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कर्मकाण्ड

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परमहंस गीता अध्याय ४

परमहंस गीता अध्याय ४   

परमहंस गीता श्रीमद्भागवतमहापुराण के पंचम स्कन्ध के अध्याय १३ अन्तर्गत इस अध्याय ४ में भवाटवी का वर्णन और रहूगण का संशयनाश का वर्णन है।

परमहंस गीता अध्याय ४

परमहंसगीता अध्याय ४   

Paramahans geeta

परमहंस गीता चौथा अध्याय

भवाटवी का वर्णन और रहूगण का संशयनाश

परमहंस गीता चतुर्थोऽध्यायः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।

॥ चतुर्थोऽध्यायः ॥

ब्राह्मण उवाच

दुरत्ययेऽध्वन्यजया निवेशितो

रजस्तमःसत्त्वविभक्तकर्मदृक् ।

स एष सार्थोऽर्थपरः परिभ्रमन्

भवाटवीं याति न शर्म विन्दति ॥ १॥

जडभरत ने कहा - [ राजन् ! ] यह जीवसमूह सुखरूप धन में आसक्त देश-देशान्तर में घूम-फिरकर व्यापार करनेवाले व्यापारियों के दल के समान है। इसे माया ने दुस्तर प्रवृत्तिमार्ग में लगा दिया है; इसलिये इसकी दृष्टि सात्त्विक, राजस, तामस भेद से नाना प्रकार के कर्मों पर ही जाती है। उन कर्मों में भटकता- भटकता यह  साररूप जंगल में पहुँच जाता है। वहाँ इसे तनिक भी शान्ति नहीं मिलती ॥ १ ॥

यस्यामिमे षण्नरदेव दस्यवः

सार्थं विलुम्पन्ति कुनायकं बलात् ।

गोमायवो यत्र हरन्ति सार्थिकं

प्रमत्तमाविश्य यथोरणं वृकाः ॥ २॥

महाराज ! उस जंगल में छः डाकू हैं। इस वणिक्-समाज का नायक बड़ा दुष्ट है। उसके नेतृत्व में जब यह वहाँ पहुँचता है, तब ये लुटेरे बलात् इसका सब माल-मत्ता लूट लेते हैं तथा भेड़िये जिस प्रकार भेड़ों के झुंड में घुसकर उन्हें खींच ले जाते हैं, उसी प्रकार इसके साथ रहनेवाले गीदड़ ही इसे असावधान देखकर इसके धन को इधर-उधर खींचने लगते हैं ॥ २ ॥

प्रभूतवीरुत्तृणगुल्मगह्वरे

कठोरदंशैर्मशकैरुपद्रुतः ।

क्वचित्तु गन्धर्वपुरं प्रपश्यति

क्वचित्क्वचिच्चाशु रयोल्मुकग्रहम् ॥ ३॥

वह जंगल बहुत-सी लता, घास और झाड़-झंखाड़ के कारण बहुत दुर्गम हो रहा है। उसमें तीव्र डाँस और मच्छर इसे चैन नहीं लेने देते। वहाँ इसे कभी तो गन्धर्वनगर दीखने लगता है और कभी-कभी चमचमाता हुआ अति चंचल अगिया- बेताल आँखों के सामने आ जाता है ॥ ३ ॥

निवासतोयद्रविणात्मबुद्धि-

स्ततस्ततो धावति भो अटव्याम् ।

क्वचिच्च वात्योत्थितपांसुधूम्रा

दिशो न जानाति रजस्वलाक्षः ॥ ४॥

यह वणिक् समुदाय इस वन में निवासस्थान, जल और धनादि में आसक्त होकर इधर-उधर भटकता रहता है। कभी बवंडर से उठी हुई धूल के द्वारा जब सारी दिशाएँ धूमाच्छादित सी हो जाती हैं और इसकी आँखों में भी धूल भर जाती है तो इसे दिशाओं का ज्ञान भी नहीं रहता ॥ ४ ॥

