रियया विभिन्नौ जायापती
सानुशयाविवास्ताम् ॥ १६ -४५॥
भा०-अत्यन्त ताप वढा हुआ दिन और
बहुत ही क्षीण रात्रि यह दोनों विरुद्ध आचरण से पश्चात्ताप करते हुए स्त्री पुरुष के
समान हुए ॥ ४५ ॥
दिने दिने
शैवलवन्त्यधस्तात्सोपानपर्वाणि विमुञ्चदम्भः ।
उद्दण्डपद्मं गृहदीर्घिकाणां
नारीनितम्बद्वयसं बभूव ॥ १६ -४६॥
भा०-दिन दिन शिवाल उपजी हुई नीचे की
सीढियों को छोडता हुआ, खडी डंडी के
कमलोंवाला, घर की बावड़ियों का जल स्त्री की कमर तक गहरा रह गया॥४६॥
वनेषु सायंतनमल्लिकानां
विजृम्भणोद्गन्धिषु कुड्मलेषु ।
प्रत्येकनिक्षिप्तपदः सशब्दं
संख्यामिवैषां भ्रमरश्चकार ॥ १६ -४७॥
भा०-वनों में खिलने के कारण महासुगन्धिवाली
सन्ध्या समय की चमेली की कलियों में ( मकरन्द के लोभ से) शब्दपूर्वक एक एक पर चरण
रखते हुए भौंरे ने मानों इनकी गिन्ती की ॥४७॥
स्वेदानुविद्धार्धनखक्षताङ्के
भूयिष्ठसंदिष्टशिखं कपोले ।
च्युतं न कर्णादपि कामिनीनां
शिरीषपुष्पं सहसा पपात ॥ १६ -४८॥
भा०-पसीने से भीजे हुए नवीन नखक्षत
चिह्नवाले कामिनी के कपोल पर अत्यन्त केशर लिपटा हुआ कर्ण से गिरकर भी शिरस का फूल
सहसा न गिरा ॥४८॥
यन्त्रप्रवाहैः शिशिरैः परीतान्रसेन
धौतान्मलयोद्भवस्य ।
शिलाविशेषान्यधिशय्य
निन्युर्धारागृहेष्वातपमृद्धिवन्तः ॥ १६ -४९॥
भा०-धनी पुरुषों ने जल के मंदिरों में
शीतलयन्त्र के प्रवाहों से छिडकी मलयगिरि के जल से धोई,
विशेष प्रकार की शिलाओं में सोकर दुपहरी बिताई ॥ ४९॥
स्नानार्द्रमुक्तेष्वनुधूपवासं
विन्यस्तसायंतनमल्लिकेषु ।
कामो वसन्तात्ययमन्दवीर्यः केशेषु
लेभे बलमङ्गनानाम् ॥ १६ -५०॥
भा०-वसन्त के बीतने से पराक्रमहीन
काम ने स्नान से गीले स्नान के चूर्ण लगाने को खोले, संध्या की चमेली रक्खे हुए स्त्रियों के केशों में चल पाया ॥ ५० ॥
आपिञ्जरा
बद्धरजःकणत्वान्मञ्जुर्युदारा शुशुभेऽर्जुनस्य ।
दग्ध्वापि देहं गिरिशेन
रोषात्खण्डीकृता ज्येव मनोभवस्य ॥ १६ -५१॥
भा०-रजःकण के लगने से बडी,
लाल अर्जुनवृक्ष की मंजरी, देह जलाकर भी
क्रोधित शिवजी से तोडी हुई कामदेव की प्रत्यंचा की समान शोभित हुई ॥५१॥
मनोज्ञगन्धं
सहकारभङ्गं पुराणशीधुं नवपाटलं च ।
संबध्नता कामिजनेषु दोषाः सर्वे
निदाघावधिना प्रमृष्टाः ॥ १६ -५२॥
भा०-मनोहर गंधयुक्त आम के पत्ते और
पुरानी मदिरा और नये पाटल के फूल संचय करनेवाली ग्रीष्म ने कामी पुरुषों के सब
दुःख दूर किये ॥ ५२॥
जनस्य तस्मिन्समये विगाढे
बभूवतुर्द्वौ सविशेषकान्तौ ।
तापापनोदक्षमपादसेवौ स चोदयस्थौ
नृपतिः शशी च ॥ १६ -५३॥
भा०-उस कठिन समय में प्रजा को दो ही
अधिक प्यारे हुए, ताप के मिटाने में
समर्थ, पाद सेवा से उदय को प्राप्त होता हुआ वह राजा और
चन्द्रमा ॥५३॥
अथोर्मिलोलोन्मदराजहंसे
रोधोलतापुष्पवहे सरय्वाः ।
विहर्तुमिच्छा वनितासखस्य
तस्याम्भसि ग्रीष्मसुखे बभूव ॥ १६ -५४॥
भा०-तब तरंगों के लोभी उन्मत्त
राजहंसोंवाले, तट की लताओं के फूल बहानेवाले,
ग्रीष्म के सुखकारी, (उस) सरयू के जल में उस
स्त्रियों के सखा की विहार करने की इच्छा हुई ॥५४॥
स तीरभूमौ
विहितोपकार्यामानायिभिस्तामपकृष्टनक्राम् ।
विगाहितुं श्रीमहिमानुरूपं
प्रचक्रमे चक्रधरप्रभावः ॥ १६ -५५॥
भा०-विष्णु के समान तेजस्वी वह डेरे
तने तीरवाली धीमरों से मगर निकाली हुई उस नदी को अपनी लक्ष्मी और महिमा के अनुसार
अवगाहन करने लगा ॥५५॥
सा
तीरसोपानपथावतारादन्योन्यकेयूरविघट्टिनीभिः ।
सनूपुरक्षोभपदाभिरासीदुद्विग्नहंसा
