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मयमतम् अध्याय ५
मयमतम् अध्याय ५ मानोपकरण - इस
अध्याय में विभिन्न प्रकार के माप - परमाणु, रथरेणु,
बालाय, लिक्षा, यूका,
यव, अङ्गुल, वितस्ति,
हस्त अथवा किष्कु तथा प्राजापत्य, धनुर्मुष्टि
एवं धनुर्ग्रह आदि एवं उनके भेद वर्णित हैं। इसके साथ ही उनके प्रयोग के स्थलों का
भी उल्लेख किया गया है। इसके अनन्तर स्थपति, सूत्रग्राही,
तक्षक एवं वर्धक संज्ञक शिल्पियों का लक्षणसहित वर्णन प्राप्त होता
है।
मयमतम् अध्याय ५
Mayamatam chapter 5
मयमतम् पञ्चमोऽध्यायः
मयमतम्वास्तुशास्त्र
मयमत अध्याय ५- मानोपकरण
दानवराजमयप्रणीतं मयमतम्
अथ पञ्चमोऽध्यायः
(मानोपकरणम्)
सर्वेषामपि वास्तूनां मानेनैव
विनिश्चयः ।
तस्मान्मानोपकरणं वक्ष्ये संक्षेपतः
क्रमात् ॥१॥
भूमि-मापन के उपकरण - सभी प्रकार के
वास्तुओं (भूमि एवं भवन) का निर्धारण मान या प्रमाण से ही किया जाता है;
अतः मैं (मय ऋषि) संक्षेप में मापन के उपकरणों के विषय में बतलाता
हूँ ॥१॥
परमाणुक्रमाद् वृद्धं मानाङ्गुलमिति
स्मृतम् ।
परमाणुरिति प्रोक्तं योगिनां
दृष्टिगोचरम् ॥२॥
(मापन की प्रथम इकाई) अङ्गुल-माप परमाणुओं के क्रमशः वृद्धि से होती है ।
परमाणुओं का दर्शन योगी-जनों को होता है, ऐसा शास्त्रों मे
कहा गया है ॥२॥
परमाणुभिरष्टाभी रथरेणुरुदाह्रतः ।
रथरेणुश्च वालाग्रं
लिक्षायूकायवास्तथा ॥३॥
आठ परमाणुओं के मिलने से एक 'रथरेणु' (धूल का कण), आठ
रथरेणुओं के मिलने से एक बालाग्र (बाल की नोक), आठ बालाग्र
से एक 'लिक्षा', आठ लिक्षा से एक 'यूका' एवं आठ यूका से एक 'यव'
रूपी माप बनता है ॥३॥
क्रमशोऽष्टगुणैः प्रोक्तो
यवाष्टगुणितोऽङ्गुलम् ।
अङ्गुलं तु भवेन्मात्रं
वितस्तिर्द्वादशाङ्गुलम् ॥४॥
उपर्युक्त माप क्रमशः आठ गुना बढ़ते
हुये 'यव' बनते हैं । यव का आठ गुना 'अङ्गुल' माप होता है । बारह अङ्गुल माप को 'वितस्ति' (बित्ता) कहते है ॥४॥
तद्द्वयं हस्तमुद्दिष्टं तत्
किष्क्विति मतं वरैः ।
पञ्चविंशतिमात्रं त प्राजापत्यमिति
स्मृतम् ॥५॥
दो वितस्ति का एक 'हस्त' होता है, जिसे 'किष्कु' भी कहा गया है । पच्चीस हाथ का एक 'प्राजापत्य' होता है ॥५॥
षड्विंशतिर्धनुर्मुष्टिः
सप्तविंशद्धनुर्ग्रहः ।
याने च शयने किष्कुः प्राजापत्यं
विमानके ॥६॥
छब्बीस हाथ की एक 'धनुर्मिष्ट' तथा सत्ताईस हाथ से एक 'धनुर्ग्रह' माप बनता है । यान (वाहन) तथा शयन (आसन
एवं शय्या) में किष्कु माप तथा विमान में प्राजापत्य माप का प्रयोग होता है ॥६॥
वास्तूनां तु
धर्नुर्मुष्टिर्ग्रामादीनां धनुर्ग्रहः ।
सर्वेषामपि वास्तूनां किष्कुरे
वाथवा मतः ॥७॥
वास्तुनिर्माण में 'धनुर्मुष्टि' माप का तथा ग्रामादि के मापन में 'धनुर्ग्रह' प्रमाण का प्रयोग होता है । अथवा सभी
प्रकार के वास्तु-कर्म में 'किष्कु' प्रमाण
का प्रयोग किया जा सकता है ॥७॥
रत्निश्चैवमरत्निश्च भुजो बाहुः
करः स्मृतः ।
हस्ताश्चतुर्धनुर्दण्डो यष्टिश्चैव
प्रकीर्तितः ॥८॥
हस्त माप को 'रत्नि', 'अरत्नि, 'भुज',
बाहु' एवं 'कर' कहते हैं । चार हस्त से 'धनुर्दण्ड' माप बनता है । इसी को 'यष्टि' भी
कहते है ॥८॥
दण्डेनाष्टगुणा
