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अगस्त्य संहिता अध्याय ४

अगस्त्य संहिता अध्याय ४   

इस अगस्त्य संहिता अध्याय ४ में पार्वती द्वारा जिज्ञासा करने पर भगवान् शिव हिरण्यगर्भ - सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं । यहाँ एक कथा है कि एक बार जब ब्रह्मा ने तीन सौ करोड़ वर्ष तक निराहार रहकर तपस्या की, तब स्वयं भगवान् विष्णु प्रकट हुए। ब्रह्माजी भाव-विह्वल होकर उनकी स्तुति की। प्रसन्न होकर भगवान् ने ब्रह्माजी से वर माँगने के लिए कहा तो ब्रह्माजी ने दुर्भाग्य और दरिद्रता से ग्रस्त प्रजा के उद्धार का उपाय पूछा। साथ ही ब्रह्मा ने पूछा कि मनुष्यों और भक्तों के लिए कौन उपाय है, जिससे उन्हें शरीर के अन्त होने पर शान्ति मिले। इस पर भगवान् विष्णु ने ब्रह्मा को षडक्षर मन्त्र ॐ रामाय नमः' का सांगोपांग उपदेश किया।

अगस्त्य संहिता अध्याय ४

अगस्त्यसंहिता अध्याय ४   

Agastya samhita chapter 4

अगस्त्य संहिता चतुर्थ अध्याय

अगस्त्य संहिता

अगस्त्यसंहिता चौथा अध्याय

अथ चतुर्थोऽध्यायः

पार्वत्युवाच

योगीन्द्रं वन्द्यचरणद्वन्द्वानन्दैकलक्षण ।

कथमेनमुपास्यैव मुक्तिं सर्वेऽपि भेजिरे ।।१।।

तदेतद् ब्रूहि देवेश यद्यस्ति करुणा मयि ।

पार्वती बोलीं- हे देवेश! आपके चरणकमल की वन्दना सभी करते हैं और आप एकमात्र आनन्दस्वरूप हैं। यदि मेरे ऊपर करुणा हो, तो कृपा कर यह बतलाइये कि योगियों के राजा श्रीराम की कैसी उपासना कर सब लोगों ने मुक्ति पायी थी।

ईश्वर उवाच

हैरण्यगर्भसिद्धान्तरहस्यमनघे शृणु ।।२।।

यज्ज्ञात्वा मुच्यते मोहाद् दौर्भाग्यव्याधिसाध्वसात् ।

भद्रे तदभिधास्यामि तत्सारग्राहिणी भव ।।३।।

भगवान् शिव ने कहा- हे निष्कलुष देवि! हिरण्यगर्भ भगवान् विष्णु का जो सिद्धान्त है, उसका रहस्य सुनो। इसे जानकर दुर्भाग्य और व्याधियों को मिटाते हुए लोग संसार के मोह का भी त्याग कर देते हैं । हे भद्रे! मैं वह रहस्य बतला रहा हूँ; उसके मूलतत्त्व को ग्रहण करो ।

पूर्वं ब्रह्मा तपस्तेपे कल्पकोटिशतत्रयम् ।

मुनीन्द्रैर्बहुभिः सार्द्ध दुर्द्धर्षानशनव्रतम् ।।४।।

प्राचीन काल में ब्रह्मा ने तीन सौ करोड़ वर्ष तक निराहार रहकर बहुत सारे मुनिश्रेष्ठ के साथ तपस्या की ।

पुरस्कृत्याग्निमध्यस्थस्तदाराधनतत्परः ।

आदरातिशयेनास्य नैरन्तर्य्येर्चनादिना ।।५।।

अग्नि के मध्य में रहकर और विष्णु को समक्ष में रखकर आदरपूर्वक लगातार पूजा-अर्चना करते हुए वे आराधना करते रहे ।

चिराय देवदेवोऽपि प्रत्यक्षमभवत्तदा ।

किञ्च पुण्यातिरेकेण सर्वेषां तस्य च प्रिये ।।६।।

बहुत दिनों के बाद पुण्य की वृद्धि के कारण ब्रह्मा तथा अन्य सभी मुनियों के सामने देवों के स्वामी भगवान् विष्णु प्रकट हुए।