अदृश्यझिल्लीस्वनकर्णशूल

उलूकवाग्भिर्व्यथितान्तरात्मा ।

अपुण्यवृक्षान् श्रयते क्षुधार्दितो

मरीचितोयान्यभिधावति क्वचित् ॥ ५॥

कभी इसे दिखायी न देनेवाले झींगुरों का कर्णकटु शब्द सुनायी देता है, कभी उल्लुओं की बोली से इसका चित्त व्यथित हो जाता है। कभी इसे भूख सताने लगती है तो यह निन्दनीय वृक्षों का ही सहारा टटोलने लगता है और कभी प्यास से व्याकुल होकर मृगतृष्णा की ओर दौड़ लगाता है ॥ ५ ॥

क्वचिद्वितोयाः सरितोऽभियाति

परस्परं चालषते निरन्धः ।

आसाद्य दावं क्वचिदग्नितप्तो

निर्विद्यते क्व च यक्षैर्हृतासुः ॥ ६॥

कभी जलहीन नदियों की ओर जाता है, कभी अन्न न मिलने पर आपस में एक-दूसरे से भोजनप्राप्ति की इच्छा करता है, कभी दावानल में घुसकर अग्नि से झुलस जाता है और कभी यक्षलोग इसके प्राण खींचने लगते हैं तो यह खिन्न होने लगता है ॥ ६ ॥

शूरैर्हृतस्वः क्व च निर्विण्णचेताः

शोचन्विमुह्यन्नुपयाति कश्मलम् ।

क्वचिच्च गन्धर्वपुरं प्रविष्टः

प्रमोदते निर्वृतवन्मुहूर्तम् ॥ ७॥

कभी अपने से अधिक बलवान् लोग इसका धन छीन लेते हैं तो यह दुःखी होकर शोक और मोह से अचेत हो जाता है और कभी गन्धर्वनगर में पहुँचकर घड़ीभर के लिये सब दुःख भूलकर खुशी मनाने लगता है ॥ ७ ॥

चलन् क्वचित्कण्टकशर्कराङ्घ्रि-

र्नगारुरुक्षुर्विमना इवास्ते ।

पदे पदेऽभ्यन्तरवह्निनार्दितः

कौटुम्बिकः क्रुध्यति वै जनाय ॥ ८॥

कभी पर्वतों पर चढ़ना चाहता है तो काँटे और कंकड़ों द्वारा पैर चलनी हो जाने से उदास हो जाता है। कुटुम्ब बहुत बढ़ जाता है और उदरपूर्ति का साधन नहीं होता तो भूख की ज्वाला से सन्तप्त होकर अपने ही बन्धु बान्धवों पर खीझने लगता है ॥ ८ ॥

क्वचिन्निगीर्णोऽजगराहिना जनो

नावैति किञ्चिद्विपिनेऽपविद्धः ।

दष्टः स्म शेते क्व च दन्दशूकै-

रन्धोऽन्धकूपे पतितस्तमिस्रे ॥ ९॥

कभी अजगर सर्प का ग्रास बनकर वन में फेंके हुए मुर्दे के समान पड़ा रहता है। उस समय इसे कोई सुध-बुध नहीं रहती। कभी दूसरे विषैले जन्तु इसे काटने लगते हैं तो उनके विष के प्रभाव से अन्धा होकर किसी अन्धे कुएँ में गिर पड़ता है और घोर दुःखमय अन्धकार में बेहोश पड़ा रहता है ॥ ९ ॥

कर्हि स्म चित्क्षुद्ररसान् विचिन्वं-

स्तन्मक्षिकाभिर्व्यथितो विमानः ।

तत्रातिकृच्छ्रात्प्रतिलब्धमानो

बलाद्विलुम्पन्त्यथ तं ततोऽन्ये ॥ १०॥

कभी मधु खोजने लगता है तो मक्खियाँ इसके नाक में दम कर देती हैं और इसका सारा अभिमान नष्ट हो जाता है। यदि किसी प्रकार अनेकों कठिनाइयों का सामना करके वह मिल भी गया तो बलात् दूसरे लोग उसे छीन लेते हैं ॥ १० ॥

