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कर्मकाण्ड

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परमहंस गीता अध्याय ३

परमहंस गीता अध्याय ३   

परमहंस गीता श्रीमद्भागवतमहापुराण के पंचम स्कन्ध के १२ अन्तर्गत इस अध्याय ३ में रहूगण का प्रश्न और भरतजी का समाधान का वर्णन है।

परमहंस गीता अध्याय ३

परमहंसगीता अध्याय ३  

Paramahans geeta

परमहंस गीता तीसरा अध्याय

रहूगण का प्रश्न और भरतजी का समाधान

परमहंस गीता तृतीयोऽध्यायः

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।

॥ तृतीयोऽध्यायः ॥

रहूगण उवाच

नमो नमः कारणविग्रहाय

स्वरूपतुच्छीकृतविग्रहाय ।

नमोऽवधूतद्विजबन्धुलिङ्ग-

निगूढनित्यानुभवाय तुभ्यम् ॥ १॥

राजा रहूगण ने कहा हे योगेश्वर ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आपने जगत्का उद्धार करने के लिये ही यह देह धारण की है। अपने परमानन्दमय स्वरूप का अनुभव करके आप इस स्थूलशरीर से उदासीन हो गये हैं तथा एक जड ब्राह्मण के वेष से अपने नित्यज्ञानमय स्वरूप को जनसाधारण की दृष्टि से ओझल किये हुए हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥

ज्वरामयार्तस्य यथागदं

सन्निदाघदग्धस्य यथा हिमाम्भः ।

कुदेहमानाहिविदष्टदृष्टे-

र्ब्रह्मन्वचस्तेऽमृतमौषधं मे ॥ २॥

हे ब्रह्मन् ! जिस प्रकार ज्वर से पीड़ित रोगी के लिये मीठी ओषधि और धूप से तपे हुए पुरुष के लिये शीतल जल अमृततुल्य होता है, उसी प्रकार मेरे लिये, जिसकी विवेकबुद्धि को देहाभिमानरूप विषैले सर्प ने डस लिया है, आपके वचन अमृतमय ओषधि के समान हैं ॥ २ ॥

तस्माद्भवन्तं मम संशयार्थं

प्रक्ष्यामि पश्चादधुना सुबोधम् ।

अध्यात्मयोगग्रथितं तवोक्त-

माख्याहि कौतूहलचेतसो मे ॥ ३॥

इसलिये मैं आपसे अपने संशयों की निवृत्ति तो पीछे कराऊँगा । पहले तो इस समय आपने जो अध्यात्मयोगमय उपदेश दिया है, उसी को सरल करके समझाइये, उसे समझने की मुझे बड़ी उत्कण्ठा है ॥ ३ ॥

यदाह योगेश्वर दृश्यमानं

क्रियाफलं सद्व्यवहारमूलम् ।

न ह्यञ्जसा तत्त्वविमर्शनाय

भवानमुष्मिन् भ्रमते मनो मे ॥ ४॥

हे योगेश्वर ! आपने जो यह कहा कि भार उठाने की क्रिया तथा उससे जो श्रमरूप फल होता है, वे दोनों ही प्रत्यक्ष होने पर भी केवल व्यवहारमूल के ही हैं, वास्तव में सत्य नहीं है- वे तत्त्वविचार के सामने कुछ भी नहीं ठहरते- सो इस विषय में मेरा मन चक्कर खा रहा है, आपके इस कथन का मर्म मेरी समझ में नहीं आ रहा है ॥४॥

ब्राह्मण उवाच

अयं जनो नाम चलन् पृथिव्यां

यः पार्थिवः पार्थिव कस्य हेतोः ।

तस्यापि चाङ्घ्र्योरधिगुल्फजङ्घा-

जानूरुमध्योरशिरोधरांसाः ॥ ५॥

जडभरत ने कहा- हे पृथ्वीपते ! यह देह पृथ्वी का विकार है, पाषाणादि से इसका क्या भेद है? जब यह किसी कारण से पृथ्वी पर चलने लगता है, तब इसके भारवाही आदि नाम पड़ जाते हैं। इसके दो चरण हैं; उनके ऊपर क्रमशः टखने, पिंडली, घुटने, जाँघ, कमर, वक्षःस्थल, गर्दन और कंधे आदि अंग हैं ॥ ५ ॥

