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अग्निसूक्तम्

अग्निसूक्तम्

सामवेद के पूर्वार्चिक का आग्नेयपर्व अग्नि की महिमा एवं स्तुति में पर्यवसित है । इस आग्नेयपर्व के अन्तिम बारहवें खण्ड में १२ मन्त्र पठित हैं, यह खण्ड अग्निसूक्तम् कहलाता है । इसमें अग्नि को सत्यस्वरूप, यज्ञ का पालक, महान् तेजस्वी और रक्षा करनेवाला बताया गया है।

अग्निसूक्तम्

अग्निसूक्तम्

 ‘अग्निवैदिक यज्ञ-प्रक्रिया के मूल आधार तथा पृथ्वीस्थानीय देव हैं । ऐतरेय आदि ब्राह्मणों में कहा गया है कि देवताओं में प्रथम स्थान अग्निका ही हैं-अग्निर्वे देवानां प्रथमः०।अग्नि के द्वारा ही विश्वब्रह्माण्ड में जीवन, गति और ऊर्जा का संचार सम्भव होता है । अग्नि को सब देवताओं का मुख बताया गया है और अग्नि में दी गयी आहुतियाँ हविद्रव्य के रूप में देवताओं को प्राप्त होती हैं, इसीलिये इन्हें देवताओं का उपकारक कहा गया है । सामवेद के पूर्वार्चिक का आग्नेयपर्व अग्नि की महिमा एवं स्तुति में पर्यवसित है । इस आग्नेयपर्व के अन्तिम बारहवें खण्ड में १२ मन्त्र पठित हैं, यह खण्ड अग्निसूक्त कहलाता है । इसमें अग्नि को सत्यस्वरूप, यज्ञ का पालक, महान् तेजस्वी और रक्षा करनेवाला बताया गया है।

अग्नि सूक्तं

Agni suktam

अग्निसूक्त

प्र मंहिष्ठाय गायत ऋताव्ने बृहते शुक्रशोचिषे ।

उपस्तुतासो अग्नये ॥ १ ॥

हे स्तोताओं ! आप श्रेष्ठ स्तोत्रों द्वारा अग्निदेव की स्तुति करें । वे महान् सत्य और यज्ञ के पालक, महान् तेजस्वी और रक्षक हैं ॥ १ ॥

प्र सो अग्ने तवोतिभिः सुवीराभिस्तरति वाजकर्मभिः ।

यस्य सख्यमाविथ ॥ २ ॥

हे अग्निदेव ! आप जिसके मित्र बनकर सहयोग करते हैं, वे स्तोतागण आपसे श्रेष्ठ संतान, अन्न, बल आदि समृद्धि प्राप्त करते हैं ॥ २ ॥

तं गूर्धया स्वर्णरं देवासो देवमरतिं दधन्विरे ।

देवत्रा हव्यमूहिषे ॥ ३ ॥

हे स्तोताओं ! स्वर्ग के लिये हवि पहुँचानेवाले अग्निदेव की स्तुति करो । याजकगण स्तुति करते हैं और देवताओं को हवनीय द्रव्य पहुँचाते हैं ॥ ३ ॥

मा नो हृणीथा अतिथिं वसुरग्निः पुरुप्रशस्त एषः ।

यः सुहोता स्वध्वरः ॥ ४ ॥

हमारे प्रिय अतिथिस्वरूप अग्निदेव को यज्ञ से दूर मत ले जाओ । वे देवताओं को बुलानेवाले, धनदाता एवं अनेक मनुष्यों द्वारा स्तुत्य हैं ॥ ४ ॥

भद्रो नो अग्निराहुतो भद्रा रातिः सुभग भद्रो अध्वरः ।

भद्रा उत प्रशस्तयः ॥ ५ ॥

हवियों से संतुष्ट हुए हे अग्निदेव ! आप हमारे लिये मंगलकारी हों । हे ऐश्वर्यशाली ! हमें कल्याणकारी धन प्राप्त हो और स्तुतियाँ हमारे लिये । मंगलमयी हों ॥ ५ ॥

यजिष्ठं त्वा ववृमहे देवं देवत्रा होतारममर्त्यम् ।

अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ॥ ६ ॥

हे देवाधिदेव अग्ने ! आप श्रेष्ठ याज्ञिक हैं। इस यज्ञको भली प्रकार सम्पन्न करनेवाले हैं। हम आपकी स्तुति करते हैं ॥ ६ ॥

तदग्ने द्युम्नमा भर यत्सासाहा सदने कं चिदत्रिणम् ।

मन्यु जनस्य दूढ्यम् ॥ ७ ॥

हे अग्ने ! आप हमें प्रखर तेज प्रदान करें, जिससे यज्ञ में आनेवाले अतिभोगी दुष्टों को नियन्त्रित किया जा सके। साथ ही आप दुर्बुद्धियुक्त जनों के क्रोध को भी दूर करें ॥ ७ ॥

यद्वा उ विश्पतिः शितः सुप्रीतो मनुषो विशे ।

विश्वेदग्निः प्रतिरक्षांसि सेधति ॥ ८ ॥

[सामवेद, पूर्वाचिक, आग्नेयपर्व १२ । १-८] यजमानों के रक्षक, हविष्यान्नसे प्रदीप्त ये अग्निदेव प्रसन्न होकर याजकों के यहाँ प्रतिष्ठित होते तथा सभी दुष्ट-दुराचारियों का (अपने प्रभाव से) विनाश करते हैं ॥ ८ ॥

सामवेद आग्नेयपर्व अग्नि सूक्तम् सम्पूर्ण॥

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