रघुवंशम् सर्ग १५

रघुवंशम् सर्ग १५     

इससे पूर्व महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् सर्ग १४ में वैदेही- वनवास तक की कथा पढ़ा । अब इससे आगे की कथा रघुवंशम् सर्ग १५ में अश्वमेध यज्ञ, लव कुश - जन्म, श्म्बूक वध, पृथ्वी का सीता को स्वयं में समाहित कर लेना तथा राम के स्वर्ग गमन तक की कथा से समाप्त होता है। यहाँ पहले इस सर्ग का मूलपाठ भावार्थ सहित और पश्चात् हिन्दी में संक्षिप्त कथासार नीचे दिया गया है।

रघुवंशं सर्ग १५ कालिदासकृतम्

रघुवंशमहाकाव्यम् पञ्चदशः सर्गः    

रघुवंशं सर्ग १५ कालिदासकृतम्

रघुवंशम् पन्द्रहवां सर्ग           

रघुवंश महाकाव्य

पञ्चदशः सर्गः।

॥ रघुवंशं सर्ग १५ कालिदासकृतम् ॥  

कृतसीतापरित्यागः स रत्नाकरमेखलाम् ।

बुभुजे पृथिवीपालः पृथिवीमेव केवलाम्॥ १५ -१॥

भा०-सीता का त्याग कर वह पृथ्वी के पालन करने वाले केवल समुद्ररूपी कोंधनीवाली पृथ्वी को ही भोगते हुए ॥ १॥

लवणेन विलुप्तेज्यास्तामिस्रेण तमभ्ययुः ।

मुनयो यमुनाभाजः शरण्यं शरणार्थिनः॥ १५ -२॥

भा०-लवणासुर से यज्ञ मिटाये हुए, शरण की इच्छा करनेवाले, यमुना तीर के मुनि उन शरण देनेवाले के निकट आये ॥२॥

अवेक्ष्य रामं ते तस्मिन्न प्रजह्रुः स्वतेजसा ।

त्राणाभावे हि शापास्त्राः कुर्वन्ति तपसो व्ययम् ॥ १५ -३॥

भा०-उन्होंने राम को (विद्यमान ) देखकर उस राक्षस को अपने तेज से भस्म नहीं किया, क्योंकि रक्षक के न होने से शापरूपी अस्त्रवाले वे तप का व्यय करते हैं ॥३॥

प्रतिशुश्राव काकुत्स्थस्तेभ्यो विघ्नप्रतिक्रियाम् ।

धर्मसंरक्षणार्थेव प्रवृत्तिर्भुवि शार्ङ्गिणः ॥ १५ -४॥

भा०-रामचंद्र उनसे विघ्न दूर करने की प्रतिज्ञा करते हुए, (कारण कि) विष्णु का अवतार धर्म की रक्षा ही के निमित्त होता है ॥ ४॥

ते रामाय वधोपायमाचख्युर्विबुधद्विषः ।

दुर्जयो लवणः शूली विशूलः प्रार्थ्यतामिति ॥ १५ -५॥

भा०-वे रामचंद्र से राक्षस के वध का उपाय कहते हुए, लवणासुर त्रिशूलसहित तो जीतने में नहीं आता, विना शूल हो तब मारना॥५॥

आदिदेशाथ शत्रुघ्नं तेषां क्षेमाय राघवः ।

करिष्यन्निव नामास्य यथार्थमरिनिग्रहात् ॥ १५ -६॥

भा०-तब उनकी रक्षा के लिये रामचंद्र ने शत्रुघ्न को आज्ञा दी, मानों इसका नाम शत्रु के मारने से यथार्थ ही करते हुए ॥६॥

यः कश्चन रघूणां हि परमेकः परंतपः ।

अपवाद इवोत्सर्गं व्यावर्तयितुमीश्वरः॥ १५ -७॥

भा०- क्योंकि शत्रुओं को तपाने वाला रघुवंशियों में कोई एक भी उत्सर्ग को अपवाद के समान शत्रु को मारने में समर्थ है ॥७॥

(व्याकरण में साधारण नियम का नाम उत्सर्ग और आदेश से जव वह उत्सर्ग टूट जाता है तो वह आदेश अपवाद कहलाता है)

अग्रजेन प्रयुक्ताशीस्ततो दाशरथी रथी ।

ययौ वनस्थलीः पश्यन्पुष्पिताः सुरभीरभीः ॥ १५ -८॥

भा०-तब रामचन्द्र से असीस दिये हुए, रथ पर चढ, निडर, दशरथकुमार सुगन्धित पुष्पोंवाली वनभूमि को देखते हुए गये ॥ ८॥

रामादेशादनुगता सेना तस्यार्थसिद्धये ।  

पश्चादध्यनार्थस्य धातोरधिरिवाभवत् ॥ १५ -९॥

भा०-रामचंद्र की आज्ञा से पीछे गई सेना अध्ययन ( पढने) के अर्थवाली (इङ्) धातु के पीछे अधि (उपसर्ग) की समान उनका प्रयोजन साधने वाली हुई ॥९॥

(जैसे इङ् धातु का अर्थ पढना स्वयं ही है, अधि उपसर्ग लगाने से कोई विशेषता सिद्ध नहीं होती, परन्तु तो भी लगाते ही हैं, ऐसे ही शत्रुघ्न को यद्यपि सेना की आवश्यकता नहीं थी परन्तु उनके साथ राम ने सेना भेजी)

आदिष्टवर्त्मा मुनिभिः स गच्छंस्तपसां वरः ।

विरराज रथप्रष्ठैर्वालखिल्यैरिवांशुमान् ॥ १५ -१०॥

भा-रथ के आगे जाते हुए मुनियों से मार्ग दिखाये हुए, गमन करते, तेजस्वियों में मुख्य वह (रथ के आगे चलनेवाले) वालखिल्य ऋषियों द्वारा ( मार्ग दिखाये हुए दीप्तिमानों में श्रेष्ठ जाते हुए) सूर्य के समान शोभित हुआ॥१०॥

तस्य मार्गवशादेका बभूव वसतिर्यतः ।

रथस्वनोत्कण्ठमृगे वाल्मीकीये तपोवने ॥ १५ -११॥

भा०-जाते हुए तिनका मार्गवश से रथ की ध्वनि से ऊपर मुख किये मृगवाले वाल्मीकि के तपोवन में एक रात ठहरना हुआ॥११॥

तमृषिः पूजयामास कुमारं क्लान्तवाहनम् ।

तपःप्रभावसिद्धाभिर्विशेषप्रतिपत्तिभिः ॥ १५ -१२॥

भा०-थके वाहनवाले कुमार का वाल्मीकि ऋषि ने तप के प्रभाव से प्राप्त होनेवाली श्रेष्ठ सामग्रियों से सत्कार किया ॥ १२ ॥

तस्यामेवास्य यामिन्यामन्तर्वन्ती प्रजावती ।

सुतावसूत संपन्नौ कोशदण्डाविव क्षितिः॥ १५ -१३॥

भा०-उसी रात्रि में इनकी गर्भवती भाभी पृथ्वी की समान समग्र कोश और दंड की नाई दो पुत्रों को उत्पन्न करती हुई ॥ १३ ॥

संतानश्रवणाद्भ्रातुः सौमित्रिः सौमनस्यवान् ।

प्राञ्जलिर्मुनिमामन्त्र्य प्रातर्युक्तरथो ययौ ॥ १५ -१४॥

भा०-भाई की सन्तान सुनने से प्रसन्न हो शत्रुघ्नजी ने प्रातःकाल रथ में बैठ मुनि से आज्ञा ले गमन किया ॥ १४ ॥

स च प्राप मधूपघ्नं कुम्भीनस्याश्च कुक्षिजः ।

वनात्करमिवादाय सत्त्वराशिमुपस्थितः ॥ १५ -१५॥

भा०-वह मधूपन्न (नाम नगर) में प्राप्त हुए और कुम्भीनसी (रावण की बहन) का बेटा वन से भेंट के समान पशुओं का समूह लिये उपस्थित हुआ ॥ १५ ॥

धूमधूम्रो वसागन्धी ज्वालाबभ्रुशिरोरुहः ।

क्रव्याद्गणपरीवारश्चिताग्निरिव जंगमः ॥ १५ -१६॥

भा०-धूऍ की समान काला, चर्बी की गन्धवाला, लपट समान लाल बालोंवाला, मांसाहारी पक्षियों से घिरा जलती हुई चिता की आग्नि के समान स्थित हुआ ॥ १६ ॥

अपशूलं तमासाद्य लवणं लक्ष्मणानुजः ।

रुरोध संमुखीनो हि जयो रन्ध्रप्रहारिणाम् ॥ १५ -१७॥

भा०-लक्ष्मण के छोटे भ्राता ने शूलरहित पाकर उसे रोका, कारण कि छिद्र देखकर प्रहार करनेवालों के सन्मुख जय रहती है ॥ १७ ॥