सरिदङ्गनाभिः ॥ १६ -५६॥
भा०-वह नदी किनारे के सीढियों का
मार्ग उतरने में एक दूसरे को भुजवन्ध को रगडती हुई, वजते हुए नूपुरों से पैर रखती हुई स्त्रियों से भय व्याकुल हंसोंवाली हुई ॥५६॥
परस्पराभ्युक्षणतत्पराणां तासां
नृपो मज्जनरागदर्शी ।
नौसंश्रयः पार्श्वगतां
किरातीमुपात्ताबालव्यजनां बभाषे ॥ १६ -५७॥
भा०-नाव पर बैठे हुए,
उन परस्पर जल फेंकती हुईयों के स्नान की शोभा देखनेवाले राजा ने चमर
हाथ में लिये निकट खडी हुई किराती से कहा ।। ५७ ॥
पश्यावरोधैः शतशो
मदीयैर्विगाह्यमानो गलिताङ्गरागैः ।
संध्योदयः साभ्र इवेष वर्णं
पुष्यत्यनेकं सरयूप्रवाहः ॥ १६ -५८॥
भा०-धुए अङ्गरागोंवाली मेरे रनवास की
सैकडों स्त्रियों से अवगाहन किया हुआ यह सरयू का प्रवाह,
बादल सहित संध्या के उदय के समान अनेक रंग दिखाता है (सो तू) देख ॥
५८॥
विलुप्तमन्तःपुरसुन्दरीणां यदञ्जनं
नौलुलिताभिरद्भिः ।
तद्बध्नतीभिर्मदरागशोभां विलोचनेषु प्रतिमुक्तमासाम्
॥ १६ -५९॥
भा०-नाव से सञ्चालित पानी ने रनिवास
की सुंदरियों के जिस अंजन को नष्ट कर दिया (धो डाला) है उस अंजन को इन सुंदरियों
के नेत्रों में मदराज की सुन्दरता करनेवाले पानी ने वापिस कर दिया अर्थात् पानी से
अंजन के धुल जाने पर भी उनकी आँखों में स्नान करने से मदराज सौन्दर्य(लालिमा) आ
गया है ॥ ५९॥
एता
गुरुश्रोणिपयोधरत्वादात्मानमुद्वोढुमशक्नुवत्यः ।
गाढाङ्गदैर्बाहुभिरप्सु
बालाः क्लेशोत्तरं रागवशात्प्लवन्ते ॥ १६ -६०॥
भा०-भारी नितम्ब और पयोधर होने से
अपने को ले चलने में असमर्थ यह स्त्री गाढ़ें अजबन्धवाली बाँहों से दुःख सहती हुई
खेल के वश हो जलों में तैरती हैं॥६० ॥
अमी शिरीषप्रसवावतंसाः प्रभ्रंशिनो
वारिविहारिणीनाम् ।
पारिप्लवाः स्रोतसि निम्नगायाः
शैवाललोलांश्छलयन्ति मीनान् ॥ १६ -६१॥
भा०-जल में विहार करनेवालियों के
गिरे हुए नदी की धार में तैरते यह शिरसफूल के गहने शिवाल की लोभवाली मछलियों को
छलते हैं ॥ ६१॥
आसां जलास्फालनतत्पराणां
मुक्ताफलस्पर्धिषु शीकरेषु ।
पयोधरोत्सर्पिषु शीर्यमाणः
संलक्ष्यते न च्छिदुरोऽपि हारः ॥ १६ -६२॥
भा०-जल झकोरने में तत्पर इन
स्त्रियों के मोतियों की लजानेवाली, स्तनों
पर गिरनेवाली बूंदों में, टूटे हुए हार भी स्वयं टूटे नहीं
जाने जाते ॥ ६२॥
आवर्तशोभा नतनाभिकान्तेर्भङ्गो
भ्रुवां द्वन्द्वचराः स्तनानाम् ।
जातानि रूपावयवोपमानान्यदूरवर्तीनि
विलासिनीनाम् ॥ १६ -६३॥
भा०-विलासनियों के रूप के अवयवों की
उपमा निकट ही प्राप्त हैं, गहरी नाभि की शोभा को
भ्रमर की शोभा, भौं को तरंग और स्तनों को चकवा चकवी के जोडे ६३॥
तीरस्थलीबर्हिभिरुत्कलापैः
प्रस्निग्धकेकैरभिनन्द्यमानम् ।
श्रोत्रेषु
संमूर्च्छति रक्तमासां गीतानुगं वारिमृदङ्गवाद्यम् ॥ १६ -६४॥
भा०-उठाई हुई पूंछवाले मनोहर
बोलनेवाले, तीर के स्थान में बसनेवाले,
मोरों की सराहना की हुई श्रवण योग्य इन स्त्रियों के जलरूपी मृदंग की
ध्वनि कानों में पडती है ॥ ६४ ॥
संदष्टवस्त्रेष्वबलानितम्बेष्विन्दुप्रकाशान्तरितोडुतुल्याः
।
अमी जलापूरितसूत्रमार्गा मौनं
भजन्ते रशनाकलापाः ॥ १६ -६५॥
भा०--कपडा लपेटे,
अबलाओं के नितम्बों पर चांदनी से ढके तारों की समान ये जल भरे
छेदोंवाले कोंधनी के घूंघरू मौन साध रहे हैं ॥६५॥
एताः करोत्पीडितवारिधारा
दर्पात्सखीभिर्वदनेषु सिक्ताः ।
वक्रेतराग्रैरलकैस्तरुण्यश्चूर्णारुणान्वारिलवान्वमन्ति
॥ १६ -६६॥
भा०-अभिमान से जलधारा को हाथ से
