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कर्मकाण्ड

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विष्णु स्तुति

विष्णु स्तुति

बृहन्नारदीयपुराण पूर्वभाग अध्याय ५/३६-४४ में वर्णित ऋषिमृकण्डु पुत्र मार्कण्डेय द्वारा रचित इस विष्णु स्तुति का पाठ करने से सर्वत्र रक्षा होता है।

विष्णु स्तुति

विष्णु स्तुति:

Vishnu stuti

श्रीविष्णु स्तुति:

मार्कण्डेयकृतं विष्णुस्तोत्रम्

विष्णु स्तवन स्तोत्र

मार्कण्डेय उवाच ।

सहस्रशिरसं देवं नारायणमनामयम् ।

वासुदेवमनाधारं प्रणतोऽस्मि जनार्दनम् ॥ ३६॥

मार्कण्डेयजी बोले-जिनके सहस्त्रों मस्तक हैं, रोग- शोक आदि विकार से जो सर्वथा रहित हैं, जिनका कोई आधार नहीं है (स्वयं ही सबके आधार हैं) तथा जो सर्वत्र व्यापक हैं, मनुष्यों से सदा प्रार्थित होनेवाले उन भगवान् ‌ नारायणदेव को मैं सदा प्रणाम करता हूँ।

अमेऽयमजरं नित्यं सदानन्दैकविग्रहम् ।

अप्रतर्क्यमनिर्द्देश्यं प्रणतोऽस्मि जनार्दनम् ॥ ३७॥

जो प्रमाण से परे तथा जरावस्था से रहित हैं, नित्य एवं सच्चिदानन्दस्वरूप हैं तथा जहाँ कोई तर्क या संकेत काम नहीं देता, उन भगवान्‌‍ जनार्दन को मैं प्रणाम करता हूँ।

अक्षरं परमं नित्यं विश्वाक्षं विश्वसम्भवम् ।

सर्वतत्त्वमयं शान्तं प्रणतोऽस्मि जनार्दनम् ॥ ३८॥

जो परम अक्षर, नित्य, विश्व के आदिकारण तथा जगत्‌‍ के उत्पत्तिस्थान हैं, उन सर्वतत्त्वमय शान्तस्वरूप भगवान्‌‍ जनार्दन को मैं नमस्कार करता हूँ।

पुराणं पुरुषं सिद्धं सर्वज्ञानैकभाजनम् ।

परात्परतरं रूपं प्रणतोऽस्मि जनार्दनम् ॥ ३९॥

जो पुरातन पुरुष सब प्रकार की सिद्धियों से सम्पन्न और सम्पूर्ण ज्ञान के एकमात्र आश्रय हैं, जिनका स्वरूप पर से भी अति परे है, उन भगवान् ‌‍ जनार्दन को मैं नमस्कार करता हूँ।

परं ज्योतिः परं धाम पवित्रं परमं पदम् ।

सर्वैकरूपं परमं प्रणतोऽस्मि जनार्दनम् ॥ ४०॥

जो परम ज्योति, परम धाम तथा परम पवित्र पद हैं, जिनकी सबके साथ एकरूपता है, उन परमात्मा जनार्दन को मैं प्रणाम करता हूँ।

तं सदानन्दचिन्मात्रं पराणां परमं पदम् ।

सर्वं सनातनं श्रेष्ठं प्रणतोऽस्मि जनार्दनम् ॥ ४१॥

सत्‌‍, चित्‌‍ और आनन्द ही जिनका स्वरूप है, जो सर्वश्रेष्ठ ब्रह्यादि देवताओं के लिये भी परम पद हैं, उन सर्वस्वरूप श्रेष्ठ सनातन भगवान्‌‍ जनार्दन को मैं नमस्कार करता हूँ।

सगुणं निर्गुणं शान्तं मायाऽतीतं सुमायिनम् ।

अरूपं बहुरूपं तं प्रणतोऽस्मि जनार्दनम् ॥ ४२॥

जो सगुण, निर्गुण, शान्त, मायातीत और विशुद्ध माया के अधिपति हैं तथा जो रूपरहित होते हुए भी अनेक रूपवाले हैं, उन भगवान् ‌‍ जनार्दन को मैं प्रणाम करता हूँ।

यत्र तद्भगवान् विश्वं सृजत्यवति हन्ति च ।

तमादिदेवमीशानं प्रणतोऽस्मि जनार्दनम् ॥ ४३॥

जो भगवान्‌‍ इस जगत्‌‍ की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन आदिदेव भगवान्‌‍ जनार्दन को मैं नमस्कार करता हूँ।

परेश परमानन्द शरणागतवत्सल ।

त्राहि मां करुणासिन्धो मनोऽतीत नमोऽस्तु ते ॥ ४४॥

परेश ! परमानन्द ! शरणागतवत्सल ! दयासागर ! मेरी रक्षा कीजिये। मन- वाणी से अतीत परमेश्वर ! आपको नमस्कार है।

इति नारदपुराणे पूर्वभागे पञ्चमाध्यायान्तर्गतं मार्कण्डेयकृतं विष्णुस्तुतिस्तोत्रं समाप्तम् ।

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