नातिपर्याप्तमालक्ष्य मत्कुक्षेरद्य भोजनम् ।

दिष्ट्या त्वमसि मे धात्रा भीतेनेवोपपादितः ॥ १५ -१८॥

इति संतर्ज्य शत्रुघ्नं राक्षसस्तज्जिघांसया ।

प्रांशुमुत्पाटयामास मुस्तास्तम्बमिव द्रुमम् ॥ १५ -१९॥

भा०-राक्षस ने " आज मेरे पेट को पूरा भोजन न देखकर डरे विधाता ने प्रारब्ध से ही तुझे भेजा है। इस प्रकार शत्रुघ्न को भय दिखाकर मारने के निमित्त ऊंचे वृक्ष को मोथे के समान उखाड लिया ॥ १८ -१९॥

सौमित्रेर्निशितैर्बाणैरन्तरा शकलीकृतः ।

गात्रं पुष्परजः प्राप न शाखी नैरृतेरितः ॥ १५ -२०॥

भा०-राक्षस का फेंका हुआ पेड वीच में ही तीक्ष्णवाणों से काटा हुआ सुमित्रा कुमार के शरीर को न प्राप्त हुआ, किन्तु फूलों का रज प्राप्त हुआ(अर्थात् धूलिवत् हो गया)॥२०॥

विनाशात्तस्य वृक्षस्य रक्षस्तस्मै महोपलम् ।

प्रजिघाय कृतान्तस्य मुष्टिं पृथगिव स्थितम् ॥ १५ -२१॥

भा०-राक्षस ने उस वृक्ष के नष्ट होने से महाशिला को पृथक् रक्खी हुई यमराज की मुट्ठी की समान उसके ऊपर मारा ॥ २१॥

ऐन्द्रमस्त्रमुपादाय शत्रुघ्नेन स ताडितः ।

सिकतात्वादपि परं प्रपेदे परमाणुताम् ॥ १५ -२२॥

भा०-वह शत्रुघ्न से ऐन्द्रास्त्र द्वारा ताडित हुआ रेतेपन से भी अधिक परमाणुता को प्राप्त हुआ ॥ २२॥

तमुपाद्रवदुद्यम्य दक्षिणं दोर्निशाचरः ।

एकताल इवोत्पातपवनप्रेरितो गिरिः॥ १५ -२३॥

भा०-राक्षस दक्षिण भुजा को उठाये एकताल युक्त उत्पात पवन के प्रेरे हुए पर्वत के समान उन पर दौड़ा ॥ २३ ॥

कार्ष्णेन पत्रिणा शत्रुः स भिन्नहृदयः पतन् ।

अनिनाय भुवः कम्पं जहाराश्रमवासिनाम् ॥ १५ -२४॥

भा०-वह शत्रु (राक्षस) वैष्णववाण से विदीर्ण हृदय हो पृथ्वी को कंपित करता हुआ और आश्रमवासियों का कंप (भय)दूर करता हुआ ॥२४॥

(अर्थात् उसके मरने से ऋषि भयरहित हुए)

वयसां पङ्क्तयः पेतुर्हतस्योपरि विद्विषः ।

तत्प्रतिद्वन्द्विनो मूर्ध्नि दिव्याः कुसुमवृष्टयः ॥ १५ -२५॥

भा०-मरे हुए राक्षस के ऊपर पक्षियों की पंक्ति गिरी और उसके वैरी के शिर पर दिव्य पुष्पवर्षा हुई ॥२५॥

स हत्वा लवणं वीरस्तदा मेने महौजसः ।

भ्रातुः सोदर्यमात्मानमिन्द्रजिद्वधशोभिनः ॥ १५ -२६॥

भा०-उस वीर ने लवण को मार कर तब अपने को महापराक्रमी इन्द्रजीत के वध से शोभा पानेवाले भाई (लक्ष्मण) का सहोदर माना ॥ २६ ॥

तस्य संस्तूयमानस्य चरितार्थैस्तपस्विभिः ।

शुशुभे विक्रमोदग्रं व्रीडयावनतं शिरः॥ १५ -२७॥

भा०-कृतकृत्य हुए तपस्वियों से स्तुति को प्राप्त हुए उन (शत्रुघ्न) का प्रताप से ऊंचा नम्रता के कारण नीचा हुआ शिर शोभित हुआ ॥ २७॥

उपकूलं च कालिन्द्याः पुरीं पौरुषभूषणः ।

निर्ममे निर्ममोऽर्थेषु मथुरां मधुराकृतिः॥ १५ -२८॥

भा०-पुरुषार्थरूपी भूषणवाले, विषयों में इच्छा न रखनेवाले, शोभनमूर्ति उस (शत्रुघ्न) ने यमुना के निकट मथुरा नाम पुरी वसाई ॥२८॥

या सौराज्यप्रकाशाभिर्बभौ पौरविभूतिभिः ।

स्वर्गाभिष्यन्दवमनं कृत्वेवोपनिवेशिता ॥ १५ -२९॥

भा०-जो (पुरी) श्रेष्ठ राज्य के कारण दीप्तिमान् पुरवासियों के ऐश्वर्य से स्वर्ग में न समाने वाले मनुष्य लाकर बसाई हुई सी शोभित हुई ॥ २९ ॥

तत्र सौधगतः पश्यन्यमुनां चक्रवाकिनीम् ।

हेमभक्तिमतीं भूमेः प्रवेणीमिव पिप्रिये ॥ १५ -३०॥

भा०-वहां महल पर बैठे हुए (वह) चकवा चकवी से युक्त यमुना को सुवर्ण से जडी हुई पृथ्वी की वेणी की नाई देखते हुए प्रसन्न हुए ॥ ३०॥

(चकवा चकवी से सुवर्ण और कृष्णवर्ण यमुना से वेणी की उपमा है )

सखा दशरथस्यापि जनकस्य च मन्त्रकृत् ।

संचस्कारोभयप्रीत्या मैथिलेयौ यथाविधि ॥ १५ -३१॥

भा०-दशरथ और जनक के मित्र मंत्रों के देखनेवाले (वाल्मीकि ने) भी दोनों (राजाओं) की प्रीति से जानकी के कुमारों के विधिपूर्वक संस्कार किये ॥३१॥

स तौ कुशलवोन्मृष्टगर्भक्लेदौ तदाख्यया ।

कविः कुशलवावेव चकार किल नामतः ॥ १५ -३२॥

भा०-प्रसिद्ध है कि उन कवि ने कुशाओं और गोपुच्छों से गर्भ की पीडा रहित हुए उन दोनों का उन्हीं के नाम से कुश और लव ही नामकरण किया॥ ३२॥

साङ्गं च वेदमध्याप्य किंचिदुत्क्रान्तशैशवौ ।

स्वकृतिं गापयामास कविप्रथमपद्धतिम् ॥ १५ -३३॥

भा०-ऋषि ने कुछेक बालकपन विताये हुए उन दोनों को सांग (अंगोसहित) वेद को पढाकर कवियों की प्रथम पद्धति (वीज) अपनी कविता (रामायण) उनसे गवाई ॥३३॥

(शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष यह वेद के अंग हैं)

रामस्य मधुरं वृत्तं गायन्तो मातुरग्रतः ।

तद्वियोगव्यथां किंचिच्छिथिलीचक्रतुः सुतौ ॥ १५ -३४॥

भा०-उन दोनों पुत्रों ने राम का चरित्र माता के आगे मधुरता से गाते हुए उसके वियोग की व्यथा को किंचित् घटाया ॥ ३४॥

इतरेऽपि रघोर्वंश्यास्त्रयस्त्रेताग्नितेजसः ।

तद्योगात्पतिवत्नीषु पत्नीष्वासन्द्विसूनवः ॥ १५ -३५॥

भा०-तीन अग्नियों के तेज के समान-उन तीनो (भाइयों ने) भी अपने संयोग से अपनी सौभाग्यवती स्त्रियों में दो दो पुत्र उत्पन्न किये ॥ ३५॥

शत्रुघातिनि शत्रुघ्नः सुबाहौ च बहुश्रुते ।

मथुराविदिशे सून्वोर्निदधे पूर्वजोत्सुकः ॥ १५ -३६॥

भा०-भाई में उत्कंठावाले शत्रुघ्न ने बहुत शास्त्र पढे शत्रुघांती और सुबाहु दोनों पुत्रों को मथुरा और विदिशा नगरी सौप दी॥३६॥

भूयस्तपोव्ययो मा भूद्वाल्मीकेरिति सोऽत्यगात् ।

मैथिलीतनयोद्गीतनिःस्पन्दमृगमाश्रमम् ॥ १५ -३७॥

भा०-वह (शत्रुघ्न) जानकी के पुत्रों के गीत श्रवण में ध्यान लगाये मृगोंवाले वाल्मीकि के आश्रम को फिर (ऋषि के ) तप में हानि न हो इस कारण त्याग गये ॥ ३७॥