नवनीलाम्बुदश्यामः सर्वाभरणभूषितः ।

शङ्खचक्रगदापद्मजटामुकुटशोभितः ।।७।।

भगवान् नवीन एवं नीले मेघ के समान श्यामल वर्ण के थे, उनके शरीर पर सभी गहने शोभित हो रहे थे तथा शंख, चक्र गदा, कमल, जटा और मुकुट से वे सुशोभित थे।

किरीटहारकेयूररत्नकुण्डलमण्डितः ।

संतप्तकाञ्चनप्रख्यपीतवासोयुगावृतः ।।८।।

मुकुट, हार, बाजूबन्द, रत्न के कुण्डल से वे विभूषित थे और तपे हुए सोने के समान पीले रंग के जोड़े वस्त्र उनके शरीर पर थे।

तेजोमयः सोमसूर्य्यविद्युदुल्काग्निकोटयः ।

मिलित्वाविर्भवन्तीव प्रादुरासीत्पुरः प्रभुः ।।९।।

भगवान् इस प्रकार सामने प्रकट हुए जैसे करोडों चन्द्रमा, सूर्य, बिजली, उल्का और अग्नि एक साथ मिलकर प्रकट हुए हों।

स्तम्भीभूय तदा ब्रह्मा क्षणं तस्थौ विमोहितः ।

तुष्टाव मुनिभिः सार्द्धं प्रणम्य च पुनः पुनः ।।१०।।

कुछ देर तक तो ब्रह्मा घबराकर खम्भे की तरह ठिठक गये । पुनः मुनियों साथ बार बार उन्हें प्रणाम कर स्तुति करने लगे ।

धन्योऽस्मि कृतकृत्योस्मि कृतार्थोस्मीह बन्धुभिः ।

प्रसन्नोऽसीह भगवन् जीवितं सफलं मम ।।११।।

हे भगवन्! आज मैं अपने बन्धुओं के साथ धन्य हो गया; आज मेरे सभी कार्य सम्पन्न हो गये । हे भगवन्! आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं, इससे मेरा जीवन सफल हो गया ।

कथं स्तोष्यामि देवेश भगवन्निति चिन्तयन् ।

ऋग्यजुःसामवेदैश्च शास्त्रैर्बहुभिरादरात् ।।१२।।

साङ्गैर्मन्वादिभिर्धर्मप्रतिपादनतत्परैः ।

तुष्टावेश्वरमभ्यर्च्य सन्तुष्टो मुनिभिः सह ।।१३।।

'हे देवेश! मैं कैसे आपकी स्तुति करूँगा' यह सोचते हुए मुनियों के साथ सन्तुष्ट होकर ब्रह्मा ने वेदांग सहित ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अन्य अनेक शास्त्र, मनुस्मृति आदि धर्म को बखानने वाले शास्त्रों से भगवान् की अर्चना कर उनकी स्तुति की-

अगस्त्यसंहिता अध्याय ४

इससे आगे श्लोक १४-१९अ तक ब्रह्माजी द्वारा की गई इस भगवान् विष्णु की स्तुति वर्णित है,इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-  

श्रीविष्णु स्तुति:

अब आगे

अगस्त्यसंहिता अध्याय ४

एवमेवादिबहुस्तोत्रैस्तुतः स परमेश्वरः ।।२०।।

वैदिकैः कृपया विष्णुर्ब्रह्माणमिदमब्रवीत् ।

इस प्रकार के वेदोक्त स्तोत्रों से जब ब्रह्मा ने भगवान् की स्तुति की, तब विष्णु ने ब्रह्मा से कहा--

स्तुतस्तुष्टोऽस्मि ते ब्रह्मन् उग्रेण तपसाधुना ।।२१।।

वृणीष्व पदमिष्टं ते दास्यामि कमलोद्भव ।

इत्युक्तः सोऽब्रवीत् तेन विष्णुना प्रभविष्णुना ।। २२।।

'हे ब्रह्मा! मैं आपकी स्तुति और उग्र तपस्या से अब सन्तुष्ट हूँ । हे कमलोद्भव! तुम्हे जो स्थान चाहिए वह माँगो; मैं तुम्हें दूँगा ।' विष्णु के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर ब्रह्मा बोले ।