उछालती हुई, सखियों से मुखों पर भिजोई हुई
यह स्त्री सीधी नोकवाली अलकों से कुमकुम के रंगवाली लाल बूंदों को बरसाती हैं ॥६६॥
उद्बन्धकेशच्युतपत्रलेखो
विश्लेषिमुक्ताफलपत्रवेष्टः ।
मनोज्ञ एव
प्रमदामुखानामम्भोविहाराकुलितोऽपि वेषः ॥ १६ -६७॥
भा०-बालों के छूटने से धुली अंग
रचनावाला,
खुले मोतियों के कर्णफूलोंवाला, जलविहार से
व्याकुल भी स्त्रियों का वेष मनोहर ही है ॥ ६७॥
स नौविमानादवतीर्य रेमे विलोलहारः
सह ताभिरप्सु ।
स्कन्धावलग्नोद्धृतपद्मिनीकः
करेणुभिर्वन्य इव द्विपेन्द्रः ॥ १६ -६८॥
भा०-उस नावरूपी विमान से उतरकर
लटकते हुए हारवाले ने उन (स्त्रियों) के साथ हथिनियों के संग उखाडी कमलनियों को
कंधे पर डाले वन के हाथी के समान जलों में विहार किया ॥६८ ॥
ततो नृपेणानुगताः स्त्रियस्ता
भ्राजिष्णुना सातिशयं विरेजुः ।
प्रागेव मुक्ता नयनाभिरामाः
प्राप्येन्द्रनीलं किमुतोन्मयूखम् ॥ १६ -६९॥
भा०-तब दीप्तिमान् राजा के संग वे
स्त्रियें बहुत ही शोभित हुई, पहले ही मोती
नेत्रों को आनंददायक होते हैं, फिर दीप्तिमान इन्द्रनीलमणि को
प्राप्त होकर क्या कहना है ॥ ६९॥
वर्णोदकैः
काञ्चनशृङ्गमुक्तैस्तमायताक्ष्यः प्रणयादसिञ्चन् ।
तथागतः सोऽतितरां बभासे
सधातुनिष्यन्द इवाद्रिराजः ॥ १६ -७०॥
भा०-उसको विशाल नेत्रवाली सोने की
पिचकारियों से छूटे हुए रंगीले जलों से प्रेमसहित भिजोती हुई,
इस अवस्था में वह गेरू आदि धातु के झरनों सहित गिरिराराज के समान
अत्यन्त शोभित हुआ॥७० ॥
तेनावरोधप्रमदासखेन विगाहमानेन सरिद्वरां
ताम् ।
आकाशगङ्गारतिरप्सरोभिर्वृतो
मरुत्वाननुयातलीलः ॥ १६ -७१॥
भा०-रनवास की स्त्रियों के सखा,उस श्रेष्ठ नदी में अवगाहन करते हुए उसने आकाशगंगा में क्रीडा करनेवाले
अप्सराओं के सखा इन्द्र की बराबरी की ॥ ७१॥
यत्कुम्भयोनेरधिगम्य रामः कुशाय
राज्येन समं दिदेश ।
तदस्य जैत्राभरणं विहर्तुरज्ञातपातं
सलिले ममज्ज ॥ १६ -७२॥
भा०-जिस आभरण को राम ने अगस्त्यजी से
पाकर कुश को राज्य के संग दिया था, जल
में विहार करनेवाले इसका वह जयशील भूषण बिना जाने जल में डूब गया॥७२॥
स्नात्वा यथाकाममसौ
सदारस्तीरोपकार्यां गतमात्र एव ।
दिव्येन शून्यं वलयेन
बाहुमपोढनेपथ्यविधिर्ददर्श ॥ १६ -७३॥
भा०-इसने स्त्रीसहित इच्छापूर्वक
स्नान करके तट के डेरे में जाते ही, कपडे
विना बदले दिव्यभुजबन्द से बाहु शून्य देखी ॥७३॥
जयश्रियः संवननं यतस्तदामुक्तपूर्वं
गुरुणा च यस्मात् ।
सेहेऽस्य न भ्रंशमतो न लोभात्स
तुल्यपुष्पाभरणो हि धीरः ॥ १६ -७४॥
भा०-जो कि वह जयलक्ष्मी का वशीकरण
था,
और इस कारण कि वह पहले पिता का पहरा हुआ था, इस
निमित्त इसका खो जाना उसने न सहा, न कि लोभ से, कारण कि उस धीर को फूल और गहने तुल्य थे ॥ ७४॥
ततः समाज्ञापयदाशु
सर्वानानायिनस्तद्विचये नदीष्णान् ।
वन्ध्यश्रमास्ते सरयूं विगाह्य
तमूचुरम्लानमुखप्रसादाः ॥ १६ -७५॥
भा०-तब नदी में घुसनेवाले सव धीमरों
को उसके ढूंढने की शीघ्र आज्ञा दी, वे
सरयू को टटोलकर वृथा श्रम होने पर भी विना मुख की मलिनता के उस्से बोले ॥७॥
कृतः प्रयत्नो न च देव लब्धं मग्नं
पयस्याभरणोत्तमं ते ।
नागेन लौल्यात्कुमुदेन
नूनमुपात्तमन्तर्ह्रदवासिना तत् ॥ १६ -७६॥
भा०-हे देव ! यत्न किया गया परन्तु
जल में मग्न हुआ आपका आभूषण न पाया भीतर हद में रहनेवाले कुमुद नाग ने लोभ से उसे
अवश्य ले लिया है ।। ७६ ॥
ततः स कृत्वा धनुराततज्यं धनुर्धरः कोपविलोहिताक्षः
।
गारुत्मतं तीरगतस्तरस्वी भुजंगनाशाय