अंसेऽधि दार्वी शिबिका च यस्यां

सौवीरराजेत्यपदेश आस्ते ।

यस्मिन् भवान् रूढनिजाभिमानो

राजास्मि सिन्धुष्विति दुर्मदान्धः ॥ ६॥

कंधों के ऊपर लकड़ी की पालकी रखी हुई है; उसमें भी सौवीरराज नाम का एक पार्थिव विकार ही है, जिसमें आत्मबुद्धिरूप अभिमान करने से तुम 'मैं सिन्धुदेश का राजा हूँ' इस प्रबल मद से अंधे हो रहे हो ॥ ६ ॥

शोच्यानिमांस्त्वमधिकष्टदीनान्

विष्ट्या निगृह्णन् निरनुग्रहोऽसि ।

जनस्य गोप्तास्मि विकत्थमानो

न शोभसे वृद्धसभासु धृष्टः ॥ ७॥

किन्तु इसी से तुम्हारी कोई श्रेष्ठता सिद्ध नहीं होती, वास्तव में तो तुम बड़े क्रूर और धृष्ट ही हो। तुमने इन बेचारे दीन-दुखिया कहारों को बेगार में पकड़कर पालकी में जोत रखा है और फिर महापुरुषों की सभा में बढ़-बढ़कर बातें बनाते हो कि मैं लोकों की रक्षा करनेवाला हूँ। यह तुम्हें शोभा नहीं देता ॥ ७ ॥

यदा क्षितावेव चराचरस्य

विदाम निष्ठां प्रभवं च नित्यम् ।

तन्नामतोऽन्यद्व्यवहारमूलं

निरूप्यतां सत्क्रिययानुमेयम् ॥ ८॥

हम देखते हैं कि सम्पूर्ण चराचर भूत सर्वदा पृथ्वी से ही उत्पन्न होते हैं और पृथ्वी में ही लीन होते हैं; अतः उनके क्रियाभेद के कारण जो अलग-अलग नाम पड़ गये हैं- बताओ तो, उनके सिवा व्यवहार का और क्या मूल है? ॥ ८ ॥

एवं निरुक्तं क्षितिशब्दवृत्त

मसन्निधानात्परमाणवो ये ।

अविद्यया मनसा कल्पितास्ते

येषां समूहेन कृतो विशेषः ॥ ९॥

इस प्रकार 'पृथ्वी' शब्द का व्यवहार भी मिथ्या ही है; वास्तविक नहीं है; क्योंकि यह अपने उपादानकारण सूक्ष्म परमाणुओं में लीन हो जाती है। और जिनके मिलने से पृथ्वीरूप कार्य की सिद्धि होती है, वे परमाणु अविद्यावश मन से ही कल्पना किये हुए हैं। वास्तव में उनकी भी सत्ता नहीं है ॥ ९ ॥

एवं कृशं स्थूलमणुर्बृहद्यदसच्च

सज्जीवमजीवमन्यत् ।

द्रव्यस्वभावाशयकालकर्म-

नाम्नाजयावेहि कृतं द्वितीयम् ॥ १०॥

इसी प्रकार और भी जो कुछ पतला-मोटा, छोटा-बड़ा, कार्य-कारण तथा चेतन और अचेतन आदि गुणों से युक्त द्वैत-प्रपंच है- उसे भी द्रव्य, स्वभाव, आशय, काल और कर्म आदि नामोंवाली भगवान्की माया का ही कार्य समझो ॥ १० ॥