क्वचिच्च शीतातपवातवर्ष-

प्रतिक्रियां कर्तुमनीश आस्ते ।

क्वचिन्मिथो विपणन् यच्च किञ्चि-

द्विद्वेषमृच्छत्युत वित्तशाठ्यात् ॥ ११॥

कभी शीत, घाम, आँधी और वर्षा से अपनी रक्षा करने में असमर्थ हो जाता है। कभी आपस में थोड़ा-बहुत व्यापार करता है तो धन के लोभ से दूसरों को धोखा देकर उनसे वैर ठान लेता है ॥ ११ ॥

क्वचित्क्वचित्क्षीणधनस्तु तस्मिन्

शय्यासनस्थानविहारहीनः ।

याचन् परादप्रतिलब्धकामः

पारक्यदृष्टिर्लभतेऽवमानम् ॥ १२॥

कभी-कभी उस संसारवन में इसका धन नष्ट हो जाता है तो इसके पास शय्या, आसन, रहने के लिये स्थान और सैर-सपाटे के लिये सवारी आदि भी नहीं रहते। तब दूसरों से याचना करता है; माँगने पर भी दूसरे से जब उसे अभिलषित वस्तु नहीं मिलती, तब परायी वस्तुओं पर अनुचित दृष्टि रखने के कारण इसे बड़ा तिरस्कार सहना पड़ता है ॥ १२ ॥

अन्योन्यवित्तव्यतिषङ्गवृद्ध-

वैरानुबन्धो विवहन् मिथश्च ।

अध्वन्यमुष्मिन्नुरुकृच्छ्रवित्त-

बाधोपसर्गैर्विहरन् विपन्नः ॥ १३॥

इस प्रकार व्यावहारिक सम्बन्ध के कारण एक-दूसरे से द्वेषभाव बढ़ जाने पर भी वह वणिक्- समूह आपस में विवाहादि सम्बन्ध स्थापित करता है और फिर इस मार्ग में तरह- तरह के कष्ट और धनक्षय आदि संकटों को भोगते-भोगते मृतकवत् हो जाता है ॥ १३ ॥

तांस्तान् विपन्नान् स हि तत्र तत्र

विहाय जातं परिगृह्य सार्थः ।

आवर्ततेऽद्यापि न कश्चिदत्र

वीराध्वनः पारमुपैति योगम् ॥ १४॥

हे वीरवर ! साथियों में से जो-जो मरते जाते हैं, उन्हें जहाँ-का- तहाँ छोड़कर नवीन उत्पन्न हुओं को साथ लिये वह बनजारों का समूह बराबर आगे ही बढ़ता रहता है। उनमें से कोई भी प्राणी न तो आजतक वापस लौटा है और न किसी ने इस संकटपूर्ण मार्ग को पार करके परमानन्दमय योग की ही शरण ली है ॥ १४ ॥

मनस्विनो निर्जितदिग्गजेन्द्रा

ममेति सर्वे भुवि बद्धवैराः ।

मृधे शयीरन् न तु तद्व्रजन्ति

यन्न्यस्तदण्डो गतवैरोऽभियाति ॥ १५॥

जिन्होंने बड़े-बड़े दिक्पालों को जीत लिया है, वे धीर-वीर पुरुष भी पृथ्वी में 'यह मेरी है' ऐसा अभिमान करके आपस में वैर ठानकर संग्रामभूमि में जूझ जाते हैं तो भी उन्हें भगवान् विष्णु का वह अविनाशी पद नहीं मिलता, जो वैरहीन परमहंसों को प्राप्त होता है ॥ १५ ॥

प्रसज्जति क्वापि लता भुजाश्रय-

स्तदाश्रयाव्यक्तपदद्विजस्पृहः ।

क्वचित्कदाचिद्धरिचक्रतस्त्रसन्

सख्यं विधत्ते बककङ्कगृध्रैः ॥ १६॥

इस भवाटवी में भटकनेवाला यह बनिजारों का दल कभी किसी लता की डालियों का आश्रय लेता है और उस पर रहनेवाले मधुरभाषी पक्षियों के मोह में फँस जाता है। कभी सिंहों के समूह से भय मानकर बगुला, कंक और गिद्धों से प्रीति करता है ॥ १६ ॥