रज्जुर्दण्डैर्ग्रामं च पत्तनम् ।
नगरं निगमं खेटं वेश्मादीन्यपि
मानयेत् ॥९॥
आठ दण्ड (यष्टि) को 'रज्जु' कहा जाता है । दण्डमाप से ही ग्राम, पत्तन, नगर, निगम, खेट एवं वेश्म (भवन) आदि का मापन करना चाहिये ॥९॥
गृहादीनां तु हस्तेन याने च शयने
बुधैः ।
वितस्तिना विधातव्यं
क्षुद्राणामङ्गुलेन तु ॥१०॥
गृहादि का माप हस्त से,
यान एवं शयन का मापन वितस्ति (बित्ता) से एवं छोटी वस्तुओं का मापन
अङ्गुल से करना चाहिये, ऐसा विद्वानों का मत है ॥१०॥
यवेनाल्पीयसां मानमेवं मानक्रमं
विदुः ।
मध्यमाङ्गुलिमध्यस्थपर्वमात्रायतं
तु यत् ॥११॥
'यव' माप से
अत्यन्त छोटी वस्तुओं का मापन किया जाता है । यह मध्यमा अङ्गुलि में बीच वाले पर्व
के बराबर (अङ्गुलि के मध्य के जोड़ के ऊपर बनी यव की आकृति) होता है ॥११॥
कर्तुर्मात्राङ्गुलं प्रोक्तं
यागादीनां प्रशस्यते ।
देहलब्धाङ्गुलं यत्तदुपरिष्टाद्
विधीयते ॥१२॥
इस माप को 'मात्राङ्गुल' कहते है । इसका प्रयोग यज्ञ में किया
जाता है एवं यह माप यज्ञकर्ता की अङ्गुलि से लिया जाता है । इसे 'देहलब्धाङ्गुल' भी कहते है ॥१२॥
एवमेवं विदित्वा तु स्थपतिर्मानयेद्
दृढम् ।
इस प्रकार माप का ज्ञान करने के
पश्चात् स्थपति को दृढ़तापूर्वक (सावधानी पूर्वक) मापनकार्य करना चाहिये ।
मयमत अध्याय ५- शिल्पिलक्षण
भवन्ति शिल्पिनो लोके चतुर्धा
स्वस्वकर्मभिः ॥१३॥
संसार में अपने-अपने कार्यों के
अनुसार चार प्रकार के शिल्पी होते हैं ॥१३॥
स्थपतिः सूत्रग्राही च
वर्धकिस्तक्षकस्तथा ।
प्रसिद्धदेशसङ्कीर्णजातिजोऽभीष्टलक्षणः
॥१४॥
चार प्रकार के शिल्पी - स्थपिती,
सूत्रग्राही, वर्धकि (बढ़ई) एवं तक्षक (छीलने,
काटने एवं आकृतियाँ उकेरने वाले) होते हैं । ये सभी (स्थापत्यादि
कर्म के लिये) प्रसिद्ध स्थान वाले, सङ्कीर्ण जाति से
उत्पन्न एवं अपने कार्यो के लिये अभिष्ट गुणों से युक्त होते हैं ॥१४॥
मयमत अध्याय ५- स्थप्तिः
स्थप्तिः स्थापनार्हः स्यात्
सर्वशास्त्रविशारदः ।
न हीनाङ्गोऽतिरिक्ताङ्गो
धार्मिकस्तु दयापरः ॥१५॥
'स्थपति' संज्ञक
शिल्पी को भवन की स्थापना में योग्य एवं (गृह-निर्माण के सहायक) अन्य शास्त्रों का
भी ज्ञाता होना चाहिये । शारीरिक दृष्टि से सामान्य से न कम अङ्गोंवाला तथा न ही
अधिक अङ्गोंवाला (अर्थात् सम्पूर्ण रूप से स्वस्थ) धार्मिक वृत्ति वाला एवं दयावान
होना चाहिये ॥१५॥
अमात्सर्योऽनसूयश्चातन्द्रितस्त्वभिजातवान्
।
गणितज्ञः पुराणज्ञः सत्यवादी
जितेन्द्रियः ॥१६॥
स्थपति को द्वेषरहित,
ईर्ष्यारहित, सावधान आभिजात्य गुणों से युक्त,
गणित तथा पुराणों का ज्ञाता, सत्यवक्ता एवं
इन्द्रियों को वश मे रखने वाला होना चाहिये ॥१६॥
चित्रज्ञः
सर्वदेशज्ञश्चान्नदश्चाप्यलुब्धकः ।
अरोगी चाप्रमादी च सप्तव्यसनवर्जितः
॥१७॥
स्थपति को चित्रकर्म (गृह के नक्शा
आदि बनाने) मे निपुण, सभी देशों का
ज्ञाता (स्थान के भूगोल का ज्ञाता), (अपने सहायको को) अन्न
देने वाला, अलोभी, रोगरहित, आलस्य एवं भूल न करने वाला तथा सात प्रकार के व्यसनों (वाचिक आघात पहुँचाना,
सम्पत्ति के लिये हिंसा का मार्ग अपनाना, शारीरिक