समाददेऽस्त्रम् ॥ १६ -७७॥
भा०-तव उस धनुषधारी,
क्रोध से लाल नेत्रवाले, बली ने तीर पर जाकर
धनुष पर ज्या चढाकर सर्प के नाश करने को गारुडास्त्र लिया ॥ ७७॥
तस्मिन्ह्रदः संहितमात्र एव
क्षोभात्समाविद्धतरंगहस्तः ।
रोधांसि निघ्नन्नवपातमग्नः करीव
वन्यः परुषं ररास ॥ १६ -७८॥
भा०-उसके चढाते ही भय से तरंगरूपी
हाथ जोडते हुए ह्रदने तट को गिराते हुए गढ्ढे में पडे हुए वन के हाथी के समान कठोर
शब्द किया ॥ ७८ ॥
तस्मात्समुद्रादिव
मथ्यमानादुद्वृत्तनक्रात्सहसोन्ममज्ज ।
लक्ष्म्येव सार्धं सुरराजवृक्षः
कन्यां पुरस्कृत्य भुजंगराजः ॥ १६ -७९॥
भा०-मथते हुए समुद्र के समान,
डरे हुए नाकोवाले, उस्से लक्ष्मी साथ लिये
कल्पवृक्ष के समान कन्या को साथ लिये सहसा सर्पराज निकला ॥ ७९ ॥
विभूषणप्रत्युपहारहस्तमुपस्थितं
वीक्ष्य विशांपतिस्तम् ।
सौपर्णमस्त्रं प्रतिसंजहार
प्रह्रेष्वनिर्बन्धरुषो हि सन्तः ॥ १६ -८०॥
भा०-राजा ने गहने की भेंट हाथ में लिये
हुए को सन्मुख आया हुआ देखकर गारुडास्त्र को उतार लिया,
कारण कि महात्मा विनय करनेवालों पर शान्तकोप होते ही हैं ॥ ८० ॥
त्रैलोक्यनाथप्रभवं प्रभावात्कुशं द्विषामङ्कुशमस्त्रविद्वान्
।
मानोन्नतेनाप्यभिवन्द्य मूर्ध्ना
मूर्धाभिषिक्तं कुमुदो बभाषे ॥ १६ -८१॥
भा०-अस्त्रज्ञानी कुमुद ने
त्रिलोकीनाथ से उत्पन्न हुए, शत्रुओं के
अंकुश, अभिषेक किये हुए कुश को मान के कारण उठे हुए शिर से
प्रणाम करके कहा ॥८१॥
अवैमि कार्यान्तरमानुषस्य विष्णोः
सुताख्यामपरां तनुं त्वाम् ।
सोऽहं कथं नाम तवाचरेयमाराधनीयस्य
धृतेर्विघातम् ॥ १६ -८२॥
भा०-तुमको (मैं) कार्य के निमित्त
मनुष्य तनु धारण करनेवाले विष्णु का दूसरा शरीर जान्ता हूँ,
सो मैं आराधना करने योग्य की मीति को तोडने को कैसे आचरण करता ॥ ८२॥
कराभिघातोत्थितकन्दुकेयमालोक्य
बालातिकुतूहलेन ।
ह्रदात्पतज्ज्योतिरिवान्तरिक्षादादत्त
जैत्राभरणं त्वदीयम् ॥ १६ -८३॥
भा०-हाथ की थपकी लगने से उठी हुई
गेंद खेलनेवाली इस कन्या ने अति कुतहलपूर्वक आकाश से तारे की नाई देह से गिरता हुआ
तुम्हारा जयशील भूपण देखकर ग्रहण किया ॥ ८३ ॥
तदेतदाजानुविलम्बिना ते
ज्याघातरेखाकिणलाञ्छनेन ।
भुजेन रक्षापरिघेण भूमेरुपैतु योगं
पुनरंसलेन ॥ १६ -८४॥
भा०-सो यह जंघापर्यन्त लम्बायमान
प्रत्यञ्चा के चिह्न से भूषित, पृथ्वी की
रक्षा में सूशल समान, बलवान् भूजा को फिर पास हो ॥ ८४ ।।
इमां स्वसारं च यवीयसीं मे
कुमुद्वतीं नार्हसि नानुमन्तुम् ।
आत्मापराधं नुदतीं चिराय शुश्रूषया
पार्थिव पादयोस्ते ॥ १६ -८५॥
भा०-और हे राजन् ! आपके चरणों की चिरकाल शुश्रूषा से अपना अपराध मिटाने की इच्छा करती हुई इस मेरी छोटी बहन कुमुद्वती को तुम ग्रहण करने को योग्य हो ॥ ८५॥
इत्यूचिवानुपहृताभरणः क्षितीशं
श्लाघ्यू भवान्स्वजन इत्यनुभाषितारम् ।
संयोजयां विधिवदास समेतबन्धुः
कन्यामयेन कुमुदः कुलभूषणेन ॥ १६ -८६॥
भा०-इस प्रकार कहते हुए भूषण
देनेवाले कुमद ने “आप बडाई के योग्य
सम्बन्धी हो" इस प्रकार कहते हुए राजा को अपने कुटुम्बियों सहित कन्यारूपी
कुलभूषण भेंट किया ॥८६॥
तस्याः स्पृष्टे मनुजपतिना
साहचर्याय हस्ते माङ्गल्योर्णावलयिनि पुरः पावकस्योच्छिखस्य ।
दिव्यस्तूर्यध्वनिरुदचरद्व्यश्नुवानो
दिगन्ता - न्गन्धोदग्रं तदनु ववृषुः पुष्पमाश्चर्यमेघाः ॥ १६ -८७॥
भा०-राजा के धर्माचरण के निमित्त
मंगलसम्बंधी ऊनी कंगनेवाला उसका हाथ जलती अग्नि के सन्मुख पकडने पर दिशाओं में