ज्ञानं विशुद्धं परमार्थमेक-

मनन्तरं त्वबहिर्ब्रह्म सत्यम् ।

प्रत्यक्प्रशान्तं भगवच्छब्दसंज्ञं

यद्वासुदेवं कवयो वदन्ति ॥ ११॥

विशुद्ध परमार्थरूप, अद्वितीय तथा भीतर-बाहर के भेद से रहित परिपूर्ण ज्ञान ही सत्य वस्तु है। वह सर्वान्तर्वर्ती और सर्वथा निर्विकार है। उसी का नाम 'भगवान्' है और उसी को पण्डितजन 'वासुदेव' कहते हैं ॥ ११ ॥

रहूगणैतत्तपसा न याति

न चेज्यया निर्वपणाद्गृहाद्वा ।

न छन्दसा नैव जलाग्निसूर्यैर्विना

महत्पादरजोऽभिषेकम् ॥ १२॥

हे रहूगण ! महापुरुषों के चरणों की धूलि से अपने को नहलाये बिना केवल तप, यज्ञादि वैदिक कर्म, अन्नादि के दान, अतिथिसेवा, दीनसेवा आदि गृहस्थोचित धर्मानुष्ठान, वेदाध्ययन अथवा जल, अग्नि या सूर्य की उपासना आदि किसी भी साधन से यह परमात्मज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता ॥ १२ ॥

यत्रोत्तमश्लोकगुणानुवादः

प्रस्तूयते ग्राम्यकथाविघातः ।

निषेव्यमाणोऽनुदिनं मुमुक्षोर्मतिं

सतीं यच्छति वासुदेवे ॥ १३॥

इसका कारण यह है कि महापुरुषों के समाज में सदा पवित्रकीर्ति श्रीहरि के गुणों की चर्चा होती रहती है, जिससे विषयवार्ता तो पास ही नहीं फटकने पाती। और जब भगवत्कथा का नित्यप्रति सेवन किया जाता है, तब वह मोक्षाकांक्षी पुरुष की शुद्ध बुद्धि को भगवान् वासुदेव में लगा देती है ॥ १३ ॥

अहं पुरा भरतो नाम राजा

विमुक्तदृष्टश्रुतसङ्गबन्धः ।

आराधनं भगवत ईहमानो

मृगोऽभवं मृगसङ्गाद्धतार्थः ॥ १४॥

पूर्वजन्म में मैं भरत नाम का राजा था। ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों से विरक्त होकर भगवान्‌ की आराधना में ही लगा रहता था; तो भी एक मृग में आसक्ति हो जाने से मुझे परमार्थ से भ्रष्ट होकर अगले जन्म में मृग बनना पड़ा ॥ १४ ॥

सा मां स्मृतिर्मृगदेहेऽपि वीर

कृष्णार्चनप्रभवा नो जहाति ।

अथो अहं जनसङ्गादसङ्गो

विशङ्कमानोऽविवृतश्चरामि ॥ १५॥

वीर ! भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना के प्रभाव से उस मृगयोनि में भी मेरी पूर्वजन्म की स्मृति लुप्त नहीं हुई । इसी से अब मैं जनसंसर्ग से डरकर सर्वदा असंगभाव से गुप्तरूप से ही विचरता रहता हूँ ॥ १५ ॥

तस्मान्नरोऽसङ्गसुसङ्गजात-

ज्ञानासिनेहैव विवृक्णमोहः ।

हरिं तदीहाकथनश्रुताभ्यां

लब्धस्मृतिर्यात्यतिपारमध्वनः ॥ १६॥

इसलिये विरक्त महापुरुषों के सत्संग से प्राप्त ज्ञानरूप खड्ग के द्वारा मनुष्य को इस लोक में ही अपने मोहबन्धन को काट डालना चाहिये । फिर श्रीहरि की लीलाओं के कथन और श्रवण से भगवत्स्मृति बनी रहने के कारण वह सुगमता से ही संसारमार्ग को पार करके भगवान्‌ को प्राप्त कर सकता है ॥ १६ ॥

॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे परमहंसगीतायां तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

आगे जारी........ परमहंस गीता अध्याय 4

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