तैर्वञ्चितो हंसकुलं समाविश-

न्नरोचयन् शीलमुपैति वानरान् ।

तज्जातिरासेन सुनिर्वृतेन्द्रियः

परस्परोद्वीक्षणविस्मृतावधिः ॥ १७॥

जब उनसे धोखा उठाता है, तब हंसों की पंक्ति में प्रवेश करना चाहता है; किन्तु उसे उनका आचार नहीं सुहाता, इसलिये वानरों में मिलकर उनके जातिस्वभाव के अनुसार दाम्पत्य सुख में रत रहकर विषयभोगों से इन्द्रियों को तृप्त करता रहता है और एक-दूसरे का मुख देखते-देखते अपनी आयु की अवधि को भूल जाता है ॥ १७ ॥

द्रुमेषु रंस्यन् सुतदारवत्सलो

व्यवायदीनो विवशः स्वबन्धने ।

क्वचित्प्रमादाद्गिरिकन्दरे पतन्

वल्लीं गृहीत्वा गजभीत आस्थितः ॥ १८॥

वहाँ वृक्षों में क्रीडा करता हुआ पुत्र और स्त्री के स्नेहपाश में बँध जाता है। इसमें मैथुन की वासना इतनी बढ़ जाती है कि तरह-तरह के दुर्व्यवहारों से दीन होने पर भी यह विवश होकर अपने बन्धन को तोड़ने का साहस नहीं कर सकता। कभी असावधानी से पर्वत की गुफा में गिरने लगता है तो उसमें रहनेवाले हाथी से डरकर किसी लता के सहारे लटका रहता है ॥ १८ ॥

अतः कथञ्चित्स विमुक्त आपदः

पुनश्च सार्थं प्रविशत्यरिन्दम ।

अध्वन्यमुष्मिन्नजया निवेशितो

भ्रमञ्जनोऽद्यापि न वेद कश्चन ॥ १९॥

शत्रुदमन ! यदि किसी प्रकार इसे उस आपत्ति से छुटकारा मिल जाता है तो यह फिर अपने गोल में मिल जाता है। जो मनुष्य माया की प्रेरणा से एक बार इस मार्ग में पहुँच जाता है, उसे भटकते-भटकते अन्त तक अपने परम पुरुषार्थ का पता नहीं लगता ॥ १९ ॥

रहूगण त्वमपि ह्यध्वनोऽस्य

सन्न्यस्तदण्डः कृतभूतमैत्रः ।

असज्जितात्मा हरिसेवया शितं

ज्ञानासिमादाय तरातिपारम् ॥ २०॥

रहूगण! तुम भी इसी मार्ग में भटक रहे हो, इसलिये अब प्रजा को दण्ड देने का कार्य छोड़कर समस्त प्राणियों के सुहृद् हो जाओ और विषयों में अनासक्त होकर भगवत्सेवा से तीक्ष्ण किया हुआ ज्ञानरूप खड्ग लेकर इस मार्ग को पार कर लो ॥ २० ॥

राजोवाच

अहो नृजन्माखिलजन्मशोभनं

किं जन्मभिस्त्वपरैरप्यमुष्मिन् ।

न यद्धृषीकेशयशःकृतात्मनां

महात्मनां वः प्रचुरः समागमः ॥ २१॥

राजा रहूगण ने कहा अहो ! समस्त योनियों में यह मनुष्य जन्म ही श्रेष्ठ है। अन्यान्य लोकों में प्राप्त होनेवाले देवादि उत्कृष्ट जन्मों से भी क्या लाभ है, जहाँ भगवान् हृषीकेश के पवित्र यश से शुद्ध अन्तःकरणवाले आप- जैसे महात्माओं का अधिकाधिक समागम नहीं मिलता ॥ २१ ॥

