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गोविन्द श्रीकृष्ण के इस गोविन्द स्तोत्र का नित्य पाठ करने से पृथ्वी पर कुछ
भी दुर्लभ नहीं रह जाता और उसे भगवत् भक्ति प्राप्त होता तथा अंत में दुर्लभ आदिपुरुष
भगवान गोनिन्द का नित्य सानिध्य और नित्य निकुन्ज गोलोकधाम की प्राप्ति होता है ।
श्रीगोविन्दस्तोत्रम्
चिन्तामणिप्रकरसद्मसु कल्पवृक्ष-
लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम् ।
लक्ष्मीसहस्रशतसंभ्रमसेव्यमानं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥१ ॥
मैं उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द (श्रीकृष्ण
)की शरण लेता हूँ, जिनकी लाखों कल्पवृक्षों
से आवृत एवं चिन्तामणिसमूह से निर्मित भवनों में लाखों लक्ष्मी सदृश्य युवतियों के
द्वारा निरन्तर सेवा होती रहती है और जो स्वयं वन-वन में घूम-घूम कर गौओं की सेवा
करते हैं।
वेणुं क्वणन्तमरविन्ददलायताक्षं
बर्हावतंसमसितांबुदसुन्दरांगम् ।
कन्दर्पकोटिकमनीयविशेषशोभं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥२ ॥
जो बंशी में स्वर फुंक रहे हैं,
कमल के पंखुड़ियों के समान बड़े-बड़े जिनके नेत्र हैं, जो मोरपंख का मूकुट धारण किये रहते हैं, मेघ के समान
श्यामसुन्दर जिनके श्रीअङ्ग है। जिनकी विशेष शोभा करोड़ों कामदेवों के दारा भी
स्पृहणीय है, उन आदिपुरुष भगवान गोनिन्द का मैं भजन करता हूँ।
आलोलचन्द्रकलसद्वनमाल्यवंशी-
रत्नाङ्गदं प्रणयकेलिकलाविलासम् ।
श्यामं त्रिभङ्गललितं नियतप्रकाशं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥३ ॥
जो हवा से अठखेलियां करते हुए मोरपंख,
सुन्दर वनमाला, बंशी एवं रत्नमय बाजूबंद से
सुशोभित है, जो प्रणय केलि कला-विलास मे दक्ष हैं, जिनका त्रिभङ्गललित
श्यामसुन्दर विग्रह है और जिनका प्रकाश कभी फीका नहीं होता सदा स्थिर रहता है,
उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं आश्रय लेता हूँ।
अङ्गानि यस्य
सकलेन्द्रियवृत्तिमन्ति
पश्यन्ति पान्ति कलयन्ति चिरं
जगन्ति ।
आनन्दचिन्मयसदुज्ज्वलविग्रहस्य
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥४ ॥
जिनका सञ्चिदानन्दमय प्रकाशयुक्त
श्रीविग्रह है तथा सम्पूर्ण इन्द्रिय वृत्तियों से युक्त जिनके श्रीअङ्ग दीर्घ काल
तक विभिन्न लोकों पर दृष्टि रखते हैं, उनकी
रक्षा करते है तथा उनका ध्यान रखते हैं, उन आदिपुरुष भगवान्
गोविन्द का मैं आश्रय ग्रहण करता हूं।
अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपं
आद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनं च ।
वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥५ ॥
जो द्वैत से रहित हैं,
अपने स्वरूप से कभी च्युत नहीं होते, जो सबके आदि है, परंतु जिनका कहीं आदि नहीं है और जो अनन्त रूपों में प्रकाशित है, जो पुराण (सनातन) पुरुष होते हुए भी नित्य नवयुवक हैं, जिनका स्वरूप वेदों में भी प्राप्त नहीं होता (निषेधमुख में ही वेद जिनका
वर्णन करते हैं), किंतु अपनी भक्ति प्राप्त हो जाने पर जो
दुर्लभ नहीं रह जाते-अपने भक्तों के लिये जो सुलभ हैं, उन
आदिपुरुष भगवान् गोविन्द मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
पन्थास्तु कोटिशतवत्सरसंप्रगम्यो
वायोरथापि मनसो मुनिपुङ्गवानाम् ।
सोऽप्यस्ति यत्प्रपदसीम्न्यविचिन्त्य तत्त्वे
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥६ ॥
(भगवत्प्राप्ति के ) जिस मार्ग को
बड़े बड़े मुनि प्राणायाम तथा चित्तनिरोध के द्वारा अरबों वर्षों में प्राप्त करते