ब्रह्मोवाच

तुष्टोऽसि यदि देवेश दास्यं मे स्वीकरिष्यसि ।

अभीष्टं देव देवेश यद्यस्ति करुणा मयि ।।२३।।

ब्रह्माजी बोले- हे देवेश ! यदि आप सन्तुष्ट हैं और मेरे ऊपर यदि आपकी करुणा है, तो मेरी इस दासता को स्वीकार करें, यह मैं चाहता हूँ । ।

असौभाग्येन दारिद्र्यदुखेनाहं सुदुःखितः ।

एतेऽपि मुनयो देव माययात्यन्तदुःखिताः ।।२४।।

हे देव! मैं सुन्दर भाग्य से हीन तथा दरिद्रता के दुःख से दुःखी हूँ । ये मुनिगण भी माया के फेर में अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं।

प्रतिभाति च दैवेन सर्वमस्माकमीदृशम् ।

किं करिष्यामि देवेश ब्रूहि मे पुरुषोत्तम ।।२५।।

हे पुरुषोत्तम ! हमलोगों का सबकुछ इसी प्रकार से भाग्य के द्वारा प्रेरित प्रतीत हो रहा है। ऐसी स्थिति में मैं क्या करूँ यह कहें ।

कामक्रोधादिभिर्दुःखैर्दुष्टाः सर्वापि मम प्रजाः ।

पूर्वार्जितैर्विशेषेण न कश्चिदवशिष्यते ।।२६।।

पूर्वजन्म में अर्जित कर्म से तथा काम, क्रोध आदि के दुःख से मेरी सारी प्रजा दोषग्रस्त हो गयी है। ऐसा कोई नहीं है, जो इन दोषों से अछूता हो ।

को वोपायो मनुष्याणां भक्ताचां भक्तवत्सल ।

एतच्छरीरपातान्ते नः परं मुक्तिसिद्धये ।।२७।।

हे भक्तवत्सल भगवान्! मनुष्यों और भक्तों के लिए ऐसा कौन सा उपाय है, जिससे हमें इस शरीर का अन्त होने पर मुक्ति मिले।

इहायस्माकमैश्वर्य्यं वै दुष्टेष्टार्थसिद्धये ।

एवमुक्तः स देवोऽस्मै भुक्तिमुक्तिप्रसिद्धये ।।२८।।

किञ्चिद् विचार्य भगवान्' षडक्षरमुपादिशत् ।

स्वर्ग में भी हम देवों का ऐश्वर्य दोषपूर्ण इच्छित वस्तुओं की सिद्धि के लिए हैं।" ऐसा कहने पर भगवान् ने कुछ सोचकर भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिए छह अक्षरों वाले मन्त्र का उपदेश किया।

एकैकं वर्णविन्यासं क्रमाच्चाङ्गानि षट् पुनः ।।२९।।

तद्विधिं विधये प्रादात् पञ्चमन्त्राक्षराणि च ।

रहस्यं देवदेवोऽपि तं मिथः समबोधयत् ।।३०।।

हे मुनि! भगवान् ने भी उस षडक्षर मन्त्र एक एक कर वर्णविन्यास, क्रमशः न्यास आदि छह अङ्ग उसकी विधि तथा रहस्य बतला दिया तथा पंचाक्षर मन्त्र का भी उपदेश किया।

तस्य तत्प्राप्तिमात्रेण तदानीमेव तत्फलम् ।

सर्वाधिपत्यं सर्वज्ञं भावोऽप्यस्याभवन् तदा ।।३१।।

ब्रह्मा ने भी ज्यों ही उसे प्राप्त किया, उस मन्त्र का फल तत्काल ही मिल गया। ब्रह्मा उसी क्षण सबके स्वामी बन गये तथा सारा ज्ञान उन्हें मिल गया ।

किं चास्य भगवत्त्वं च यदिष्टं तदभूदपि ।

सर्वेश्वरप्रसादेन तपसा किं न लभ्यते ।।३२।।

इतना ही नहीं, ब्रह्मा जो चाह रहे थे, वह उन्हें मिल गया; वे भगवान् भी हो गये। भला सबके स्वामी भगवान् विष्णु की कृपा तथा तपस्या से क्या कुछ नहीं मिल जाता!