वशी विवेश चायोध्यां रथ्यसंस्कारशोभिनीम् ।

लवणस्य वधात्पौरैरीक्षितोऽत्यन्तगौरवम् ॥ १५ -३८॥

भा०-उस बली ने लवण के मारने से पुरवासियों से अत्यन्त आदरपूर्वक देखे जाकर मार्ग की सजावट से शोभायमान अयोध्या में प्रवेश किया ॥ ३८॥

स ददर्श सभामध्ये सभासद्भिरुपस्थितम् ।

रामं सीतापरित्यागादसामान्यपतिं भुवः॥ १५ -३९॥

भा०-शत्रुघ्न ने सभा के बीच में सभासदों सहित सीता के त्यागने से पृथ्वी के असामान्य पति राम को देखा ॥ ३९॥

तमभ्यनन्दत्प्रणतं लवणान्तकमग्रजः ।

कालनेमिवधात्प्रीतस्तुराषाडिव शार्ङ्गिणम् ॥ १५ -४०॥

भा०-रामचंद्र ने लवण के मारनेवाले, प्रणाम करते हुए उनको कालनेमि के वध से प्रसन्न हुए इन्द्र ने विष्णु के समान सराहा ॥ ४०॥

(अर्थात् जैसे इन्द्र ने विष्णु की बडाई की थी)

स पृष्टः सर्वतो वार्तमाख्यद्राज्ञे न संततिम् ।

प्रत्यर्पयिष्यतः काले कवेराद्यस्य शासनात् ॥ १५ -४१॥

भा०-उसने पूछने पर सम्पूर्ण कुशल रामचंद्र से कही परन्तु किसी समय स्वयम् अर्पण करने की इच्छावाले आदिकवि के निषेध करने से सन्तान की वार्ता न कही ॥ ४१॥

अथ जानपदो विप्रः शिशुमप्राप्तयौवनम् ।

अवतार्याङ्कशय्यास्थं द्वारि चक्रन्द भूपतेः ॥ १५ -४२॥

भा०-अनन्तर कोई, देश का ब्राह्मण यौवनअवस्था को न प्राप्त हुए बालक को जाके द्वारे गोदी से उतारकर चिल्लाने लगा ॥ ४२ ॥

शोचनीयासि वसुधे या त्वं दशरथाच्च्युता ।

रामहस्तमनुप्राप्य कष्टात्कष्टतरं गता ॥ १५ -४३॥

भा०-हे पृथ्वी दशरथ के हाथ से च्युत हो राम के हाथ में प्राप्त होकर तू अधिक से अधिक कष्ट को प्राप्त हो शोच करने के योग्य हुई ॥४३॥

श्रुत्वा तस्य शुचो हेतुं गोप्ता जिह्राय राघवः ।

न ह्यकालभवो मृत्युरिक्ष्वाकुपदमस्पृशत् ॥ १५ -४४॥

भा०-रक्षाकरनेवाले रामचंद्र ने उसके शोक का कारण सुनकर लज्जा मानी, कारण कि अकालमृत्यु ने इक्ष्वाकुवंशियों के राज्य को नहीं छुआ था ॥ ४४॥

(ब्राह्मण का पुत्र मृतक हो गया था)

स मुहूर्तं क्षमस्वेति द्विजमाश्वास्य दुःखितम् ।

यानं सस्मार कौबेरं वैवस्वतजिगीषया ॥ १५ -४५॥

भा०-उस रामचन्द्र ने दुःखी ब्राह्मण से "एक मुहूर्त तक क्षमा करो" ऐसा समझाकर यमराज के जीतने की इच्छा से कुवेर के (पुष्पक) विमान को स्मरण किया ॥ ४५ ॥

आत्तशस्त्रस्तदध्यास्य प्रस्थितः स रघूद्वहः ।

उच्चचार पुरस्तस्य गूढरूपा सरस्वती ॥ १५ -४६॥

भा०-वह रघुवंशियों के स्वामी शस्त्र बांधकर उसमें चढकर चले (तव) तिनके आगे गुप्तरूप सरस्वती ने कहा ॥ ४६॥ (आकाशवाणी)

राजन् प्रजासु ते कश्चिदपचारः प्रवर्तते ।

तमन्विष्य प्रशमयेर्भविष्यसि ततः कृती ॥ १५ -४७॥

भा०-हे राजन ! तुम्हारी प्रजा में कुछ दुराचार हो रहा है, उसको ढूंढकर मिटा देने से कृतकृत्य होगे ।। ४७॥

इत्याप्तवचनाद्रामो विनेष्यन्वर्णविक्रियाम् ।

दिशः पपात पत्रेण वेगनिष्कम्पहेतुना ॥ १५ -४८॥

भा०-इस प्रकार आप्तवचन से वर्णविकार को ढूंढते हुए रामचंद्र वेग से कंपरहित ध्वजावाले वाहन पर चढ दिशाओं को गये ॥४८॥

अथ धूमाभिताम्राक्षं वृक्षशाखावलम्बिनम् ।

ददर्श कंचिदैक्ष्वाकस्तपस्यन्तमधोमुखम् ॥ १५ -४९॥

भा०-तब रामचंद्र ने धुएँ से लाल नेत्र किये, वृक्ष की शाखा में लटकते, नीचे को मुख किये, तपस्या करते किसी पुरुष को देखा ॥ ४९॥

पृष्टनामान्वयो राज्ञा स किलाचष्ट धूमपः ।

आत्मानं शम्बुकं नाम शूद्रं सुरपदार्थिनम् ॥ १५ -५०॥

भा०-राजा के नाम और वंश पूछने पर धूआं पीनेवाले उस पुरुष ने अपने को स्वर्ग की इच्छावाला शम्बुकनामक शूद्र बताया ॥५०॥

तपस्यनधिकारित्वात्प्रजानां तमघावहम् ।

शीर्षच्छेद्यं परिच्छिद्य नियन्ता शस्त्रमाददे ॥ १५ -५१॥

भा०-तप में अधिकार न होने से प्रजा में पाप पहुचानेवाले उस (शूद्र)को शिर काटने योग्य विचार कर शिक्षक (राम) ने खड्ग ग्रहण किया ॥५१॥

स तद्वक्त्रं हिमक्लिष्टकिञ्जल्कमिव पङ्कजम् ।

ज्योतिष्कणाहतश्मश्रु कण्ठनालादपातयत् ॥ १५ -५२॥

भा०-उन्होंने अग्नि की चिनगारियों से झुलसी हुई डाढीवाले उसके मुख को बर्फ से मारे केसरयुक्त कमल की नाई कंठरूपी नाल से गिरा दिया ।। ५२ ।।

कृतदण्डः स्वयं राज्ञा लेभे शूद्रः सतां गतिम् ।

तपसा दुश्चरेणापि न स्वमार्गविलङ्घिना ॥ १५ -५३॥

भा०-शूद्र निज राजा से दंडित होकर सत्पुरुषों की गति को प्राप्त हुआ, न कि अपने धर्म के उलंघन करनेवाले कठिन तप से ॥ ५३॥

रघुनाथोऽप्यगस्त्येन मार्गसंदर्शितात्मना ।

महौजसा संयुयुजे शरत्काल इवेन्दुना ॥ १५ -५४॥

भा०-रामचंद्र भी मार्ग में आप दर्शन देनेवाले महापराक्रमी अगस्त्य से चंद्रमा शरत्काल के समान मिले ॥ ५४॥

कुम्भयोनिरलंकारं तस्मै दिव्यपरिग्रहम् ।

ददौ दत्तं समुद्रेण पीतेनेवात्मनिष्क्रयम् ॥ १५ -५५॥

भा०-अगस्त्यजी ने पीये हुए समुद्र से अपने मोल के समान दिया हुआ देवताओं के ग्रहण योग्य अलंकार (भूषण) रामचंद्र के निमित्त दिया ॥१५॥

(जब अगस्त्यजी सागर को पी गये थे तब उसने पेट से निकलने पर बदले में यह 'गहना दिया था)

स दधन्मैथिलीकण्ठनिर्व्यापारेण बाहुना ।

पश्चान्निववृते रामः प्राक्परासुर्द्विजात्मजः ॥ १५ -५६॥

भा०-सीता के कंठ के व्यापाररहित भुजा में उस अलंकार को धारण कर रामचंद्र पीछे लौटे और ब्राह्मण का मरा हुआ बालक पहले लौटा ॥५६॥

(अर्थात् वह प्रथम ही जीवित हो गया) 

तस्य पूर्वोदितां निन्दां द्विजः पुत्रसमागतः ।

स्तुत्वा निवर्तयामास त्रातुर्वैवस्वतादपि ॥ १५ -५७॥

भा०-पुत्र प्राप्त हुए ब्राह्मण ने यमराज से भी रक्षा करनेवाले की पूर्व कही निन्दा को स्तुति से निवारण किया ॥ ५७॥