हैं, वही मार्ग जिनके अचिन्त्य महात्म्ययुक्त चरणों के
अग्रभाग की सीमा मे स्थित रहता है, उन आदिपुरुष भगवान्
गोविन्द का मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।
एकोऽप्यसौ रचयितुं जगदण्डकोटिं
यच्छक्तिरस्ति जगदण्डचये यदन्तः।
अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥७ ॥
जो यद्यपि सदा एक हैं उनके सिवा दूसरा
कोई नहीं है, फिर भी जो (अपनी दृष्टिमात्र से)
करोड़ों ब्रह्माण्डों को रचने की शक्ति रखते हैं---यही नहीं ब्रह्माण्डों के समूह
जिनके भीतर रहते हैं, साथ ही जो ब्रह्माण्ड के भीतर रहनेवाले
परमाणु समूह के भी भीतर स्थित रहते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द
को मैं भजता हूँ ।
यद्भावभावितधियो मनुजास्तथैव
संप्राप्यरूपमहिमासनयानभूषाः।
सूक्तैर्यमेव निगमप्रथितैः
स्तुवन्ति
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥८ ॥
जिनकी भक्ति भावित बुद्धिवाले
मनुष्य उनके रूप, महिमा, आसन, यान (वाहन) अथवा भूषणों की झाँकी प्राप्त करके
वेदप्रसिद्ध सूक्तों (मन्त्रों) द्वारा स्तुति करते हैं, उन
आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं भजन करता हूँ।
आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभि-
स्ताभिर्य
एव निजरूपतया कलाभिः ।
गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥९ ॥
जो सर्वात्मा होकर भी
आनन्दचिन्मयरसप्रतिभावित अपनी ही स्वरूपभूता उन प्रसिद्ध कलाओं ( गोप,
गोपी एवं गौओं) के साथ गोलोक में ही निवास करते हैं, उन आदिपुरुष गोविन्द की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन
सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति ।
यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥१० ॥
संतजन प्रेमरूपी अञ्जन से सुशोभित
भक्तिरूपी नेत्रों से सदा-सर्वदा जिनका अपने हृदय में ही दर्शन करते रहते हैं,
जिनका श्यामसुन्दर विग्रह है तथा जिनके स्वरूप एवं गुणों का
यथार्थरूप से चिन्तन भी नहीं हो सकता, उन आदिपुरुष भगवान्
गोविन्द का मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।
रामादि मूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन्
नानावतारमकरोद्भुवनेषु किन्तु ।
कृष्णः स्वयं समभवत् परमः पुमान् यो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥११ ॥
जिन्होंने श्रीरामादि विग्रहों में
नियत संख्या की कलारूप से स्थित रहकर भिन्न भिन्न भुवनों में अवतार ग्रहण किया,
परंतु जो परात्पर पुरुष भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में स्वयं प्रकट
हुए, उन आदिपुरुष भगवान् श्रीकृष्ण का मैं भजन करता हूँ ।
यस्य प्रभा प्रभवतो जगदण्डकोटि-
कोटिष्वशेषवसुधादिविभूतिभिन्नम् ।
तद्ब्रह्म निष्कलमनन्तमशेषभूतं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥१२ ॥
जो कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों में
पृथ्वी आदि समस्त विभूतियों के रूप में भिन्न-भिन्न दिखायी देता है,
वह निष्कल (अखण्ड), अनन्त एवं अशेष ब्रह्म जिन
सर्वसमर्थ प्रभु की प्रभा है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द को
मैं भजता हूँ।
माया हि यस्य जगदण्डशतानि सूते
त्रैगुण्यतद्विषयवेदवितायमाना ।
सत्त्वावलंबिपरसत्त्वविशुद्धसत्त्वं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥१३ ॥
सत्त्व,
रज एवं तम के रूप में उन्हीं तीनों गुणों का प्रतिपादन करनेवाले