व्याप्त होती हुई दिव्य तुही की ध्वनि उठी और इसके उपरान्त अद्भुत मेघों ने अच्छे
सुगन्धित पुष्प बरसाये ।। ८७ ॥
इत्थं नागस्त्रिभुवनगुरोरौरसं
मैथिलेयं लब्ध्वा बन्धुं तमपि च कुशः पञ्चमं तक्षकस्य ।
एकः शङ्कां
पितृवधरिपोरत्यजद्वैनतेया - च्छान्तव्यालामवनिमपरः पौरकान्तः शशास ॥ १६ -८८॥
भा०-इस प्रकार नाग ने त्रिलोकी के
गुरु के पुत्र जानकीकुमार को वन्धु पाकर और कुश ने भी तक्षक के उस पांचवें (पुत्र)
को सम्बन्धि पाकर, एक ने पिता के
मारनेवाले शत्रु गरुड का भय त्यागा, दूसरे ने शान्त
सर्पोवाला पृथ्वी पर प्रजाप्रिय हो राज्य किया ॥ ८८॥
॥ इति श्रीरघुवंशे महाकाव्ये
कविश्रीकालिदासकृतौ कुमुद्वतीपरिणयो नाम षोडशः सर्गः ॥१६।।
इस प्रकार श्रीमहाकविकालिदास द्वारा
रचित रघुवंश महाकाव्य का सर्ग १६ सम्पूर्ण हुआ॥
रघुवंश
रघुवंशमहाकाव्यम्
षोडशः सर्गः
रघुवंशं सर्ग १६ कालिदासकृतम्
रघुवंशम् सोलहवां सर्ग संक्षिप्त कथासार
उत्तराधिकारी कुश
महाराज रामचन्द्र के परलोक-गमन के
पश्चात् लव आदि अन्य सातों रघुवंशी राजकुमार अग्रज होने और गुणवान् होने के कारण
कुश को अपना बड़ा मानने और उत्कृष्ट वस्तुओं से उसका अभिनन्दन करने लगे। इस विषय
में उन्होंने अपनी कुलप्रथा का ही अनुकरण किया । वे अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में
दुर्ग तथा सेतु बनाने, कृषि, गोरथ्यादि की उन्नति करने और गज आदि वन्य पशुओं के बांधने और अन्य आन्तरिक
प्रबन्ध में सन्नद्ध रहते थे, जैसे समुद्र की लहरें सीमा
उल्लंघन नहीं करतीं । वे भी अधिकार क्षेत्र की सीमा का उल्लंघन नहीं करते थे । आधी
रात का समय था । दीपक बुझे हुए थे। शयनागार में सोए हुए कुश की नींद टूटी तो उसने
क्या देखा कि एक ऐसी स्त्री सामने खड़ी है, जिसे उसने पहले
कभी नहीं देखा था और जिसकी वेश-भूषा वियोगिनी जैसी थी । सज्जन शासकों को प्राप्त
होने वाली स्वाभाविक समृद्धि से युक्त, इन्द्र के समान
तेजस्वी, विजेता राजा कुश के प्रति जय का आशीर्वाद देकर वह
महिला हाथ जोड़कर खड़ी हो गई । भवन की कुण्डियां बन्द हैं, फिर
भी जैसे दर्पण में छाया अनायास ही प्रविष्ट हो जाती है, वैसे
ही यह शयनागार में कैसे आ गई ? इस पर आश्चर्यान्वित होते हुए
कुश ने बिस्तर पर बैठे हुए ही पूछा तू बन्द द्वारों वाले घर में पहुंच गई, परन्तु देखने से योगिनी प्रतीत नहीं होती। साथ ही तूने वेश ऐसा बनाया हुआ
है, मानो पाले से मुरझाई हुई कमलिनी हो । बता, तू कौन है ? किसकी पत्नी है? यहां
किस उद्देश्य से आई है? इन प्रश्नों का उत्तर साफ-साफ दे। तू
समझ ले कि रघुवंशियों का मन कभी परस्त्री की ओर नहीं झुकता । उस स्त्री ने उत्तर
दिया । स्वर्गलोक को प्रयाण करने की इच्छा से जब तुम्हारे पिता ने निर्दोष राजधानी
को छोड़ा था, तब नगरवासी उनके पीछे-पीछे चले गए और नगरी को
खाली कर गए थे। हे राजन्, तुम मुझे उस अनाथ अयोध्यापुरी की
अधिदेवता जानो । रघुकुल-राज्य की राजधानी होने के कारण जो एक दिन इन्द्रपुरी को
मात दे रही थी, वह मैं तुम जैसे सर्वशक्तिसम्पन्न सूर्यवंशी
शासक के विद्यमान रहते अत्यन्त दयनीय दशा को प्राप्त हो गई हूं । मेरी विशाल और
आकाश का छूनेवाली अटारियों ने खण्डहरों का रूप धारण कर लिया है तथा संगीतशालाएं
टूट-फूट गई हैं । मेरा ऐसा रूप हो गया है जैसे उस सन्ध्याकाल का होता है, जिसमें सूर्य अस्त हो गया हो और प्रचण्ड वायु ने बादलों को छिन्न-भिन्न कर