तमध्वराय मुक्ताश्वं रक्षःकपिनरेश्वराः ।

मेघाः सस्यमिवाम्भोभिरभ्यवर्षन्नुपायनैः ॥ १५ -५८॥

भा०-यज्ञ के निमित्त घोडा त्यागे हुए उन रामचंद्र को राक्षस वानर और मनुष्यों के राजा जिस प्रकार मेघ जलों से नाज पर बरसे (इस प्रकार) भेटों से वरसा करते हुए ॥ ५८॥

दिग्भ्यो निमन्त्रिताश्चैनमभिजग्मुर्महर्षयः ।

न भौमान्येव धिष्ण्यानि हित्वा ज्योतिर्मयान्यपि ॥ १५ -५९॥

भा०-निमंत्रित हुए महर्षि पृथ्वी के स्थानों ही को नहीं किन्तु ज्योतिर्मय (नक्षत्ररूपी) स्थानों को भी त्यागकर (सब) दिशाओं से उनके पास आये ॥ ५९॥

उपशल्यनिविष्टैस्तैश्चतुर्द्वारमुखी बभौ ।

अयोध्या सृष्टलोकेव सद्यः पैतामही तनुः ॥ १५ -६०॥

मा०-चार द्वाररूपी मुखवाली अयोध्या उपशल्य ( नगर के आसपास की भूमि) में बैठे हुए उन (महर्षियों) से तत्काल लोक रचनेवाले ब्रह्मा की मूर्ति की समान शोभित हुई ॥ ६०॥

श्लाघ्यस्त्यागोऽपि वैदेह्याः पत्युः प्राग्वंशवासिनः ।

अनन्यजानेः सैवासीद्यस्माज्जाया हिरण्मयी ॥ १५ -६१॥

भा०-जानकी का त्याग भी श्लाघनीय हुआ, जिस कारण कि यज्ञशाला में वास करनेवाले, दूसरी स्त्री न रखनेवाले पति की सुवर्ण की वही (सीता) स्त्री हुई ।। ६१ ॥

विधेरधिकसंभारस्ततः प्रववृते मखः ।

आसन्यत्र क्रियाविघ्ना राक्षसा एव रक्षिणः ॥ १५ -६२॥

भा०-तब विधान से भी अधिक सामग्री वाला यज्ञ प्रारंभ हुआ, जिसमें क्रिया के विघ्न करनेवाले राक्षस ही रक्षा करनेवाले थे ॥ ६२॥

अथ प्राचेतसोपज्ञं रामायणमितस्ततः ।

मैथिलेयौ कुशलवौ जगतुर्गुरुचोदितौ ॥ १५ -६३॥

भा०-इसके उपरान्त जानकी के कुमार कुश और लव गुरु की प्रेरणा से वाल्मीकि की वनाई हुई रामायण जहां तहां गाने लगे ॥ ६३ ॥

वृत्तं रामस्य वाल्मीकेः कृतिस्तौ किंनरस्वनौ ।

किं तद्येन मनो हर्तुमलं स्यातां न शृण्वताम् ॥ १५ -६४॥

भा०-रामचन्द्र का चरित्र, वाल्मीकि की कविता, किन्नरों के से कंठवाले वे दोनों फिर क्या था जिस्से वे दोनों सुन्नेवालों के मन हरण करने को समर्थ न होते ॥ ६४ ॥

रूपे गीते च माधुर्यंतयोस्तज्ज्ञैर्निवेदितम् ।

ददर्श सानुजो रामः शुश्राव च कुतूहली ॥ १५ -६५॥

भा०-जाननेवालो से निवेदन की हुई उनको गीत और रूप की मधुरता राम ने प्रसन्न होकर देखी और सुनी भी ।। ६५ ॥

तद्गीतश्रवणैकाग्रा संसदश्रुमुखी बभौ ।

हिमनिष्यन्दिनी प्रातर्निर्वातेव वनस्थली ॥ १५ -६६॥

भा०-उनके गान सुन्ने से एकाग्रचित्त हो, आंसू गिराती हुई सभा ओसें टपकनेवाली पवनरहित प्रातःकाल की वनस्थली की नाई शोभित हुई ॥६६॥

वयोवेषविसंवादि रामस्य च तयोस्तदा ।

जनता प्रेक्ष्य सादृश्यं नाक्षिकम्पं व्यतिष्ठत ॥ १५ -६७॥

भा०-सव मनुष्य, अवस्था और भेष के विना उस समय उनकी और राम की एकता (सादृश्यता ) देखकर आंख खोले (विस्मय से ) रह गये ( अर्थात् आंखों के पलक न लगे) ॥६७॥

उभयोर्न तथा लोकः प्रावीण्येन विसिष्मिये ।

नृपतेः प्रीतिदानेषु वीतस्पृहतया यथा ॥ १५ -६८॥

भा०-लोग दोनों की चतुराई से ऐसे मोहित नहीं हुए जैसे राजा के प्रसन्नता दिये दान में उनकी इच्छा न देखकर विस्मित हुए ॥ ६८॥

गेये को नु विनेता वां कस्य चेयं कृतिः कवेः ।

इति राज्ञा स्वयं पृष्टौ तौ वाल्मीकिमशंसताम् ॥ १५ -६९॥

भा०-गाने में कौन तुम्हारा शिक्षक है और यह किस कवि की रचना है, इस प्रकार राजा से स्वयं पूछने पर उन्होंने वाल्मीकि को वताया ॥ ६९ ॥

अथ सावरजो रामः प्राचेतसमुपेयिवान् ।

ऊरीकृत्यात्मनो देहं राज्यमस्मै न्यवेदयत् ॥ १५ -७०॥

भा०-तब भाइयों सहित राम ने वाल्मीकि के निकट जाकर अपने देह को छोडकर राज्य इन (वाल्मीकि) को अर्पण किया ॥ ७०॥

स तावाख्याय रामाय मैथिलीयौ तदात्मजौ ।

कविः कारुणिको वव्रे सीतायाः संपरिग्रहम् ॥ १५ -७१॥

भा०-दया युक्त उस (ऋषि) ने रामचंद्र से उन दोनों सीता के पुत्रों को उन्हीं का बताकर सीता के स्वीकार करने के निमित्त कहा ॥ ७१॥

तात शुद्धा समक्षं नः स्नुषा ते जातवेदसि ।

दौरात्म्याद्रक्षसस्तां तु नात्रत्याः श्रद्दधुः प्रजाः ॥ १५ -७२॥

भा०-हे तात ! तुम्हारी वधू हमारे सामने अग्नि में पवित्र हो चुकी है, किन्तु राक्षस की क्रूरता के कारण यहां की प्रजा ने उसमें श्रद्धा न की ।। ७२ ॥

ताः स्वचारित्र्यमुद्दिश्य प्रत्याययतु मैथिली ।

ततः पुत्रवतीमेनां प्रतिपत्स्ये त्वदाज्ञया ॥ १५ -७३॥

भा०-जानकी अपना चरित्र दिखाकर उनको विश्वास करावै तो पुत्रवती इस (जानकी)को तुम्हारी आज्ञा से मैं  स्वीकार करूंगा ।। ७३ ।।

इति प्रतिश्रुते राज्ञा जानकीमाश्रमान्मुनिः ।

शिष्यैरानाययामास स्वसिद्धिं नियमैरिव ॥ १५ -७४॥

भा-राजा के इस प्रकार प्रतिज्ञा करने पर मुनि ने आश्रम से जानकी को शिष्यों द्वारा अर्थसिद्धि को मानों तपों से बुलवाया ॥ ७४ ॥

अन्येद्युरथ काकुत्स्थः संनिपात्य पुरौकसः ।

कविमाह्वाययामास प्रस्तुतप्रतिपत्तये ॥ १५ -७५॥

भा०-तब रामचंद्र ने दूसरे दिन उपर कहे कार्य के निमित्त पुरवासियों को इकट्ठा करके वाल्मीकि को बुलवाया ॥ ७५ ॥

स्वरसंस्कारवत्यासौ पुत्राभ्यामथ सीतया ।

ऋचेवोदर्चिषं सूर्यं रामं मुनिरुपस्थितः ॥ १५ -७६॥

भा०-तब स्वर संस्कारवाली गायत्री करके तेजस्वी सूर्य के समान पुत्रों के सहित सीता के साथ (महातेजस्वी) राम के निकट यह मुनि उपस्थित हुए॥ ७६॥

काषायपरिवीतेन स्वपदार्पितचक्षुषा ।

अन्वमीयत शुद्धेति शान्तेन वपुषैव सा ॥ १५ -७७॥

भा०-गेरुए वस्त्रों को पहरे अपने चरणों में दृष्टि लगाये, शान्त शरीर से ही वह शुद्ध है इस प्रकार जानी गई ॥ ७७॥

जनास्तदालोकपथात्प्रतिसंहृतचक्षुषः ।

तस्थुस्तेऽवाङ्मुखाः सर्वे फलिता इव शालयः ॥ १५ -७८॥

भा०-उस समय उसकी ओर से दृष्टि हटाये हुए वे सब मनुष्य पके धान के सदृश मुख झुकाये स्थित हुए ।। ७८॥