मुनीनामपि सर्वेषां तदा ब्रह्मा तदाज्ञया ।

उपादिदेश तत्सर्वं ततस्तु विष्णुरब्रवीत् ।।३३।।

तब भगवान् विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा ने सभी मुनियों को इस मन्त्र का उपदेश किया। तब विष्णु बोले-

ऋषिर्भवास्य मन्त्रस्य त्वं ब्रह्मन् सर्वमन्त्रवित् ।

रामोऽहं देवता छन्दो गायत्री छन्दसां परा ।।३४।।

हे ब्रह्मा! आप मन्त्रों के ज्ञाता हैं, अतः इस मन्त्र के ऋषि आप हों। मैं राम इस मन्त्र का देवता हूँ तथा छन्दों में श्रेष्ठ गायत्री इस मन्त्र का छन्द होगा।

मान्तो यान्तो भवेद्बीजं सर्वमाद्यफलप्रदम् ।

नमः शक्तितयोद्दिष्टो नमोऽन्तो मन्त्रनायकः ।।३५।।

मकार (राम्) एवं यकार (रामाय) से अन्त होनेवाले इसके बीज - मन्त्र हों तथा 'नमः' इस मन्त्र की शक्ति हो। इस प्रकार 'नमः' से अन्त होनेवाला यह मन्त्रों में नायक बने ।

रामाय मध्यमो ब्रह्मन् तस्मै सर्वं निवेदयेत् ।

इह भुक्तिश्च मुक्तिश्च देहान्ते संभविष्यति ।।३६।।

ब्रह्मा! इस मन्त्र के बीच में 'रामाय' यह पद रहेगा और उसी राम को यह मन्त्र निवेदित करें। इससे संसार में भोग तथा देहान्त होने पर मोक्ष मिलेगा।

यदन्यदप्यभीष्टं स्यात् तत्प्रसादात् प्रजायते ।

अनुतिष्ठादरेणैव निरन्तरमनन्यधीः ।।३७।।

इसके अतिरिक्त भी यदि कोई इच्छा हो, तो श्रीराम की कृपा से पूरी होगी । एकाग्रचित्त होकर लगातार इस मन्त्र का अनुष्ठान करें।

चिरं मद्गतचित्तस्तु मामेवाराधयेच्चिरम् ।

मामेव मनसा ध्यायन् मामेवैष्यसि नान्यथा ।।३८।।

बहुत दिनों तक मुझमें मन लगाकर, मेरा ही ध्यान करते हुए जो मेरी उपासना करेंगे, वे मुझे ही पा लेंगे, इसमें सन्देह नहीं।

तत्र तदेतद् विस्तार्य्य शिष्येभ्यो ब्रूहि गौरवम् ।

इत्युक्त्वान्तर्दधे देवस्तत्रैव कमलेक्षणः ।।३९।।

हे ब्रह्मा ! संसार में इसी का विस्तार कर अपने शिष्यों से इस मन्त्र की गरिमा का बखान करें। ऐसा कहकर कमलनयन भगवान् विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गये ।

प्रजापतिश्च भगवान् मुनिभिः सार्द्धमन्वहम् ।

अन्वतिष्ठद् विधानेन निक्षिप्याज्ञां सिरस्यथ ।।४०।।

तब भगवान् प्रजापति ब्रह्मा ने विष्णु की आज्ञा सिर पर चढ़ाकर मुनियों के साथ विधानपूर्वक इस मन्त्र का अनुष्ठान किया।

ब्रह्मा तदानीं सर्वेषामुपदेष्टा बभूव ह ।

आर्ये तवापि तेनैव सर्वाभीष्टं भविष्यति ।।४१।।

हे देवी पार्वती! तब ब्रह्मा सबके लिए इस मन्त्र के उपदेशक हुए । इसी मन्त्र से तुम्हारी भी सभी कामनाओं की पूर्ति होगी।

इत्यगस्त्यसंहितायां परमरहस्ये ब्रह्मणा षडक्षरमन्त्रग्रहणम् नाम चतुर्थोऽध्यायः ।। ४ ।।

आगे जारी- अगस्त्य संहिता अध्याय 5

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