दिया हो । जिस राजमार्ग पर किसी दिन अभिसारिकाओं की चमकदार पायलों की मधुर ध्वनि
सुनाई दिया करती थी, वहां आज चीखते हुए गीदड़ मुंह में मांस
के टुकड़े लिए फिरते हैं । जिन बावड़ियों में और स्त्रियों के घड़ों में पानी भरने
के समय मृदंग जैसी मनोहर ध्वनि सुनाई दिया करती थी, जंगली
भैसों के सींगों से चोट खाया हुआ उनका जल आज मानो चीत्कार कर रहा है । वे क्रीड़ा-
मयूर, जिनके नृत्य से मेरे उपवन शोभायमान होते थे, आज वृक्षों पर सोते हैं, क्योंकि उनके लिए बनाए हुए
घर नष्ट हो गए हैं, मृदंग का शब्द लुप्त हो जाने से उनका
नृत्य बन्द है, जंगल की आग ने उनकी कलगियों को जला दिया है और
वे बिल्कुल जंगली मोर बन गए हैं। जिन सोपान-मार्गों को सुन्दर स्त्रियों के लाक्षा
के रंग से रंगे हुए चरण अलंकृत करते थे, उन पर, अब हरिणों को मारकर रक्त से सने हुए पैरोंवाले व्याघ्र घूमा करते हैं ।
पद्मवनों में पौरजनों के स्थान पर सिंहों के नखांकुशों से घायल हाथी विचरण करते
हैं और उद्यानों में लगे हुए पुष्पों को नारियों के कोमल हाथों की जगह बन्दर
नोंच-नोंचकर फेंकते हैं । भवनों की सफेदी काली पड़ गई है, इस
कारण चांद की मोतियों के समान सफेद चांदनी भी घरों पर प्रतिक्षिप्त नहीं होती ।
जिन गवाक्षों में सुन्दर रमणियों की आंखें चमका करती थीं, उनमें
रात के समय दीपक के अभाव से और दिन में कीड़ों के बनाए हुए जालों के कारण अंधकार
रहता है । जब मैं सरयू की रेती को और स्नान के समय काम आनेवाले चूर्ण आदि सुगन्धित
पदार्थों से शून्य और वानीर आदि वनस्पतियों से भरा हुआ देखती हूं, तो मेरा हृदय जलने लगता है । हे राजन्, मैं यह कहने
आई हूं कि जैसे तुम्हारे पूज्य पिता ने मानव- शरीर को इच्छापूर्वक त्यागकर दिव्य
शरीर में प्रवेश कर लिया था, वैसे ही तुम भी इस कुशावती को
छोड़कर अपने कुल की राजधानी में आ जाओ। रघुवंश के अग्रणी कुश ने प्रसन्न मन से
अयोध्या की अधिदेवता की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया । अधिदेवता भी मुख से
प्रसन्नता प्रकट करती हुई अन्तर्हित हो गई । प्रात: काल राजसभा में राजा ने रात का
सब वृत्तान्त सुनाया । मान्य सभासदों ने यह कहकर उसका अभिनन्दन किया कि राजधानी ने
स्वयं आपको अपना स्वामी वर लिया है । कुश ने कुशावती वेद का अध्ययन करनेवाले
श्रेत्रियों को सौंप दी और स्वयं अनुकूल दिन देखकर परिवार- सहित अयोध्या की ओर
प्रयाण किया । जैसे बरसाती वायु के पीछे बादल चलते हैं, वैसे
ही उसके पीछे-पीछे सेनाओं ने भी प्रस्थान किया । रास्ते में सेना की छावनी ही कुश
की राजधानी बन जाती थी । ध्वजाओं की पंक्तियां उपवनों के समान शोभायमान होती थीं ।
विशाल हाथी क्रीड़ा-फूलों के समान दिखाई देते थे और रथ भवनों के स्थानापन्न थे।
आगे-आगे नरेश की महती ध्वजा और पीछे-पीछे कोलाहल करती हुई सेनाएं - ऐसा प्रतीत
होता था, मानो पूर्ण चन्द्रमा के प्रभाव से उमड़ता हुआ
समुद्र उनका अनुगमन कर रहा हो । सेनाओं के रथ, हाथी, घोड़े और पदातियों के उठाए हुए रथ को आकाश में उठते हुए देखकर भान होता था,
मानो सेनाओं के बोझ को सहन करने में अशक्त होकर, वसुन्धरा विष्णुलोक में अपनी शिकायत लेकर जा रही हो । यात्रा की तैयारी
में, यात्रा के समय आगे और पीछे और उपनिवेश में, जहां भी देखो वहां सेना भरपूर दिखाई देती थी । मार्ग में जो धूलि थी,