चोट पहुँचाना, शिकार, जुआ, स्त्री एवं सुरापान -अर्थशास्त्र - ८३.२३.३२) से रहित होना चाहिये ॥१७॥
मयमत अध्याय ५- सूत्रग्राही
सुनामा दृढबुद्धिश्च
वास्त्विद्याब्धिपारगः ।
स्थपतेस्तस्य शिष्यो वा सूत्रग्राही
सुतोऽथवा ॥१८॥
'सूत्रग्राही' स्थपति का पुत्र या शिष्य होता है । उसे यशस्वी, दृढ़
मानसिकता से युक्त एवं वास्तु-विद्या मे पारंगत होना चाहिये ॥१८॥
स्थपत्याज्ञानुसारी च
सर्वकर्मविशारदः ।
सूत्रदण्डप्रपातज्ञो
मानोन्मानप्रमाणवित् ॥१९॥
सूत्रग्राही को स्थपति की आज्ञानुसार
कार्य करने वाला एवं (स्थापत्यसम्बन्धी) सभी कार्यों का ज्ञाता होना चाहिये । उसे
सूत्र एवं दण्ड के प्रयोग का ज्ञाता एवं विविध प्रकार के मापन मान-उन्मान (लम्बाई,
चौड़ाई, ऊँचाई एवं उनके उचित अनुपात) का ज्ञाता
होना चाहिये ॥१९॥
मयमत अध्याय ५- तक्षकः
शैलदार्विष्टकादीनां
सूत्रग्राहिवशानुगः ।
तक्षणात् स्थूलसूक्ष्माणां तक्षकः
स तु कीर्तितः ॥२०॥
पत्थर,
काष्ठ एवं ईट आदि को मोटा एवं पतला काटने के कारण वह शिल्पी 'तक्षक' कहलाता है । यह सूत्रग्राही के इच्छानुसार
कार्य करता है ॥२०॥
मयमत अध्याय ५- वर्धकिः
मृत्कर्मज्ञो गुणी शक्तः
सर्वकर्मस्वतन्त्रकः ।
तक्षितानां तक्षकानामुपर्युपरि
युक्तितः ॥२१॥
वर्धकि मृत्तिका के कर्म
(गृहनिर्माण) का ज्ञाता, गुणवान, अपने कार्य मे समर्थ, अपने क्षेत्र से सम्बद्ध सभी
कार्यो को स्वतन्त्रतापूर्वक करनेवाला, तक्षक द्वारा काटे
छाँटे गये सभी टुकड़ों को युक्तिपूर्वक जोड़ सकता है ॥२१॥
वृद्धिकृद् वर्धकिः प्रोक्तः
सूत्रग्राह्यनुगः सदा ।
कर्मिणो निपुणाः शुद्धा बलवन्तो
दयापराः ॥२२॥
सर्वदा सूत्रग्राही के अनुसार कार्य
करने वाला शिल्पी 'वर्धकि' कहा जाता है । इस प्रकार ये सभी शिल्पी कार्य करने वाले, अपने कार्यों में कुशल, शुद्ध, बलवान, दयावान होते है ॥२२॥
गुरुभक्ताः सदा ह्रष्टाः
स्थपत्याज्ञानुगाः सदा ।
तेषामेव स्थपत्याख्यो विश्वकर्मेति
संस्मृतः ॥२३॥
ये सभी शिल्पी अपने गुरु (प्रधान
स्थपति) का सम्मान करने वाले, सदा प्रसन्न
रहने वाले एवं सदैव स्थपति की आज्ञा का अनुसरण करने वाले होते है । उनके लिये
स्थपति ही विश्वकर्मा माना जाता है ॥२३॥
एभिर्विना हि सर्वेषां कर्म कर्तुं
न शक्यते ।
तस्मादेतत् सदा पूज्यं
स्थपत्यादिचतुष्टयम् ॥२४॥
उपर्युक्त (सूत्रग्राही,
तक्षक एवं वर्धकि) शिल्पियों के विना स्थपति (भवननिर्माणसम्बन्धी)
सभी कार्य नही कर सकता है । इसलिये स्थपति आदि चारों शिल्पियों का सदा सत्कार करना
चाहिये ॥२४॥
एभिः स्थपत्यादिभिरत्र लोके विना
ग्रहीतुं सुकृतं न शक्यम् ।
तैरेव सार्धं गुरुणाऽथ तस्माद्
भजन्ति मोक्षं भवतस्तु मर्त्याः ॥२५॥
इस संसार में इन स्थपति आदि को
ग्रहण किये विना कोई भी (निर्माणसम्बन्धी) सुन्दर कार्य सम्भव नही है । अतः तीनों
शिल्पियों को उनके गुरु (प्रहान स्थपति) के साथ ग्रहण करना चाहिये । इसी से मनुष्य
संसार (शीत, धूप, वर्षा
एवं गृह के अभाव में होने वाले कष्टों) से मुक्ति प्राप्त करते है ॥२५॥
इति मयमते मानोपकरणं नाम
पञ्चमोऽध्यायः॥
आगे जारी- मयमतम् अध्याय 6
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