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कर्मकाण्ड

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चर्पट पंजरिका

चर्पट पंजरिका       

चर्पट पंजरिका- चर्पट का शाब्दिक अर्थ है चपत अर्थात् चांटा, पंजरिका का अर्थ पिंजड़ा है । आदिशंकराचार्य द्वारा विरचित चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम्में विभिन्न छंदों के अतिरिक्त एक स्थायी छंद (भज गोविन्दं भज गोविन्दं …) भी है जो इनमें से प्रत्येक छंद के बाद प्रयुक्त हुआ है। यहाँ पहले मूलपाठ के बाद हिन्दी में अनुवाद पुनः पद्यानुवाद दिया जा रहा है। 

चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम्

चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम्

भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।

प्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ्‍ करणे ॥१॥

अर्थ:-हे मूढ़ बुद्धिवाले ! तू गोबिन्द ऐसे ईश्वर का भजन कर । जब मरण का समय समीप आवेगा तब डुकृञ् करणे(डुकृञ् धातु करने के अर्थ में है) ऐसा व्यकरण का पाठ तेरी रक्षा नहीं करेगा ।  

भज गोबिन्दा, भज गोविन्दा ।

मूढ मते रे ! भज गोविन्दा ।।

जब समय मरण का आवेगा ।

नहिं डुकृञ् पाठ बचायेगा ।। १ ॥ भज० 

बालस्तावत्क्रीडासक्तस्तरुणस्तावत्तरुणीरक्तः ।

वृद्धस्तावच्चिन्तामग्नः पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः ॥२॥ भज

अर्थ-जब तक मनुष्य बालक होता है तब तक खेल कूद में लगा रहता है, जब तक युवां (वयस्क) रहता है तब तक तरुणी (युवां स्त्री अथवा स्त्री अथवा पत्नी) में आसक्त रहता है और जब वृद्ध  होता है तब चिन्ताओं में डूबा रहता है, परन्तु कोई परब्रहा में आसक्त नहीं होता इसलिये हे मूढ़ बुद्धि वाले ! तू गोविन्द का भजन करले।

बाल्यावस्था खेल गंवावत ।

होय तरुण तरुणी मन भावत ॥

वृद्ध भये चिन्ता बढि जावत ।

परब्रह्म कोई नहि ध्यावत ॥२॥ भज०

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम् ।

वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशा पिण्डम् ॥३ ॥ भज … 

अर्थ:-अंग गल गया, शिर के बाल सफेद हो गये, मुख दांतरहित-पोपला हो गया, वृद्ध हुआ, लाठी के सहारे चलता है, तो भी आशा के पिण्ड को नहीं छोड़ता।

अंग गला शिर श्वेत भया है ।

दांत बिना मुख बैठ गया है ॥  

वृद्ध हुआ लाठीगहि चालत ।

तो भी आशा पिण्ड न त्यागत ॥३॥ भज०

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् ।

इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥४ ॥ भज

अर्थ: बारम्बार जन्म लेना पड़ता है, बारम्बार मरना पड़ता है, और बारम्बार माता के उदर में सोना पड़ता है, इसलिये हे मुरारी प्रभो ! इस दुस्तर संसार से मेरा उद्धार करो, ऐसी प्रार्थना कर, गोविन्द का भजन कर ।

फिर फिर जन्म मरण पुनि होना ।

फिर फिर जननि-जठरमें सोना ॥

यह भव सागर दुस्तर भारी ।

कृपया करिये पार मुरारी ।।४।। भज०

पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसः पुनरपि पक्षः पुनरपि मासः ।  

पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षं तदपि न मुञ्चत्याशामर्षम् ॥५ ॥ भज

रात्रि पुनः-पुनः आती है, दिन भी फिर-फिर आता है। महीने के पक्ष और स्वयं महीने बारबार आते-जाते रहते हैं। वर्ष के दोनों अयन (अर्धवार्षिक) एवं स्वयं वर्ष भी आते हैं, जाते हैं। किंतु मनुष्य की आशा और असहनशीलता यथावत बनी रहती हैं, छोड़ के जाती नहीं।

पुन: दिवस पुनश्च रात ।

पुन: पक्ष पुनश्च मास ॥

पुन: अयन पुनश्च वर्ष ।

तदपि न विगत आशामर्ष ।। भज०                   

दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायाताः ।

कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मुञ्चत्याशावायुः ॥६ ॥ भज

अर्थ:-दिन होता है, रात होती है, सांझ होती है, सवेरा होता है, शिशिर वसंतादि ऋतुयें बारम्बार आती हैं, इस प्रकार काल क्रीड़ा करता है और आयु चली जाती है, तो भी आशा के पवन को नहीं छोड़ता । हे मूढ़मते! गोविन्द का भजन कर ले।

होत दिवस निश सांझ सवेरा ।

शिशिर वसन्त लगावें फेरा ॥

खेलत काल घटत है आयू !  