तां दृष्टिविषये भर्तुर्मुनिरास्थितविष्टरः ।

कुरु निःसंशयं वत्से स्ववृत्ते लोकमित्यशात् ॥ १५ -७९॥

भा०-आसन पर बैठकर मुनि ने 'हे पुत्री पति के सन्मुख अपने चरित्र में लोक को शंकारहित कर ' इस प्रकार उसे आज्ञा दी ॥ ७९ ॥

अथ वाल्मीकिशिष्येण पुण्यमावर्जितं पयः ।

आचम्योदीरयामास सीता सत्यां सरस्वतीम् ॥ १५ -८०॥

भा०-इसके उपरान्त वाल्मीकि के शिष्य द्वारा लाया हुआ पवित्र जल आचमन करके सीता सत्य वाणी बोली ॥८०॥

" यथाहं राघवादन्यं मनसापि न चिन्तये।

तथा मे माधवीदेवि विवरं दातुमर्हसि ॥१॥

मनसा कर्मणा वाचा यथा रामं समर्चये।

तथा मे माधवीदेवि विवरं दातुमर्हसि ॥२॥

तथा शपन्त्यां वैदेह्यां प्रादुरासीत्तदद्भुतम् ।

भूतलादुत्थितं दिव्यं सिंहासनमनुत्तमम् ।। ३ ।।

ध्रियमाणं शिरोभिस्तु नागेरमितविक्रमः ।

दिव्यं दिव्येन वपुषा दिव्यरत्नविभूषितैः ॥ ४॥

तस्मिस्तु धरणी देवी वाहुभ्यां गृह्य मैथिलीम् ।।

स्वागतेनाभिनन्यैनामासने चोपवेशयत् ॥ ५॥

तामासनगतां दृष्ट्वा प्रविशन्ती रसातलम् ।

पुष्पवृष्टिरविच्छिन्ना दिव्या सीतामवाकिरत् ॥६॥" (रामायणे)

वाङ्मनःकर्मभिः पत्यौ व्यभिचारो यथा न मे ।

तथा विश्वंभरे देवि मामन्तर्धातुमर्हसि ॥ १५ -८१॥

भा०-वाणी मन और कर्म से जो पति, मेरा व्यभिचार (व्रतभंग) नहीं है, तो हे पृथ्वीदेवि ! तुम मुझे भीतर लेने को योग्य हो॥ ८१॥

एवमुक्ते तया साध्व्या रन्ध्रात्सद्योभवाद्भुवः ।

शातह्रदमिव ज्योतिः प्रभामण्डलमुद्ययौ ॥ १५ -८२॥

भा०-उस पतिव्रता के ऐसा कहते ही तत्काल पृथ्वी के नये विवर से विजली की चमक की समान कान्तिमण्डल निकला ।। ८२ ॥

तत्र नागफणोत्क्षिप्तसिंहासननिषेदुषी ।

समुद्ररशना साक्षात्प्रादुरासीद्वसुंधरा ॥ १५ -८३॥

.भा०-उसमें नागों के फणों पर रक्खे हुए सिंहासन पर बैठी हुई, समुद्र की कोंधनीवाली साक्षात् पृथ्वी प्रादुर्भूत हुई ॥ ८३ ॥

सा सीतामङ्कमारोप्य भर्तृप्रणिहितेक्षणाम् ।

मामेति व्याहरत्येव तस्मिन्पातालमभ्यगात् ॥ १५ -८४॥

भा०-वह पृथिवी स्वामी में दृष्टि लगाये सीता को गोदी में बैठाकर रामचंद्र के नहीं नहीं ऐसा कहते पाताल को प्रवेश कर गई ॥ ८४॥

वसुधे देवि ! भवति सीता निर्यात्यतां मम ।

कामं श्वश्रूर्ममैव त्वं त्वत्सकाशात्तु मैथिली ॥ १ ॥

कर्षता फालहस्तेन जनकेनोद्धृता पुरा ।

न मे दास्यति चेत्सीतां यथारूपं महीतले ॥२॥

सपर्वतानां कृत्स्नानां व्यथयिष्यामि ते स्थितिम् ।

एवं ब्रुवाणे काकुत्स्थे क्रोधशोकसमन्विते ॥३॥

ब्रह्मा सुरगणैःसार्द्धमुवाच रघुनंदनम्" इत्यादि (रामायणे) 

धरायां तस्य संरम्भं सीताप्रत्यर्पणैषिणः ।

गुरुर्विधिबलापेक्षी शमयामास धन्विनः ॥ १५ -८५॥

भा०-सीता को फेर लेने की इच्छावाले उस धनुषधारी का पृथ्वी पर क्रोध देवशक्ति के जाननेवाले गुरु (ब्रह्मा) ने शान्त किया ॥ ८५ ॥

ऋषीन्विसृज्य यज्ञान्ते सुहृदश्च पुरस्कृतान् ।

रामः सीतागतं स्नेहं निदधे तदपत्ययोः ॥ १५ -८६॥

भा०-रामचंद्र ने यज्ञान्त में सत्कार किये हुए ऋषि और मित्रों को विदाकर सीता का प्रेम उसके पुत्रों में स्थापित किया ॥८६॥

युधाजितस्य संदेशात्स देशं सिन्धुनामकम् ।

ददौ दत्तप्रभावाय भरताय भृतप्रजः ॥ १५ -८७॥

भा०-और प्रजा के पालक उन (राम) ने युधाजित् भरत के मामा के कथन से सिन्धुनामक देश ऐश्वर्ययुक्त भरत को दिया ॥ ८७॥

भरतस्तत्र गन्धर्वान्युधि निर्जित्य केवलम् ।

आतोद्यं ग्राहयामास समत्याजयदायुधम् ॥ १५ -८८॥

मा०-तहां भरत ने युद्ध में गन्धर्वो को जीतकर केवल (उन्हें) वीणा ग्रहण कराई और शस्त्र त्याग करा दिये ॥८८॥

स तक्षपुष्कलौ पुत्रौ राजधान्योस्तदाख्ययोः ।

अभिषिच्याभिषेकार्हौ रामान्तिकमगात्पुनः ॥ १५ -८९॥

भा०-वह राज्य के उचित तक्ष और पुष्कल नाम दो पुत्रों को तिन्ही के नामकी (तक्ष, पुष्कल) राजधानियों में अभिषेक करके फिर राम के निकट आये ॥ ८९॥

अङ्गदं चन्द्रकेतुं च लक्ष्मणोऽप्यात्मसंभवौ ।

शासनाद्रघुनाथस्य चक्रे कारापथेश्वरौ ॥ १५ -९०॥

भा०-लक्ष्मण ने भी रामचंद्र की आज्ञा से अंगद और चन्द्रकेतु नामवाले अपने दो पुत्रों को कारापथ देश का राजा किया ॥९॥

इत्यारोपितपुत्रास्ते जननीनां जनेश्वराः ।

भर्तृलोकप्रपन्नानां निवापान्विदधुः क्रमात् ॥ १५ -९१॥

भा०-इस प्रकार पुत्रों को राज्य दे उन जनेश्वरों ने भर्ता के लोक को प्राप्त हुई माताओं के क्रम से श्राद्धादि कर्म किये ॥ ९१॥

उपेत्य मुनिवेषोऽथ कालः प्रोवाच राघवम् ।

रहःसंवादिनौ पश्येदावां यस्तं त्यजेरिति ॥ १५ -९२॥

भा०-उसके उपरान्त काल मुनि का वेषधारे आकर रामचन्द्र से बोला एकान्त में वार्ता करते हुए हम दोनों को जो देखे तुम उसे त्याग दो ॥ ९२॥

तथेति प्रतिपन्नाय विवृतात्मा नृपाय सः ।

आचख्यौ दिवमध्यास्व शासनात्परमेष्ठिनः ॥ १५ -९३॥

भा०-उनके 'बहुत अच्छा इस प्रकार स्वीकार करने पर रामचंद्र से अपना रूप प्रकाशित कर ब्रह्मा की आज्ञा से स्वर्ग में वास करो, यह कहा ।। ९३ ॥

विद्वानपि तयोर्द्वाःस्थः समयं लक्ष्मणोऽभिनत् ।

भीतो दुर्वाससः शापाद्रामसंदर्शनार्थिना ॥ १५ -९४॥

भा०-द्वारे बैठे हुए लक्ष्मण ने ( राम की प्रतिज्ञा) जानकर भी रामचंद्र के दर्शन की इच्छा करनेवाले दुर्वासा के शाप से डरकर उन दोनों की बातचीत भंग की ॥ ९४ ॥

(दुर्वासा ने लक्ष्मण से कहा यदि अभी रामचंद्र को नहीं समाचार दोगे तो मैं सबको शाप दे भस्म कर दूंगा, लक्ष्मण ने विचारा मेरा अनिष्ट हो तो हो और तो सब बचें यह समझ रामचंद्र के पास गये)