वेदों के द्वारा विस्तारित जिनकी माया सैकड़ों ब्रह्माण्डों का सृजन करती है,
उन सत्त्वगुण का आश्रय लेनेवाले, सत्य से परे
एवं विशुद्धसत्त्वरूप आदिपुरुष भगवान् गोविन्द की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
आनन्दचिन्मयरसात्मकतया मनःसु
यः प्राणिनां प्रतिफलं
स्मरतामुपेत्य ।
लीलायितेन भुवनानि जयत्यजस्रं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥१४ ॥
जो स्मरण करनेवाले प्राणियों के मनों
में अपने आनन्दचिन्मयरसात्मक स्वरूप से प्रतिबिम्बित होते हैं तथा अपने लीलाचरित्र
के द्वारा निरन्तर समस्त भुवनों को वशीभूत करते रहते हैं,
उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।
गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्य
देवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु च ।
ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येन
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥१५॥
जिन्होंने गोलोक नामक अपने धाम मे
तथा उसके नीचे स्थित देवीलोक, कैलाश तथा बैकुण्ठ
नामक विभिन्न धामों में विभिन्न ऐश्वर्यों की सष्टिं की, उन
आदिपुरुष भगवान् गोविन्द को मैं भजता हूँ।
सृष्टिस्थितिप्रलयसाधनशक्तिरेका
छायेव यस्य भुवनानि बिभर्ति दुर्गा ।
इच्छानुरूपमपि यस्य च चेष्टते सा
गोविन्दमादिपुरुषं
तमहं भजामि ॥१६ ॥
सृष्टि,
स्थिति एवं प्रलयकारिणी शक्तिरूपा भगवती दुर्गा, जिनकी छाया की भांति समस्त लोकों का धारण-पोषण करती हैं और जिनकी इच्छा के
अनुसार चेष्टा करती है। उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं भजन करता हूँ।
क्षीरं यथा दधिविकारविशेषयोगात्
सञ्जायते नहि ततः पृथगस्ति हेतोः।
यत्सम्भूतमपि तथा समुपैति कार्याद्
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥१७ ॥
जावन आदि विशेष प्रकार के विकारों के
संयोग से दूध जैसे दही के रूप में परिवर्तित हो जाता है,
किंतु अपने कारण (दूध)से फिर भी विजातीय नहीं बन जाता, उसी प्रकार जो (संहाररूप) प्रयोजन को लेकर भगवान् शंकर के स्वरूप को
प्राप्त हो जाते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द की मैं शरण
ग्रहण करता हूँ।
दीपार्चिरेव हि दशान्तरमभ्युपेत्य
दीपायते विवृतहेतुसमानधर्मा ।
यस्तादगेव व विष्णुतया विभानि
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥१८॥
जैसे एक दीपक की लौ दूसरी बत्ती का
संयोग पाकर दूसरा दीपक बन जाती है, जिममें
अपने कारण ( पहले दीपक) के गुण प्रकट हो जाते हैं, उसी
प्रकार जो अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए ही विष्णुरूप में दिखायी देने लगते हैं,
उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।
यः कारणार्णवजले भजति स्म योग-
निद्रामनन्तजगदण्डसरोमकूपः।
आधारशक्तिमवलंब्य परं स्वमूर्तिं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥१९ ॥
आधारशक्तिरूपा अपनी (नारायणरूप)
श्रेष्ठ मूर्ति को धारण करके जो कारणार्णव के जल में योगनिद्रा के वशीभूत होकर
स्थित रहते है और उस समय उनके एक-एक रोमकूप मे अनन्त ब्रह्माण्ड समाये रहते है,
उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द को मैं भजता हूँ।
यस्यैकनिःश्वसितकालमथावलंब्य
जीवन्ति लोमविलजा जगदण्डनाथाः।
विष्णुर्महान् स इह यस्य कलाविशेषो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥२० ॥
जिनके रोमकूपों से प्रकट हुए
विभिन्न ब्रह्माण्डों के स्वामी (ब्रह्मा, विष्णु,
महेश ) जिनके एक श्वास जितने काल तक ही जीवन धारण करते हैं तथा सर्वविदित