न ह्यद्भुतं त्वच्चरणाब्जरेणुभि-

र्हतांहसो भक्तिरधोक्षजेऽमला ।

मौहूर्तिकाद्यस्य समागमाच्च मे

दुस्तर्कमूलोऽपहतोऽविवेकः ॥ २२॥

आपके चरणकमलों की रज का सेवन करने से जिनके सारे पाप- ताप नष्ट हो गये हैं, उन महानुभावों को भगवान्‌ की विशुद्ध भक्ति प्राप्त होना कोई विचित्र बात नहीं है । मेरा तो आपके दो घड़ी के सत्संग से ही सारा कुतर्कमूलक अज्ञान नष्ट हो गया है ॥ २२ ॥

नमो महद्भ्योऽस्तु नमः शिशुभ्यो

नमो युवभ्यो नम आवटुभ्यः ।

ये ब्राह्मणा गामवधूतलिङ्गा-

श्चरन्ति तेभ्यः शिवमस्तु राज्ञाम् ॥ २३॥

ब्रह्मज्ञानियों में जो वयोवृद्ध हों, उन्हें नमस्कार है; जो शिशु हों, उन्हें नमस्कार है; जो युवा हों, उन्हें नमस्कार है और जो क्रीडारत बालक हों, उन्हें भी नमस्कार है। जो ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण अवधूतवेष से पृथ्वी पर विचरते हैं, उनसे हम जैसे ऐश्वर्योन्मत्त राजाओं का कल्याण हो ॥ २३ ॥

श्रीशुक उवाच

इत्येवमुत्तरामातः स वै ब्रह्मर्षिसुतः

सिन्धुपतय आत्मसतत्त्वं विगणयतः

परानुभावः परमकारुणिकतयोपदिश्य

रहूगणेन सकरुणमभिवन्दितचरण

आपूर्णार्णव इव निभृतकरणोर्म्याशयो

धरणिमिमां विचचार ॥ २४॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंउत्तरानन्दन! इस प्रकार उन परम प्रभावशाली ब्रह्मर्षिपुत्र ने अपना अपमान करनेवाले सिन्धुनरेश रहूगण को भी अत्यन्त करुणावश आत्मतत्त्व का उपदेश दिया। तब राजा रहूगण ने दीनभाव से उनके चरणों की वन्दना की। फिर वे परिपूर्ण समुद्र के समान शान्तचित्त और उपरतेन्द्रिय होकर पृथ्वी पर विचरने लगे ॥ २४ ॥

सौवीरपतिरपि सुजनसमवगतपरमात्म-

सतत्त्व आत्मन्यविद्याध्यारोपितां च

देहात्ममतिं विससर्ज एवं हि नृप भगव-

दाश्रिताश्रितानुभावः ॥ २५॥

उनके सत्संग से परमात्मतत्त्व का ज्ञान पाकर सौवीरपति रहूगण ने भी अन्तःकरण में अविद्यावश आरोपित देहात्मबुद्धि को त्याग दिया। राजन्! जो लोग भगवदाश्रित अनन्य भक्तों की शरण ले लेते हैं, उनका ऐसा ही प्रभाव होता हैउनके पास अविद्या ठहर नहीं सकती ॥ २५ ॥

राजोवाच

यो ह वा इह बहुविदा महाभागवत

त्वयाभिहितः परोक्षेण वचसा जीवलोक-

भवाध्वा स ह्यार्य मनीषया कल्पितविषयो

नाञ्जसाव्युत्पन्नलोकसमधिगमः अथ

तदेवैतद्दुरवगमं समवेतानुकल्पेन

निर्दिश्यतामिति ॥ २६॥

राजा परीक्षित् ने कहा - [महाभागवत मुनिश्रेष्ठ!] आप परम विद्वान् हैं। आपने रूपकादि के द्वारा अप्रत्यक्षरूप से जीवों के जिस संसाररूप मार्ग का वर्णन किया है, उस विषय की कल्पना विवेकी पुरुषों की बुद्धि ने की है; वह अल्पबुद्धिवाले पुरुषों की समझ में सुगमता से नहीं आ सकता । अतः मेरी प्रार्थना है कि इस दुर्बोध विषय को रूपक का स्पष्टीकरण करनेवाले शब्दों से खोलकर समझाइये ॥ २६ ॥

॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे परमहंसगीतायां चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

आगे जारी........ परमहंस गीता अध्याय 5

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