वह हाथियों के मद- वारि से पंक के रूप में और जो पंक था वह घोड़ों
के खुरों से उठाए हुए रज के कारण धूलि के रूप में परिणत हो गया । विन्ध्य पर्वत की
घाटियों में अनेक भागों में बंटकर मार्ग ढूंढ़ती हुई और कोलाहल करती हुई वह सेना
रेवा नदी के समान प्रतीत होती थी, जिसके कलकल की ध्वनि
गुफाओं से प्रतिध्वनित हो रही थी । यात्रा के समय रंगदार पत्थरों के संघर्ष से कुश
के रथ के पहिये रंगीन हो जाते थे। प्रयाण के शब्द में राजकीय वाद्य के मिश्रित हो
जाने से तुमुल और मधुर ध्वनि आकाश में फैल जाती थी और स्थान-स्थान पर वनवासी किरात
विविध उपहार लेकर उपस्थित होते थे, जिन्हें कुश आदरपूर्वक
ग्रहण कर लेता था । मार्ग में त्रिवेणी तीर्थ पर पड़ाव करके लम्बी यात्रा के
पश्चात् कुश जब सरयू के तट पर पहुँचा, तब उसे रघुवशी राजाओं
के महान् यज्ञों के चिह्रस्वरूप सैकड़ों स्तूप दिखाई दिए । राजधानी पहुंचने पर
फूलों वाले वृक्षों के स्पर्श से सुगन्धित और सरयू की तरंगों से शीतल वायु राजा और
उसकी थकी हुई सेनाओं पर मानो पंखा झलने लगा । नगरी के भिन्न-भिन्न भागों में
सैनिकों के ठहरने की व्यवस्था कर दी गई । जैसे गर्मी से तपी हुई भूमि को जल से
सींचकर मेघ नया कर देते हैं, वैसे ही स्वामी द्वारा नियुक्त
कारीगरों के संघ ने थोड़े समय में सारी नगरी को नई नगरी का रूप दे दिया । कुश ने
नगरी में प्रवेश करने से पूर्व देवालयों में देवताओं की विधिपूर्वक अर्चना कराई।
स्वयं मुख्य राजभवनों में प्रेमिका के हृदय में प्रेमी की भांति प्रवेश करके,
अन्य अमात्यों तथा अनुजीवियों के लिए भी निवासस्थानों की व्यवस्था
कर दी । घुड़शालाओं में घोड़े हिनहिनाने लगे, हस्तिगृहों में
खम्भे से बंधे हुए हाथी झूमने लगे और दुकानों में बिक्री की बहुमूल्य सामग्री भर
गई। उस समय वह पुरी ऐसे शोभायमान हो गई, जैसे विविध आभूषणों
से सुशोभित सुन्दर नारी । रघुवंश की पुरानी शोभा से युक्त राजधानी में निवास करते
हुए राजा कुश को न स्वर्ग के स्वामी इन्द्र से स्पर्धा रही और न अलकापुरी के शासक
कुबेर से । उसके अयोध्या में सुखपूर्वक शासन करते हुए ग्रीष्मऋतु का आगमन हुआ ।
ऐसी ग्रीष्मऋतु जो पतियों की प्यारी स्त्रियों को रत्नों से जड़े हुए उत्तरीय,
अत्यन्त श्वेत छातियों पर हार और सांस से उड़ जाने वाले दुपट्टे
पहनना सिखा देती है। सूर्य ने दक्षिण दिशा का परित्याग करके उत्तर दिशा की ओर
प्रयाण किया, मानो इससे प्रसन्न होकर उत्तर दिशा पर्वतों की
पिघलती हुई बर्फ द्वारा हर्ष के आंसू बहाने लगी । बावड़ियों का पानी शैवालवाली
सीढ़ियों को छोड़कर प्रतिदिन नीचे जाने लगा, जिससे उनकी
ऊंचाई स्नान करने वाली रमणियों की कमर तक रह गई। धनी लोग जलधाराओं द्वारा शीतल
घरों में चन्दन के जल से धुले हुए मणिमय आसनों पर सोकर धूप के समय को काटने लगे।
ऐसे तीव्र निदाघ के आने पर कुश की इच्छा हुई कि लहरों की श्रेणियों में मस्त होकर
घूमते हुए राजहंसों वाली, लताओं से बने हुए पुष्पगृहों
द्वारा सुशोभित और गर्मी के दु:ख को हरनेवाली सरयू के जलों में परिवार सहित विहार
करे । सरयू के तट पर स्नान और विश्राम के उपयुक्त स्थान तैयार किए गए और जाल डालने
वाले तैराकों द्वारा सब नक्रों को निकालकर जल को सुरक्षित बना दिया गया । तब उसमें
राजा और रानियों ने चिरकाल तक नौकाओं द्वारा नदी का आनन्द लेने के लिए सैर की । जल