महान् विष्णु जिनकी एक विशिष्ट कलामात्र हैं, उन आदिपुरुष
भगवान् गोविन्द का मैं भजन करता हूं।
भास्वान्यथाश्मशकलेषु निजेषु तेजः
स्वीयं कियत्प्रकटयत्यपि तद्वदत्र ।
ब्रह्मा य एष जगदण्डविधानकर्ता
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥२१ ॥
जैसे सूर्य सूर्यकान्त नामक
सम्पूर्ण मणियों मे अपने तेज का किंचित् अंश प्रकट करते हैं,
उसी प्रकार एक ब्रह्माण्ड का शासन करनेवाले ब्रह्मा भी अपने अंदर
जिनके तेज का किंचित् अंश प्रकट करते है, उन आदिपुरुष भगवान्
गोविन्द की मैं शरण ग्रहण करता हुँ ।
यत्पादपल्लवयुगं विनिधाय कुंभ-
द्वन्द्वे प्रणामसमये स गणाधिराजः ।
विघ्नान्विहन्तुमलमस्यजगत्त्रयस्य
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥२२ ॥
प्रणाम करते समय जिनके चरणयुगल को
अपने मस्तक के दोनो भागों पर रखकर सर्वसिद्ध भगवान् गणपति इन तीनों लोकों के विघ्नों
का विनाश करने में समर्थ होते हैं, उन
आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।
अग्निर्महीगगनमम्बुमरुद्दिशाश्च
कालस्तथात्ममनसीति जगत्त्रयाणि ।
यस्मात्भवन्ति विभवन्ति विशन्ति यं च
गोविन्दमादिपुरुषं
तमहं भजामि ॥२३ ॥
अग्नि,
पृथ्वी, आकाश, जल,
वायु एवं चारों दिशाएँ, काल, बुद्धि, मन, पृथ्वी, अन्तरिक्ष एवं
स्वर्गरूप तीनों लोक जिनसे उत्पन्न होते हैं, समृद्ध (पुष्ट)होते
हैं तथा जिनमें पुनः लीन हो जाते हैं, उन आदिपुरुष भगवान्
गोविन्द को मैं भजता हूँ।
यच्चक्षुरेष सविता सकलग्रहाणां
राजा समस्तसुरमूर्तिरशेषतेजः।
यस्याज्ञया भ्रमति संभृतकालचक्रो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥२४ ॥
जिनके नेत्ररूप सूर्य,
जो समस्त ग्रहों के अधिपति, सम्पूर्ण देवताओं के
प्रतीक एव सम्पूर्ण तेजःस्वरूप तथा कालचक्र के प्रवर्तक होते हुए भी जिनकी आज्ञा से
लोकों में चक्कर लगाते हैं। उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द को मैं भजता हूँ।
धर्मोऽथ पापनिचयः श्रुतयस्तपांसि
ब्रह्मादिकीटपटगवादयश्च जीवाः।
यद्दत्तमात्रविभवप्रकटप्रभावा
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥२५ ॥
धर्म एवं पाप समूह,
वेद की ऋचाएँ, नाना प्रकार के तप तथा ब्रह्मा से
लेकर कीट-पतङ्ग तक सम्पूर्ण जीव जिनकी दी हुई शक्ति के द्वारा ही अपना-अपना प्रभाव
प्रकट करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं भजन करता
हूँ।
यस्त्विन्द्रगोपमथवेन्द्रमहो
स्वकर्म-
बन्धानुरूपफलभाजनमातनोति ।
कर्माणि निर्दहति किन्तु च भक्तिभाजां
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥२६ ॥
जो एक बीरबहूटी को एवं देवराज
इन्द्र को भी अपने-अपने कर्म-बन्धन के अनुरूप फल प्रदान करते हैं,
किंतु जो अपने भक्तों के कर्मो को निःशेषरूप से जला डालते हैं,
उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
यं क्रोधकामसहजप्रणयादिभीति-
वात्सल्यमोहगुरुगौरवसेव्यभावैः।
संचिन्त्य तस्य सदृशीं तनुमापुरेते
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥२७ ॥
क्रोध,
काम, सहज स्नेह आदि, भय,
वात्सल्य, मोह (सर्वविस्मृति), गुरु-गौरव ( बड़ों के प्रति होनेवाली गौरव बुद्धि के सदृश महान् सम्मान )
तथा सेब्य-बुद्धि से (अपने को दास मानकर ) जिनका चिन्तन करके लोग उन्हीं के समान
रूप को प्राप्त हो गये, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं आश्रय
ग्रहण करता हूँ ।
इति श्रीगोविन्दस्तोत्रम् समाप्तम् ॥
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