स गत्वा सरयूतीरं देहत्यागेन योगवित् ।

चकारावितथां भ्रातुः प्रतिज्ञां पूर्वजन्मनः ॥ १५ -९५॥

भा०-योग जाननेवाले उन (लक्ष्मण) ने सरयू के तीर जाकर देह के त्यागने से बड़े भाई की प्रतिज्ञा को सत्य किया ॥ ९५॥

तस्मिन्नात्मचतुर्भागे प्राङ्नाकमधितस्थुषि ।

राघवः शिथिलं तस्थौ भुवि धर्मस्त्रिपादिव ॥ १५ -९६॥

भा०-अपने उस चतुर्थ भाग के प्रथम स्वर्ग में जाने पर रामचंद्र पृथ्वी में तीन पाद धर्म की नाइ शिथिल स्थित हुए। ९६ ॥

(तप, शौच, दया, सत्य यह धर्म के चार पाद हैं)

स निवेश्य कुशावत्यां रिपुनागाङ्कुशं कुशम् ।

शरावत्यां सतां सूक्तैर्जनिताश्रुलवं लवम् ॥ १५ -९७॥

उदक्प्रतस्थे स्थिरधीः सानुजोऽग्निपुरःसरः ।

अन्वितः पतिवात्सल्याद्गृहवर्जमयोध्यया ॥ १५ -९८॥

भा०-स्थिर बुद्धिवाले वह (राम) शत्रुरूपी हाथियों के अंकुशरूपी कुश को कुशल(नगरी) में और मनोहर वचनों से सत्पुरुषों के आंसू बहानेवाले लव को शरावती में स्थापित कर भाई सहित अग्निहोत्र को आगे कर राजा की (अर्थात् अपनी) प्रीति से घरों के विना अयोध्या को पीछे लिये उत्तर दिशा को चले(अर्थात् अयोध्या में केवल शून्य घर पडे रहे ) ॥ ९७ - ९८॥

जगृहुस्तस्य चित्तज्ञाः पदवीं हरिराक्षसाः ।

कदम्बमुकुलस्थूलैरभिवृष्टां प्रजाश्रुभिः ॥ १५ -९९॥

भा०-मन को जाननेवाले राक्षस और वानरों ने कदम्ब कलियों के समान बड़े प्रजाक आंसुओं से सींचे हुए उनके मार्ग को ग्रहण किया ( अर्थात् यह भी उनके पीछे गये) ॥ ९९॥

उपस्थितविमानेन तेन भक्तानुकम्पिना ।

चक्रे त्रिदिवनिःश्रेणिः सरयूरनुयायिनाम् ॥ १५ -१००॥

भा०-प्राप्त विमानवाले, भक्तों के ऊपर कृपा करनेवाले उन (राम) ने पीछे चलनेवालों को सरयू स्वर्ग की सीढी बना दी (अर्थात् सरयू में स्नान करते ही प्रजा विमान में चढ वैकुंठ जाने लगीं)॥ १०० ॥

यद्गोप्रतरकल्पोऽभूत्संमर्दस्तत्र मज्जताम् ।

अतस्तदाख्यया तीर्थं पावनं भुवि पप्रथे ॥ १५ -१०१॥

भा०-जो कि वहां स्नान करनेवालों का मेला गोपतर (अर्थात गौओं के उतारे के समान) हुआ, इस कारण उसी नाम से वह पवित्र तीर्थ पृथ्वी में प्रसिद्ध हुआ॥१०१ ॥

स विभुर्विबुधांशेषु प्रतिपन्नात्ममूर्तिषु ।

त्रिदशीभूतपौराणां स्वर्गान्तरमकल्पयत् ॥ १५ -१०२॥

भा०-सर्वव्यापक (प्रभु ) उन (राम) ने देवताओं के अंशवाले(वानर रीछादि ) को अपनी अपनी मूर्ति को प्राप्त होने पर देवपन को प्राप्त हुए अयोध्या निवासियों के निमित्त दूसरा स्वर्ग बनाया ॥ १०२॥

निर्वर्त्यैवं दशमुखशिरश्छेदकार्यं सुराणां

विष्वक्सेनः स्वतनुमविशत्सर्वलोकप्रतिष्ठाम् ।

लङ्कानाथं पवनतनयं चोभयं स्थापयित्वा

कीर्तिस्तम्भद्वयमिव गिरौ दक्षिणे चोत्तरे च ॥ १५ -१०३॥

भा-विष्णु इस प्रकार देवताओं का दशानन वधरूपी कार्य संपादन करके लंकापति (विभीषण) और पवनतनय (महावीरजी) दोनों को कीर्ति के दो स्तंभों की नाई दक्षिण और उत्तर के पर्वतों में स्थापित करके सब लोकों के धारण करनेवाली अपनी मूर्ति में प्रवेश कर गये ॥ १०३ ॥

दोहा-प्रजापाल श्रीराम सम, पतिव्रत धर्म सी सीय।

भयो न है कोइ होयगो, कीरति अतिकमनीय ॥

अर्थ धर्म कामादिदा, कथा सुमंगलमूल ।

पढहिं सुनहिं करि प्रेम जो, राम रहहिं अनुकूल ॥

॥ इति श्रीरघुवंशे महाकाव्ये कविश्रीकालिदासकृतौ श्रीरामस्वर्गारोहणो नाम पञ्चदशः सर्गः ॥ १५ ॥