के अवगाहन के पश्चात् गले में धारण किए हुए बहुमूल्य हार से शोभायमान कुश, नौका से उतरकर रानियों के साथ विहार के लिए जल में प्रविष्ट हुआ । उस समय
वह ऐसे सज रहा था मानो उखाड़ी हुई कमलिनी को कन्धे पर लटकाए हुए गजराज हथिनियों
सहित नदी में प्रविष्ट हुआ हो । राम को अगस्त्य मुनि ने प्रसन्न होकर एक मांगलिक
कंकण दिया था । राम ने उसे राज्य के साथ ही कुश को अर्पण कर दिया था । स्नान करते
हुए अनजाने वह कंकण पानी में डूब गया । जब स्नान से निवृत्त होकर राजा कपड़े पहनने
लगा तो उसे विदित हुआ कि हाथ कंकण से शून्य है। निर्लोभ होने के कारण किसी
आभरण-विशेष में कुश की ममता नहीं थीं, तो भी वह कंकण विजय का
प्रतीक था और पिता द्वारा धारण किया जा चुका था, इस कारण
उसके खो जाने को राजा न सह सका । नदी में गोता लगाने वाले सब तैराकों को बुलाकर
आज्ञा दी गई कि वे जल में घुसकर कंकण की तलाश करें । उन्होंने बहुत प्रयत्न किया,
परन्तु सफलता न हुई । तब उन्होंने कुश से विश्वासपूर्वक कहा हे देव,
हमने पूरा प्रयत्न किया, परन्तु उसमें आपका
बहुमूल्य आभूषण नहीं मिला । हम समझते हैं कि जल में रहनेवाले किसी नाग ने उसे जीवन
समझकर खा लिया । यह सुनकर क्रोध से कुश की आंखें लाल हो गईं और उसने नागों के नाश
के लिए गरुड़ास्त्र को हाथ में लिया । गरुड़ास्त्र के दर्शनमात्र से भयभीत नागराज
तुरन्त ही अपनी कन्या को साथ लेकर जल से निकल आया और राजा के सामने हाथ जोड़कर
खड़ा हो गया । उसके निकलने के समय वह जलाशय मन्थन के समय के समुद्र की भांति खौल
रहा था । उसमें रहनेवाले नक्र आदि संत्रस्त हो गए थे और घोर कोलाहल हो रहा था ।
सर्पराज के हाथ में कंकण को और उसकी विनीत मुद्रा को देखकर कुश को दया आ गई और
उसने गरुड़ास्त्र का प्रयोग नहीं किया । सज्जन लोग क्षमा चाहनेवालों पर क्रोध नहीं
करते । नागों के राजा कुमुद्र ने त्रिलोकनाथ श्रीराम के वंशज कुश को सिर झुकाकर
प्रणाम करके निवेदन किया- मैं जानता हूं कि आप संसार के उपकार के लिए शरीरधारी
विष्णु के पुत्र- रूपी दूसरी मूर्ति हैं । भला मैं आपको अप्रसन्न कैसे कर सकता हूं
? आपके आभरण की ओर जब गेंद खेलती हुई मेरी बाला ने कौतूहल से
देखा तो अन्तरिक्ष से गिरनेवाली ज्योति की तरह सुन्दर पाकर इसे खिलौना समझा और ले
लिया । सो यह लीजिए, यह फिर आपके उसी घुटनों तक पहुंचने वाली,
धनुष की प्रत्यंचा के निरन्तर खींचने के चिह्र से सुशोभित, भूमि के रक्षा- स्तम्भ के समान ओजस्वी और हृष्ट-पृष्ट भुजा की शोभा
बढ़ानेवाला बन जाए । मैं आपकी क्षमा के प्रतिकार में अपनी कुमुद्वती नाम की इस
छोटी कन्या को आपकी भेंट करता हूं । आशा है आप अस्वीकार न करेंगे। इस प्रकार आभरण
भेंट करके अत्यन्त विनयपूर्वक प्रार्थना करने पर राजा ने कुमुद्वती को अपनाना
स्वीकार कर लिया । कुमुद ने सब बांधवों की उपस्थिति में विधिपूर्वक राजा से
कुमुद्वती का विवाह कर दिया । उस पुण्य पाणिग्रहण के समय दिग्गजों के दिव्य तूर्य
की ध्वनि व्याप्त हो गई और आश्चर्यजनक मेघों ने सुगन्धित पुष्प बरसाए। रघुवंश और
वासुकि की सन्तान के उस गठजोड़ से दोनों ही पक्ष नि:शंक हो गए । कुमुद विष्णु के
वाहन के प्रहार से नि: शंक हो गया और कुश नागों के उत्पात की चिन्ता छोड़कर
सुखपूर्वक शासन करने लगा ।
रघुवंश
महाकाव्य सोलहवां सर्ग का संक्षिप्त कथासार सम्पूर्ण हुआ॥ १६ ॥
शेष जारी..............आगे रघुवंशमहाकाव्यम् सर्ग १७
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