तदपि न त्यागत आशा-वायू ।। भज०

जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशः काषायांबरबहुकृतवेषः ।

पश्यन्नपि च न पश्यति लोको ह्युदरनिमित्तं बहुकृतशोक: ॥७ ॥ भज

अर्थः-शिर पर जटाये रखने वाला, शिर के संपूर्ण बालों को मुंडाने वाला, नोंचे हुये बालों वाला, भगवां वस्त्र वाला, अनेक प्रकार के वेष धारण करने वाला, पेट भरने के लिये ही बहुत वेष धारण करता है मूढ मनुष्य देखता हुआ भी नहीं देखता । गोबिन्द का भजन कर ले।

मुंडित लुंचित केश जटाधर ।

वस्त्र रंगत बहुवेष धरत नर ॥

जानत पर नाहिं मूढ़ विचारत ।

पेट भरन बहुवेष संवारत ।।७ ।। भज०

वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः । 

नष्टे द्रव्ये कः परिवारो ज्ञाते तत्वे कः संसारः ॥८ ॥ भज

अर्थ:-अवस्था चली जाने पर काम विकार नहीं रहता, पानी सूखने पर तालाब नहीं रहता, धन चले जाने पर परिवार नहीं रहता अर्थात् धन के कारण से ही परिवार पीछे लगा रहता है, धन न होने से होता हुआ परिवार भी कहाँ है ? तत्त्व के जानने से संसार नहीं रहता। अतः गोविन्द का भजन कर।

आयु नशे क्या काम विकारा ।

जल सूखे सर में क्या सारा ॥

द्रव्य नशे पर क्या परिवारा ।

तत्त्व लखे पर क्या संसारा ॥ ८ ॥ भज०

अग्ने वह्निः पृष्ठे भानू रात्रौ चिबुकसमर्पितजानुः ।

करतलभिक्षा तरुतलवासस्तदपि न मुञ्चत्याशापाशः ॥९ ॥ भज

अर्थ:-आगे अग्नि जलता है, पीछे धूप पड़ती है, रात को घोटुयों के बीच में डाढ़ी रख कर सोना पड़ता है, भिक्षा करने का पात्र न होन से हाथ ही भिक्षापात्र है, पेड़ के नीचे रहना पड़ता हैं तो भी आशा की फांसी को नहीं छोड़ता ! अतः गोविन्द का भजन कर।

अग्नि अंगाड़ी धूप पिछाडी ।

रात करे घाटुन बिच दाढ़ी ॥

कर धरि खाता तरुतर बसता ।

तो भी आशा पाश न तजता ॥९ ॥ भज०

यावद्वित्तोपार्जनसक्तस्तावन्निजपरिवारो रक्तः ।

पश्चाद्धावति जर्जरदेहे वार्तां पृच्छति को॓ऽपि न गेहे ॥१० ॥ भज

अर्थ:-मनुष्य जब तक धन कमा कर लाने में समर्थ होता है तब तक उसका परिवार-कुटुम्ब उसके आधीन रहता है, प्रीति रखता है और पीछे शरीर निर्बल होने से जब कमाने में असमर्थ होता है तब घर में उससे कोई हालचाल भी नहीं पूछता । इसलिये गोविन्द का भंजन कर।

धन लाने में समरथ जब तक ।

प्रीति करे है घर के तब तक ॥

पीछे जब तनु जर्जर होई ।

घर में बात न पूछे कोई ॥भज०

रथ्याचर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः ।

नाहं न त्वं नायं लोकस्तदपि किमर्थं क्रियते शोकः ॥११ ॥ भज

अर्थ – मार्ग में पड़े हुये चीथड़ों को बिनकर उनकी कपड़ा बनाने वाला, पुण्य पाप के मार्ग को छोड़ने वाला, तू नहीं, मैं नहीं, यह लोक नहीं तो शोक क्यों करता है ? बस तू गोविन्द का भजन कर।

चौहट चिथड़न कंथा कीन्हा ।

पाप रु पुण्य रहित पथ लीन्हा ॥

तू नहि, मैं नहि, नहिं यह लोका ।

तो किस हेतु कीजिये शोका ॥११॥ भज०

नारीस्तनभरनाभिनिवेशं मिथ्यामायामोहावेशम् ।

एतन्मांसवसादिविकारं मनसि विचारय बारम्बारम् ॥१२॥ भज

अर्थः-नारी के स्तनों का भार जघन (पेडू) की रचना देख कर मिथ्या मोह का आवेश उत्पन्न होता है, वे मांस और चरबी आदिक के विकार हैं, इस प्रकार मन में बारम्बार विचार कर, गोबिन्द का भजन कर।

नारि पयोधर पीन जघन को ।

देखत मोह मृपा हो मन को ॥

ये चरबी मांसादि विकारा ।

फिर२ मन में करो विचारा ॥ भज०

गेयं गीतानामसहस्रं ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम् ।

नेयं सज्जनसङ्गे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥१३॥ भज

अर्थः-गीता और विष्णुसहस्रनाम को गाना चाहिये, विष्णु का सदा ध्यान करना चाहिये, सज्जन के पास चित्त को ले जाना चाहिये और दीनजनों को दान देना चाहिये। बस गोविन्द का भजन कर।