इस प्रकार श्रीमहाकविकालिदास द्वारा रचित रघुवंश महाकाव्य का सर्ग १५ सम्पूर्ण हुआ॥

रघुवंशमहाकाव्यम् पञ्चदशः सर्गः    

रघुवंशं सर्ग १५ कालिदासकृतम्

रघुवंशम् पन्द्रहवां सर्ग                  

रघुवंश पन्द्रहवां सर्ग संक्षिप्त कथासार       

राम का शरीर-त्याग

सीता का परित्याग करने पर राम एकचित्त होकर रत्नाकर -मेखला पृथ्वी का शासन करने में लग गए। यमुना - तट पर तपस्या करनेवाले मुनि लोगों को लवण नाम का राक्षस दु: खी करता था । वे लोग रक्षा की प्रार्थना लेकर महाराज के पास आए। राम पर भरोसा करके उन्होंने राक्षस पर अपने तपोबल से प्रहार नहीं किया । तपस्वी लोग अन्य कोई उपाय न होने पर ही शाप देने में तप का व्यय करते हैं । राम ने उन्हें रक्षा का आश्वासन दे दिया । भगवान पृथ्वी पर धर्म की रक्षा के लिए शरीर धारण करते हैं । मुनियों ने राम को लवण को मारने का उपाय बतलाते हुए कहा कि शूलधारी लवण को जीतना कठिन है, ऐसे समय उस पर आक्रमण करना चाहिए, जब उसके पास शूल न हो । महाराज ने मानो नाम सार्थक करने के लिए शत्रुघ्न को शत्रु का नाश करने की आज्ञा दे दी । बड़े भाई से आशीर्वाद प्राप्त करके शत्रुघ्न मार्ग के रमणीक वन- स्थलों को देखता हुआ लवण पर विजय के लिए चला । राम ने पीछे से सहायता के लिए जो सेना भेजी, वह ऐसे सार्थक हुई जैसे धातु के साथ लगा हुआ सहायक उपसर्ग। शत्रु का नाश करने के लिए जाते हुए उसे ऋषि लोग मार्ग- दर्शन कर सहायता देते थे । रास्ते में ऋषि वाल्मीकि का आश्रम पड़ा । शुत्रघ्न ने एक रात वहां निवास किया । तप के प्रभाव से जुटाई हुई अनेक प्रकार की रुचिकर वस्तुओं से ऋषि ने उसका स्वागत किया । जिस रात शत्रुघ्न ने ऋषि के आश्रम में विश्राम किया, उसी रात सीता ने दो राजकुमारों को जन्म दिया । दूसरे दिन प्रात: काल राजकुमारों के जन्म से प्रसन्नमन होकर शत्रुघ्न ने विजय- यात्रा के लिए प्रयाण किया । अन्त में वह रावण की बहिन कुम्भीनसी के पुत्र लवण की मधुपन्न नाम की नगरी के समीप जा पहुंचा, जहां लवण ने कर की भांति भोजन के लिए वन से लाकर तरह- तरह के प्राणियों को इकट्ठा कर रखा था । लवण का धुएं जैसी कालिमा मिला हुआ लाल रंग था, उसके शरीर से चर्बी की गन्ध आ रही थी, उसके आग की तरह लाल- लाल बाल थे, और वह मांस खाने वाले राक्षसों से घिरा हुआ था मानो चलती-फिरती चिता की आग हो । शत्रुघ्न ने जब उसे शूलरहित पाया, तभी उस पर आक्रमण कर दिया । युद्ध में उन्हीं को जय प्राप्त होती है, जो शत्रु की निर्बलता के समय उस पर प्रहार करते हैं । आज मुझे भरपेट भोजन नहीं मिला था, इससे डरकर मानो विधाता ने तुझे मेरे पास भेजा है इस प्रकार ललकारकर राक्षस ने उस पर फेंकने के लिए एक बड़े पेड़ को ऐसी सुगमता से उखाड़ लिया जैसे घास को उखाड़ लेते हैं । शत्रुघ्न के बाणों ने रास्ते में ही वृक्ष को काट दिया फलत: वृक्ष तो उस तक न पहुंचा, केवल उसके फूलों का रज उड़कर उसके अंगों को सुशोभित करने लगा। वृक्ष के निष्फल होने पर लवण ने यमराज की मुष्टि के समान एक बड़ी शिला उठाकर राजपुत्र पर फेंकी। शत्रुघ्न ने उस पर इंद्रास्त्र का प्रहार किया, जिससे वह शिला बालू से भी अधिक सूक्ष्म परमाणुओं में बंट गई । तब राक्षस अपनी दाहिनी भुजा को उठाकर राजपुत्र की ओर लपका - उस समय राक्षस आंधी से प्रेरित किए हुए ऐसे पर्वत की भांति प्रतीत हो रहा था, जिस पर ताल का एक ही पेड़ लगा हुआ हो । शत्रुघ्न ने राक्षस के हृदय पर वैष्णवास्त्र का प्रहार किया, जिससे निष्प्राण होकर पृथ्वी को कंपाता और तपस्वियों के हृदयकम्पन को मिटाता हुआ लवण नीचे गिर गया । उस समय राक्षस के शरीर पर कौए मंडराने लगे और शत्रुघ्न के सिर पर आकाश से पुष्प-वर्षा होने लगी । लवण का नाश करके शत्रुघ्न ने ऐसा अनुभव किया कि मानो अब उसने इन्द्रजित् को मारनेवाले लक्ष्मण भैया का भाई बनने की योग्यता प्राप्त कर ली हो । तपस्या में विघ्न उत्पन्न करने वाले राक्षस के नाश से संतुष्ट होकर ऋषि लोग शत्रुघ्न की प्रशंसा करने लगे तो विजयी क्षत्रिय का सिर लज्जा से नीचे झुककर अधिक शोभायमान होने लगा । विजय के उपलक्ष्य में शत्रुघ्न ने कालिन्दी के तट पर मधुरा नाम के नगर की स्थापना की । सुखकारी राज्य के आकर्षण से खिंचे हुए पौरजनों के ऐश्वर्य के कारण वह नगरी ऐसी प्रतीत होने लगी मानो स्वर्ग से छलककर गिरी हुई विभूति से सजाई गई हो । नये राजमहल की ऊँची अट्टालिका में बैठकर जब शत्रुघ्न चक्रवाकों वाली यमुना की धारा को देखता था तो वह भूमि की सोने के श्रृंगार से युक्त वेणी- सी दिखाई देती थी । उधर वाल्मीकि मुनि ने दशरथ और जनक दोनों की मित्रता को निभाते हुए राम के पुत्रों के विधिवत् संस्कार किए । उनकी उत्पत्ति के समय गर्भ के क्लेश को दूर करने के लिए कुश और लव ( गौ की पूंछ के बाल ) से सहायता ली गई थी, इस कारण शिशुओं के नाम कुश और लव रखे गए। ऋषि ने उन्हें वेद - वेदांत की शिक्षा से परिष्कृत और शस्त्र -विद्या से शक्तिसम्पन्न बनाकर, पिता - तुल्य राजकुमार बना दिया । उन्हीं दिनों ऋषि ने रामायण की रचना की और वह कुश और लव को याद करा दी । स्वर- सहित गाए हुए रामायण के श्लोकों में अपने पति का मधुर वृत्तान्त सुनकर सीता अपने वियोग - दुःख को भूल जाती थी । राम के अन्य तीनों भाइयों के भी दो - दो पुत्र उत्पन्न हुए । शत्रुघ्न ने अपने सुबाहु और बहुश्रुत नाम के पुत्रों को मधुरा में प्रतिष्ठापित कर दिया और स्वयं अयोध्या को लौट गया । उसने लौटते हुए इस भय से कि वाल्मीकि के तप में विघ्न न हो, उनके आश्रम में डेरा न डाला और इस कारण कुश और लव के गाए हुए श्लोकों को शान्त भाव से सुनते हुए मृगों वाले आश्रम का आनन्द न ले सका । अयोध्या पहुचकर शत्रुघ्न ने सभासदों से घिरे हुए श्रीराम को सादर प्रणाम किया । राम ने भी उसकी पीठ पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया । शत्रुघ्न ने राम को विजय-यात्रा के और तो सब समाचार सुना दिए, केवल सन्तानोत्पत्ति का वृत्तांत न सुनाया, क्योंकि वाल्मीकि मुनि ने आदेश दे दिया था कि उन्हें मैं यथासमय राम के अर्पण करूंगा, तुम उनके विषय में कुछ न कहना । एक दिन नगरनिवासी एक ब्राह्मण बाल्यावस्था में ही मरे हुए अपने पुत्र की लाश को गोद में लेकर राम के द्वार पर इस प्रकार क्रन्दन करने लगा कि हे धरती माता, तेरी शोचनीय दशा है। तू जब से दशरथ से छूटकर राम के हाथों में आई है, निरन्तर दीन से दीन दशा को प्राप्त होती जा रही है। इससे पहले इक्ष्वाकुवंशजों के राज्य में कभी अकाल- मृत्यु तो नहीं होती थी । इस प्रकार ब्राह्मण के कष्ट का कारण सुनकर प्रजापालक राम को बहुत लज्जा आई और ब्राह्मण से थोड़ी प्रतीक्षा के लिए क्षमा मांगकर उन्होंने पुष्पक विमान का स्मरण किया । तत्काल विमान सेवा में उपस्थित हो गया । महाराज सशस्त्र हो उसमें बैठकर यह देखने चले कि इस अकालमृत्यु का कारण क्या है! उस समय उन्हें आकाशवाणी सुनाई दी - हे राजन् , तुम्हारे राज्य में कोई मर्यादा -विरोधी कार्य हो रहा है, उसे ढूंढ़कर शान्त करो। तभी तुम कृतकृत्य हो सकोगे । आकाशवाणी से प्रेरित होकर राम ने विमान द्वारा चारों ओर दौरा लगाया । उन्होंने देखा कि एक वृक्ष की शाखा से उलटा लटका हुआ धुएं की भांति धुंधली लाल आंखों वाला कोई पुरुष तपस्या कर रहा है । पूछने पर उसने अपना परिचय दिया कि वह शम्बूक नाम का शुद्र है और देवपद की प्राप्ति के लिए तप कर रहा है । जो- जो विद्याध्ययनादि द्वारा द्विज पद का अधिकारी नहीं हुआ, उसे तपस्या का अनाधिकारी मानकर राम ने दण्ड देने के लिए शस्त्र हाथ में लिया और उसके हिम से कुम्हलाए हुए कमल जैसे सिर को गर्दन रूपी नाल से काटकर अलग कर दिया । कठोर तप से भी शम्बूक को जो पुण्य प्राप्त न होता, वह महाराज के हाथों से मरने से प्राप्त हो गया । समयान्तर में अगस्त्य