गीता सहस नाम जपि गाओ ।

श्रीपति का नित ध्यान लगाओ ॥

संत निकट चित्त को ले जाओ ।

दीनजनों मे द्रव्य लुटाओ ॥ १३ ॥ भज०

भगवद्गीता किञ्चिदधीता गङ्गाजललवकणिका पीता ।        

सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा तस्य यमः किं कुरुते चर्चाम्‍ ॥१४ ॥ भज

अर्थ:-जिसने भगवद्गीता का थोड़ा सा भी पाठ किया, जिसने थोडे से भी गंगा जल का पान किया और जिसने भगवान् श्रीकृष्ण मुरारिकी पूजा की, क्या यमराज उसकी चर्चा करता है? नहीं करता । इसलिये गोविन्द का भजन कर ।

गीता का कुछ पाठ किया है ।

थोड़ा गंगा नीर पिया है ॥

जिसने करी मुरारी अर्चा ।

क्या यम उसकी करता चर्चा ॥ १४ ॥ भज०

कस्त्वं कोऽहं कुतः आयातः का मे जननी को मे तातः ।

इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम् ॥१५ ॥ भज

अर्थ:-मैं कौन हूँ, तू कौन है, कहां से आया है, मेरी माता कौन है, मेरा पिता कौन है। इसका विचार करके स्वप्न के समान जान कर सबका त्याग कर, सब नाम रूपात्मक जगत् को असार मान ले और बस गोविन्द का भजन कर।  

को मैं, को तू, कहाँ से आया ।

कौन पिता किस माने जाया ॥

स्वप्ने सम ये सब निर्धारो ।

सार रहित सब जगत् विसारो ।।१५ ।। भज०

का तव कान्ता कस्ते पुत्रः संसारोऽयमतीव विचित्रः ।

कस्यत्वं वा कुत आयात स्तत्वं चिन्तय तदिदंभ्रांतः ॥१६ ॥ भज

अर्थ:-तेरी स्त्री कौन है, तेरा पुत्र कौन है, यह संसार अत्यन्त विचित्र है, तू किसका है और कहां से आया है, हे भाई! तू मन में इस तत्व का विचार कर । गोविन्द का भजन कर।

को तव पत्नी को तव सुत है ।

यह संसार महा अद्भुत है ॥

कहाँ से आया है तू किसका ।

भाई तत्व विचारो इसका ।। भज०

सुरतटनी तरु मूल निवासः शय्या भूतलमजिनं वासः ।

सर्वपरिग्रह भोग त्यागः कस्य सुखं न करोति विरागः ॥१७ ॥ भज

अर्थ:-गंगा किनारे के वृक्ष की मूल में निवास करना, भूमि का बिस्तर, मृगचर्म वस्त्र, सब परिग्रह और भोग का त्याग, ऐसा बैराग्य किसको सुख नहीं देता यानी सबको सुख देता है इसलिये गोविन्द का भजन कर।

सुरसरि तरुकी जड़ में पड़ना ।

शय्या भू मृगचर्म पहनना ॥

भोग तजे कुछ भी नहि लेवे ।

किसे विराग नहीं सुख देवे ॥ १७ ॥ भज०

यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत्पृच्छति गेहे ।   

गतवति वायौ देहापाये भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥१८ ॥ भज

जब तक जीवधारी (संदर्भ में मनुष्य) शरीर में रहता है तब तक हर कोई घर में कुशलक्षेम पूछता है। शरीर के गिरने और प्राणवायु के निकलने पर उस शरीर से पत्नी तक डर जाती है।

प्राण- वायु जबतक शरीर में ।

स्नेह कुशल-क्षेम पृच्छक गेह में ॥

विगत प्राण- वायु  शव भयंकर ।

नही  प्रिया लगाती  अंक भर ॥ भज०                                       

सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः ।

यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ॥१९ ॥ भज

मनुष्य (पुरुष) स्त्री-संसर्ग का सुखभोग करता है, अफ़सोस कि बाद में शरीर रोगग्रस्त होता है। यद्यपि संसार में जीवन की अंतिम परिणति मृत्यु है, फिर भी मनुष्य पापकर्मों से अपने को मुक्त नहीं करता।

काम-क्रीड़ा रति –समागम ।

आरंभिक सुख बाद में दु:ख –आगम ॥

मृत्यु पथ पर नर सदा आसीन ।

तदपि क्यों  पापाचार में लीन ॥ भज०

कुरुते गङ्गासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम् ।

ज्ञानविहीनः सर्वमतेन मुक्तिं न भजति जन्मशतेन ॥२० ॥ भज         

गंगासागर पर तीर्थस्नान कर आवे, व्रत-उपवास करे अथवा दानादि सत्कर्म करे तो भी इन सभी साधनों/प्रयासों से ज्ञानहीन मनुष्य मुक्ति नहीं पाता है।

होता अफलित गंगा-सागर-स्नान ।

व्रत का पालन अथवा दान ॥

जब तक गोविन्द का नहीं आदेश ।

व्यर्थ कोटि दान-तप-कलेश ॥ भज०

॥ इति श्रीमच्छंकराचार्यविरचितं चर्पटपंजरिकास्तोत्रं संपूर्णम् ॥

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