मुनि ने प्रकट होकर समुद्र से प्राप्त किया हुआ दिव्य अलंकार राम को भेंट किया, जिसे सीता की अनुपस्थिति में राम उदास मन से ग्रहण करके राजधानी में लौटे, तो उससे पहले ब्राह्मण का वह शिशु, जिसे वह मृत समझे हुए था, सचेत हो चुका था । जो ब्राह्मण राम की निन्दा करता हुआ अयोध्या आया था, वह यमराज से भी रक्षा करने वाले दिव्य पुरुष की स्तुति गाता हुआ घर को लौटा । अनन्तर राम ने अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय किया । जब उन्होंने यज्ञ के अश्व को देश - देशान्तरों में विचरण के लिए छोड़ दिया, तब विभीषण, सुग्रीव तथा अन्य भूपतियों की ओर से बहुमूल्य भेंटों की वर्षा होने लगी । निमन्त्रित ऋषि लोग अपने तपोवन और दिव्य स्थानों को छोड़कर अयोध्या में एकत्र होने लगे। अभ्यागतों के ठहरने की व्यवस्था राजधानी के भीतर और उसके चारों मुख्य द्वारों के बाहर भी की गई। उस समय अयोध्या ऐसे प्रतीत होती थी, मानो अपनी बनाई सृष्टि से गिरी हुई चतुर्मुख ब्रह्मा की मूर्ति हो । एक पत्नीव्रती राम ने यज्ञ- मण्डप में यजमान- पत्नी के स्थान पर सीता की स्वर्णमयी प्रतिमा की स्थापना की थी-यह भी इक्ष्वाकु वंश के यश के योग्य ही प्रशंसनीय कार्य था । राम के यज्ञ की यह विशेषता थी कि राक्षस लोग भी उसके रक्षक बन गए थे। उसी अवसर पर प्राचेतस मुनि वाल्मीकि की रचना रामायण के श्लोकों में गाते हुए कुश और लव अयोध्या में घूम रहे थे। राम का पावन चरित, वाल्मीकि जैसा कवि और किन्नर के समान मधुर स्वर वाले गायक, सुननेवालों को मुग्ध करने के लिए और कौन- सी वस्तु शेष थी ! राम को जब समाचार मिला तो उत्सुक होकर भाइयों के साथ उसने उन्हें सभा में बुलाया और रामायण सुनी । जैसे शीत ऋतु के प्रभात में वन - वृक्षों के पत्तों से ओस की बूंदें झरने लगती हैं, कुश और लव के करुणाभरे संगीत को सुनकर सभासदों के नेत्रों की वही दशा हो गई। कोई आंख नहीं थी, जिसमें पानी न हो । आंसू और वेश भिन्न थे परन्तु मुखमुद्रा वही थी, जो राम की । यह देखकर जनता की आंखों की टकटकी नहीं टूटती थी । लोगों को उतना आश्चर्य कुमारों की संगीत में प्रवीणता से नहीं हुआ था, जितना उनके प्रति राम की उपेक्षा से हुआ । जब राम ने उनसे स्वयं पूछा कि यह किस कवि की कृति है और तुम्हें संगीत की शिक्षा किसने दी है, तो उन्होंने वाल्मीकि मुनि का नाम लिया । तब राम अपने भाइयों को साथ लेकर मुनि के पास गए और सारा राज्य उनकी सेवा में भेंट कर दिया । वाल्मीकि मुनि ने राम को कुश और लव के सम्बन्ध में सब कुछ बताकर राज्य के बदले में राम द्वारा सीता के ग्रहण की मांग पेश की । राम ने उत्तर दिया भगवन, आपकी बेटी तो हम सबके सामने अग्नि - परीक्षा द्वारा शुद्ध सिद्ध हो चुकी है । परन्तु क्या किया जाए ! यहां की प्रजा उस पर विश्वास नहीं करती । अत: जानकी इन सबके सामने अपने - आपको पवित्र सिद्ध करे तब मैं आपकी आज्ञा से उसे अंगीकार कर लूंगा । राम के ऐसा आश्वासन देने पर वाल्मीकि ने अपने शिष्यों द्वारा सीता को अयोध्या में बुला लिया । एक दिन राम ने राजधानी के नागरिकों को एकत्र करके आदिकवि को सन्देश भेज दिया । ऋषि सीता और बालकों के साथ वहां उपस्थित हो गये। सीता ने गेरुए रंग के कपड़े पहने हए थे, उसकी आंखें अपने चरणों की ओर झुकी हुई थीं और मुर्ति शान्त थी । यह सब कुछ देखकर अनायास ही यह अनुमान होता था कि वह देवी सर्वथा निर्दोष है। जब सीताजी सामने आईं तब लोग फलों के बोझ से लदे हुए धान के पौधों की तरह, दूसरी दिशा को मुंह करके, नीचे की ओर देखने लगे। योगासन में बैठे हुए वाल्मीकि मुनि ने राम के सामने आदेश दिया कि बेटी, प्रजा के संशय को दूर करो! मुनि के शिष्य द्वारा दिये हुए जल से आचमन करके सती सीता ने सच्चे दिल से इस प्रकार प्रार्थना की_ हे माता वसुन्धरे, यदि मैंने कभी मन, वाणी या कर्म से अपने पति के अतिरिक्त अन्य किसी से सम्पर्क नहीं किया तो मुझे अपनी गोद में छिपा ले। सती का वचन पूरा होते ही पृथ्वी फट गई और उसमें से बिजली की तरह चमकता हुआ ज्योति का एक पिण्ड प्रकट हो गया । लोगों ने आश्चर्यचकित नेत्रों से देखा कि ज्योति के उस मण्डल में नाग- फणों द्वारा उठाए हुए सिंहासन पर समुद्र-मेखला पृथ्वी स्वयं विराजमान है । उसने आकर सीता को अपनी गोद में ले लिया, सीता भाव- भरे नेत्रों से अपने पति की ओर देख रही थी और राम ठहरो ठहरो चिल्ला रहे थे कि पृथ्वी माता सीता को गोद में लेकर विलीन हो गई। उस समय राम को पृथ्वी पर बहुत क्रोध आया और उसने अपने धनुष की ओर हाथ बढ़ाया । ऋषि ने उसे समझाकर शान्त कर दिया कि दैव की यही इच्छा थी और दैव की इच्छा टल नहीं सकती। अत: क्रोध करना व्यर्थ है । यज्ञ की समाप्ति पर राम ने ऋषिओं और राजाओं को आदर सहित विदा कर दिया और उसके हृदय में सीता के प्रति जो प्रेम था, सीता के पुत्रों में उसे केन्द्रित कर दिया । भरत के मामा युधाजित् के आदेश से राम ने सिन्धु देश भरत को सौंप दिया, जहां पहुंचकर भरत ने वहां के गन्धर्वो को जीत लिया और उनके हाथों में हथियार के स्थान पर वीणा पकड़ा दी । भरत अपने तक्ष और पुष्फल नाम के पुत्रों को उनके नाम से बनाई हुई तक्ष और पुष्कल नाम की राजधानियों में अभिषिक्त करके स्वयं अपने बड़े भाई के पास लौट आया । महाराज की आज्ञा से लक्ष्मण ने अपने अंगद और चन्द्रकेतु नाम के पुत्रों को कारापथ का राज्य सौंप दिया । इसी बीच राम की माताओं का स्वर्गवास हो गया । सबने उनका यथायोग्य तर्पण किया । एक समय शरीरधारी मृत्यु ने राम से एकान्त में बातचीत करने की इच्छा प्रकट करते हुए यह शर्त लगाई कि जो कोई हमको एकान्त में बात करते देखेगा तुम्हें उसका परित्याग कर देना होगा । राम के स्वीकार कर लेने पर काल ने एकान्त में अपना असली रूप प्रदर्शित करके ब्रह्मा का यह सन्देश सुनाया कि आप स्वर्ग में विराजमान हों । उसी समय क्रोधी मुनि दुर्वासा ने द्वार पर आकर रामचन्द्र से भेंट करने की इच्छा प्रकट की । इसे काल की गति ही समझना चाहिए कि सब कुछ जानते हुए भी द्वार की रक्षा के लिए नियुक्त लक्ष्मण ने स्वयं ही दुर्वासा के क्रोध से डरकर नियम को भंग कर दिया । वह महाराज से आज्ञा लेने अन्दर चला गया । फल यह हुआ कि लक्ष्मण को दण्ड देना राम के लिए आवश्यक हो गया । बड़े भाई को भावनाओं के संकट से बचाने के लिए लक्ष्मण ने सरयू - तट पर योगसमाधि द्वारा अपने शरीर का त्याग कर दिया । राम ने भी विधाता के आदेश को सिर नवाकर स्वीकार कर लिया और वह कुशावती में कुश और शरावती में लव को स्थापित करके भाइयों के साथ यज्ञाग्नि के पीछे-पीछे, उत्तर दिशा की ओर प्रस्थित हो गया । अपने स्वामी के प्रेम से खिंचे हुए पुरवासी भी घरों को छोड़कर साथ हो लिए । जब वानरों और राक्षसों को मालूम हुआ कि महाराज राज्य को त्यागकर वन की ओर जा रहे हैं तो वे कदम्ब की कली जैसे बड़े बड़े आंसुओं को बहाते हुए उसी मार्ग पर चल पड़े । इतने में राम को लेने के लिए पुष्पक विमान आ गया । पुरवासियों ने सरयू में स्नान करके पुण्य - लाभ किया । उस समय स्नान करनेवालों की भीड़ के कारण नदी का जल ऐसा प्रतीत होता था, मानो गौओं के झुण्ड उसमें तैर रहे हों । तभी से वह तीर्थ गोप्रतर नाम से पुकारा जाने लगा । राम ने आततायी रावण का वध और तपस्वियों की रक्षा का कार्य पूरा करके शान्ति रक्षा के लिए उत्तर में हनुमान और दक्षिण में विभीषण को अपने दो कीर्तिस्तम्भों के समान स्थापित कर दिया और स्वयं स्वर्ग सिधार गए । उनकी भक्ति में जिन वानरों, राक्षसों तथा पौरजनों ने शरीर त्याग किया, उनके लिए भगवान ने एक स्वर्ग की रचना कर दी ।

रघुवंश महाकाव्य पन्द्रहवां सर्ग का संक्षिप्त कथासार सम्पूर्ण हुआ॥ १५ ॥

शेष जारी..............आगे रघुवंशमहाकाव्यम् सर्ग १६   

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